Author : Soumya Bhowmick

Published on Mar 15, 2019 Updated 0 Hours ago

यह जिम्मेवारी अब वैश्विक समुदाय के कंधों पर है कि वह सुनिश्चित करे कि फैशन की दुनिया में आ रहे उत्पाद बिना बहुत महंगे किए ही पर्यावरण अनुकूल भी हों।

पर्यावरण का दुश्मन बन रहा ‘फास्ट फैशन’

आम तौर पर हम कहीं दूर-दराज हो रहे खनन, निर्माण इकाइयों या बिजली उद्योग जैसे कारकों को ही प्रदूषण से जोड़ते हैं लेकिन ऐसा करते समय अक्सर हम शॉपिंग मॉल में मौजूद किसी व्यक्ति या खुद अपने आप को भूल जाते हैं, जो पुराने कपड़ों को कबाड़ में डाल कर नए के लिए निकल पड़ते हैं। सच्चाई यह है कि आज फैशन और वस्त्र उद्योग का प्रभाव बेहद चिंताजनक हो गया है। तेल के बाद यह अब दुनिया की सबसे ज्यादा गंदगी वाला उद्योग बन गया है।

फैशन के कारोबार में उत्पादन, कच्चे माल, वस्त्र निर्माण, परिवहन, बिक्री और अंत में उसे फेंक दिए जाने की लंबी श्रृंखला शामिल होती है। इस प्रक्रिया के प्रत्येक चरण में बड़ी मात्रा में पानी की बर्बादी होती है। साथ ही खतरनाक और जहरीले रसायनों का इस्तेमाल होता है। वैश्विक स्तर पर कपड़ों की डाइ का कारोबार साफ पानी को प्रदूषित करने के लिहाज से कृषि के बाद दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है। इस उद्योग में उपयोग होने वाले धागों में सबसे लोकप्रिय और कम लागत वाला पोलिस्टर है जो धोने पर माइक्रोफाइबर छोड़ता है। यह हमारे समुद्रों में प्लास्टिक की मात्रा को बढ़ाता है। इस वजह से समुद्री जल जीवन खतरे में पड़ रहा है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दुनिया भर में पैदा किया जा रहा कपास जेनेटिकली मोडिफाइड कर सामान्य कीटनाशकों के प्रति रेजिस्टेंट बना दिया गया है, इसलिए इनमें और अधिक जहरीले कीटनाशकों का उपयोग करना होता है। इसके गंभीर पर्यावरणीय खतरों को अरल सागर के सूखने और इस पर निर्भर रहने वाले मछुआरों के बर्बाद होने में आसानी से देखा और समझा जा सकता है। उजबेकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान में कपास की सिंचाई की जरूरतों को पूरा करने के लिए मध्य एशिया में नदियों का बंटवारा इसकी मुख्य वजह बना है।

फैशन कारोबार — पर्यावरण का दुश्मन

फास्ट फैशन का नवीनतम ट्रेंड, जिसमें कैटवाक लुक और सेलिब्रिटी से प्रभावित हो कर फटाफट नए कलेक्शन उतारे जाते हैं, पर्यावरण का सबसे अहम दुश्मन बन रहा है। आज औसत ग्राहक पहले के मुकाबले काफी अधिक कपड़े खरीद रहा है तो इसकी वजह लगातार तेजी से बढ़ता उपभोक्तावाद और वैश्विक होता बाजार का ढांचा है। साथ ही आज ग्राहक अपने कपड़ों को पहले के मुकाबले आधे समय ही उपयोग करता है।

फास्ट फैशन का यह चलन पश्चिम में शुरू हुआ और अब पूरी दुनिया में यह लोकप्रिय हो चुका है। पिछले कुछ वर्षों में पश्चिम की उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव और यूरो केंद्रित विचार ने दूसरे देशों को अपने प्रभाव में लिया है। इनमें विकिसशील देश और भारत जैसे बड़े बाजार खास तौर पर शामिल हैं।

आज, उपभोक्तावाद और वैश्विक होते बाजार के ढांचे के प्रभाव में औसत ग्राहक ना सिर्फ पहले से अधिक कपड़े खरीद रह है, बल्कि उन्हें पहले के मुकाबले आधे समय ही उनका उपयोग कर रहा है।

इसी तरह, भारत, बांग्लादेश, वियतनाम और पाकिस्तान जैसे विकासशील देशों में तैयार किए जा रहे अधिकांश फैशन गारमेंट को दूर-दराज के बाजारों में पहुंचा दिया जाता है, ताकि बड़े स्तर पर उनका उपयोग हो सके। ऐसे देश इसकी अधिकतम कीमत देते हैं और इन जगहों को सस्ते मजदूर और बड़े फैशन उद्योग के लिए तो उपयोग करते ही हैं साथ ही अपने कबाड़ को यहां पटकने के लिए भी इनका उपयोग करते हैं।

फैशन उद्योग और गंदा पानी

फास्ट फैशन के लगातार लोकप्रिय होने और वैश्विक स्तर पर इसके छाने के साथ बड़े ब्रांड अपने उत्पादन को काफी बढ़ा रहे हैं। फैशन उद्योग हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर गंभीर दबाव डाल रहे हैं। इनमें भी सबसे प्रमुख है पानी। इंडोनेशिया में सिटरम नदी और इसके पास बसी मानवीय बस्तियों व वन्य जीवों को वस्त्र उद्योग ने काफी गंभीरता से प्रभावित किया है। इसी तरह तमिलनाडु में त्रिरुपुर जिले में वस्त्र उद्योग प्रदूषण का एक बड़ा स्रोत बन गया है और इस क्षेत्र में कृषि को पूरी तरह से नष्ट करने में इसकी बड़ी भूमिका हो गई है।

यूनाइटेड नेशन इकनोमिक कमीशन फॉर यूरोप (यूएनईसीई) के मुताबिक 2.5 खरब अमेरिकी डॉलर का फैशन कारोबार दुनिया भर में पानी का सबसे अधिक उपयोग करने वाले उद्योगों में शामिल हो गया है। साथ ही दुनिया भर में प्रदूषित जल का 20 फीसदी हिस्सा सिर्फ इसी की वजह से होता है।

इसके अतिरिक्त, फैशन कारोबार से होने वाले कार्बन डायऑक्साइड गैस के उत्सर्जन में 60 फीसदी की रफ्तार से बढ़ोतरी होने की उम्मीद है। इस तरह यह 2030 तक 2.8 अरब टन प्रति वर्ष तक पहुंच जाएगा। फास्ट फैशन की वजह से पोलिस्टर और नायलॉन का उत्पादन बढ़ रहा है। साथ ही यह पर्यावरण में ग्रीनहाउस गैसों को छोड़ते है जो ग्लोबल वार्मिंग में कार्बन डायऑक्साइड से भी 300 गुना अधिक योगदान करता है। इसी तरह कपड़ों के डाय करने में इन दिनों जो रसायन बेहद लोकप्रिय हो रहा है, वह है नोनीफेनोल एथोसेलेट (एनपीई)। एनपीई को हालांकि यूरोपीय संघ में प्रतिबंधित कर दिया गया है, लेकिन अमेरिका में आयातित होने वाले कपड़ों में यह टनों की तादाद में पाया जा सकता है। यह गर्भवती महिलाओं में स्तन कैंसर और प्लेसेंटा को नुकसान जैसे विभिन्न जटिलताओं का कारण बन सकता है।

फैशन उद्योग की ओर से उत्सर्जित कार्बन डायऑक्साइड के 60 फीसदी की रफ्तार से बढ़ने की आशंका है और यह वर्ष 2030 तक बढ़ कर 2.8 अरब टन वार्षिक हो जाएगा।

अपर्याप्त मूल्य और श्रमिकों का शोषण

1 मार्च 2018 को जेनेवा में ‘फैशन एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स: व्हाट रोल फॉर द यूएन?’ नाम के कार्यक्रम में यूएनईसीई ने आगाह किया कि फैशन कारोबार जिस तरह सस्ते और डिस्पोजेबल कपड़ों का बड़ी मात्रा में उपयोग किया जा रहा है वह एक ‘पर्यावरण और सामाजिक आपातकाल’ दर्शाता है।

उत्पादन के क्षेत्र में अच्छी प्रक्रिया के अभाव, विकासशील देशों में ठेकों पर लिए गए मजदूरों के भारी शोषण और पूंजी-अनुकूल श्रम कानून की मदद से फैशन कंपनियां सस्ती कीमत पर बड़ी तादाद में कपड़ों का उत्पादन कर पा रही हैं।

इस फास्ट फैशन चलन के उपभोक्ताओं को अक्सर इस बात का आभास नहीं होता कि इस उद्योग के साथ न सिर्फ श्रमिकों का शोषण करने वाली परिस्थितियां जुड़ी हैं, बल्कि महिलाओं के साथ अन्याय करने वाले और पर्यारवण को नुकसान पहुंचाने वाले उत्पादन के तौर-तरीके भी इसके साथ जुड़े हैं।

यह जिम्मेवारी अब वैश्विक समुदाय के कंधों पर है कि वह सुनिश्चित करे कि फैशन की दुनिया में आ रहे उत्पाद बिना बहुत महंगे किए पर्यावरण के अनुकूल भी हों। सहज पूंजी आकलन, कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के दायरे में कड़े कानून व दिशानिर्देश और नागरिक सामाजिक आंदोलनों के जरिए इसे हासिल किया जा सकता है। साथ ही इन उत्पादों के पर्यावरण और सामाजिक प्रभाव को न्यूनतम भी किया जा सकता है।


यह टिप्पणी मूल रूप से The Quint में प्रकाशित हो चुका है।

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