Author : Sujan R. Chinoy

Issue BriefsPublished on Jan 06, 2024
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सामरिक दुनिया: अमेरिका के क्षेत्रीय रुख़ में ताइवान का मुद्दा!

  • Sujan R. Chinoy

    अमेरिका लंबे समय से ताइवान के मुद्दे को लेकर उलझा हुआ है. उसकी 'रणनीतिक अस्पष्टता' की नीति ने पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) द्वारा बल प्रयोग को अब तक रोका है. यह एक विचार करने योग्य सवाल है कि ताइवान जलसंधि या जलसंधि में पीआरसी के मुखर सैन्य रुख़ का मुकाबला करने के लिए क्या यह नीति टिकी रह सकती है. अमेरिका के सामने सवाल यह है कि क्या वह एक ही समय में आक्रमण को रोक पाने और पीआरसी के साथ युद्ध से बचे रहने को सक्षम बना सकता है. पीआरसी पुन:एकीकरण के लिए दृढ़ संकल्पित है और उसने बल प्रयोग से इनकार नहीं किया है. यदि बल का प्रयोग किया जाता है, तो अमेरिका संभवतः संघर्ष में खिंच जाएगा. दूसरी ओर, यदि अमेरिका खड़ा रहता है और ताइवान के साथ जो होता है उसे बिना हस्तक्षेप के देखता रहता है, तो क्षेत्र में अमेरिका की उपस्थिति, प्रतिष्ठा और शक्ति कभी भी पहले जैसी नहीं रहेगी. इसलिए, अमेरिका को अपने रुख़ में स्पष्टता लाने की ज़रूरत है, ख़ासकर इस बारे में कि क्या वह सैन्य रूप से ताइवान का बचाव करेगा.

Attribution:

सुजान चिनॉय, “सामरिक दुनिया: अमेरिका के क्षेत्रीय रुख़ में ताइवान का मुद्दा,” इश्यू ब्रीफ़ नंबर- 679, दिसंबर 2023, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन.

प्रस्तावना

बढ़ते हुए चीनी ख़तरे के आलोक में, असली सवाल यह है कि क्या मौजूदा अमेरिकी नीति ताइवानी जलसंधि में आक्रमण को रोक सकेगी और इसके साथ ही युद्ध से बच भी सकेगी. ऐसे में उस समय के इतिहास में थोड़ा पीछे मुड़कर देखना ज्ञानवर्द्धक होगा, जब चीन गणराज्य (आरओसी) संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य था और 1949 में जब राष्ट्रवादी ताइवान भाग गए और आरओसी ने पूरे चीन का प्रतिनिधित्व करने का दावा किया था, तब भी वह स्थायी सदस्य बना रहा था, उस दौरान अमेरिका से भी उसे राजनयिक मान्यता प्राप्त थी.

अमेरिका की ताइवान नीति के इतिहास का गहन अध्ययन, जिसे 'रणनीतिक अस्पष्टता' शब्द का उदाहरण देकर सबसे अच्छी तरह से समझाया गया है, संदेह को जन्म दे सकता है. आज का मुद्दा यह है कि क्या यह नीति ताइवान में चीनी सैन्य आक्रमण के चरम परिदृश्य में काम करेगी.

अमेरिका की ताइवान नीति के इतिहास का गहन अध्ययन, जिसे 'रणनीतिक अस्पष्टता' शब्द का उदाहरण देकर सबसे अच्छी तरह से समझाया गया है, संदेह को जन्म दे सकता है. आज का मुद्दा यह है कि क्या यह नीति ताइवान में चीनी सैन्य आक्रमण के चरम परिदृश्य में काम करेगी. जलसंधि के आर-पार की वर्तमान स्थिति अमेरिका के लिए अपनी रणनीतिक अस्पष्टता का जायज़ा लेने और यह जांचने के लिए एक बाध्यकारी क्षण है कि क्या यह ताइवान पर चीनी इरादे और शक्ति प्रक्षेपण की चुनौती का सामना करने के लिए पर्याप्त है. अमेरिका को एक और अधिक स्पष्ट सार्वजनिक रुख़ अपनाना चाहिए कि वह ताइवान को खोने का जोख़िम नहीं उठा सकता, जो अनिवार्य रूप से अमेरिकी क्षेत्रीय रुख़ की एक धुरी पर प्रभावित करता है.

ताइवान पर अमेरिकी दृष्टिकोण का इतिहास

यह ध्यान रखना प्रासंगिक है कि जब हैरी ट्रूमैन प्रशासन ने 5 जनवरी 1950 को फॉर्मोसा [a]  मुद्दे के बारे में एक बयान दिया, तो उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि अमेरिका के पास "फ़ॉर्मोसा को लेकर कोई हिंसक योजना नहीं थी," और न ही यह पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) और आरओसी के बीच नागरिक संघर्ष में हस्तक्षेप करेगा.[i] कोरियाई युद्ध के दौरान, ट्रूमैन प्रशासन ने कोरियाई संघर्ष को फ़ैलने से रोकने के लिए ताइवान जलसंधि में तटस्थता की स्थिति की वकालत करते हुए, 27 जून 1950 को, एक और बयान जारी किया. जलसंधि में सातवें बेड़े को तैनात करने के पीछे का उद्देश्य न केवल पीआरसी को किसी भी ग़लत साहसिक कार्य से रोकना था, बल्कि आरओसी को मुख्य भूमि पर हमला करने से रोकना भी था. वास्तव में, 27 जून 1950 के बयान में यह भी कहा गया था कि "फ़ॉर्मोसा की भविष्य की स्थिति का निर्धारण करने के लिए प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा की बहाली, जापान के साथ शांति समझौते या संयुक्त राष्ट्र द्वारा विचार किए जाने का इंतज़ार करना चाहिए."[ii] हालांकि, बाद में, अमेरिका ताइवान की सुरक्षा के पक्ष में एक अधिक स्पष्ट दृष्टिकोण की ओर [iii] बढ़ने लगा.

अमेरिका और ROC  के बीच परस्पर रक्षा संधि

दिसंबर 1954 की 'अमेरिका और चीन गणराज्य के बीच परस्पर रक्षा संधि', जिसे फरवरी 1955 में अनुमोदित किया गया था और मार्च 1955 में लागू हुई थी, इसी बात का एक उदाहरण है. संधि के अनुच्छेद 2 के अनुसार दोनों पक्ष, "अलग-अलग और संयुक्त रूप से स्वयं सहायता और परस्पर सहायता द्वारा अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक क्षमता बनाए रखेंगे और विकसित करेंगे ताकि उनकी क्षेत्रीय अखंडता और राजनीतिक स्थिरता के ख़िलाफ़ बाहरी हमले और कम्युनिस्ट विध्वंसक गतिविधियों का विरोध कर सकें." अनुच्छेद 5 "पश्चिम प्रशांत क्षेत्र में किसी भी पक्ष के क्षेत्रों के ख़िलाफ़ निर्देशित एक सशस्त्र हमले को अपनी स्वयं की शांति और सुरक्षा के लिए खतरनाक मानने पर केंद्रित है और यह घोषणा करता है कि यह अपनी संवैधानिक प्रक्रियाओं के अनुसार साझा खतरे का सामना करने के लिए कार्य करेगा."[iv] मोटे तौर पर, संधि का अनुच्छेद 6 "क्षेत्रीय" और "क्षेत्र" शब्दों को "चीन गणराज्य" के संबंध में ताइवान और पेस्काडोर को और अमेरिका के संबंध में, इसके अधीन पश्चिम प्रशांत क्षेत्र में द्वीप क्षेत्रों को परिभाषित करता है. संधि में कहा गया है कि "अनुच्छेद 2 और 5 के प्रावधान ऐसे अन्य क्षेत्रों पर लागू होंगे जो आपसी समझौते से निर्धारित किए जा सकते हैं."[v] इसलिए, सैद्धांतिक रूप से, ऐसा लगता है कि दोनों पक्षों ने फ़ैसला किया हो, कि यदि आवश्यक हो तो संधि के प्रावधानों को ताइवान की मुख्य भूमि से ठीक बाहर स्थित अपतटीय द्वीपों, जैसे कि जिनमेन और मात्सू, पर भी लागू किया जा सके.

ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रथम ताइवान संकट के दौरान, पीआरसी ने सितंबर 1954 में जिनमेन पर तोपखाने से गोलाबारी शुरू कर दी थी और उसके बाद मात्सू और तचेन पर भी इसी तरह की बमबारी हुई, जिसके कारण उसी वर्ष दिसंबर में परस्पर रक्षा संधि का समापन हुआ. जनवरी 1955 में, पीआरसी ने अमेरिकी सातवें बेड़े के घात में रहने के बावजूद, आरओसी के अपतटीय यिजियांगशान द्वीपों पर कब्ज़ा कर लिया. परस्पर रक्षा संधि मार्च 1955 में लागू हुई, लेकिन आइज़नहावर प्रशासन ने जनवरी 1955 में फ़ॉर्मोसा प्रस्ताव को आगे बढ़ाया ताकि अमेरिकी सशस्त्र बलों को कम्युनिस्टों के किसी भी हमले से फ़ॉर्मोसा और पेस्काडोरेस को सुरक्षित और संरक्षित करने की अनुमति मिल सके. विशेष रूप से, इस तरह के आश्वासनों ने पीआरसी की बमबारी को रोकने के लिए कुछ नहीं किया, जो मई 1955 तक जारी रही. उल्लेखनीय है कि, फ़ॉर्मोसा प्रस्ताव के परिणामस्वरूप अमेरिकी सशस्त्र बलों ने राष्ट्रवादी बलों को तचेन द्वीपों को खाली करने में सहायता की. कुछ समय अमेरिका ने परमाणु हथियारों का उपयोग करने पर भी विचार किया लेकिन सोवियत संघ ने पीआरसी के पक्ष में हस्तक्षेप करने की धमकी दी, जिससे विश्व युद्ध छिड़ने की आशंका भी पैदा हो गई और इसने अमेरिका को सीमित प्रकृति के पारंपरिक हस्तक्षेप तक सीमित कर दिया.

दूसरा ताइवान जलसंधि संकट अगस्त 1958 में आया, जब डोंगडिंग अपतटीय द्वीप के पास पीआरसी ने नौसैनिकों को उतारने का एक प्रयास किया और वहां नौसैनिकों के बीच एक झड़प हुई. आकाश में वायुयानों के बीच भी झड़प हुईं, जिनमें आरओसी के एफ़-86 स्टारफ़ाइटर्स विमान पीआरसी के मिग्स से बेहतर साबित हुए. अमेरिका ने यह तय किया कि वह तब तक हस्तक्षेप नहीं करेगा, जब तक कि अपतटीय द्वीपों के लिए ख़तरा इतना अधिक न हो कि ताइवान के लिए सीधा ख़तरा हो. वर्ष के उत्तरार्ध में, अमेरिका ने संकट को समाप्त करने के लिए एक सख़्त रुख़ अपनाया. ताइवानी नेता च्यांग काई-शेक को यह बयान देने के लिए बाध्य किया गया था कि "मुख्य भूमि पर [चीनी] लोगों की स्वतंत्रता" बहाल करने के "पवित्र मिशन" को सफलतापूर्वक प्राप्त करने का प्रमुख साधन "डॉक्टर सुन यात-सेन के लोगों के तीन सिद्धांतों (राष्ट्रवाद, लोकतंत्र और सामाजिक कल्याण) को लागू किया जाना था, बल का प्रयोग नहीं."[vi]

कोरियाई युद्ध के दौरान चीन के साथ अपने टकराव में अमेरिका ने अपने फ़ायदे के लिए ताइवान का इस्तेमाल नहीं किया, भले ही उसने ताइवान को रक्षात्मक उद्देश्यों के लिए पर्याप्त हथियारों की आपूर्ति की हो. इस प्रकार, परस्पर रक्षा संधि के बावजूद, अमेरिका ने पीआरसी को शांत रखने के लिए पर्याप्त 'रणनीतिक अस्पष्टता' का प्रयोग किया.

कोरियाई युद्ध के दौरान चीन के साथ अपने टकराव में अमेरिका ने अपने फ़ायदे के लिए ताइवान का इस्तेमाल नहीं किया, भले ही उसने ताइवान को रक्षात्मक उद्देश्यों के लिए पर्याप्त हथियारों की आपूर्ति की हो. इस प्रकार, परस्पर रक्षा संधि के बावजूद, अमेरिका ने पीआरसी को शांत रखने के लिए पर्याप्त 'रणनीतिक अस्पष्टता' का प्रयोग किया. अमेरिका के पीआरसी के साथ राजनयिक संबंध स्थापित होने के ठीक एक साल बाद राष्ट्रपति जिमी कार्टर के कार्यकाल के दौरान 1 जनवरी, 1980 को इस संधि को समाप्त कर दिया गया.

1979 का ताइवान संबंध अधिनियम

1979 के ताइवान संबंध अधिनियम (टीआरए) ने परस्पर रक्षा संधि की जगह ली, जिसने अमेरिका की 'रणनीतिक अस्पष्टता' को और अधिक बल दिया. टीआरए में कुछ प्रमुख प्रावधान शामिल हैं, जैसे कि धारा 2[b], जिसके तहत अमेरिका को "ताइवान के भविष्य को अन्य गैर-शांतिपूर्ण तरीकों से निर्धारित करने के किसी भी प्रयास पर विचार करना है, जिसमें बहिष्कार या प्रतिबंध शामिल हैं, पश्चिम प्रशांत क्षेत्र की शांति और सुरक्षा के लिए ख़तरा और संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए गंभीर चिंता का विषय है;"[vii] "ताइवान को रक्षात्मक क्षमता वाले हथियार प्रदान करना;"[viii] और "ताइवान के लोगों की सुरक्षा या सामाजिक या आर्थिक व्यवस्था को ख़तरे में डालने वाले बल या ऐसे किसी अन्य तरह के दबाव का मुकाबला करने की संयुक्त राज्य अमेरिका की क्षमता बनाए रखना."[ix] ताइवान के मुख्य भूमि के साथ पुन:एकीकरण को लेकर अमेरिका की तटस्थता टीआरए की भाषा से पूरी तरह से स्पष्ट हो जाती है. इसमें ज़ोर शांतिपूर्ण साधनों से पुन:एकीकरण प्राप्त करने पर है, न कि स्वयं पुन:एकीकरण पर. टीआरए की शर्तों का भी यही अर्थ है कि अमेरिका ताइवान की ओर से किसी भी सैन्य दुस्साहसिकता का समर्थन नहीं करेगा. इसके बाद से दशकों के अंतराल के बाद, विशेष रूप से चेन शुई-बियान के राष्ट्रपति पद (2000-2008) के दौरान, अमेरिका ने स्पष्ट किया कि टीआरए के तहत उसकी प्रतिबद्धता तभी बनी रहेगी जब तक ताइवान एकतरफ़ा उत्तेजना से बचा रहता है.

बिल क्लिंटन के तीन इनकार

तीसरे ताइवान जलसंधि संकट (1995-1996) के बाद, चीन के साथ संबंधों को सामान्य बनाने के प्रयास में, तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने जून 1998 में शंघाई में अपने सार्वजनिक बयान में ताइवान पर अमेरिकी नीति के बारे में बोलते हुए "तीन इनकार" की नीति की घोषणा की - ताइवान की स्वतंत्रता से इनकार, "एक चीन एक ताइवान" से इनकार और अंतरराष्ट्रीय संगठनों में ताइवान के प्रतिनिधित्व से इनकार, जहां राज्य का दर्जा एक पूर्व शर्त है. यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि "संयुक्त राज्य अमेरिका स्वीकार करता है कि ताइवान जलसंधि के दोनों ओर के सभी चीनी लोग केवल एक चीन का हिस्सा हैं और ताइवान चीन का एक भाग है. संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार इस स्थिति को चुनौती नहीं देती है."[x] संक्षेप में, अमेरिकी रुख़ दोनों उद्देश्यों में सीमित प्रतीत होता है, न तो चीन के एकतरफ़ा बल प्रयोग का समर्थन करना और न ही ताइवान द्वारा उकसाना.

'रणनीतिक अस्पष्टता' से 'रणनीतिक स्पष्टता' की ओर बढ़ने की आवश्यकता

 अगर पीआरसी को ताइवान के जबरन अधिग्रहण के प्रयास से रोका जाना है, तो अमेरिका को पुन:एकीकरण के ख़िलाफ़ एक कठोर राजनीतिक और सैन्य रुख़ बनाए रखने की ज़रूरत है, इस बात पर ज़ोर देना होगा कि शांतिपूर्ण समाधान के लिए आगे का रास्ता संवाद और चर्चा के माध्यम से निकलता है. 

2016 में ताइवान की डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (डीपीपी) की त्सई इंग-वेन के राष्ट्रपति बनने के बाद पीआरसी के ताइवान जलसंधि में ताक़त के प्रदर्शन की घटनाएं बढ़ने से रणनीतिक अस्पष्टता की अमेरिकी नीति दबाव में आ गई है. अगस्त, 2022 में तत्कालीन अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की स्पीकर नैन्सी पेलोसी की ताइवान यात्रा ने तनाव को और बढ़ा दिया, जिससे 1995-96 के ताइवान जलसंधि संकट के समान स्थिति पैदा हो गई और ताइवान की संभावित नाकाबंदी का डर पैदा हो गया. कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि डीपीपी द्वारा 'एक चीन का सिद्धांत' या '1992की  सर्वसम्मति'[बी] को स्वीकार न करने से सुरक्षा की स्थिति बिगड़ गई है. लेकिन अतीत के विपरीत, ताइवान में नई पीढ़ी जलसंधि से परे संबंधों पर डीपीपी के रुख़ को लेकर अधिक समर्थन करती है. राजनीतिक सम्बन्धता चाहे जो भी हो, भविष्य के किसी भी नेतृत्व के लिए, इस तथ्य को उलटना कठिन है. इसने अमेरिकी नेतृत्व पर भी दबाव डाला है  कि वह स्पष्ट रुख़ अपनाए. सितंबर 2022, में एक टेलीविज़न साक्षात्कार में, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने स्पष्ट रूप से कहा कि अमेरिकी किसी भी अभूतपूर्व हमले की स्थिति में ताइवान का बचाव करेगा, हालांकि व्हाइट हाउस ने बाद में बयान में लीपापोती की कोशिश की.[xi] अगर पीआरसी को ताइवान के जबरन अधिग्रहण के प्रयास से रोका जाना है, तो अमेरिका को पुन:एकीकरण के ख़िलाफ़ एक कठोर राजनीतिक और सैन्य रुख़ बनाए रखने की ज़रूरत है, इस बात पर ज़ोर देना होगा कि शांतिपूर्ण समाधान के लिए आगे का रास्ता संवाद और चर्चा के माध्यम से निकलता है. इससे कम कुछ भी चीन के आक्रामक प्रयासों की ओर आंख मूंद लेने के समान है और यह तथाकथित रणनीतिक अस्पष्टता की नीति की सीमाओं की लगातार परीक्षा ले रहा है.

दांव पर है अमेरिका की विश्वसनीयता. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से एशिया प्रशांत में शक्ति संतुलन और स्थिरता सुनिश्चित करने में अमेरिका सबसे महत्वपूर्ण कारक रहा है. इसने दो युद्धों, कोरियाई प्रायद्वीप और वियतनाम में, अमेरिका और उदारवादी व्यवस्था के हितों के विरोधी राज्यों और विचारधाराओं द्वारा उस शक्ति संतुलन में अचानक एकतरफ़ा परिवर्तन को रोकने के लिए प्रवेश किया. कोरिया में मिश्रित सफलता और वियतनाम में एक निंदा मिलने के बावजूद, वाशिंगटन से आने वाले संदेश और झलकने वाले इरादे मज़बूत और आश्वासन देने वाले थे. यह स्पष्ट है कि इस तरह की स्थिति ने क्षेत्रीय स्थिरता में योगदान दिया. इसलिए, समय की मांग है कि अमेरिका ताइवान के संदर्भ में एक स्थिर और कठोर दृष्टिकोण बनाए रखे.

हिंद-प्रशांत में अमेरिका के लिए ताइवान का महत्व

एशिया प्रशांत में अमेरिका के कई ठिकाने हैं और इस क्षेत्र में जापान, दक्षिण कोरिया और फिलीपींस के साथ बेशुमार संधियां और गठबंधन साझेदारियां हैं. सुरक्षा समझौते इसे सिंगापुर, मलेशिया और थाईलैंड के साथ भी जोड़ते हैं. क्षेत्र में 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के निवेश और लगभग दोगुने आंकड़े में होने वाला व्यापार, इसे रक्षा करने योग्य बनाता है और सुरक्षा परिप्रेक्ष्य से भविष्य में इसे अलग नहीं किया जा सकता है.

अमेरिकी निष्क्रियता के साथ ताइवान के पतन के चलते दक्षिण कोरिया अपने नए हिंद-प्रशांत दृष्टिकोण को छोड़कर कोरियाई प्रायद्वीप और चीन के आस-पास केंद्रित अपनी पिछली नीतियों की ओर वापस लौट सकता है. एक अन्य देश ऑस्ट्रेलिया, जो अपनी समृद्धि के लिए पीआरसी के बाज़ार पर बहुत अधिक निर्भर है, अतीत में वापस जाने के लोभ में आ सकता है जब आर्थिक तर्क सभी पर हावी हो जाता था.

यदि ताइवान पीआरसी के पास चला जाता है, तो यह न केवल बाद वाले (पीआरसी) को अत्याधुनिक तकनीकों (जैसे  कि सेमीकंडक्टर्स) तक पहुंच दे देगा, बल्कि तकनीकी मानव संसाधनों का एक प्रतिभाशाली और अनुभवी वर्ग भी उपलब्ध कराएगा. ताइवान को अपने पाले में ले लाने से इसका दुनिया के बाकी हिस्सों के साथ आर्थिक और उच्च-तकनीकी अंतर्संबंध बढ़ जाएगा, जो पीआरसी के अर्थपूर्ण और एक ही दिशा में सोचने वाले अभियान के सामने पश्चिम के विकल्पों को सीमित कर देगा, जो 'नए प्रकार के महान शक्ति संबंधों' की स्थापना की ओर अग्रसर है. ताइपे यदि बीजिंग से हार गया, तो पीआरसी को एक नया केंद्र और संपर्क तंत्र विरासत में मिलेगा जो उसके आर्थिक उदय को गति दे सकता है. हालांकि पीआरसी की भारी भरकम अर्थव्यवस्था के सामने बौनी दिख रही है लेकिन ताइवान की उल्लेखनीय जीडीपी पीआरसी की अर्थव्यवस्था में सीधे लगभग 800 बिलियन अमेरिकी डॉलर जोड़ देगी, जिससे गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों तरह से पीआरसी के अमेरिका के साथ अंतर को और कम करने में मदद मिलेगी. बेशक, यह तर्क दिया जा सकता है कि सेमीकंडक्टर्स और अन्य उच्च तकनीकों में ताइवान का कौशल भरोसे और विश्वसनीयता पर टिका हुआ है और यदि ताइवान को जबरन चीन में मिलाया जाता है, तो इस आपूर्ति श्रृंखला के ढहने की सबसे अधिक संभावना है. पीआरसी के शासन के अधीन रहने के बजाय कई ताइवानी इंजीनियर और विशेषज्ञ द्वीप से भाग सकते हैं.

पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन के रणनीतिक दृष्टिकोण से, ताइवान का पतन पहली द्वीप श्रृंखला में एक बड़ी दरार पैदा कर देगी; यह सतह और उप-सतह दोनों तरह से, प्रशांत महासागर में चीनी नौसैना की शक्ति के विस्तार और प्रक्षेपण का मार्ग प्रशस्त करेगी. इसकी वजह से पूरे पश्चिमी प्रशांत में अमेरिकी नौसैनिक उपस्थिति वाले गुआम के साथ ही माइक्रोनेशिया, पॉलीनेशिया और मेलनेशिया से पापुआ न्यू गिनी और ऑस्ट्रेलिया तक वाणिज्यिक जलमार्ग और अन्य समुद्री संचार मार्गों तक ख़तरा पैदा हो सकता है.

ताइवान पर अमेरिकी निष्क्रियता से सबसे ज़्यादा धक्का जापान को लगेगा. ऐसी स्थिति में, यह शायद परमाणु हथियार हासिल करने के लिए दौड़ पड़ेगा और समय के साथ इसके लिए अमेरिकी सुरक्षा उपस्थिति और सुरक्षा छतरी का मान बहुत कम रह जाएगा. इसे पीआरसी के साथ एक अस्थायी समझौता करने के लिए लुभाया जा सकता है, शांति को लाने के लिए स्वयं परमाणु शक्ति संपन्न होने और शायद क्षेत्र में द्वितीय श्रेणी के दर्जे के लिए दौड़ लगाने का जोख़िम भी इसे उठाना पड़ सकता है. इस तरह के परिदृश्य के लिए आर्थिक परस्पर निर्भरता पहले से ही दोनों राष्ट्रों के बीच मौजूद है. यदि जापान परमाणु शक्ति संपन्न हो जाता है, तो दक्षिण कोरिया भी उत्तर कोरिया, पीआरसी और जापान द्वारा दीर्घकाल में उत्पन्न होने वाले खतरों से निपटने के लिए स्वयं परमाणु शक्ति संपन्न बनने की कोशिश में बहुत पीछे नहीं रहेगा. इस तरह, अमेरिकी निष्क्रियता के साथ ताइवान के पतन के चलते दक्षिण कोरिया अपने नए हिंद-प्रशांत दृष्टिकोण को छोड़कर कोरियाई प्रायद्वीप और चीन के आस-पास केंद्रित अपनी पिछली नीतियों की ओर वापस लौट सकता है. एक अन्य देश ऑस्ट्रेलिया, जो अपनी समृद्धि के लिए पीआरसी के बाज़ार पर बहुत अधिक निर्भर है, अतीत में वापस जाने के लोभ में आ सकता है जब आर्थिक तर्क सभी पर हावी हो जाता था.

प्रशांत में अमेरिकी रुख़ एक मजबूत प्रथम द्वीप श्रृंखला पर आधारित है, जो जापान, ताइवान, फिलीपींस और इंडोनेशिया से होकर गुज़रती है. यह उससे आगे हल्का फैला हुआ है, जिसमें कॉम्पैक्ट ऑफ़ फ़्री एसोसिएशन (सीओएफ़ए) व्यवस्थाओं के हिस्से के रूप में, मार्शल द्वीप समूह गणराज्य के हिस्से, गुआम और क्वाजलेइन सहित सिर्फ़ चार ठिकाने हैं. अन्य सीओएफ़ए व्यवस्थाएं माइक्रोनेशिया और पलाऊ के संघीय राज्यों के साथ हैं. एक बार जब पीआरसी का ताइवान पर पूर्ण नियंत्रण हो जाता है, तो उसे ताइवान के दक्षिण में बाशी जलसंधि या द्वीप क्षेत्र के उत्तर में मियाको जलसंधि के माध्यम से प्रशांत में प्रवेश करने के बारे में चिंता करने की आवश्यकता नहीं रहेगी. पीआरसी के पास अपने विमान और वाहक-आधारित टास्क फोर्स भेजने और गुआम से जुड़ी और उसके पूर्व में, प्रशांत महासागर के व्यापक विस्तार में गहरे मारियाना ट्रेंच में सोनार बिछाने के लिए ज़्यादा स्वतंत्रता होगी. यह एसओएसयूएस (ध्वनि निगरानी प्रणाली) का उपयोग करके अमेरिकी पनडुब्बियों की निगरानी करने की अपनी क्षमता को काफ़ी बढ़ा सकता है. यह सब शक्ति संतुलन में बहुत बड़ा बदलाव लाएगा और संघर्ष की स्थितियों में व्यापारी जहाज़ों पर पड़ने वाले संभावित प्रतिकूल प्रभाव के अलावा, अमेरिका और अन्य लोगों की नौसैनिक उपस्थिति को ख़तरे में डालेगा. इसे हाल ही में सोलोमन द्वीप समूह (जिसने किरिबाती के साथ, हाल ही में राजनीतिक मान्यता को ताइवान से पीआरसी को स्थानांतरित कर दिया है) में चीनी साजिशों के साथ देखें तो समझ आएगा कि पीआरसी के ताइवान पर कब्ज़े का पूरे प्रशांत और उससे आगे गहरा असर पड़ेगा.

मैं मानता हूं कि इस क्षेत्र में अमेरिकी सहयोगी शांत नहीं रहे हैं. जापान, विशेष रूप से, राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति, राष्ट्रीय रक्षा कार्यक्रम दिशानिर्देश और रक्षा निर्माण कार्यक्रम के नवीनतम संस्करणों के साथ शुरू कर अपनी शांतिवादी रक्षा और सुरक्षा नीति की सक्रिय समीक्षा कर रहा है, जिससे 2027 तक जापान के रक्षा खर्च में 2 प्रतिशत तक क्रमिक वृद्धि की संभावना है.[xii] विशेष रूप से, 2023 में, जापानी रक्षा मंत्रालय ने पूरक बजट में 7 ट्रिलियन जापानी येन की अभूतपूर्व मांग की है.

जापान ने रक्षा प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की अपनी प्रतिबंधात्मक नीतियों में भी बदलाव किए हैं. उसने आधिकारिक सुरक्षा सहायता कार्यक्रम बनाकर रक्षात्मक उपकरणों की आपूर्ति और अपनी आधिकारिक विकास सहायता कार्यक्रम के लाभार्थियों की स्थानीय क्षमताओं के निर्माण का एक तरीका तैयार किया है. जापान रक्षा उपकरण और प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण पर अपने लंबे समय से चले आ रहे तीन सिद्धांतों में घातक साधनों को शामिल करने के लिए भी बदलाव पर बहस कर रहा है.[xiii]

यह तथ्य कि इन ऐतिहासिक सुधारों का नेतृत्व प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा के कार्यालय ने किया है, शिंजो आबे के युग की नीतियों के लगातार आगे बढ़ने की ओर इशारा करता है, जो ताइवान की संभावित परिस्थिति के जापान पर नकारात्मक नतीजों के आकलन के बाद बनाई गई थीं. ताइवान में अपने वास्तविक मिशन में स्व-रक्षा बलों के एक सेवारत अधिकारी की तैनाती भी ताइवान पर जापान की स्थिति में धीरे-धीरे बदलाव का संकेत देती है.

निष्कर्ष

टीआरए की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाने से, ख़ासकर ताइवान के ज़बरदस्त अधिग्रहण को रोकने में असमर्थ होने के कारण, अमेरिका की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता को बहुत बड़ा झटका लगेगा. इस मुद्दे पर अमेरिकी विरोध, इस आधार पर कि उसके पास ताइवान की रक्षा के लिए कोई औपचारिक संधि नहीं है, जापान और दक्षिण कोरिया को गलत संदेश भेजेगा. अमेरिका के साथ द्विपक्षीय सुरक्षा व्यवस्था में उनका विश्वास गिर जाएगा. अमेरिकी निष्क्रियता जापान और दक्षिण कोरिया को अपने स्वयं के परमाणु  शक्ति संपन्न होने की कोशिश करने के लिए प्रेरित कर सकती है और साथ ही उत्तर-पूर्व एशिया में चीनी प्रभाव क्षेत्र के भीतर एक नए ठिकाने की तलाश कर सकती है. पीआरसी 

Endnotes

[a] The island of Taiwan was previously known as Formosa.

[b] The ‘1992 consensus’ is the alleged outcome of a meeting between the two sides that has been variously interpreted in the context of the ‘One China’ principle; the PRC insists that it is the sole legitimate representative of all of China, including Taiwan, whereas the ruling Democratic Progressive Party in ROC has never agreed to the PRC’s interpretation.

[i] Harry S. Truman, “The President's News Conference,” (speech, Washington, D.C., January 5, 1950), Harry S. Truman Library.

 

[ii] Truman, “President’s News Conference”.

 

[iii] Yale Law School, Lillian Goldman Law Library, “Mutual Defense Treaty between the United States and the Republic of China”. 

 

[iv] Yale Law School, “Mutual Defense Treaty”.

 

[v] Yale Law School, “Mutual Defense Treaty”.

 

[vi] Office of the Historian, “209. Joint Communiqué, Taipei, October 23, 1958”.

 

[viii] US Congress, “Taiwan Relations Act”.

 

[ix] US Congress, “Taiwan Relations Act”.

 

[x] Office of the Historian, “203. Joint Statement Following Discussions with Leaders of the People’s Republic of China,” Shanghai, February 27, 1972.

 

[xii] Japan set to increase defense budget to 2% of GDP in 2027”, NIKKEi Asia, November 28, 2022.

 

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