प्रस्तावना
वैश्विक प्रगति में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है, या कहा जा सकता है कि दुनिया के विकास में भारत एक अहम राष्ट्र बनकर उभर रहा है, ख़ास तौर पर ग्लोबल साउथ में देशों में तो यह एक सच्चाई है. इसकी बड़ी वजह है कि भारत अपनी आर्थिक शक्ति को लगातार बढ़ाने में जुटा हुआ है.[1] भारत की इस प्रगति में सबसे बड़ा योगदान शहरीकरण का है, या कहें कि शहरों का विकास और विस्तार भारत की इस तरक़्क़ी का आधार है. ज़ाहिर है कि वर्तमान में भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में शहरों का योगदान 58 प्रतिशत है, जिसके वर्ष 2030 तक बढ़कर 70 प्रतिशत होने का अनुमान है.[2]
इस पॉलिसी ब्रीफ़ में अत्यधिक बारिश और तूफान व भूकंप जैसे ख़तरों से पैदा होने वाले पहाड़ी क्षेत्रों के जोख़िमों, जो कि इंसानों की दख़लंदाज़ी की वजह से आज और पेचीदा हो गए हैं, के बारे में व्यापक चर्चा गई है, साथ ही पहाड़ी इलाक़ों के शहरों में गवर्नेंस से जुड़ी चुनौतियों का भी विस्तार से विश्लेषण किया गया है.
भारत में शहरीकरण बेहद तेज़ी से हो रहा है और अनुमान है कि वर्ष 2050 तक देश की शहरी आबादी 40.40 करोड़ हो जाएगी. इसके साथ ही उम्मीद है कि भारत में दुनिया की सबसे अधिक शहरी आबादी होगी.[3] हालांकि, शहरों में समुचित सरकारी निवेश नहीं होने की वजह से किफ़ायती मकानों की ज़बरदस्त कमी से लेकर लगातर बढ़ते प्रदूषण के हालातों ने शहरों में रहन-सहन को मुश्किल बना दिया है, साथ ही इन मुद्दों पर ज़्यादा कुछ ध्यान भी नहीं दिया जाता है.
इतना ही नहीं जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से शहर भी अछूते नहीं हैं. जलवायु परिवर्तन की वजह से जहां शहरों को अत्यधिक गर्मी, लू-लपट और ज़बरदस्त नमी का सामना करना पड़ता है, वहीं नदियों की बाढ़ और सूखे के हालातों से भी जूझना पड़ता है.[4] जलवायु पूर्वानुमानों के मुताबिक़ लगातार चरम मौसमी घटनाओं में बढ़ोतरी होने की वजह से और नदियों आदि से संबंधित व्यवस्था का उचित प्रबंध नहीं होने की वजह से भविष्य में भारत के मुंबई और बेंगलुरु जैसे बाढ़ प्रभावित शहरों में हालात और विकराल होने की आशंका है. ऐसे में ज़ाहिर तौर पर ऐसे शहरों में इंफ्रास्ट्रक्चर के नियोजन में सावधानी बरतने एवं तूफान और बाढ़ जैसे हालातों से निपटने के लिए सोची-समझी रणनीतियां बनाने की ज़रूरत होगी.[5] नीति विश्लेषकों के अनुसार बाढ़ और तूफान जैसी आपदाओं के ख़तरों एवं जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम से कम करने के लिए प्रकृति-आधारित उपायों को अमल में लाना बेहद महत्वपूर्ण है.[6]
एक और अहम बात है कि सरकारों का केवल टियर-1 शहरों की समस्याओं का समाधान तलाशने पर ध्यान देना भी ठीक नहीं है. पिछले दशक के दौरान सरकार द्वारा संचालित की गई अटल मिशन फॉर रिजुवेनेशन एंड अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन (AMRUT) 2.0, प्रधानमंत्री आवास योजना (PMAY)-शहरी, स्वच्छ भारत मिशन-शहरी और स्मार्ट सिटीज़ मिशन (SCM) जैसी पहलों में ज़्यादातर टियर-1 शहरों को ही शामिल किया गया है. जबकि सच्चाई यह है कि देश के शहरी क्षेत्रों में टिकाऊ और समावेशी विकास हासिल करने के लिए छोटे-बड़े हर तरह के शहरों यानी टियर-2 और टियर-3 शहरों की ज़रूरतों के मुताबिक़ उपाय करना ज़रूरी है.[A] इसके अलावा, शहरों में रहन-सहन और जन सुविधाओं से जुड़े जो भी फैसले लिए जाएं, उनमें शहरों को जलवायु संबंधी ख़तरों को लेकर तैयार रहने के काबिल बनाने के साथ ही प्राकृतिक निवास स्थानों के संरक्षण को प्रमुखता दी जानी चाहिए.[7] गौरतलब है कि हर शहर की समस्याएं और आवश्यकताएं अलग हो सकती है, ऐसे में शहरों के विकास की योजना बनाने वाले विशेषज्ञ अगर शहरों की विशेष ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए और संतुलित क्षेत्रीय विकास को बढ़ावा देने के लिहाज़ से नीतियों और उपायों को तैयार करते हैं, तो शहरी विस्तार एवं पारिस्थितिक अवरोधों से जुड़े मसलों को ज़्यादा प्रभावी तरीक़े से संबोधित किया जा सकता है.
छोटे शहरों में जलवायु अनुकूल शहरी विकास और सतत विकास को प्रोत्साहित करते हुए, इन शहरों में किफ़ायती घरों की बढ़ती मांग को पूरा करने एवं औद्योगिक और व्यावसायिक गतिविधियों को गति देने के लिए हितधारकों को शहरों में स्वास्थ्य सुविधाओं, बुनियादी ढांचे और पारिस्थितिकी तंत्र को मज़बूत करने के लिए जागरूक करना बेहद अहम है. वर्ष 2015 में शुरू की गई स्मार्ट सिटीज़ मिशन और अमृत योजनाओं को छोटे शहरों की इन्हीं आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था. ये योजनाएं देखा जाए तो टियर-2 और टियर-3 शहरों में शहरी विकास पर अधिक ध्यान देती हैं और इस प्रकार से ये पहलें कहीं न कहीं दिल्ली, कोलकाता, मुंबई और चेन्नई जैसे मौजूदा महानगरों में बढ़ते जंनसंख्या के बोझ को कम करने में मदद करती हैं.
इस पॉलिसी ब्रीफ़ में हिंदू कुश हिमालय के भारतीय क्षेत्र में स्थित कस्बों और शहरों, ख़ास तौर पर पहाड़ी भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR) में स्थित शहरों के सामने आने वाली चुनौतियों और अवसरों पर विस्तार से चर्चा की गई है.[B] भारतीय हिमालयी क्षेत्र एक बहुत व्यापक इलाक़ा है और विविधताओं से भरा हुआ है. यह क्षेत्र भारत के 13 राज्यों (और असम के दो पहाड़ी जिलों) में उत्तर और उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों के 5,33,000 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है. देखा जाए तो यह इलाक़ा अपनी भौगोलिक स्थिति और नाजुक इकोसिस्टम की वजह से जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है. इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज यानी जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) की छठी आकलन रिपोर्ट में इस बात का साफ उल्लेख किया गया है कि भारत के हिमालयी क्षेत्र में किस प्रकार जलवायु परिवर्तन की वजह से भूस्खलन, बादल फटने और नदियों में बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ी हैं. इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि ये आपदाएं किस प्रकार से लोगों के रहने वाले इलाक़ों, बुनियादी ढांचे और पर्यावरण के लिए जोख़िम बढ़ाती हैं.[8] साथ ही इस रिपोर्ट में पहाड़ी क्षेत्रों के शहरों के विकास की योजना बनाते समय इस समस्याओं पर ख़ासतौर पर ध्यान देने और इसका समाधान करने वाले उपायों को तत्काल प्रभाव से अमल में लाने की ज़रूरत बताई गई है. इस पॉलिसी ब्रीफ़ में अत्यधिक बारिश और तूफान व भूकंप जैसे ख़तरों से पैदा होने वाले पहाड़ी क्षेत्रों के जोख़िमों, जो कि इंसानों की दख़लंदाज़ी की वजह से आज और पेचीदा हो गए हैं, के बारे में व्यापक चर्चा गई है, साथ ही पहाड़ी इलाक़ों के शहरों में गवर्नेंस से जुड़ी चुनौतियों का भी विस्तार से विश्लेषण किया गया है.
चित्र 1. भारतीय हिमालयी क्षेत्र का वल्नेरबिलिटी इंडेक्स (कौन सा राज्य आपदाओं के प्रति कितना संवेदनशील है)
स्रोत: बरुआ व अन्य (2020)[9]
जिन चुनौतियों का जिक्र ऊपर किया गया है, वे सिर्फ़ भारतीय हिमालयी क्षेत्र यानी पहाड़ी इलाक़ों तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि मैदानी इलाक़ों में मौज़ूद शहरों, जैसे कि महाराष्ट्र के मुंबई या असम के गुवाहाटी शहरों में भी इसी प्रकार की चुनौतियां देखने को मिलती हैं. ज़ाहिर है कि मुंबई और गुवाहाटी शहरों में समतल भूभाग अधिक होने की वजह से इन्हें 'मैदानी' इलाक़ा ही कहा जाता है. लेकिन इन शहरों में जो भी पहाड़ी क्षेत्र मौज़ूद हैं, उनमें भी दूसरे पहाड़ी शहरों द्वारा झेली जाने वाली समस्याएं दिखाई देती हैं. जैसे इन मैदानी शहरों के पहाड़ी क्षेत्र में भी भूस्खलन और जल निकासी की समस्याएं देखने को मिलती हैं.
इस पॉलिसी ब्रीफ़ में पहाड़ी क्षेत्रों में शहरी विकास से जुड़े जोख़िमों को कम करने के लिए तमाम सुझाव दिए गए हैं और सिफ़ारिशें भी की गई हैं. इनमें नई नीतियों को बनाना, मौजूदा नीतियों में बदलाव करना, शहरी नियोजन में सुधार और प्रकृति-आधारित उपायों को अमल में लाना शामिल है. इसके अलावा, जहां भी ज़रूरी लगा है, वहां IHR और इसी तरह के पहाड़ी क्षेत्रों में शहरी विकास के प्रबंधन के लिए ज़िम्मेदार संस्थानों की जवाबदेही सुनिश्चित करने एवं अधिक सशक्त नीतियों के लिए सुझावों के देते समय मौजूदा नीतियों का विश्लेषण किया गया है, साथ ही अन्य दस्तावेज़ों में उल्लेख की गई बातों की भी मदद ली गई है.
पहाड़ में बसे शहरों में शहरी विस्तार की चुनौतियां
पहाड़ी शहरों को अपनी खूबसूरती, मनमोहक जगहों, ठंडे मौसम और विशिष्ट जैव विविधिता के लिए जाना जाता है. पहाड़ी शहरों की यही खूबियां उन्हें न केवल रहने की पसंदीदा जगह बनाती हैं, बल्कि पर्यटकों के लिए भी आकर्षक स्थान बनाती हैं. ज़ाहिर है कि पर्यटन से संबंधित गतिविधियों के बढ़ने के साथ-साथ पहाड़ी शहरों में आर्थिक अवसरों में वृद्धि होती, कमाई के साधन विकसित होते हैं और फिर इन शहरों में पहाड़ी ज़मीन का उपयोग व्यावसायिक कार्यों के लिए होने लगता है और इससे पर्यावरण के लिहाज़ से भी बदलाव होने लगता है.[10] उत्तर भारत के पहाड़ी क्षेत्रों के प्रमुख शहरों की बात की जाए, तो भारतीय हिमालयी क्षेत्र के इन शहरों में जम्मू और कश्मीर के श्रीनगर व जम्मू, हिमाचल प्रदेश के शिमला, उत्तराखंड के देहरादून, पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग, सिक्किम के गंगटोक, मेघालय के शिलांग, नागालैंड के कोहिमा और मिजोरम के आइजोल का नाम प्रमुख है.[11] जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों को लेकर यह पहाड़ी शहर बेहद संवेदनशील होते हैं. इसकी वजह यह है कि इन पहाड़ी शहरों की भौगोलिक स्थिति अलग तरह की होती है और यहां भूकंप आने की संभावना भी अधिक होती है. इसके अलावा, इन पहाड़ी शहरों और आस-पास के क्षेत्रों में वनों की कटाई, तेज़ी से होते शहरीकरण और व्यावसायिक कार्यों के लिए ज़मीन का अंधाधुंध इस्तेमाल करने जैसी मानवीय वजहों से भी जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव इन पर अधिक होता है.[12],[13] इसके अतिरिक्त, इन पहाड़ी शहरों में पर्यटकों की लगातार बढ़ती संख्या भी गंभीर चुनौती बनकर उभरी है.[14] इस सारी वजहों से पहाड़ी शहरों में संसाधनों का समझदारी के साथ उपयोग व प्रबंधन करने और इसके लिए ख़ास नीतियों को अमल में लाने की ज़रूरत होती है.[15]
इन चुनौतियों से साफ ज़ाहिर होता है कि पहाड़ी शहरों के नियोजन में बेहद सजगता बरतने की ज़रूरत होती है. शहरी योजनाकारों को पहाड़ी शहरों से संबंधित योजनाओं को बनाते समय और इन शहरों के आर्थिक विकास की रूपरेखा बनाते समय न केवल जैव विविधता संरक्षण को तवज्जो देने की आवश्यकता है, बल्कि आपदा जोख़िम प्रबंधन एंव टिकाऊ पर्यटन पर भी उतना ही ध्यान देने की ज़रूरत है. कहने का मतलब है कि चुनौतियों से निपटने के लिए एक बहुआयामी नज़रिया अपनना ज़रूरी है. यानी एक ऐसा नज़रिया, जिसमें पहाड़ी शहरों में भूस्खलन और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से पैदा होने वाले ख़तरों और बेतरतीब शहरीकरण से पैदा होने वाली परेशानियों का पूरा ध्यान रखा जाए, साथ ही बिल्डिगों के अंधाधुंध निर्माण से प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ने वाले प्रभाव से निपटने के बारे में गंभीरता से सोचा जाए.[16]
शहरीकरण का पारिस्थितिकी और प्राकृतिक संसाधनों पर प्रभाव
भारत के कई पहाड़ी शहरों में पिछले कुछ वर्षों में आई आपदाओं पर नज़र डालें तो जोशीमठ (उत्तराखंड), गंगटोक (सिक्किम) और दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल) को ज़बरदस्त बारिश, अचानक आई बाढ़ और भूस्खलन समेत तमाम प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ा है.[17] इन शहरों की पारिस्थितिक पर्यावरण कुछ ऐसा है, जो अत्यधिक शहरीकरण को झेलने लायक नहीं है. इसकी वजह यह है कि इन पहाड़ी शहरों की मिट्टी, यहां की ज़मीन और ऊंचे पहाड़ किसी भी तरह की छेड़छाड़ को सह नहीं सकते हैं, या कहें कि यहां मानवीय दख़लंदाज़ी और विकास के नाम पर बेतरतीब निर्माण कतई मुनासिब नहीं है.[18] इसके अलावा, बढ़ती मानवीय गतिविधियों के कारण इन पहाड़ी क्षेत्रों में पेड़ों की काफ़ी कटाई हुई है, जिससे यहां वनों का क्षेत्रफल घटा है. इससे जहां इन पहाड़ी शहरों की मिट्टी कमज़ोर हुई है, वहीं मिट्टी के कटाव और भूस्खलन का ख़तरा बहुत बढ़ गया है.[19]
पहाड़ों की गोद में बसे शहरों की आबादी में लगातार बढ़ोतरी हो रही है और वहां आर्थिक व व्यावसायिक गतिविधियों में भी वृद्धि हो रही है, इसके चलते हिमालयी क्षेत्र के शहरों में ज़मीन के उपयोग का तौर-तरीक़ा भी बदल रहा है. इसके अलावा, इससे कहीं न कहीं पहाड़ी शहरों का प्राकृतिक पारिस्थिक तंत्र भी प्रभावित हो रहा है.
पहाड़ों की गोद में बसे शहरों की आबादी में लगातार बढ़ोतरी हो रही है और वहां आर्थिक व व्यावसायिक गतिविधियों में भी वृद्धि हो रही है, इसके चलते हिमालयी क्षेत्र के शहरों में ज़मीन के उपयोग का तौर-तरीक़ा भी बदल रहा है. इसके अलावा, इससे कहीं न कहीं पहाड़ी शहरों का प्राकृतिक पारिस्थिक तंत्र भी प्रभावित हो रहा है. हिमाचल प्रदेश में ब्यास वैली जैसे क्षेत्रों और शिमला व देहरादून जैसे पहाड़ी शहरों को ध्यान में रखकर किए गए अध्ययनों में सामने आया है कि तेज़ी से हो रहे शहरीकरण का स्थानीय पर्यावरण पर बहुत गहरा असर पड़ा है.[20] शोधकर्ताओं ने कई चीजों का गहन अध्ययन किया, जैसे कि भूमि की सतह के तापमान में होने वाले परिवर्तन का विश्लेषण किया, जिससे पता चलता है कि बढ़ते शहरीकरण से किस प्रकार भूमि के तापमान में वृद्धि हुई है. इसी प्रकार, ज़मीन की गुणवत्ता, यानी जीवों के रहने लायक परिस्थितियों का आकलन किया गया. इससे सामने आया कि अगर पहाड़ी क्षेत्रों में बढ़ते शहरीकरण पर ध्यान नहीं दिया गया, तो परिस्थितियां बहुत ज़्यादा बिगड़ सकती हैं और प्राकृतिक निवास स्थानों का तेज़ी से क्षरण हो सकता है.[21]
दार्जिलिंग को लेकर वर्ष 2023 में की गई एक स्टडी में सामने आया कि बेतरतीब शहरीकरण, ज़मीन का अपनी सहूलियत के हिसाब से अंधाधुंध इस्तेमाल और गाड़ियों से निकलने वाले धुएं एवं बढ़ती दहन गतिविधियों की वजह से यहां प्रदूषण बेलगाम हो सकता है और आने वाले पांच वर्षों में यह पश्चिम बंगाल के सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में से एक बन सकता है.[22] इसी प्रकार से उत्तराखंड के जोशीमठ की बात की जाए, तो वहां भी क्षेत्र की परिस्थितियों और कमज़ोर पहाड़ों की अनदेखी कर किए गए अनियोजित निर्माण की वजह से स्थानीय पारिस्थितिक संतुलन बुरी तरह से प्रभावित हुआ है और इससे वहां लोगों की जान और ज़मीन दोनों के सामने गंभीर ख़तरा पैदा हो गया है.[23] जोशीमठ चीन के साथ लगी भारत की सीमा पर मौज़ूद एक महत्वपूर्ण शहर है और भारतीय सेना व भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (ITBP) का अहम बेस है. इस वजह से जोशीमठ सैन्य लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण जगह है, लेकिन इसके बावज़ूद जोशीमठ के हालातों को गंभीरता से नहीं लिया गया है.[24] ज़ाहिर है कि जोशीमठ की जल निकासी, जल आपूर्ति और सीवेज प्रणालियों में तमाम ख़ामियां हैं, जिन पर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया है.[25]
पहाड़ी शहरों में वर्तमान में जो दिक़्क़तें दिखाई दे रही हैं, वो हमेशा से नहीं थीं. दरअसल, उत्तर भारत के कई पहाड़ी शहरों को ब्रिटिश शासन के दौरान विकसित किया गया था और तब वहां आबादी बहुत कम थी, साथ ही घर भी छोटे-छोटे होते थे. इसी के अनुरूप वहां जल आपूर्ति और जल निकासी जैसी व्यवस्थाएं की गई थीं. उस दौरान, पहाड़ी शहरों में या तो विदेशियों के या फिर अमीर भारतीयों के लिए कॉटेज बनाए गए थे, साथ की स्थानीय आबादी के लिए कुछ व्यावसायिक और आवासीय बिल्डिंग भी बनाई गई थीं. उस समय पहाड़ी शहरों को सीमित आबादी की ज़रूरतों के हिसाब से स्थापित किया गया था और उसी के अनुसार वहां बुनियादी सुविधाएं विकसित की गई थीं. जैसे कि शिमला (तब सिमला कहा जाता था) को अधिकतम 25,000 लोगों के रहने के लिहाज़ से डिज़ाइन किया गया था. वर्ष 2011 में हुई अख़िरी जनगणना के मुताबिक़ अब शिमला की आबादी 8,14,010 है.[26] गौरतलब है कि समय गुजरने के साथ पहाड़ी शहर प्रशासनिक गतिविधियों के केंद्र बन गए और इस वजह से वहां अधिक संख्या में लोग बसने लगे. इन शहरों में पर्यटकों की आवाजाही बढ़ने के साथ ही, पर्यटन से जुड़ी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए तेज़ी से आधारभूत ढांचे का भी विकास हुआ. हालांकि, शहरों के विस्तार और विकास के दौरान भवन निर्माण नियमों का पालन नहीं किया गया और इस वजह से इंफ्रास्ट्रक्चर के अंधाधुंध निर्माण को बढ़ावा मिला. इसके कारण शहरों के विकास में वैज्ञानिक नज़रिए की कमी देखी गई, साथ ही ज़रूरतों को पूरा करने के लिए शहरी नियोजन पर भी पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया.[27]
इन मुद्दों के प्रभाव को समझने के लिए, इनकी गहराई में जाने की ज़रूरत है, साथ ही इस प्रकार का विश्लेषण करना आवश्यक है, जो न सिर्फ़ व्यवहारिकता जैसे दूसरे कारणों पर ध्यान दे, बल्कि सरकारी नीतियों एवं आर्थिक बदलाव जैसे व्यापक पहलुओं पर भी ध्यान दे.[28] इसके अलावा, ऐसे अध्ययन किए जाने की ज़रूरत है, जो शहरी विस्तार की सीमा क्या हो और शहरीकरण की गति क्या हो का पता लगाएं. हालांकि, वास्तविकता में शहरी विकास का विश्लेषण करने के दौरान और क्षेत्रीय विकास योजनाओं को बनाते समय इन महत्वपूर्ण पहलुओं को ध्यान में नहीं रखा जाता है.
ऐसे में यह ज़रूरी हो जाता है कि पहाड़ी क्षेत्रों में बसे शहरों के लिए एक ऐसा शहरी नियोजन तंत्र स्थापित किया जाए, जो वहां की आवश्यकताओं और समस्याओं को ध्यान रखकर कार्य करे. भविष्य में पहाड़ी शहरों को पर्यावरण एवं जलवायु से संबंधित आपदाओं से निजात दिलाने के लिए यह ज़रूरी है कि इन शहरों की क्षमता का पूरा आकलन किया जाए,[C] साथ ही यह भी निर्धारित किया जाए कि इन शहरों में जनसंख्या इस आंकड़े से अधिक नहीं होने दी जाएगी. अगस्त 2023 में भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने हिमालयन रीजन की वहन क्षमता का व्यापक सर्वेक्षण करने के लिए इकोलॉजी, हाइड्रोलॉजी और जलवायु जैसे क्षेत्रों के पेशेवरों की एक विशेषज्ञ कमेटी[D] गठित करने का निर्देश दिया था.[29]
‘मैदानी’ शहरों में पहाड़ी इलाक़े और क्षेत्रीय ज़मीनी विवाद
अगर मुंबई और गुवाहाटी जैसे शहरों की बात की जाए, तो इन शहरों में ज़्यादातर इलाक़ा मैदानी है और इसीलिए इन्हें ‘मैदानी’ शहरों के रूप में वर्गीकृत किया जाता है. ऐसे में इन शहरों में मौज़ूद पहाड़ी इलाक़ों की वजह से शासन-प्रशासन से जुड़ी व्यवस्थाओं को संचालित करने में तमाम दिक़्क़तें आती हैं. इसके अलावा, इन शहरों में मौज़ूद पहाड़ी इलाक़ों की इकोलॉजी, जियोग्राफी और जलवायु मैदानी इलाक़ों से भिन्न होती है, इसलिए इन क्षेत्रों का प्रबंधन और भी मुश्किल हो जाता है.[30],[31] ज़ाहिर है कि इन पहाड़ी इलाक़ों के लिए अलग से योजना बनाने की ज़रूरत होती है और विकास के दौरान अलग नज़रिया अपनाना पड़ता है, लेकिन वास्तविकता में ऐसा होता नहीं है, इस वजह से शहरों के पहाड़ी इलाक़ों के पर्यावरणीय जोख़िमों का प्रभावी तरीक़े से समाधान करने में परेशानियां आती हैं. शहरों में सुविधाओं के प्रबंधन और समस्याओं के समाधान के लिए शहरी स्थानीय निकाय (ULB) ज़िम्मेदार होते हैं और ज़्यादातर मामलों में इनके पास पहाड़ी क्षेत्रों के लिहाज़ से विशेषज्ञता की कमी होती है. इस वजह से यह शहरी स्थानीय निकाय अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर आने वाले पहाड़ी इलाक़ों को नियंत्रित करने में परेशानी का अनुभव कर रहे हैं. इन सब वजहों से शहरों के पहाड़ी इलाक़ों को पर्यावरणीय नुक़सान एवं बेतरतीब शहरीकरण से बचाने के लिए जो भी नीतियां बनाई जाती हैं, उन्हें ज़मीनी स्तर पर लागू करने में दिक़्क़त होती है.[32]
व्यापक सामाजिक-आर्थिक मसलों, जैसे कि ग़रीबी, मकान और झुग्गी बस्तियों की वजह से भी शहरों में स्थित पहाड़ी इलाक़ों के प्रबंधन में तमाम समस्याएं आती हैं.[33] इन पहाड़ी क्षेत्रों में स्थापित अवैध बस्तियों में सबसे अधिक ग़रीब तबके के लोग रहते हैं और इन लोगों को स्वास्थ्य देखभाल जैसी बुनियादी सुविधा भी नसीब नहीं हो पाती है. मुंबई की बात की जाए, तो वहां शहर के पहाड़ी इलाकों में व्यापक स्तर पर अवैध झुग्गी बस्तियां फैली हुई हैं और इनमें लगभग 1,50,000 परिवार निवास करते हैं. इसके अलावा, मुंबई की इन अवैध बस्तियों में से 327 स्थानों को आधिकारिक तौर पर 'ख़तरनाक क्षेत्रों' के रूप में चिन्हित किया गया है.[E] यानी ये बस्तियां जिन क्षेत्रों में हैं, वहां भूस्खलन और दूसरी आपदाओं के आने की संभावना बहुत अधिक है.[34] इन बस्तियों में ख़तरों की संभावनाओं और यहां रहने वालों को लगातार चेतावनी देने के बावज़ूद, अपनी जान को जोख़िम में डालकर लोग यहां रह रहे हैं, क्योंकि उनके पास शहर के दूसरे क्षेत्रों में सस्ते रिहायशी विकल्प नहीं है.[35]
जहां तक गुवाहाटी शहर की बात है, तो वहां के पहाड़ी क्षेत्र को लेकर विभिन्न हितधारकों के बीच विवाद जैसी स्थिति बनी हुई है. वहां एक ओर पहाड़ी इलाक़ों में रहने वाले लोग हैं, जिनमें से कई दूसरी जगहों से आकर बसे हैं और कई स्थानीय जनजातीय समुदाय के लोग हैं, जो निवास और आजीविका के लिए इन पहाड़ों पर ही निर्भर है. जबकि दूसरी तरफ पर्यावरण संरक्षण में जुटे संगठन हैं, जो इन पहाड़ियों की पारिस्थिकी और मौलिकता को बरक़रार रखने के लिए कार्य कर रहे हैं.[36] पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि इन पहाड़ियों पर झुग्गी और अस्थाई बस्तियां बनने से यहां रहने वाले वन्यजीवों के रहने के प्राकृतिक ठिकानों को नुक़सान पहुंचा है. इनमें ख़ास तौर पर तेंदुए और एशियाई हाथी जैसे वन्यजीवों की रहने की जगहें समाप्त हो गई हैं, साथ ही वन्यजीवों के आने-जाने के गलियारों का अतिक्रमण हुआ है.[37] इतना ही नहीं, इन पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले स्थानीय निवासी, जिनमें से कई जनजातीय समुदायों से आते हैं, उनका कहना है कि यह पहाड़ियां हमारी प्राकृतिक आवास हैं और हमेशा से स्थानीय जनजातीय लोग यहां रहते आए हैं. उनका यह भी कहना है कि इन पहाड़ी क्षेत्रों पर बाहरी लोगों द्वारा आलीशान आवास बनाए गए हैं और सरकार को इनकी समुचित जांच करनी चाहिए.[38] गुवाहाटी शहरी क्षेत्र में आने वाली पहाड़ियों के कुछ हिस्सों को अमचांग वाइल्ड लाइफ सेंचुरी के रूप में संरक्षित वन्यजीव अभ्यारण्य घोषित किया गया है. सरकार के इस क़दम ने इन क्षेत्रों के आसपास सामाजिक और क़ानूनी विवादों को बढ़ा दिया है.[39]
सिफ़ारिशें
चाहे पहाड़ी क्षेत्रों में मौज़ूद शहर हों या फिर मैदानी शहरों के पहाड़ी इलाक़े हों, फिलहाल सबसे बड़ी ज़रूरत गवर्नेंस एवं टिकाऊ या पर्यावरण अनुकूल शहरीकरण के लिए एक समग्र नज़रिया अपनाने की है. इस ब्रीफ़ में शहरी पहाड़ी क्षेत्रों के बेहतर प्रबंधन के लिए तमाम सिफ़ारिशें की गई हैं:
1. पहाड़ी क्षेत्रों में अधिक भूकंप-रोधी बुनियादी ढांचे और इमारतों का निर्माण किया जाए
भारत में हिमालयी क्षेत्र उत्तर में कश्मीर से लेकर पूर्व में मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश तक फैला हुआ है और यह पूरा इलाक़ा भूकंप के लिहाज़ से बेहद संवेदनशील है.[40] इस क्षेत्र में भूकंप की संभावना बढ़ने के लिए यूरेशियन प्लेट और भारतीय टेक्टोनिक प्लेट के बीच टक्कर और इसके उत्तर दिशा की ओर ऊपर उठने को ज़िम्मेदार बताया जाता है.[41] चित्र 2 में हिमालयी प्लेट सीमा (काली लाइन) को दिखाया गया है, जो अलग-अलग मोमेंट मैग्नीट्यूड (Mw) यानी अलग-अलग तीव्रता पैदा करती है.[F],[42] इस चित्र में जो स्टार्स दिखाए गए हैं, वो बताते हैं किस वर्ष में कितनी तीव्रता का भूकंप आया था.
चित्र 2: भारतीय उपमहाद्वीप का हिमालयी क्षेत्र
स्रोत: राजेंद्रन एंड राजेंद्रन (2022)[43]
हिमालयी क्षेत्र में भूकंप आने और उससे होने वाले व्यापक नुक़सान के पीछे सिर्फ़ भारतीय और तिब्बतीय प्लेट की टक्कर होना ही नहीं है, बल्कि इस पूरे इलाक़े में निर्माण कार्यों में एहतियात नहीं बरतना और इमारतों को भूकंपरोधी नहीं बनाना भी एक मुख्य वजह है.[44] हिमालयी क्षेत्रों में हुए कई अध्ययनों में सामने आया है कि भूकंपरोधी तकनीक़ों का उपयोग किए बगैर बनाई गई बिल्डिंगें बेहद ख़तरनाक साबित हो रही हैं.[45] हिमालयी क्षेत्रों में विशेष रूप से पहाड़ी ढलानों पर बेतरतीब तरीक़े से बनाई गई इमारतें, भूकंप के दौरान नुक़सान को कई गुना बढ़ा देती हैं. क्योंकि भूकंपरोधी उपाय नहीं होने की वजह से ऐसे भवन धराशायी हो सकते हैं या क्षतिग्रस्त हो सकते हैं.[46] ज़ाहिर है कि पहाड़ी क्षेत्रों में भूकंप का ख़तरा बहुत अधिक होता है और इससे व्यापक स्तर पर नुक़सान की आशंका भी होती है. ऐसे में पहाड़ी इलाक़ों में भवनों के निर्माण के दौरान भूकंपरोधी अर्किटेक्चर का उपयोग एवं उसी के अनुरूप निर्माण को प्रोत्साहित करना बेहद आवश्यक है और इसमें कोताही नहीं बरती जानी चाहिए.[47],[48]
पहाड़ों में बसे शहरी इलाक़ों में भूकंप की संभावना अधिक होती हैं, इसलिए ख़ास तौर पर इन क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे और भवनों के निर्माण के दौरान संरचनात्मक कमियों पर अधिक ध्यान देने की ज़रूरत होती है. ज़ाहिर है कि भारत के नेशनल बिल्डिंग कोड के मुताबिक़ 600 मीटर से अधिक की ऊंचाई या फिर 30 डिग्री या उससे अधिक की औसत ढलान वाले क्षेत्रों को 'पहाड़ी' के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है.[49] इस लिहाज़ से देखा जाए तो भारतीय उपमहाद्वीप का 21 प्रतिशत से ज़्यादा इलाक़ा पहाड़ी क्षेत्र में आता है.[50] ऐसे में पहाड़ी क्षेत्रों में पूर्व भूकंपीय घटनाओं से सबक लेना और ऐसी आपदा का सामना करने के लिए बेहतर तरीक़े से तैयारी करना बहुत महत्वपूर्ण है. इसके अलावा, पहाड़ी क्षेत्रों में सुरक्षा से संबंधित गाइडलाइन्स की दोबारा से समीक्षा करना और इन इलाक़ों में निर्माण संबंधी नियमों में संशोधन करना भी बेहद आवश्यक है. इतना ही नहीं, भूकंप प्रभावित पहाड़ी क्षेत्रों को स्पष्ट रूप से चिन्हित करना और ऐसे इलाकों में इमारतों के निर्माण के दौरान भूकंपरोधी नियमों को कड़ाई से लागू करना बहुत ज़रूरी है.
पहाड़ी इलाक़ों में स्थानीय भू-विज्ञान के बारे में गहन जानकारी जुटाना बहुत महत्वपूर्ण होता है. एक स्टडी में स्थानीय जियोलॉजी के बारे में जानकारी के महत्व को बताया भी गया है. इस अध्ययन में पहाड़ी ढलान पर बनी इमारतों पर भूकंप के प्रभाव का विश्लेषण करने के लिए सॉयल स्ट्रक्चर इंटरेक्शन यानी मृदा-संरचना संपर्क (SSI) की जांच की गई है.[51] इस जांच में सरफेस टोपोग्रॉफी, मिट्टी की विशेषताओं और अन्य भूवैज्ञानिक कारकों के बारे में गहन अध्ययन किया गया था, ज़ाहिर है कि ये सारी चीज़ें भूकंप के असर को बढ़ा सकती हैं. अगर इस जांच के निष्कर्षों को बिल्डिंग की मज़बूती पता करने वाले अध्ययनों के साथ जोड़ा जाता है और जियो-टेक्निकल यानी भू-तकनीक़ी एवं डिज़ाइन इंजीनियरों के साथ साझा किया जाता है, तो यह निश्चित रूप से काफ़ी कारगर सिद्ध हो सकता है. भारत के पहाड़ी शहरों की भूकंप के प्रति संवेदनशीलता को परखने के लिए कुछ अध्ययन किए गए हैं और इनमें पता चला है कि इन शहरों की स्ट्रक्चरल प्लानिंग यानी संरचनात्मक नियोजन में काफ़ी खामियां हैं. उत्तराखंड के नैनीताल में पुराने भवनों की भूकंपीय संवेदनशीलता जांचने के लिए इसी प्रकार के एक अध्ययन में जियोग्राफिक इन्फॉर्मेशन सिस्टम (GIS) तकनीकों, रिमोट सेंसिंग और रैपिड विजुअल स्क्रीनिंग (RVS) का उपयोग किया गया और पाया गया कि इन भवनों में भूकंपीय सुरक्षा के इंतज़ाम पर्याप्त नहीं हैं.[52] इसी तरह के एक दूसरे अध्ययन में “नॉन-लिनियर स्टैटिक पुशओवर एनालिसिस एंड डायनैमिक एनालिसिस” का इस्तेमाल करके पहाड़ी क्षेत्रों में बहुमंजिला बिल्डिगों की जांच करने के लिए उनके त्रि-आयामी विश्लेषणात्मक मॉडल का उपयोग किया गया.[53] ज़ाहिर है कि इस प्रकार के अध्ययनों से निकले नतीज़ों को महत्व देना चाहिए और इनसे सीख लेनी चाहिए, तभी पहाड़ी क्षेत्रों में टिकाऊ शहरीकरण को आगे बढ़ाया जा सकता है और भूकंप के दौरान कम से कम नुक़सान सुनिश्चित किया जा सकता है.
2. पहाड़ी शहरों में जल प्रबंधन को दुरुस्त करके उन्हें ‘स्पंज सिटीज़’ बनाया जाए
देश के पहाड़ी शहरों में अगर स्पंज सिटी परिकल्पना को अपनाया जाता है और उन्हें स्पंज सिटीज़ में परिवर्तित किया जाता है, तो निश्चित तौर पर पानी एवं बाढ़ के प्रबंधन में यह अहम साबित हो सकता है. स्पंज सीटीज़ परिकल्पना देखा जाए तो पूरी तरह से प्रकृति पर आधारित है. इसमें ग्रीन इंफ्रास्ट्रक्चर का उपयोग करके और छिद्रयुक्त सतह के ज़रिए पानी का टिकाऊ प्रबंधन किया जाता है.[54] यानी इसमें पानी को सोखने और ज़रूरत पड़ने पर उसके उपयोग की तकनीक़ अपनाई जाती है. ज़ाहिर है कि पहाड़ी इलाकों में अक्सर जब तेज़ बारिश या भूस्खलन होता है, तो वहां तेज़ी से मिट्टी का कटाव होने लगता है और पानी भी नीचे की ओर तेज़ी से बह जाता है. पहाड़ी क्षेत्रों के लिए विशेष रूप से बनाए गए पारिस्थितिक डिज़ाइन सिद्धांत यानी पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देने वाले सिद्धांत पानी के बहाव के प्राकृतिक रास्तों को संरक्षित करने और उसके साथ तालमेल स्थापित करके जल संरक्षण व भूमि के कटाव को रोकने संबंधी उपायों को लागू करने पर ज़ोर देते हैं, ताकि पहाड़ों की प्राकृतिक स्थिति और ज़मीन से कोई छेड़छाड़ न हो और उसे बरक़रार रखा जा सके.[55]
स्पंज सिटीज़ की परिकल्पना में बाढ़ या बारिश के पानी को एकत्र करने के लिए कृत्रिम इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे कि तटबंधों, पाइपों, बांधों और चैनल आदि पर निर्भरता को कम करना है, साथ ही इसके लिए हरित बुनियादी ढांचा विकसित करना है. यानी बेहतर जल प्रबंधन के लिए ख़ास तौर पर डिज़ाइन किए गए ग्रीन इंफ्रास्ट्रक्चर यानी प्राकृतिक, अर्ध-प्राकृतिक या इंजीनियरिंग पर आधारित प्रणालियों को विकसित करना है. ऐसे हरित बुनियादी ढांचों या छोटी-बड़ी वॉटर बॉडी के ज़रिए मानसून के दौरान बारिश के पानी को अवशोषित किया जा सकता है और एक जगह पर इकट्ठा किया जा सकता है, साथ ही गर्मी के मौसम में इस पानी का उपयोग किया जा सकता है. विश्व आर्थिक मंच (WEF) की वर्ष 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक़ जल संरक्षण को लेकर जो इंफ्रास्ट्रक्चर बनाए जाते हैं अगर उनमें प्राकृतिक उपायों का इस्तेमाल किया जाता है, तो ऐसा करना कृत्रिम इंफ्रास्ट्रक्चर की तुलना में 50 प्रतिशत अधिक किफ़ायती साबित हो सकता है, साथ ही इनसे 28 प्रतिशत अधिक लाभ मिल सकता है.[56]
स्पंज सिटीज़ में पानी को सोखने के लिए छिद्रयुक्त सतहों और ग्रीन इंफ्रास्ट्रक्चर का उपयोग किया जाता है. इनके ज़रिए बारिश के पानी को ज़मीन के भीतर जाने का रास्ता दिखाया जाता है, साथ ही इनके माध्यम से मूसलाधार बारिश के दौरान पानी के तेज़ बहाव को धीमा करने में भी मदद मिलती है, जिससे अचानक बाढ़ आने का ख़तरा कम हो जाता है. इसके अलावा, स्पंज सिटीज़ में पानी के प्राकृतिक बहाव के रास्ते में ग्रीन कॉरिडोर बन जाते हैं, जिसमें बफ़र ग्रीनबेल्ट और ग्रीन हिल पैच शामिल हैं, जिससे पहाड़ी इलाक़ों की ख़ूबसूरती भी बढ़ जाती है.[57] गौरतलब है कि कई पहाड़ी शहर ऐसे हैं, जिन्हें अक्सर जल संकट से जूझना पड़ता है. ऐसे शहरों में स्पंज सिटीज़ परिकल्पना को साकार करना बारिश के पानी को रिसाइकिल करने में मददगार साबित हो सकता है और कहीं न कहीं पानी की कमी को दूर किया जा सकता है. कहने का मतलब है कि एक स्पिंज सिटी न सिर्फ़ पानी आधिक होने पर उसे सोखकर ज़मीन के भीतर पहुंचा सकता है, बल्कि पानी की किल्ल्त के समय इकट्ठा किए गए बारिश के पानी का फिर से उपयोग करके जल संकट को भी दूर करने में मदद कर सकता है.
गौरतलब है कि कई पहाड़ी शहर ऐसे हैं, जिन्हें अक्सर जल संकट से जूझना पड़ता है. ऐसे शहरों में स्पंज सिटीज़ परिकल्पना को साकार करना बारिश के पानी को रिसाइकिल करने में मददगार साबित हो सकता है और कहीं न कहीं पानी की कमी को दूर किया जा सकता है.
भारत के चेन्नई और कोच्चि शहरों में बाढ़ की आपदा अक्सर देखने को मिलती है. ये दोनों ही शहर बाढ़ के दीर्घकालिक समाधान के लिए ‘स्पंज सिटी’ मॉडल को अपनाने की संभावनाओं को तलाश रहे हैं.[58] ग्रेटर चेन्नई कॉर्पोरेशन ने मार्च 2023 में बताया था कि वह शहर में ऐसी खुली जगहों को चिन्हित करने में जुटा है, जहां बारिश के मौसम से पहले ‘स्पंज पार्क’ स्थापित किए जा सकते हैं.[59] इसी प्रकार से असम भी अपने चार शहरों यानी गुवाहाटी, नागांव, सिलचर और डिब्रूगढ़ के लिए स्पंज सिटी मास्टर प्लान बना रहा है.[60]
स्पंज सिटी की अवधारणा को किसी शहरी मास्टर प्लान में शामिल करने से पहले यह आवश्यक है कि इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास किया जाए और इससे जुड़ी स्पष्ट नीतियां बनाई जाएं. जैसे कि गुवाहाटी में स्पंज सिटी को लेकर काम शुरू हो गया है, लेकिन वहां अभी तक सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (STP) या पर्याप्त सीवरेज नेटवर्क जैसे अहम आधारभूत ढांचे का विकास नहीं हुआ है. फिलहाल गुवाहाटी में जो जल निकासी प्रणाली है, वो शहर के सीवेज और कचरे को सीधे वेटलैंड्स में जाती है और ऐसा होने की वजह से पानी की गुणवत्ता प्रभावित होती है.[61] इसके अलावा, गुवाहाटी के पहाड़ी इलाकों में बसी बस्तियों में अपशिष्ट जल प्रबंधन सहित बुनियादी नागरिक सुविधाओं का भी आभाव है. गुवाहाटी की पहाड़ियों में रहने वालों द्वारा कचरे के निपटान के लिए अस्थाई इंतज़ाम किए गए हैं और जब तेज़ बारिश होती है, तो ये सारे इंतज़ाम धरे के धरे रह जाते हैं. नतीज़तन पानी का तेज़ बहाव होता है, जिससे न केवल भूस्खलन का ख़तरा बढ़ जाता है, बल्कि आसपास की वेटलैंड्स में प्रदूषण की वजह भी बनता है.
गुवाहाटी शहर में जापान इंटरनेशनल कोऑपरेशन एजेंसी (JICA) की मदद से एक सीवरेज परियोजना बनाने पर काम चल रहा है. हालांकि, शहर के निकलने वाले अपशिष्ट जल को डिस्चार्ज से पहले उपचार के लिए एसटीपी में पहुंचाने के लिए डायवर्जन चैनल बनाने के लिए अधिक कोशिशें करने की ज़रूरत है. इसके अलावा, पानी की गुणवत्ता को सुधारने के लिए भी उपाय किए जाने की ज़रूरत है.[62]
निसंदेह तौर पर शहरी जल प्रबंधन के लिए स्पंज सिटी मॉडल तुलनात्मक रूप से एक नया और प्रगतिशील नज़रिया है. देखा जाए तो स्पंज सिटी परिकल्पना के नतीज़े तमाम क्षेत्रों में उम्मीद के मुताबिक़ रहे हैं. लेकिन यह भी यह एक सच्चाई है कि स्पंज सिटी अवधारणा को अपनाने वाले हर शहर को स्थानीय स्तर पर कुछ न कुछ विशेष चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा. इसके अलावा, स्पंज सिटी रणनीतियों के नतीज़ों को किसी भी शहर का मौजूदा इंफ्रास्ट्रक्चर, वहां की टोपोग्राफी, वहां का मौसम और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां प्रभावित करेंगी. इसलिए, गुवाहाटी जैसे शहरों को स्पंज सिटी अवधारणा को अपनाने से पहले इसके मुताबिक़ ज़रूरी क़दम उठाने होंगे और भौगोलिक व बुनियादी ढांचागत परिस्थितियों को इसके अनुरूप बदलना होगा.
3. शहरी विकास के बहुआयामी दृष्टिकोण एवं साझा प्रबंधन तरीक़ों को अपनाना ज़रूरी
शहरी विकास के बहुकेन्द्रित या बहुआयामी नज़रिए में शहर के किसी एक हिस्से में विकास को तवज्जो देने के बजाए शहर में अलग-अलग कई स्थानों पर विकास से जुड़ी गतिविधियों को एक साथ संचालित किया जाता है. कहने का मतलब है कि इस प्रकार की गतिविधियों को शुरू किया जाता है, जो ख़ास तौर पर पहाड़ी शहरों के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकती हैं.[63] ज़ाहिर है कि अगर पहाड़ी शहरों में विभिन्न संसाधनों, आर्थिक गतिविधियों और बुनियादी ढांचे को समान तरीक़े से हर तरफ विकसित और संचालित किया जाता है, तो निश्चित रूप से इन शहरों के समस्याग्रस्त क्षेत्रों में व्यवस्थाओं और सुविधाओं को सहज तरीक़े से आगे बढ़ाया जा सकता है, साथ ही पहाड़ी क्षेत्रों की नाज़ुक पारिस्थितिकी प्रणालियों यानी पहाड़ियों और ज़मीन पर ख़तरे की संभावनाओं को भी कम किया जा सकता है.
इतना ही नहीं, इस प्रकार के बहुकेंद्रीय विकास मॉडल में स्थानीय समुदायों और हितधारकों का सहयोग भी आवश्यक होगा, ताकि प्राकृतिक अवरोधकों जैसे कि पहाड़ियों, नदियों या झीलों आदि का पता लगाया जा सके और इन्हें संरक्षित किया जा सके. ऐसा होने पर न केवल संवेदनशील क्षेत्रों में अवैध अतिक्रमण को रोका जा सकेगा, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया जा सकेगा कि स्थानीय निवासियों को अपने प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंचने में कोई रुकावट नहीं आए.[64] ज़ाहिर है कि एक नाज़ुक पहाड़ी शहर में रहने वाले लोगों के लिए जीवन की गुणवत्ता में सुधार का मतलब है कि वहां के वातावरण में इन जगहों के विकास को ऐहतियात के साथ आगे बढ़ाना. विकास के दौरान सिर्फ़ इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण में ही सावधानी बरतना ज़रूरी नहीं है, बल्कि यह भी ज़रूरी है कि पहाड़ी शहर के पारिस्थितिकी तंत्र में शामिल हर क्लस्टर या भागीदार, फिर चाहे वो मानव समुदाय हो, वन्यजीव के प्राकृतिक निवास स्थान हों या फिर प्राकृतिक वॉटर बॉडीज यानी नदियां या झीलें हों, इनसे छेड़छाड़ किए बिना और इन सबके बीच संतुलित स्थापित करते हुए विकास को आगे बढ़ाया जाए. इन क्लस्टर्स की पहचान के लिए स्थानिक क्लस्टरिंग विश्लेषण का उपयोग किया जा सकता है. इस प्रकार के विश्लेषण में स्थानिक वस्तुओं को ऐसे समूहों में शामिल किया जाता है, जो एक दूसरे के समान और नज़दीक होते हैं. विश्लेषण का इस्तेमाल स्थानिक आंकड़ों में संबंधों और संरचनाओं को समझने के लिए किया जाता है.[65] कहने का मतलब है कि क्लस्टर मैपिंग शहर और उसके प्राकृतिक परिवेश के बारे में एक विस्तृत जानकारी जुटाने में मदद कर सकती है. साथ ही इससे इसकी पूरी जानकारी मिल जाती है कि शहर की ज़रूरतों के मुताबिक़ टिकाऊ विकास के लिए क्या योजनाएं बनानी चाहिए और उन्हें किस प्रकार लागू करना चाहिए.
इसके अतिरिक्त, पहाड़ी क्षेत्रों में मौज़ूद शहरों में बहुकेंद्रित शहरी विकास में समुदाय-आधारित वन प्रबंधन को भी जोड़ा जा सकता है, साथ ही विकास से जुड़े विभिन्न फैसलों में सहयोगी व समावेशी रवैया अपनाया जा सकता है.[66] बहुकेंद्रित शहरी विकास में विभिन्न गतिविधियों को संचालित करने वाले केंद्रों के बीच पारस्परिक संबंध ऐसे मिलेजुले प्रयासों को सामने लाता है, जो कार्यात्मक संबंधों और परिणामों पर ज़ोर देता है. जैसे-जैसे शहर विकास और पारिस्थितिक स्थिरता को संतुलित करने का प्रयास करते हैं, विभिन्न केंद्रों के बीच ये संबंध शहरी नियोजन और वन प्रबंधन, दोनों में ही अहम होते जाते हैं.[67] थाईलैंड और इंडोनेशिया इसके अच्छे उदाहरण हैं. इन देशों में पहाड़ी इलाक़ों में बसे शहरों में समुदाय-आधारित वन प्रबंधन सिद्धांतों को अपनाए जाने से जहां स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप नीतियां बनाने में मदद मिली है, वहीं इसने राष्ट्रीय विकास एजेंडे में प्रमुखता से स्थान हासिल किया है.[68]
भारत के हिमालयी क्षेत्र में बसे पहाड़ी शहरों के नियोजन में पर्यावरण संरक्षण को महत्व देते हुए इसी प्रकार से स्थानीय निवासियों को निर्णय प्रक्रिया में भागीदार बनाया जा सकता है और उनके अनुभवों का लाभ उठाया जा सकता है. यानी शीर्ष स्तर पर फैसले लेकर उन्हें लागू किए जाने की परंपरा से अलग हटकर निर्णय लेने की प्रक्रिया में स्थानीय समुदाय को शामिल किया जा सकता है. इसके अलावा शहरी नियोजन में शामिल विभिन्न विभागों के बीच व्यापक विचार-विमर्श के बाद निर्णय लिए जा सकते हैं.[69] इस पूरी प्रक्रिया में ज़मीन के इस्तेमाल के तौर-तरीक़ों, जल विज्ञान, पहाड़ की मिट्टी और ढलानों की स्थिति की जांच-पड़ताल को शामिल किया जा सकता है, साथ ही ख़तरनाक और पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों, जैसे कि नदियों के पास स्थित बाढ़ संभावित इलाक़ों के बारे में जानकारी जुटाई जा सकती है और उसके अनुरूप विकास से संबंधित आगे के क़दम उठाए जा सकते हैं.[70] इसके अलावा, पहाड़ी इलाक़ों में मौसम लगातार बदलता रहता है, अगर इसका भी पूरा ब्यौरा जुटाया जाए कि ऐसा कब और क्यों होता है, तो निश्चित रूप से यह बदलती जलवायु परिस्थितियों के लिहाज़ से मुकम्मल रणनीति बनाने में कारगर साबित हो सकता है. यानी ऐसा करने से पहाड़ी इलाक़ों को उच्च, मध्यम और निम्न जोख़िम वाले क्षेत्रों में बांटा जा सकता है और इससे यह भी पता लगाया जा सकता है कि पहाड़ी शहरों में किस प्रकार की और किस स्तर की चुनौतियां बनी हुई हैं.[71]
ऐसे में पहाड़ी शहरों की पारिस्थितिकी संबंधी चिंताओं का समाधान तलाशने के लिए स्थानीय लोगों को प्रमुख हितधारक के रूप में शामिल करने वाली ज्वाइंट फॉरेस्ट मैनेजमेंट यानी संयुक्त वन प्रबंधन (JFM) जैसे पहलें भी बेहद प्रभावी सिद्ध हो सकती हैं.[72] इस पहल के अंतर्गत स्थानीय ग्रमीणों को सहभागी बनाते हुए और उन्हें आजीविका के अवसर प्रदान करते हुए वन संरक्षण को बढ़ावा दिया जाता है. इस पहल की शुरुआत 1972 में पश्चिम बंगाल में हुई थी और बंजर इलाक़ों का वनीकरण करने एवं वहां से होने वाली आय को स्थानीय लोगों के साथ बांटने पर आधारित थी. पिछले कुछ सालों के दौरान इस पहल ने गति पकड़ी है और इसके अंतर्गत सामुदायिक भागीदारी बढ़ाने के लिए वर्तमान में स्थानीय लोगों को ज़्यादा प्रोत्साहन दिया जाता है यानी उनकी आर्थिक और दूसरी मदद की जाती हैं. इसमें कोई संदेह नहीं है कि जेएमएफ जैसी योजना काफ़ी सकारात्मक है, बावज़ूद इसके इनके कार्यान्वयन में बहुत दिक़्क़तें आती हैं, जिनमें अफ़सरों द्वारा अड़ंगे लगाना, समुचित जानकारी नहीं होना जैसी परेशानियां प्रमुख हैं.[73]
हिमालयन रीजन के तमाम बाढ़ प्रभावित इलाक़ों में ज़रूरी जानकारियों का अभाव होता है, जिससे ज़मीन पर पानी के ज़बरदस्त प्रवाह, नदी के तेज़ बहाव और तूफानी बारिश जैसी आपदाओं का अनुमान नहीं लग पाता है. इस वजह से बाढ़ संभावित क्षेत्रों का भी पता नहीं चल पाता है. ऐसे में गूगल अर्थ इंजन और पायथन जैसे विकसित कंप्यूटरीकृत माध्यमों और ओपन-सोर्स सैटेलाइट इमेजरी जैसी तकनीक़ों का उपयोग काफ़ी फायदेमंद साबित हो सकता है. इन अत्याधुनिक तकनीक़ी माध्यमों का उपयोग करके पहाड़ी इलाक़ों की ज़मीन के बारे में सटीक जानकारी जुटाई जा सकती है और पता लगाया जा सकता है कि कौन सी भूमि बाढ़ प्रभावित है और कौन सी भूस्खलन के लिहाज़ से संवेदनशील है. इससे यह पता लगाने में आसानी होती है कि किस भूमि का विकास करना है और किस जगह का संरक्षण करना है.[74] ज़ाहिर है कि जब पहाड़ों की ज़मीनी हक़ीक़त की सटीक जानकारी उपलब्ध होगी, तो फिर उसे राज्य आपदा प्रबंधन विभागों, जिला प्रशासनों और शहरी नियोजन विभागों समेत राज्यों की विभिन्न नोडल एजेंसियों के साथ साझा किया जा सकता है. ऐसा करने से हिमालय के पहाड़ी शहरों में पैदा होने वाली पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने के लिए एक ऐसी कार्ययोजना तैयार की जा सकती है, जिसमें सभी विभागों की सहभागिता हो और ज़मीनी स्तर की पूरी जानकारी शामिल हो.
4. तकनीक़ और अलग-अलग क्षेत्रों में तालमेल बनाकर कार्य करना बेहद फायदेमंद
किसी शहर के नियोजन में सभी पहुलओं पर विचार किया जाना चाहिए और इसमें विभिन्न मौसमी परिस्थितियों का आकलन भी शामिल होना चाहिए. ज़ाहिर है कि इसके लिए अलग-अलग क्षेत्रों के आंकड़ों की उपलब्धता बेहद अहम होती है, क्योंकि ऐसा होने पर ही वर्तमान और भविष्य की ज़रूरतों के मुताबिक़ नियोजन किया जा सकेगा. विशेषज्ञों के अनुसार किसी भी नियोजन में तीन प्रमुख प्रक्रियाएं या चरण होते हैं, जिनका अनुसरण किया जाना महत्वपूर्ण है. पहला चरण है साइट नॉलेज यानी जगह की समुचित जानकारी, जैसे कि मिट्टी कैसी है, वहां की भौतिक स्थिति क्या है यानी पहाड़, जंगल और नदियों की क्या स्थिति है. दूसरा चरण है साइट इन्वेस्टिगेशन यानी जगह की जांच, जिसके तहत किसी परियोजना के डिजाइन और निर्माण में मदद करने के लिए भूजल व भूवैज्ञानिक गुणों के बारे में जानकारी जुटाई जाती है. तीसरा चरण है साइट सिंथेसिस यानी योजना बनाने और उसे क्रियान्वित करने के लिए साइट जांच के दौरान एकत्रित जानकारी का उपयोग करने की प्रक्रिया.[75] इस प्रकार से नियोजन में न सिर्फ़ स्थानीय हितधारकों की भागीदारी सुनिश्चित होती है, बल्कि नियोजन से जुड़े तमाम विषयों पर ख़ासा ध्यान भी दिया जाता. इस तरह से विकास के बारे में एक ऐसा सटीक मॉडल तैयार करने में मदद मिलती है, जिसमें न केवल स्थानीय लोगों द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी का, बल्कि विभिन्न तकनीक़ों के ज़रिए जुटाए गए आंकड़ों का भी समावेशन होता है.[76] विभिन्न हितधारकों से मिली जानकारी और ज़मीनी हालातों का गहन अध्ययन करने के बाद नियोजन की जो रूपरेखा तैयार होती है, उसमें स्थानीय लोगों की ज़रूरतों, पर्यावरण संरक्षण से संबंधित विभिन्न मुद्दों और स्थानीय गवर्नेंस की परेशानियों को प्रमुखता मिलती है.
शहरी नियोजन में शामिल विशेषज्ञ विभिन्न सामाजिक-आर्थिक कारकों के साथ-साथ स्थानीय स्तर पर उपलब्ध विभिन्न आंकड़ों का सटीक विश्लेषण करके न केवल शहरी नियोजन को पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं यानी इकोसिस्टम द्वारा मनुष्यों को मिलने वाले प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लाभों के साथ समायोजित कर सकते हैं, बल्कि यह भी सुनिश्चित कर सकते हैं कि शहरी विकास का स्थानीय पारिस्थिकी तंत्र पर कोई असर नहीं पड़े.
शहरी नियोजन में शामिल विशेषज्ञ विभिन्न सामाजिक-आर्थिक कारकों के साथ-साथ स्थानीय स्तर पर उपलब्ध विभिन्न आंकड़ों का सटीक विश्लेषण करके न केवल शहरी नियोजन को पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं यानी इकोसिस्टम द्वारा मनुष्यों को मिलने वाले प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लाभों के साथ समायोजित कर सकते हैं, बल्कि यह भी सुनिश्चित कर सकते हैं कि शहरी विकास का स्थानीय पारिस्थिकी तंत्र पर कोई असर नहीं पड़े.[77] यह पूरी प्रक्रिया देखा जाए तो जियो-डिज़ाइन आधारित तकनीक़ों के महत्व को दर्शाती है. इन तकनीक़ों में समुचित नियोजन के रास्ते में आने वाली स्थानीय चुनौतियों का समाधान करने के लिए डिजिटल टूल, भौगोलिक जानकारी और पर्यावरण मॉडलिंग का उपयोग किया जाता है.[78] जब नियोजन का ऐसा मॉडल जो स्थानीय परिस्थितियों के लिहाज़ से अनुकूल होता है, साथ ही व्यापक रूप से सामाजिक और आर्थिक हालातों के भी मुताबिक़ होता है, तो ज़ाहिर तौर पर इस प्रकार का शहरी नियोजन मॉडल न केवल क्षेत्रीय चुनौतियों से निपटने में कारगर साबित हो सकता है, बल्कि शहरों की वहन क्षमता मापने में भी सहायक सिद्ध हो सकता है.
शहरी नियोजन में हर पहलू को शामिल करने के लिए अगला क़दम एक वेब-आधारित प्लेटफॉर्म की स्थापना है. यानी एक ऐसा ऑनलाइन मंच बनाने पर विचार किया जाना चाहिए, जिसमें स्थानीय हितधारक आसानी से अपने सुझावों को दे सकें और पूरी प्रक्रिया में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर सकें. बेंगलुरू के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के सेंटर फॉर इकोलॉजिकल साइंसेज द्वारा विकसित किया गया वेस्टर्न स्पेशियल डिशीजन सपोर्ट सिस्टम (WGSDSS) इसी प्रकार का एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म है,[79] जो एंड्रॉयड और वेब दोनों मंचों पर उपलब्ध है. सह्याद्री मोबाइल ऐप इसी WGSDSS का हिस्सा है. इस मोबाइल ऐप पर बायो-फिजिकल, जलवायु, पर्यावरण, भूविज्ञान और सामाजिक विषयों से जुड़े आंकड़ों को एक साथ जोड़कर पश्चिमी घाट के पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील इलाक़ों के गांव व ग्रिड स्तरीय डेटा को प्रदर्शित किया जाता है. इस ऑनलाइन मोबाइल ऐप का मकसद सह्याद्रि पर्वत श्रृंखलाओं से जुड़े गवर्नेंस में मदद करना, साथ ही इकोलॉजी एवं पानी से संबंधित ज़रूरतों का प्रबंधन और सामाजिक मुद्दों का हल निकालना है.
शहरी विकास और शहरी नियोजन में अगर एकतरफा नज़रिए को अपनाया जाता है, तो मनमुताबिक़ नतीज़े हासिल नहीं होते हैं. दूसरी ओर विभिन्न विषयों और क्षेत्रों के बारे में एक साथ विचार करते हुए समग्र रूप से कोई समाधान तैयार किया जाता है, तो उसके अपेक्षित परिणाम हासिल होते हैं. यानी अलग-अलग विभागों और हितधारकों के आपसी सहयोग से और एक दूसरे के अनुभवों से सीखकर व मिलजुलकर समाधान तलाशा जाता है, तो अच्छे नतीज़े सामने आते हैं.[80] कहने का मतलब है कि अगर शहरी नियोजन की रूपरेखा बनाते समय नए-नए विचारों को बढ़ावा दिया जाता है और नया नज़रिया अपनाया जाता है, तो निश्चित तौर पर यह टिकाऊ शहरी विकास के लिए वरदान साबित हो सकता है. इतना ही नहीं, मौजूदा शहरों के विस्तार और नए बुनियादी ढांचे के निर्माण के दौरान आने वाली चुनौतियों का मुक़ाबला करने में भी यह दृष्टिकोण बेहद कारगर सिद्ध हो सकता है.[81] इसके अलावा, शहरी नियोजन में अगर मात्रात्मक आकलन को, यानी उपलब्ध आंकड़ों को गुणात्मक नज़रियों यानी ऐसा कैसे है, क्यों है जैसे निष्कर्षों के साथ जोड़ा जाता है, तो विकास से संबंधित योजनाएं बनाने में यह सहायक हो सकता है. इसके साथ ही इस पूरी प्रक्रिया में योजनाकारों के साथ अगर पारिस्थितिकीविदों, राजनीतिक और पर्यावरण वैज्ञानिकों को भी शामिल किया जाता है, तो शहरी नियोजन को और बेहतर तरीक़े से अंज़ाम दिया जा सकता है. जहां तक हिमालयी क्षेत्र के विकास का मामला है, तो तमाम विश्वविद्यालय पहाड़ी क्षेत्र नियोजन, शहरों के आसपास के क्षेत्रों के नियोजन, पर्यावरणीय नियोजन और आपदा से संबंधित तैयारियों से जुड़े मुद्दों को मिलाकर विशेष विभाग स्थापित करना चाहते हैं. हालांकि, अभी यह पूरा होता नहीं दिखाई दे रहा है और इस दिशा में काफ़ी कुछ किए जाने की ज़रूरत है.[82]
वैश्विक अनुसंधान परिषदें शहरी नियोजन में विभिन्न विषयों और विभागों को एक साथ लेकर काम करने पर ज़ोर देती हैं. लेकिन असलियत में इस दिशा में गंभीरता से कार्य नहीं किया जाता है, ख़ास तौर पर विकासशील देशों में शहरी विकास से जुड़ी योजनाओं में इसका आभाव नज़र आता है. ज़ाहिर है कि अगर पर्याप्त जानकारी और आंकड़े जुटाए बगैर परियोजनाओं को शुरू किया जाता है, तो इससे लाभ के बजाए नुक़सान होता है.[83] कहने का मतलब है कि अगर विकास परियोजनाओं के निर्माण में शामिल विभिन्न विभागों में सहयोग और समन्वय नहीं होगा, तो इससे दुविधा की स्थित पैदा हो सकती है और सभी एजेंसियां अपना अलग रास्ता तय कर सकती हैं. यानी कार्य करने का मकसद और लक्ष्य स्पष्ट नहीं होने से संस्थागत चुनौतियां सामने आ सकती हैं, जो ऐसी परियोजनाओं की राह में और रुकावटें पैदा करती हैं.[84] इसलिए, अलग-अलग विषयों को एक साथ लेकर आगे बढ़ने के फायदों को हासिल करने के लिए इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है.
निष्कर्ष
ज़ाहिर है कि पहाड़ी शहरों को टिकाऊ उपाय अपनाकर लोगों के रहने लायक बनाया जा सकता है और भारत के पास ऐसा करने के लिए शहरीकरण की पेचीदा चुनौतियों पर जीत हासिल करने का बहुत अच्छा मौक़ा है. अगर भारत ऐसा कर पाता है, निश्चित तौर पर यह सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को हासिल करने को लेकर भारत के संकल्प को भी मज़बूत करेगा. ख़ास तौर पर एसडीजी 11 ('टिकाऊ शहर और समुदाय') और एसडीजी 13 ('जलवायु कार्रवाई') को पूरा करने की प्रतिबद्धता को बल देगा. यह सतत विकास लक्ष्य शहरों में इस प्रकार का लचीला माहौल बनाने पर बल देते हैं, जहां न सिर्फ़ बढ़ती आबादी के लिए रहन-सहन और आजीविका के उचित इंतज़ामात हों, बल्कि सतत विकास को प्रमुखता देते हुए टिकाऊ पर्यावरण को प्राथमिकता दी जाए, साथ ही सामाजिक समानता का वातावरण स्थापित हो.[85]
ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो भारत के वर्तमान शहरी नियोजन और इससे संबंधित जो भी नीतियां हैं, उनके केंद्र में मैदानी क्षेत्रों के शहर ही रहे हैं. ऐसे में इस बात को समझने की ज़रूरत है कि पहाड़ी क्षेत्रों की समस्याएं और ज़रूरतें भिन्न होती है, इसलिए पहाड़ों में बसे शहरों के नियोजन के लिए अलग नीतियां होनी चाहिए. ज़ाहिर है कि इस हक़ीक़त को नज़रंदाज़ किया गया है और इसीलिए तमाम पहाड़ी क्षेत्रों में राजनीतिक अस्थिरता भी देखने को मिली है. दरअसल, पहाड़ों में विकास के लिए जो तरीक़ा अपनाया जाता है या योजनाएं बनाई जाती हैं, वो पहाड़ी क्षेत्र को ध्यान में रखकर नहीं बनाई जाती है और इसलिए वे नाक़ाम हो जाती है और नतीज़तन स्थानीय लोगों में गुस्सा बढ़ जाता है और सरकारों को उसका ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है.[86] इसलिए, अगर पहाड़ी क्षेत्रों के मसलों, उनकी समस्याओं और आवश्यकताओं को बेहतर तरीक़े से समझा जाए और उनका समाधान निकालने के लिए निष्पक्ष और टिकाऊ योजनाएं व नीतियां बनाई जाएं, तो ऐसा करना न सिर्फ़ पहाड़ों में रहने वालों के लिए फायदेमंद साबित होगा, बल्कि पहाड़ी क्षेत्रों के बारे में अन्य लोगों की सोच को भी बदलने का काम करेगा. शिलांग, आइजोल और कोहिमा जैसे शहरों में वहां की राज्य सरकारों ने भूस्खलन और जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों का सामना करने के लिए देखा जाए तो काफी अच्छा काम किया है. ऐसे में देश के बाक़ी पहाड़ी राज्य भी अपने क्षेत्रों में इन प्राकृतिक आपदाओं को लेकर सबक ले सकते हैं और पुख्ता तैयारी कर सकते हैं.
हिमालयन क्षेत्र का पारिस्थितिक तंत्र बेहद कमज़ोर और संवेदनशील है. ऐसे में हिमालयी इकोसिस्टम की सुरक्षा के लिए कई मुद्दों पर गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है.[87] पहाड़ की गोद में बसे शहरों के लिए एक टिकाऊ नज़रिए को अमल में लाने की आश्यकता है, जिसमें शहरी नियोजन के लिए मुकम्मल रणनीति बनाना, बिल्डिंगों के निर्माण से जुड़े नियमों का सख्ती से पालन कराना और बेतरतीब निर्माण पर पूरी तरह से पाबंदी लगाना शामिल है.[88] इसके अलावा, इसमें नगर पालिका मास्टर प्लान में भूमि के बेहतर उपयोग की योजना को शामिल करना और पहाड़ी शहरों में मौज़ूद बस्तियों की कमियों को दूर करना शामिल हैं. इसके साथ ही इस टिकाऊ नज़रिए में पहाड़ी शहरों में निर्माण से जुड़ी किसी भी नई परियोजना को शुरू करने से पहले, वहां नियमित जल आपूर्ति, जल निकासी, अपशिष्ट निपटान और बिजली की आपूर्ति जैसी आवश्यक शहरी सुविधाओं के प्रावधान को प्रमुखता देना शामिल है. इसके अलावा, पहाड़ी शहरों में विकास के दौरान सरकार के भूकंप से बचाव करने, पहाड़ों की प्राकृतिक सुंरदरता को बरक़रार रखने और इकोलॉजी को संरक्षित रखने से संबंधित नियम-क़ानूनों को कड़ाई से लागू करना भी बहुत अहम है.
अगर भारत द्वारा इन रणनीतियों को प्राथमिकता दी जाती है, तो वह पहाड़ों की गोद में बसे अपने शहरों के लिए एक ऐसे अधिक टिकाऊ और पर्यावरण के लिहाज़ से सुरक्षित भविष्य को सुनिश्चित कर सकता है, जहां लोगों के रहने लायक अनुकूल माहौल हो.
इसके अतिरिक्त, पहाड़ों की पारिस्थितिकी एवं वहां के प्राकृतिक संसाधनों पर मानवीय दख़लंदाज़ी के असर के बारे में पता लगाने और इस प्रभाव को समाप्त करने के तौर-तरीक़ों को तलाशने के लिए राज्यों के संबंधित विभागों को काफ़ी कुछ करने की आवश्यकता है. इसके साथ ही पहाड़ों की इकोलॉजी एवं संसाधनों को संरक्षित करने के लिए वहां कितनी आबादी को बसाया जा सकता है, इसका पता लगाने के लिए व्यापक अध्ययन करने की ज़रूरत है. इस दिशा में जी.बी. पंत नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन एन्वायरमेंट या फिर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई के शहरी विज्ञान एवं इंजीनियरिंग सेंटर (CUSE) जैसे शैक्षिणिक और शोध संस्थानों के विशेषज्ञों के सहयोग से महत्वपूर्ण जानकारी हासिल हो सकती है. अगर भारत द्वारा इन रणनीतियों को प्राथमिकता दी जाती है, तो वह पहाड़ों की गोद में बसे अपने शहरों के लिए एक ऐसे अधिक टिकाऊ और पर्यावरण के लिहाज़ से सुरक्षित भविष्य को सुनिश्चित कर सकता है, जहां लोगों के रहने लायक अनुकूल माहौल हो. यानी इन रणनीतियों पर चलकर ऐसे पहाड़ी शहर स्थापित किए जा सकते हैं, जहां रहने वालों को किसी तरह की परेशानी नहीं हो और जहां प्राकृतिक पारिस्थितिकी का भी पूरा संरक्षण हो.
Endnotes
[A] भारत में शहरों की अलग-अलग बसावट और मौजूद सुविधाओं के आधार पर शहरों को उनकी जनसंख्या के आकार, आर्थिक विकास, बुनियादी ढांचे, शिक्षा के अवसरों की उपलब्धता एवं स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं की मौजूदगी और क्षेत्रीय प्रशासनिक केंद्रों के रूप में उनके महत्व के आधार पर चार स्तरों में बांटा गया है.
[B] भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR) भारत के 13 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में 2,500 किलोमीटर के दायरे में फैला है. इन राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में जम्मू-कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा, असम और पश्चिम बंगाल शामिल हैं.
[C] 'वहन क्षमता' उस अधिकतम जनसंख्या को कहा जाता है, जिसे किसी शहर का पारिस्थितिकी तंत्र बगैर की समस्या के बरक़रार रख सकता है.
[D] 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को कवर करते हुए: लद्दाख और जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर, मिजोरम, सिक्किम, असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और नागालैंड.
[E] मुंबई के कुछ भूस्खलन प्रभावित क्षेत्रों में विक्रोली, चेंबूर और माहुल शामिल हैं.
[F] ‘मोमेंट मैग्नीट्यूड’ भूकंप की तीव्रता नापने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक पैमाना है.
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