वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट ऑस्कर वाइल्ड की उत्कृष्ट लघुकथा द हैपी प्रिंस की याद दिलाती है. इस कहानी का राजकुमार कभी अपने राजमहल से बाहर नहीं निकला था, इसलिए उसने कभी भी सच्चे दु:ख का अनुभव नहीं किया था. इस कहानी और रिपोर्ट के बीच की ये समानता समझना कोई मुश्किल काम नहीं है; ये रिपोर्ट विकासशील और ग़रीब देशों की हक़ीक़त से बहुत दूर है और स्पष्ट रूप से पश्चिमी देशों के ‘ख़ुश होने’ की परिभाषा पर आधारित है. ये सालाना रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास के समाधान नेटवर्क (SDSN) द्वारा तैयार की जाती है और गैलप वर्ल्ड पोल डेटा पर आधारित होती है, जो देशों के ‘प्रसन्नता’ के स्तर के आधार पर उनको श्रेणीबद्ध करती है. बहुत से लोगों ने इस रिपोर्ट की आलोचना की है और उसके भी बहुत से वाजिब कारण हैं. मिसाल के तौर पर विश्व प्रसन्नता सूचकांक (WHI) के तौर-तरीक़ों को लेकर UCLA की एक रिपोर्ट आई है, जिसका शीर्षक ‘प्रसन्नता के सूचकांक की अप्रसन्न तलाश’ है. इस रिपोर्ट में वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट को तैयार करने के कई तौर-तरीक़ों पर सवाल खड़े किए गए हैं. इन कमियों का नतीजा, ख़ुशी मापने में पूर्वाग्राह और फिर अर्थव्यवस्थाओं की रैंकिंग में पक्षपात के रूप में सामने आया है. इस लेख में हम हैप्पीनेस रिपोर्ट की मुख्य परिकल्पना से अलग उन सात बिंदुओं की चर्चा कर रहे हैं जिनका नतीजा पूर्व निर्मित पूर्वाग्रह के रूप में सामने आया है, और जिससे देशों के वर्गीकरण की इस पूरी प्रक्रिया का पलड़ा विकसित देशों के पक्ष में झुक गया है.
ये सालाना रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास के समाधान नेटवर्क (SDSN) द्वारा तैयार की जाती है और गैलप वर्ल्ड पोल डेटा पर आधारित होती है, जो देशों के ‘प्रसन्नता’ के स्तर के आधार पर उनको श्रेणीबद्ध करती है.
मुख्य परिकल्पना से हटने वाले सात बिंदु
पहला अंतर तो उस सांस्कृतिक पूर्वाग्रह से जुड़ा है जो ख़ुशी को अक्सर विकासशील और कम विकसित देशों पर लागू नहीं होता है. सर्वेक्षण के सवाल ख़ुशी को लेकर पश्चिमी देशों की परिकल्पनाओं के प्रति कुछ अधिक ही पक्षपातपूर्ण हैं, जो शायद अन्य संस्कृतियों पर लागू नहीं होते. उदाहरण के तौर पर, सर्वेक्षण में पूछा गया है कि, ‘क्या आप कल ख़ूब हंसे या मुस्कुराए थे?’ हालांकि, ऐसा भी हो सकता है कि कुछ ख़ास संस्कृतियों के एक तबक़े के लोग ख़ुश होने पर ‘ज़्यादा हंसते या मुस्कुराते नहीं होंगे.’ इससे ये प्रक्रिया सांस्कृतिक रूप से पूर्वाग्रह से ग्रसित हो जाती है. इसके अलावा, भारत जैसे विविधतापूर्ण देश, जहां इतनी अधिक अलग अलग संस्कृतियां हैं, वहां सर्वेक्षण में इन सांस्कृतिक समूहों के उचित प्रतिनिधित्व के लिए पर्याप्त उपाय किए ही जाने चाहिए. लेकिन, हैप्पीनेस रिपोर्ट तैयार करने के दौरान ऐसा नहीं हुआ. इसीलिए, ख़ुशी की बर्ताव संबंधी परिभाषा के मामले में ‘संस्कृति’ विवाद का एक बड़ा मुद्दा है. इस मुद्दे को सुलझाने के लिए सर्वेक्षण के सवालों को इस तरह तैयार किया जाना चाहिए जिससे अलग अलग देशों के सांस्कृतिक मूल्यों की झलक बेहतर ढंग से दिखाई दे सके. पूर्व में अनिरुद्ध कृष्ण ने विकास की अपनी परिभाषा में इस बात की तरफ़ इशारा किया था, जहां वो ‘प्रगति के चरणों’ (SOP) की बात करते हैं. जहां तक पश्चिमी देशों की विकास और ग़रीबी की परिभाषाएं, उनके अपने मानकों के हिसाब से एक ख़ास खांचे में बंधी हुई हैं. वहीं, अनिरुद्ध कृष्ण का तरीक़ा साफ़ दिखाता है कि विकास की ज़रूरतों को सामुदायिक नज़रिए से देखे जाने की आवश्यकता है. यही बात ‘प्रसन्नता’ पर भी लागू होती है. इसीलिए ‘ख़ुशी’ की परिभाषा का सिर्फ़ एक मानक बनाना सांस्कृतिक विविधताओं का सम्मान करने की भावना के ख़िलाफ़ जाता है.
मतभेद का दूसरा बिंदु, प्रतिक्रिया के प्रति पूर्वाग्रह के रूप में छुपा है, जो अलग अलग रूप में सामने आ सकता है. ये रिपोर्ट ख़ुद से बताए गए आंकड़ों पर आधारित है, जो पूर्वाग्रह और ग़लती के शिकार हो सकते हैं. सोच पर आधारित बहुत से सर्वेक्षण, अक्सर इस पूर्वाग्रह से संतुलन बिठाने के लिए कोई भी ख़लल डालने वाली बात शामिल कर लेते हैं. हालांकि, अगर सवाल खुला रखा जाता है, तो व्यक्तियों के हिसाब से प्रतिक्रिया के पूर्वाग्रह निकलने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. हैप्पीनेस रिपोर्ट में ठीक यही हुआ है. मिसाल के तौर पर, सर्वेक्षण में पूछा जाता है कि- ‘क्या आपने गुज़रे हुए कल के दौरान इनमें से कई एहसास दिन में कई बार महसूस किए? मज़े लेने के बारे में क्या ख़्याल है?’ इस सवाल के जवाब में कोई इंसान आख़िर किस तरह से निरपेक्ष जवाब हासिल कर सकता है, जो ख़ुद को इस तरह के सवालों के प्रति पक्षपातपूर्ण बनाने से रोक सके? निश्चित रूप से ऐसी सोचों के आधार पर कोई सूचकांक तैयार करना बिल्कुल ग़लत है, जिन सवालों के जवाब कुछ भी हो सकते हैं. इससे भी बड़ी कमी, ऐसे ग़लत आकलन के आधार पर किसी नतीजे तक पहुंचने की होती है. वैसे तो ये सूचकांक, ख़ुशी मापने के और निरपेक्ष उपाय, जैसे कि सामाजिक और आर्थिक बेहतरी के उपायों को अपनी प्रक्रिया में शामिल कर सकता है. मगर उसने ऐसा किया नहीं है.
जिन देशों की अर्थव्यवस्था अधिक ताक़तवर है, और उनके पास राजनीतिक शक्ति भी है, वो आम तौर पर इस सूचकांक में ऊंचे दर्जे पर रहते हैं, जो शायद उनके नागरिकों के ख़ुशी के स्तर की ठीक से नुमाइंदगी न करते हों.
तीसरा, हम नमूनों के मामले में पक्षपात को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं. ये रिपोर्ट हर देश में कुछ व्यक्तियों के सर्वेक्षण पर आधारित है. लेकिन, इसके सैंपल का आकार तुलनात्मक रूप से बहुत छोटा है. इससे पूर्वाग्रह भरे नतीजे निकल सकते हैं. ख़ास तौर से बड़ी आबादी वाले देशों में. हैप्पीनेस रिपोर्ट कहती है कि ये सबसे बड़े उपलब्ध नमूने को अपना आधार बनाती है. लेकिन, उसे ये साफ़ करना होगा कि क्या इकट्ठा किया गया नमूना बिना पक्षपात के ख़ुशी का एक ठोस सूचकांक बनाने में मददगार साबित हो सकता है. विविधताओं वाले एक बड़े देश में, व्यापक स्तर पर फैली हुई सोच का पता लगाने के लिए अलग अलग वर्गों के बीच जाकर उनके नमूनों को हासिल करने की प्रक्रिया अपनाना ज़रूरी होता है. भारत जैसा जटिल और विविधता भरे देश की तुलना सेशेल्स जैसे छोटे से द्वीपीय देश से तब तक नहीं की जा सकती है, जब तक नमूनों का आकार उचित, सबको शामिल करने वाला और पर्याप्त न हो.
मतभेद का चौथा बिंदु हर साल इसकी प्रक्रिया में आने वाला बदलाव है, जिसके कारण पिछले वर्षों से इस साल के नतीजों की तुलना करना लगभग असंभव हो जाता है. मिसाल के तौर पर 2023 की रिपोर्ट में एक नए पैमाने संस्थागत विश्वास को आधार बनाया गया है, जो 2020 रिपोर्ट में था ही नहीं. इससे अलग अलग वर्षों के दौरान हैप्पीनेस रिपोर्ट के नतीजों की तुलना करना संभव नहीं रह जाता है. एक विशेष स्तर की समानता बनाए रखने के लिए हैप्पीनेस रिपोर्ट को चाहिए कि वो लंबे समय तक रिपोर्ट तैयार करने की प्रक्रिया को एक समान रखे, या कम से कम अलग अलग वर्षों की रिपोर्ट के बीच तुलना के लिए दिशा-निर्देश जारी करे.
पांचवां, ये पूरा विश्लेषण उन भू-राजनीतिक कारकों को रिपोर्ट में ज़ाहिर होने से रोक पाने में नाकाम रहा है, जो तुलनात्मक स्थिर रूप-रेखा में घुस आए हैं और इसी वजह से विश्लेषण में पूर्वाग्रह की एक और परत जुट गई है. जिन देशों की अर्थव्यवस्था अधिक ताक़तवर है, और उनके पास राजनीतिक शक्ति भी है, वो आम तौर पर इस सूचकांक में ऊंचे दर्जे पर रहते हैं, जो शायद उनके नागरिकों के ख़ुशी के स्तर की ठीक से नुमाइंदगी न करते हों. सूचकांकों को चाहिए कि वो किसी देश में संपत्ति के वितरण को लेकर भी पड़ताल करे, जिससे पूरे देश में ख़ुशी को लेकर वो असमानताएं समझ में आएं, जो देश के सभी नागरिकों के अनुभवों को अपने नतीजे में शामिल करते हैं. ये सूचकांक ख़ुशी मापने के लिए सीमित कारकों के भरोसे चलता है. सूचकांक तैयार करने के दौरान रोजग़ार की सुरक्षा, सामाजिक आवाजाही, आमदनी की असमानताएं, शिक्षा तक पहुंच और स्वास्थ्य क्षेत्र में उठाए गए व्यापक उपायों की अनदेखी कर दी जाती है. इससे ख़ुशी को परिभाषित करने वाले कारकों को अक्सर अपू्र्ण और अक्सर ग़लत तरीके से पेश किया जाता है और इससे ग़लत नतीजे निकल सकते हैं, जो कुछ ख़ास देशों के प्रति पक्षपात भरे हों.
छठा, इस रिपोर्ट की सबसे बड़ी कमी ये है कि ये आकांक्षाओं को ‘अप्रसन्नता’ के रूप में पेश करती है. विकासशील दुनिया निश्चित रूप से अधिक आकांक्षा वाली होगी और ऐसा होना उसका हक़ है. हालांकि, इसका ये मतलब नहीं कि वो ‘नाख़ुश’ है. यूरोप के कई हिस्सों में विकास में गिरावट के दर्शन को उनकी सभ्यता के अगले स्तर के तौर पर देखा जा सकता है. ये विकास के मौजूदा पथ से सिकुड़ने की राह में आगे बढ़ना है. क्या इसे ‘असंतुष्टि’ के तौर पर दिखाया जाना चाहिए या फिर इसे ‘ज़रूरत से ज़्यादा संतोष’ की नज़र से देखा जाना चाहिए?
सातवां, इस रिपोर्ट से नदारद आंकड़ों के प्रति बर्ताव को लेकर हमेशा ही दो आधारों पर सवाल उठाए जा सकते हैं: (क) प्रतिगमन के मॉडल से अनुमानित मूल्यों का उपयोग करके ग़ायब मूल्यों का हिसाब लगाने का मतलब ये है कि सभी देशों में कारकों के बीच संबंध सुसंगत हैं, जो हमेशा ही सही हों, ये संभव नहीं, और (b) लापता मूल्यों को लागू करने के लिए समय की श्रृंखला के आंकड़ों का बहिर्वेशन करना ये मानना है कि जैसा पूर्व में था वैसा ही रुझान आगे भी जारी रहेगा. जो हमेशा सही नहीं हो सकता. चूंकि, इस रिपोर्ट तैयार करने वालों ने देशों की रैंकिंग तैयार करने के लिए आरोपित मूल्यों का ही इस्तेमाल किया है. लेकिन, इसमें हमेशा ये जोख़िम बना रहता है कि आरोपित प्रक्रियाएं विश्लेषण में गड़बड़ी या पूर्वाग्रह को जगह दे सकती हैं. ये कारक, आरोपित प्रक्रिया की और सघन जांच की ज़रूरत दिखाते हैं और पूरी की पूरी रैंकिंग पर भी सवाल उठाते हैं.
सच तो ये है कि इस दुनिया में इकलौता ऐसा देश जो विकास या राजनीतिक दख़लंदाज़ी के सभी पैमानों के आधार पर सामूहिक राष्ट्रीय प्रसन्नता निकालता है, वो भूटान है. जबकि इस सूची में वो है ही नहीं.
ऐसे में, ये रिपोर्ट कौन से मक़सद पूरे करती है? हमारे लिए तो शायद कुछ भी नहीं. सच तो ये है कि इस दुनिया में इकलौता ऐसा देश जो विकास या राजनीतिक दख़लंदाज़ी के सभी पैमानों के आधार पर सामूहिक राष्ट्रीय प्रसन्नता निकालता है, वो भूटान है. जबकि इस सूची में वो है ही नहीं. निश्चित रूप से भूटान में ख़ुशी के पैमाने और हैप्पीनेस रिपोर्ट की ख़ुशी के पैमाने अलग-अलग हैं. इससे वही पुराना सवाल खड़ा होता है: क्या इस प्रक्रिया का कोई उपयोग है? क्या ये रिपोर्ट हक़ीक़त दिखाती है? या फिर ये रिपोर्ट, विकसित देशों को विकासशील देशों से बेहतर दिखाने की एक और कोशिश भर है, जो उनके अपने पैमानों पर ही आधारित है? अगर सच यही है, तो कम से कम एक बार के लिए ही सही, लेकिन प्रसन्नता को विकासशील देशों के नज़रिए से देखा जाए, और तब हम देखते हैं कि कौन कितने पानी में है.
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