Published on Jul 24, 2017 Commentaries 3 Days ago

भारत में निर्वाचन आयोग की महत्वपूर्ण भूमिका है, क्या आयोग की अवमानना करने पर दंड देने का अधिकार भी आयोग को दे देना चाहिए?

क्यों हास्यास्पद है निर्वाचन आयोग की अवमानना अधिकारों की मांग?

हाल ही में, भारतीय निर्वाचन आयोग (ईसीआई) ने कानून एवं न्याय मंत्रालय को लिखे एक पत्र में न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 में तत्काल संशोधन की मांग की, ताकि उसे अपने प्रभुत्व या अथॉरिटी के प्रति अवज्ञा (हठी) या अभद्र रुख अख्तियार करने वाले को दंडित करने का अधिकार प्राप्त हो सके। [1] मंत्रालय से कानून में संशोधन करने की मांग करते हुए कहा गया, ” आयोग के पास भी उच्च न्यायालय के समान अपनी अवमानना के संबंध में कार्रवाई करने का अधिकार या शक्ति होनी चाहिए। इस उद्देश्य के लिए अवमानना का अधिकार अधिनियम, 1971 के प्रावधानों में परिवर्तन होना चाहिए। [2] इसके अलावा, निर्वाचन आयोग ने ”आयोग के किसी कार्य के संबंध में उस पर मिथ्या लांछन लगाने या मिथ्या लांछन लगाने की ओर प्रवृत्त होने या पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने या हस्तक्षेप करने या हस्तक्षेप करने की ओर प्रवृत्त होने सहित सिविल अवमानना या जानबूझकर की गई अवज्ञा और आपराधिक अवमानना के लिए उपधारा ”अवमानना” को शामिल करने की मांग की है।

निर्वाचन आयोग की यह असामान्य मांग इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन की विश्वनीयता से जुड़े हाल के विवादों के मद्देनजर सामने आई है। आम आदमी पार्टी (आप), बहुजन समाज पार्टी और तो और राष्ट्रीय कांग्रेस ने ईवीएम की खराबी और निर्वाचन आयोग द्वारा उनके संदेहों के बारे में संतोषजनक उत्तर नहीं देने के संबंध में कई आरोप लगाए।

जहां एक ओर अनेक लोगों ने निर्वाचन आयोग की मांग को ‘असामान्य’ करार दिया गया है, वहीं निर्वाचन आयोग द्वारा ऐसी मांग पहली बार नहीं की गई है।

निर्वाचन आयोग ने इसी तरह की मांगें पहले 1990 में चुनाव सुधारों से संबंधित दिनेश गोस्वामी रिपोर्ट के समय रखी थीं, जिन पर समिति की ओर से कोई जवाब नहीं दिया गया था। [3] बेशक निर्वाचन आयोग के बचाव में, पाकिस्तान, ईरान, लाइबेरिया, वेनेजुएला जैसे कुछ मुट्ठी भर देशों का उदाहरण है, जिन्होने निर्वाचन आयोग को उनका लिखित रूप से या भाषण में या किसी अन्य तरीके से अपमान करने वाले व्यक्ति को दंडित करने का अधिकार प्रदान करते हुए कुछ कानून बनाए हैं। अब तक अन्य विश्वसनीय लोकतंत्रों द्वारा अपने निर्वाचन आयोगों को अवमानना से संबंधित किसी प्रकार के अधिकार नहीं दिये गए हैं। इसकी बजाए अमेरिका और कनाडा जैसे विशाल लोकतंत्रों ने अपने निर्वाचन आयोगों को किसी राजनीतिक दल द्वारा अपने समक्ष झूठा वक्तव्य देने या घोषणा करने के लिए उसका पंजीकरण समाप्त करने आदि जैसे व्यापक अधिकार दिए हैं।

निर्वाचन आयोग जिस अवमानना के अधिकार की मांग कर रहा है, उसमें भी हाल के दशकों में बड़े पैमाने पर बदलाव आए हैं। अवमानना के अधिकार के इस्तेमाल का शुरूआती उदाहरण 1765 में जस्टिस विल्मोर्ट का है, जहां प्रबुद्ध न्यायाधीश ने कहा था कि ये अधिकार ‘न्यायालयों के प्रभुत्व की प्रमाणिकता सिद्ध करने’ और न्यायाधीशों के आसपास ‘कीर्ति की आभा बनाए रखने’ के लिए है। इस तरह के प्रावधान किए जाने का प्रमुख उद्देश्य न्यायाधीशों को मिथ्या लांछन के आरोपों से बचाना था। हालांकि बाद में इसमें काफी बदलाव आए, क्योंकि यह कानूनी बिरादरी द्वारा यह स्वीकार किया गया कि न्यायपालिका का अधिकार न्याय के प्रशासन में निहित है। इसलिए, यह स्पष्ट किया गया कि इस अधिकार का उपयोग न्यायाधीशों द्वारा अपनी महिमा को प्रदर्शित करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। यह स्वीकार किया गया कि यह अधिकार लोगों के भरोसे से आएगा और यह उनके अपने आचरण, उनकी अपनी निष्ठा, निष्पक्षता, विद्वता और सरलता का ही परिणाम होगा। लोकतंत्र में न्यायाधीशों द्वारा प्रमाणिकता साबित करने की आवश्यकता नहीं है और उन्हें अपनी महिमा तथा अधिकार प्रदर्शित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। [4]

अक्सर, भारतीय न्यायपालिका ने अवमानना के अधिकार के बारे में इसी तरह की राय प्रकट की है। उदाहरण के लिए, राजेश कुमार बनाम मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का न्यायाधिकरण [5], में न्यायमूर्ति आर वी रवींद्रन ने टिप्पणी की कि “संभव है कि ऐसा न्यायालयों की महिमा बनाए रखने और सम्मान के लिए किया गया हो , लेकिन न्यायाधीशों को भी अन्य लोगों की ही तरह सम्मान अर्जित करना होगा। वे ‘ताकत'(अवमानना की) दिखाकर सम्मान की मांग नहीं कर सकते।” [6] इसलिए, जब दुनिया के न्यायालय अवमानना के प्रावधानों के बारे में अपने दृष्टिकोण में बदलाव ला रहे हैं, तो ऐसे में निर्वाचन आयोग द्वारा ऐसे अधिकारों की ललक दिखाना उसे बहुत अटपटी स्थिति में पहुंचा देता है।

भविष्य की राह

भले ही भारतीय निर्वाचन आयोग का यह मानना हो कि वह अवसरवादी राजनीति का शिकार हुआ है, जहां राजनीतिक दल अपने अस्तित्व की खातिर बलि के बकरे की तलाश करते हैं, तो भी आयोग को यह याद रखना होगा कि विश्वास, जो एक अस्थिर पूंजी है, उसे केवल अर्जित किया जा सकता है। अब जबकि देश डिजिटलीकरण की ओर बढ़ रहा है, ऐसे में चुनाव के लिए इस्तेमाल में लाए जाने वाले साधनों (इस मामले में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन) की पारदर्शिता और विश्वसनीयता से संबंधित समस्याओं का उठना बिल्कुल तय है। और भारतीय निर्वाचन आयोग जैसे कि 1990 से हमेशा करता आया है, औसत भारतीय मतदाता के लिए इनको दूर करना चाहिए, जिसे न्यायालय, पुलिस, नौकरशाही और तो और विधायिकाओं से भी ज्यादा भरोसा चुनावों पर है। आवश्यकता इस बात की है कि समस्त दृष्टिकोण , चाहे वे स्वस्थ या अस्वस्थ आलोचना से ही संबंधित क्यों न हों, उनको सामने रखा जाए और उसके बाद ईमानदारी से निष्कर्ष पर पहुंचने की कोशिश की जाए। समाधान , दृष्टिकोण को स्वीकार करने से निकलेगा न कि रोष प्रकट करने से।

इसकी बजाए, भारतीय निर्वाचन आयोग को उत्तरोत्तर सरकारों और उनके द्वारा नियुक्त की गई समितियों और आयोगों की ओर से सुझाए गए चुनाव सुधारों को पारित कराने के लिए संघर्ष करना चाहिए। राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त कराने, राजनीतिक दलों के चंदे में पारदर्शिता लाने, रिश्वत को संज्ञेय अपराध बनाने, पेड न्यूज से छुटकारा आदि जैसे चुनाव सुधार निर्वाचन आयोग को पर्याप्त रूप से अधिकार सम्पन्न बनाएंगे। जहां तक प्रचार संबंधी उल्लंघन, चुनाव में रिश्वत, चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के संबंध प्रवर्तन का प्रश्न है, दुनिया भर में अपनी समकक्ष निकायों की तुलना में भारतीय निर्वाचन आयोग अपेक्षाकृत कमजोर निकाय है। आयोग को अपने समक्ष झूठा हलफनामा या चुनाव खर्च प्रस्तुत करने वालों को दंडित करने का कोई अधिकार नहीं है। इसलिए, भारतीय निर्वाचन आयोग को चुनाव संबंधी उल्लंघनों और पेड न्यूज पर अंकुश लगाने तथा राजनीतिक दलों का पंजीकरण करने और पंजीकरण समाप्त करने का अधिकार, चुनावी चंदे और पार्टी के वित्तीय मामलों की जांच के अधिकार के लिए उपरोक्त सभी चुनाव संबंधी संबंधी मामलों के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 में संशोधन की मांग करनी चाहिए।


संदर्भ

[1] Ritika Arora, “Give us contempt powers to act against those out to sully our image” EC to Govt”, The Indian Express, 12 June 2017.

[2] “Give power of contempt, to book those who try to defame: EC to Govt, The Morung Express, 12 June 2017.

[3] Committee on Electoral Reforms, Report of The Committee on Electoral Reforms, May 1990, accessed on 20 June 2017.

[4] Markandey Katju, “Contempt of Court: need for a second look”, The Hindu, 22 January 2007.

[5] Rajesh Kumar v. High Court of Judicature of MP, AIR 2007 SC 2725.

[6] Satya Prakash, “Don’t misuse contempt law, says SC”, Hindustan Times, 11 July 2007.


लेखक ORF नई दिल्ली में रिसर्च इंटर्न है।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.