Occasional PapersPublished on Apr 03, 2025
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The Role Of The Rajya Sabha In India S Federal Democracy

भारत के संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में राज्यसभा की भूमिका? एक अवलोकन...

  • Niranjan Sahoo
  • Ambar Kumar Ghosh

    3 अप्रैल 1952 को राज्यसभा की स्थापना होने के बाद से ही अनेक अवसरों पर इसे बर्खास्त करने की मांग उठती रही है. आलोचकों, जिसमें संसद के सेवारत सदस्य भी शामिल हैं, उन्होंने अपर हाऊस यानी ऊपरी सदन की लगातार बनी हुई प्रासंगिकता को लेकर सवाल खड़े किए हैं. उन्होंने इसे भारतीय संसदीय व्यवस्था में महत्वपूर्ण विधायकों के मंजूरी मिलने में होने वाली देरी के लिए ज़िम्मेदार बताया है. एक और विचारधारा है जो यह मानती है कि ऊपरी सदन संसदीय लोकतंत्र में संतुलन बनाए रखने में एक अहम भूमिका अदा करता है. इस विचारधारा के समर्थकों का मानना है कि ऊपरी सदन एक ऐसे मंच के रूप में काम करता है जो लोकसभा में मौजूद बहुसंख्यकवाद के ख़िलाफ़ खड़ा होने में सक्षम है. वर्तमान में चल रही डी-लिमिटेशन यानी परिसीमन अर्थात संसदीय सीटों की सीमा रेखा को नए सिरे से तय करने की कसरत और राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता से संबंधित विभिन्न चुनौतियों को देखते हुए यह रिसर्च पेपर राज्यसभा के कार्यों पर एक विश्लेषणात्मक नज़र डालते हुए संगठनात्मक सुधारों की रूपरेखा तय करता है. यह रूपरेखा इस सदन को अपने-अपने राज्यों के हितों का ध्यान रखते हुए उन्हें मिले अधिकारों के अनुसार काम करने को ध्यान में रखकर तय की गई है.

Attribution:

निरंजन साहू और अंबर कुमार घोष, "भारत के संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में राज्यसभा की भूमिका क्या हो? एक विचार... ," ORF ओकेशनल पेपर नं. 469, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन.

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प्रस्तावना

राज्यसभा, यानी संसद का ऊपरी सदन, भारतीय संसदीय लोकतंत्र के लिए कितना प्रासंगिक है? 1952 में इस संस्था की स्थापना के बाद से यह एक ऐसा सवाल है, जिसे लेकर लगातार काफ़ी विचार होता रहा है. इसके आलोचक इस सदन के अधिकारों में कटौती की बात करते हैं[1] या फिर इसे सीधे-सीधे बर्खास्त करने का भी समर्थन करते हैं.[2]

सबसे पहली बात तो यह है कि लोकसभा यानी निचला सदन सीधे निर्वाचित सदन होता है, अतः यह सदन ही केंद्र सरकार की जवाबदेही को संभालने का काम करता है. ऐसे में कम अधिकारों वाले राज्यसभा को इसका काउंटरवेट यानी प्रतिसंतुलनकर्ता बनाना अक्सर सवालों के घेरे में होता है. दूसरी बात राज्यसभा को एक "नॉटेबल्स" अर्थात कुलीन लोगों के सदन के रूप में देखा गया था. इसकी वजह यह थी कि इसे, निचले सदन में आमतौर पर देखी जाने वाली पक्षपाती चुनावी राजनीति से अलग रखना था. लेकिन पिछले अनेक वर्षों से इस सदन में व्यवधान देखे गए हैं और यहां पर भी लोकसभा की तरह राजनीतिक गतिरोध पैदा होता रहा है.[3] इस वजह से महत्वपूर्ण विधेयकों को मंजूरी में देरी होती है. तीसरी बात राज्यसभा की इस बात के लिए आलोचना होती है कि उसने कभी भी उसे सौंपे गए अधिकारों का उपयोग करते हुए भारत के संघीय ढांचे में अपने-अपने राज्यों का क्षमतापूर्वक प्रतिनिधित्व नहीं किया है. संविधान निर्माताओं ने काफ़ी विचार-विमर्श के बाद ऊपरी सदन के गठन का फ़ैसला किया था.[4] लेकिन इसके आलोचकों का कहना है कि सदन ने लेजिस्लेटिव यानी विधायिका से जुड़े काम और प्रक्रिया को और संपन्न बनाने के लिए कुछ नहीं किया. और यह केवल लोकसभा के काम को दोहराने या उसकी नकल करने जैसा ही है.

इस विचारधारा के दूसरे छोर पर उतनी ही आवाजें हैं[5] जो देश की संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में संतुलन बनाए रखने में ऊपरी सदन की अहम भूमिका को ध्यान में रखकर उसका समर्थन करती हैं. इस विचारधारा के लोगों का मानना है कि ऊपरी सदन लोकसभा में दिखाई देने वाले मेजॉरिटेरिएनिज्म़ यानी बहुसंख्यकवाद[6] के ख़िलाफ़ प्रतिकार करने का एक मंच है. कुछ विश्लेषकों का मानना है कि यह सदन "रिवीज़न" अर्थात संशोधन या पुनरीक्षण का भी सदन है और यह राज्यों के अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या करने का भी एक मंच है.[7] इन लोगों का मानना है कि दूसरा एवं स्थाई सदन होने की वजह से यहां मौजूद विविध प्रतिभाएं और विशेषज्ञों के कारण कार्यकारी जवाबदेही को सुनिश्चित करने के चेक एंड बैलेंसेस अर्थात जांच और संतुलन उपलब्ध करवाती हैं.[8] संक्षिप्त में इन लोगों का कहना है कि द्विसदनीय प्रणाली के कारण संघीय संविधान को केंद्र तथा राज्यों के बीच पॉवर शेयरिंग यानी सत्ता में हिस्सेदारी के सिद्धांत और व्यवस्था को संस्थात्मक करने में मदद मिलती है.

विश्व के लगभग एक तिहाई संसद प्रकृति में द्विसदनीय यानी उपरी और निचले दो सदनों वाले हैं.  इसमें प्रमुखता से यूनाइटेड स्टेट्स, यूनाइटेड किंगडम, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है. 


यह पेपर पिछले सात दशकों के दौरान राज्यसभा के कार्य की डाइनैमिक्स यानी गतिकी या क्रिया-कलापों का आकलन करते हुए इसके सामने मौजूद चुनौतियों की चर्चा करता है और इसकी उपयोगिता को बढ़ाने के लिए ज़रूरी संस्थात्मक सुधारों को लेकर सुझाव देता है.

भारत में दो अलग-अलग सदनों की शुरूआत

विश्व के लगभग एक तिहाई संसद प्रकृति में द्विसदनीय यानी उपरी और निचले दो सदनों वाले हैं.[9] इसमें प्रमुखता से यूनाइटेड स्टेट्स, यूनाइटेड किंगडम, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है. निचले सदन की कार्रवाई पर पर्यवेक्षक के रूप में नज़र रखने के अपने कार्य के अलावा ऊपरी सदन क्षेत्रीय अथवा सब-नेशनल सरकारों या प्रांतीय हितों का प्रतिनिधित्व करने की अहम भूमिका अदा करता है. यह बात विशेष रूप से उन देशों में लागू होती है जहां संघीय राजनीतिक व्यवस्था है.[10]

अनेक देशों ने, संघीय ढांचे के साथ या उसके बगैर भी, दूसरे विधायी सदन की व्यवस्था को अपनाया है. अक्सर इस दूसरे विधायी सदन की अपनी अनूठी विशेषताएं और कार्य होते हैं. यह दूसरा सदन, प्राथमिक सदन अर्थात निर्वाचित सदन के बराबरी में काम करते हुए प्रतिसंतुलन बनाए रखने की ज़िम्मेदारी को निभाता है. द्विसदनीय व्यवस्था के आलोचकों का कहना है कि कुछ चुनिंदा स्थितियों में दूसरे सदन की मौजूदगी के कारण जटिलताएं पैदा होती हैं और काम करने में देरी होती है. इन लोगों का यह भी कहना है कि दूसरे सदन से बहुत ज़्यादा लाभ मिले बगैर ख़र्च का अतिरिक्त बोझ भी बढ़ जाता है. इसके बावजूद भारत की अपनी विविध संघीय व्यवस्था में राज्यसभा ने अपने आप को राज्य के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली एक अहम संस्था के रूप में विकसित कर लिया है. राज्यसभा में विभिन्न राज्यों के सत्ताधारी पक्ष के प्रतिनिधि मौजूद होते हैं जो लोकसभा में सत्तारूढ़ केंद्रीय दल के एकतरफा नियंत्रण को प्रति संतुलित करने की अहम ज़िम्मेदारी अदा करते हैं.[11]


स्थापना पर शासनादेश 

औपनिवेशिक शासन के दौरान भी भारत, दो सदनों वाली व्यवस्था से अच्छे तरीके से परिचित था. इस अवधारणा को 1895 में इंडियन कांस्टीट्यूशन बिल [a] में पेश किया गया था. इसके बाद इस व्यवस्था की चर्चा गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट 1919 में भी हुई थी. 1928 में मोतीलाल नेहरू कमेटी की रिपोर्ट में भी दूसरे संघीय सदन की सिफ़ारिश की गई थी. इसके बाद गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 में भी दूसरे सदन की स्थापना को लेकर प्रस्ताव आगे किया गया था.[12]

संविधान सभा के दौरान होने वाली चर्चाओं में भी दूसरे सदन के औचित्य को लेकर काफ़ी विस्तार से बात हुई थी. इन बैठकों में संविधान सभा के सदस्यों ने इसकी आवश्यकता, प्रकृति और अधिकारों पर गहन चर्चा करते हुए इन चर्चाओं में काफ़ी उत्साह के साथ हिस्सा लिया था. कुछ प्रमुख सदस्यों का कहना था कि दूसरा सदन स्थापित करने से केवल जनता के संसाधन और समय को बर्बाद किया जाएगा. [b] लेकिन कुछ सदस्यों ने इसमें भरोसा जताते हुए कहा था कि यह 'क्षणिक भावनाओं के मौकों में' लोकप्रिय रूप से निर्वाचित सदन पर अंकुश लगाने का काम करेगा और राज्यों की चिंताओं का भी ध्यान रखेगा.[13] संविधान सभा के सदस्य ए. अयंगर ने कहा था कि दूसरा सदन चिंतनशील मंच होना चाहिए जहां "लोगों की बुद्धिमत्ता का पूर्ण रूप से प्रदर्शन हो सके." [c] उन्होंने कहा था कि यह सदन ऐसे लोगों के लिए एक मंच होगा "जो सार्वजनिक रूप से लोकप्रिय जनादेश हासिल करते हुए जीत नहीं सकेंगे."[14] आरंभ में दूसरे सदन की उपयोगिता को लेकर संदेह जताने वाले सदस्य लोकनाथ मिश्रा ने बाद में संसदीय लोकतंत्र में इसके महत्व को समझा और स्वीकार किया. उन्होंने दूसरे सदन को एक गंभीर सदन समीक्षात्मक सदन, उच्च गुणवत्ता वाला सदन बताया था. उनके अनुसार इस सदन में सदस्य के पास विशेष समस्याओं को लेकर अपने ज्ञान की वजह से अपनी बात रखने का अधिकार होगा. इसी वजह से सदन उनकी बातों को गंभीरता से सुनेगा. सदन में उनकी संख्या नहीं, बल्कि उनकी गुणवत्ता महत्वपूर्ण समझी जाएगी.[15]

संक्षेप में कुछ सदस्यों के संदेह के बावजूद संविधान सभा दूसरे सदन की आवश्यकता को साफ़-साफ़ समझ चुकी थी. संविधान सभा ने जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई में ही यूनियन कॉन्स्टिट्यूशन कमेटी यानी केंद्रीय संविधान समिति का गठन किया था. समिति को भविष्य में अपनाए जाने वाले विधान मंडल की डिजाइन यानी रचना और ऑपरेशन अर्थात संचालन पर एक विस्तृत रिपोर्ट पेश करने को कहा गया था. इस समिति ने द्विसदनीय विधान मंडल के स्थापना की सिफ़ारिश की. इसमें इस विधान मंडल इकाई को काउंसिल ऑफ़ स्टेट्स या राज्यसभा के रूप में पुकारा गया इसे देश को एकजुट करने का ज़िम्मा सौंपा गया. राज्यसभा से यह उम्मीद की गई थी कि वह देश को एकजुट करने के लिए राज्य तथा केंद्र शासित प्रदेशों के हितों का प्रतिनिधित्व करने का रास्ता अपनाएगा. संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी यानी मसौदा समिति के अध्यक्ष बी.आर.अंबेडकर ने दूसरे सदन की भूमिका को लेकर संविधान सभा के दौरान हुई एक महत्वपूर्ण चर्चा में कहा था कि काउंसिल ऑफ स्टेटस वास्तव में या स्वाभाविक रूप से "राज्यों का प्रतिनिधित्व" करती है.[16]

आदेशपत्र की सीमाएं


संसदीय प्रणाली में ऊपरी सदन की अहमियत पर बल देते हुए संविधान तैयार करने वालों ने लोकतांत्रिक प्रशासन में निचले सदन को ही मुख़्य सदन के रूप में स्थापित किया था. संसद में लोकसभा सदस्यों (MPs) के विपरीत राज्यसभा सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से होता है. राज्यसभा सदस्यों को (राज्य के विधायक) निर्वाचित करते हैं. कुछ संघीय देशों जैसे US, में इनका भी सीधे चुनाव होता है, लेकिन हमारे यहां इसे सोच समझकर टाला गया.

राज्यसभा के पास भी विचार-विमर्श को लेकर लोकसभा के समान ही अधिकार प्राप्त हैं. लेकिन वित्तीय मुद्दों से जुड़े विधेयक केवल लोकसभा में ही पेश किए जा सकते हैं और राज्यसभा के पास इन विधेयकों को नामंजूर करने का अधिकार नहीं है. राज्यसभा के पास ज़्यादा से ज़्यादा वित्त विधेयकों को लोकसभा के पास दोबारा विचार करने के लिए भेजने का अधिकार है. ऐसे में यह साफ़ है कि देश के वित्तीय मामलों में राज्यसभा की भूमिका न के बराबर है.

अन्य सभी विधेयकों के मामले में राज्यसभा के पास लोकसभा जैसे ही अधिकार मौजूद हैं. वह लोकसभा की ओर से पारित किए गए किसी भी अन्य विधेयक को वीटो कर सकता है. इसी प्रकार केंद्रीय बजट (इसमें रेलवे बजट भी शामिल है. रेलवे बजट को 2019 में केंद्रीय बजट के साथ ही समाहित कर दिया गया था) को संसद के दोनों ही सदनों में पेश करना होता है. इसके साथ ही राज्यसभा सदस्यों को संसद की महत्वपूर्ण वित्तीय समितियों जैसे कमेटी ऑन पब्लिक अकाउंट्‌स यानी लोकलेखा समिति और सार्वजनिक उपक्रमों की समिति में भी स्थान दिया जाता है.[17]

दोनों सदनों के बीच अधिकारों में असमानता के मामले में ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि आर्टिकल यानी अनुच्छेद 75(3) के तहत सरकार या एक्जीक्यूटिव ब्रांच अर्थात कार्यकारी शाखा केवल लोकसभा के प्रति जवाबदेह है. राज्यसभा के पास न तो सरकार बनाने का अधिकार है औ न ही वह सरकार को डिसॉल्व यानी भंग ही कर सकती है.

लोकसभा के विपरीत राज्यसभा एक स्थायी सदन है, जिसे भंग नहीं किया जा सकता. इसके एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक दो वर्षों में रिटायर होते हैं. यह संसद के निरंतर संचालन को सुनिश्चित करता है यानी लोकसभा भंग भी हो गई हो तो भी संसद लगातार काम करती रहती है.



अत: ऊपरी सदन अपेक्षाकृत कमजोर संस्था है. लेकिन संविधान निर्माताओं ने संतुलन साधने का प्रयास किया और राज्यसभा को अनेक विशेषाधिकार सौंप दिए. लोकसभा के विपरीत राज्यसभा एक स्थायी सदन है, जिसे भंग नहीं किया जा सकता. इसके एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक दो वर्षों में रिटायर होते हैं. यह संसद के निरंतर संचालन को सुनिश्चित करता है यानी लोकसभा भंग भी हो गई हो तो भी संसद लगातार काम करती रहती है. संविधान निर्माताओं ने राज्यसभा में अनुभवी और नए दोनों ही तरह के सदस्यों को शामिल करना सुनिश्चित किया था. एक बार निर्वाचित सदस्य छह वर्षों तक राज्यसभा का सदस्य बना रहता है और वह दोबारा भी निर्वाचित होकर राज्यसभा सदस्य बन सकता है. हालांकि, यदि कोई सदस्य किसी दूसरे सदस्य के त्यागपत्र की वजह से रिक्त स्थान या सीट पर निर्वाचित होकर राज्यसभा में आता है या किसी और कारण से सदस्य की सीट रिक्त होती है तो ऐसी स्थिति में राज्यसभा पहुंचने वाले व्यक्ति को उस सदस्य के बचे हुए कार्यकाल तक ही काम करने का अवसर मिलता है.

हालांकि, सरकार राज्यसभा के प्रति भी जवाबदेह होती है. यह उस वक़्त और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब सरकार या सत्तारुढ़ दल के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं होता है. ऐसी स्थिति में दोनों सदनों के बीच गतिरोध की स्थिति बन सकती है. जब बात संविधान संशोधन करने की आती है तो संविधान संशोधन विधेयक को दोनों ही सदनों से मंजूरी मिलना संविधान में अनिवार्य किया गया है. इसे लेकर बहुमत का विशेष आंकड़ा आर्टिकल 368 में दिया गया है. राष्ट्रपति या फिर उप-राष्ट्रपति के ख़िलाफ़ महाभियोग चलाने, सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के ख़िलाफ़ अभियोग या अथ्यारोपण करने, आपातकाल लागू करने की घोषणा करने और अध्यादेशों को मंजूरी देने जैसे कार्यों के लिए दोनों ही सदनों की मंजूरी ज़रूरी होती है.[18] राज्यसभा के पास राज्य को आवंटित विषय [d] को राष्ट्रीय महत्व का विषय घोषित करने का भी अधिकार मौजूद है. राज्यसभा द्वारा राज्य को आवंटित विषय को राष्ट्रीय महत्व का घोषित किए जाने पर संसद इस विषय पर कानून बना सकती है. ज़रूरत पड़ने पर राज्यसभा के पास नई अखिल भारतीय सेवा को स्थापित करने की मंज़ूरी देने का भी अधिकार है. यह बात ब्यूरोक्रेसी यानी नौकरशाही के सुचारू रूप से काम करने के लिए आवश्यक है.

चूंकि, संविधान में राज्यसभा की कल्पना संघीय हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था के रूप में की गई थी, इसलिये- इस पेपर में आगे अब संघीय ढांचे के अग्रणी रक्षक के रूप में राज्यसभा की भूमिका का आकलन या समीक्षा की जाएगी.

उम्मीदें और हकीकत

विचार-विमर्श और संशोधन/दोहराव का सदन

अपने सात दशकों के अस्तित्व में राज्यसभा ने सफ़लता और विफ़लता दोनों का ही स्वाद चखा है. विधायी कार्यों के पैमाने पर राज्यसभा का ट्रक-रिकॉर्ड निचले सदन के मुकाबले कमज़ोर नहीं कहा जा सकता. राज्यसभा ने अनेक विधायी या वैधानिक कार्यों की शुरुआत की है, जो उसकी अहमियत को स्पष्ट करती है. ऐसे में यह साफ़ है कि उसे निर्वाचित लोकप्रिय निचले सदन के मुकाबले कहीं भी कमज़ोर नहीं माना जा सकता. अनेक मौकों पर ऐसा हुआ है कि राज्यसभा की ओर से लोकसभा में पारित विधेयकों में संशोधन सुझाए गए हैं, जिन्हें सरकार ने स्वीकार किया है. यह बात विशेष रूप से राज्यों के स्तर पर प्रशासन को सीधे तौर पर प्रभावित करने वाले विषयों पर लागू होती है. इसमें इनकम टैक्स (संशोधन) यानी आयकर संशोधन विधेयक 1961; प्रीवेंशन ऑफ इंसल्ट्‌स टू नेशनल ऑनर बिल 1971 यानी राष्ट्रीय सम्मान अपमान निवारण अधिनियम, 1971; अर्बन लैंड (सीलिंग एंड रेग्यूशेशन) बिल 1976 अर्थात शहरी भूमि (सीलिंग और विनियमन) अधिनियम, 1976; द गर्वनमेंट ऑफ यूनियन टेरिटरिज़ (संशोधन) बिल, 1977 मतलब केंद्र शासित प्रदेशों (संशोधन) विधेयक, 1977; और दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन (संशोधन) बिल दिल्ली प्रशासन संशोधन विधेयक, 1977 का समावेश है.

पूर्व में भी राज्यसभा में जब केंद्र सरकार के पास बहुमत नहीं था और क्षेत्रीय दलों के प्रतिनिधि अच्छी-खासी संख्या में सदन के सदस्य थे तो राज्यसभा ने सही मायनों में राज्यों के मंच के रूप में काम किया है. आजादी के 76 वर्षों में से 40 वर्षों, जिसमें पिछले 32 वर्षों का समावेश है, के दौरान सत्तारुढ़ सरकारों के पास ऊपरी सदन में बहुमत नहीं रहा है. इतने वर्षों में, कुछ अपवादों को छोड़कर, राज्यसभा ने कानून-बनाने की प्रक्रिया को बिना किसी बाधा के मज़बूती देने में सक्रिय भूमिका अदा की है. उदाहरण के लिए 1970 में संविधान (24 वां संशोधन) विधेयक लाया गया था. इसे‘प्रीवी पर्सेस’ बिल, अर्थात तत्कालीन राजघरानों से संबंधित शासकों को उपलब्ध विशेषाधिकार और भत्तों को खत्म करने वाला विधेयक कहा गया था. इस विधेयक को लोकसभा ने मंजूरी दे दी, लेकिन राज्यसभा में सरकार को हार स्वीकार करनी पड़ी थी. (e)

राज्यसभा ने अक्सर संशोधन/पुनरीक्षण से आगे बढ़कर अपना प्रभाव साबित किया है. मसलन, 1978 में उसने लोकसभा में पारित संविधान (45वां संशोधन) विधेयक में संशोधन किया था, जिसे लोकसभा ने स्वीकार किया. इन संशोधनों को पारित संविधान (45वां संशोधन) कानून, 1978 में शामिल किया गया था. (f) यह एक महत्वपूर्ण संशोधन था. क्योंकि इसने नवंबर 1976 में अंतर्गत आपातकाल (जून 1975-मार्च 1977) के दौरान छीन लिए गए मौलिक अधिकारों को बहाल किया था. इसकी मुख़्य बातों में मौलिक अधिकारों की नए सिरे से व्याख्या या इसे दोबारा परिभाषित करना, ऐसे अधिकारों की सूची में से संपत्ति संबंधी अधिकार को हटाने का फ़ैसला भी शामिल था. इसके साथ ही इसने राइट टू लाइफ और लिबर्टी यानी जीवन और स्वतंत्रता के अधिकारों को और पुख़्ता कर दिया था. राज्यसभा ने अपने संशोधनों के माध्यम से न केवल यह सुनिश्चित किया कि भविष्य में आपातकाल संबंधी प्रावधानों का दुरुपयोग न हो, बल्कि उसने मीडिया को संसद और राज्य विधानमंडल की रिपोर्टिंग करने की आजादी संबंधी अधिकार भी बहाल किया था. इसके बाद 1989 में भी राज्यसभा ने संविधान संशोधन (64 वां संशोधन) विधेयक जो क्रमश: पंचायती राज (ग्रामीण स्थानीय निकाय संस्थाओ) और नगर पालिकाओं (शहरी स्थानीय निकायों) से संबंधित था, को अस्वीकार कर दिया था. यह दोनों ही विधेयक लोकसभा ने पारित कर दिए थे. (g) इसी तरह 2002 में भी राज्यसभा ने प्रिवेंशन ऑफ टेररिज्म़ बिल 2001 को लोकसभा में जिस स्वरूप में पारित किया गया था उसे ‘जस का तस’ पारित करने से इंकार कर दिया था. (h) हाल के वर्षों में भी अनेक अवसरों पर राज्यसभा ने अपने वीटो का उस वक़्त उपयोग किया जब सरकार ने लोकसभा में अपने बहुमत के आधार पर बगैर विचार-विमर्श के कुछ विधेयकों को मंजूरी देने की कोशिश की.


इसका और एक महत्वपूर्ण उदाहरण है राइट टू फेयर कंपेंसेशन एंड ट्रांसपेरेंसी इन लैंड एक्विजीशन, रिहैबिलिटेशन एंड रिसैटलमेंट बिल 2015 यानी भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवज़ा और पारदर्शिता का अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2015 को माना जा सकता है. 2014 से केंद्र में सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली सरकार ने इसे पूर्ण बहुमत के साथ लोकसभा में पारित कर दिया था. लेकिन राज्यसभा में इसे लेकर ज़ोरदार आपत्तियां दर्ज़ की गई और इस वजह से मतदान के बगैर ही यह विधेयक वापस ले लिया गया. (i),[19] इसी प्रकार कोल माइंस (स्पेशल प्रोवीजन) बिल 2014 यानी कोयला खदान (विशेष प्रावधान) विधेयक 2014 तथा इंश्युरंस लॉ (संशोधन) बिल 2017 अर्थात बीमा कानून (संशोधन) विधेयक को भी ऊपरी सदन में भारी विरोध और देरी का सामना करना पड़ा. लेकिन अंतत: इन्हें मंजूरी दे दी गई.

आमतौर पर राज्यसभा में विधेयकों पर मतदान लोकसभा में मतदान और उसे मंजूरी मिलने के बाद ही किया जाता है. लेकिन कुछ मामलों में इसका विपरीत भी होते हुए देखा गया है. उदाहरण के लिए यह राज्यसभा ही थी जहां 1954 में ‘अस्पृश्यता’ को गैरकानूनी मानने वाला विधेयक पहले पारित किया गया था. 



आमतौर पर राज्यसभा में विधेयकों पर मतदान लोकसभा में मतदान और उसे मंजूरी मिलने के बाद ही किया जाता है. लेकिन कुछ मामलों में इसका विपरीत भी होते हुए देखा गया है. उदाहरण के लिए यह राज्यसभा ही थी जहां 1954 में ‘अस्पृश्यता’ को गैरकानूनी मानने वाला विधेयक पहले पारित किया गया था. इसी प्रकार राज्यसभा ने ही ऑल इंडिया इन्स्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस (1956) यानी अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान की स्थापना का विधेयक पारित किया था. राज्यसभा ने ही एक 1959 में एक विधेयक पारित करते हुए दहेज देना और इसे स्वीकार करने को दंडनीय अपराध बनाया था. इसके अलावा 2009 में उसने बहुचर्चित शिक्षा का अधिकार विधेयक भी पहले पारित किया था. विवादास्पद महिला आरक्षण विधेयक (j) जिसे वैधानिक तौर पर संविधान (108 वां संशोधन) विधेयक कहा जाता है को भी 2010 में राज्यसभा ने पारित किया था. हालांकि, इसके विवादित प्रावधानों की वजह से इसे लोकसभा में पेश नहीं किया जा सका. इस विधेयक को अंतत: लोकसभा ने 2023 में पारित किया था.

राज्यसभा ने आखिर कितनी बार उसे मिले विशेषाधिकारों का उपयोग किया है? इन विशेषाधिकारों में राज्य के दायरे में आने वाले विषयों पर संसद को कानून बनाने का अधिकार होने और नई अखिल भारतीय सेवाओं की स्थापना करना शामिल हैं. पहला अधिकार उसे आर्टिकल यानी अनुच्छेद 249 के तहत मिला है. राज्यसभा ने इसका इस्तेमाल 1952 और 1986 में किया है. विशेषाधिकार के उपयोग का पहला अवसर जुलाई 1952 में आया था जब राज्यसभा ने संसद को स्टेट लिस्ट यानी राज्य सूची में 26 और 27  नंबर की प्रविष्ठियों से जुड़े कानून बनाने का प्रावधान करते हुए अधिकार दिया था. इसी वजह से 1950 में इसेंशियल सप्लाइज (टेंपररी पॉवर) संशोधन विधेयक 1950 यानी आवश्यक आपूर्ति (अस्थायी अधिकार) संशोधन विधेयक तथा सप्लाई एंड प्राइसेस ऑफ गुड्‌स एक्ट, 1950 अर्थात माल की आपूर्ति एवं मूल्य अधिनियम को जारी रखा गया था. राज्यसभा ने 1986 में दूसरा प्रस्ताव स्वीकार करते हुए संसद को राज्य सूची में शामिल प्रविष्ठि क्रमांक 1, 2, 4, 64, 65 और 66 से संबंधित कानून बनाने की अनुमति दी थी. लेकिन इस प्रावधान की सहायता से कोई भी कानून पारित नहीं किया गया.[20] दूसरा विशेषाधिकार राज्यसभा को अनुच्छेद 312 के तहत मिला है. इस विशेषाधिकार के तहत राज्यसभा ने 1961 और 1965 में प्रस्ताव पारित करते हुए अनेक नई सेवाओं की स्थापना की. इसमें इंडियन इंजीनियरिंग सर्विस, इंडियन फॉरेस्ट सर्विस, इंडियन मेडिकल एंड हेल्थ सर्विस, इंडियन एग्रीकल्चरल सर्विस और इंडियन एजुकेशनल सर्विस का समावेश है.

अवरोध एवं व्यावधानों का सदन अपने बड़े सकारात्मक रिकॉर्ड के बावजूद ऊपरी सदन पर अनेक बार "अवरोधक" होने का आरोप लगता रहा है. यह आरोप भी लगता रहा है कि वह निचले सदन की ओर से पारित किए गए महत्वपूर्ण विधेयकों को अटकाने अथवा रोकने या देरी करने या फिर विधेयकों को रोकता है.[21] इसी पेपर में ऊपर दिए गए राज्यसभा के कुछ हस्तक्षेपों जैसे कि 1970 के प्रीवी पर्सेस बिल, 1989 का पंचायती राज एवं नगर पालिका विधेयक और 2002 का एंटी-टेररिज्म यानी आतंकवाद-रोधी विधेयक[22] को राज्यसभा के आलोचक एक ‘प्रगतिशील’ विधेयक के ख़िलाफ़ बाधा बताते हैं. इसके आलोचक इस सूची में बैंकिंग सर्विस कमीशन (रिपील) विधेयक यानी बैंकिंग सेवा आयोग (निरसन) विधेयक, 1977 को भी शामिल करते हैं. [k]

अब यह पाया गया है कि राज्यसभा में भी लोकसभा की तर्ज़ पर ही वैधानिक कार्यों में व्यवधान या रुकावट आने लगी हैं. लोकसभा में ऐतिहासिक रूप से सत्तारूढ़ दल तथा विपक्ष के बीच गतिरोध देखे जाते रहे हैं. इन गतिरोधों की वजह से विपक्ष ने कभी वॉकआउट किया है या फिर सदन का बहिष्कार करने का फ़ैसला लिया है. कभी-कभी विपक्ष इस तरह अनुशासन तोड़ता है कि अध्यक्ष को सदन की कार्यवाही समय से पहले स्थगित करनी पड़ती है. 1990 के मध्य तक राज्यसभा ने काफ़ी ज़्यादा संयम का परिचय दिया. वह अपने निर्धारित समय में पूरे समय काम करती और कभी-कभी तो निर्धारित समय से ज़्यादा समय तक कार्य करती रहती थी. हालांकि, पिछले तीन दशकों के दौरान उपलब्ध डाटा के अनुसार ऊपरी सदन की उत्पादकता में बड़ी तेजी से गिरावट देखी गई है.[23] 1995 से 1997 के बीच यह 95 प्रतिशत; 1998 से 2003 के बीच 90 प्रतिशत; 2004 से 2013 के बीच 80 प्रतिशत रही है. 2014 से 2021 के बीच राज्यसभा की उत्पादकता 74 प्रतिशत रही है. इसमें सबसे कम उत्पादकता 2018 में देखी गई जब उत्पादकता का आंकड़ा महज 40% था. हालांकि, पिछले 8 सत्रों (259 से 256 वें सत्र के दौरान) के दौरान राज्यसभा की उत्पादकता 2014 से 2021 के दौर में उल्लेखनीय रूप से ज़्यादा रही है.[24]

उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि के बावजूद व्यवधानों के कारण पर्यवेक्षक और विचार-विमर्श वाले सदन के रूप में राज्यसभा की भूमिका प्रभावित हुई है. व्यवधानों की वजह से वह अपने प्रत्येक कार्य को जितना समय दे सकती है उसमें कमी आती है. उदाहरण के लिए 1978 से 2004 के बीच राज्यसभा ने अपना 39.50 फ़ीसदी समय कार्यकारी शाखा की जवाबदेही सुनिश्चित करने में लगाया, लेकिन 2005 से 14 के बीच यह आंकड़ा गिरकर 21.99 फ़ीसदी हो गया. इसी तरह 2015 से 2019 के बीच की अवधि में यह और गिरते हुए 12.34 फ़ीसदी पर आ गया है.[25]

राज्यसभा: प्रभावशीलता को रोकने वाली ढांचागत रुकावटें

पर्यवेक्षण एवं विचार - विमर्श के एक मंच के रूप में ऊपरी सदन की साख में लगातार गिरावट देखी जा रही है. इस गिरावट के पीछे कुछ ढांचागत और प्रक्रियात्मक मुद्दे हैं. नीचे इन्हीं मुद्दों में से कुछ बेहद अहम मुद्दों पर चर्चा की गई है.

धनी या रईस उम्मीदवारों के लिए 'पार्किंग लॉट' राज्यसभा को अक्सर 'वरिष्ठों का सदन' कहकर संबोधित किया जाता है. लेकिन संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था या प्रावधान नहीं किया गया है जो यह सुनिश्चित कर सके कि केवल वेल क्वॉलिफाइड यानी सुयोग्य उम्मीदवार ही निर्वाचित होकर इस सदन में पहुंचे. संस्थागत मानदंडों के अभाव में राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों का चयन अपने ही तय पैमाने के अनुसार करते हैं. ऐसे में अक्सर वे लोग कानून के निर्माता बन जाते हैं जिनके पास ऐसा करने की क्वॉलिफिकेशन यानी कि पात्रता ही नहीं होती है. मौजूदा राज्यसभा में 36 फ़ीसदी सदस्य ऐसे हैं जिनकी आपराधिक पृष्ठभूमि है.[26]

इस बात के भी सबूत हैं कि अनेक मामलों में राज्यसभा के लिए उम्मीदवारों का चयन "नीलामी" से ज़्यादा कुछ नहीं होता. राजनीतिक दल अक्सर अपने पार्टी के लिए वित्तीय सहायता हासिल करने के बदले में राज्यसभा की सीट के लिए उम्मीदवार तय करते हैं.

इस बात के भी सबूत हैं कि अनेक मामलों में राज्यसभा के लिए उम्मीदवारों का चयन "नीलामी" से ज़्यादा कुछ नहीं होता. राजनीतिक दल अक्सर अपने पार्टी के लिए वित्तीय सहायता हासिल करने के बदले में राज्यसभा की सीट के लिए उम्मीदवार तय करते हैं.[27] इस वजह से वित्तीय सामर्थ्य ऐसे उम्मीदवारों के चयन में अहम भूमिका अदा करता है. इस वजह से पिछले कुछ दशकों में राज्यसभा के कंपोजिशन यानी रचना और विशेषता में नाटकीय परिवर्तन देखे गए हैं. 2024 में जब यह बात निकल कर सामने आई कि राज्यसभा के सदस्यों की औसत संपत्ति 79.54 करोड़ थी तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ.[28] वर्तमान में राज्यसभा के कुल 245 में से 226 सदस्यों के सर्वे में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) ने पाया कि लगभग 197 सदस्य अर्थात 87 फ़ीसदी सदस्यों के पास एक करोड़ रुपए से अधिक की संपत्ति थी. इसमें 12 फ़ीसदी सदस्य बिलिनेयर्स थे. इसमें रियल एस्टेट और माइनिंग बैरन भी शामिल थे.[29]

इसके अलावा संविधान के आर्टिकल यानी अनुच्छेद 80 (3) तीन के तहत राज्यसभा में 12 सदस्यों की नियुक्ति सीधे राष्ट्रपति द्वारा की जाती है. यह नियुक्ति करते समय "साहित्य, विज्ञान, कला या समाज सेवा" क्षेत्र में "स्पेशल नॉलेज अर्थात विशेष ज्ञान अथवा प्रैक्टिकल एक्सपीरियंस यानी व्यावहारिक अनुभव" रखने वाले लोगों का चयन किया जाता है. इस प्रावधान की वजह से विभिन्न विशेषज्ञों और अलग अलग विचारधारा के लोगों को बड़ी संख्या में राज्यसभा में नामित किए जाने की उम्मीद थी. लेकिन हकीकत यह है कि पिछले कुछ वर्षों में ऐसे नियुक्त सदस्यों का चयन अधिकतर राजनीतिक कारणों की वजह से ही होता आया है. राज्यसभा में उन्हीं लोगों को नियुक्त किया जाता है जो सत्तारूढ़ दल के करीबी होते हैं.[30],[31] यदि नियुक्त सदस्य चाहे तो उन्हें शपथ लेने के 6 माह के भीतर ही किसी राजनीतिक दल के साथ जुड़ने की अनुमति दी जाती है.[32] हाल के दौर में ऐसा करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है.[33]

सदस्यों की बनावट में आ रहे परिवर्तन और ऊपरी सदन में कार्यवाही की प्रकृति के राजनीतिकरण ही वे दो कारण है जिनकी वजह से अब राज्यसभा भी लगभग लोकसभा जैसे ही काम करती दिखाई देने लगी है. अब राज्यसभा में भी सत्ता पक्ष और विपक्ष के सदस्यों के बीच लगातार गतिरोध देखा जाता है, जिसकी वजह से सदन की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ती है. कुछ सांसदों का बर्ताव भी कुछ मामलों में ऐसा हो जाता है जो सांसदों को शोभा नहीं देता.[34] इस तरह के आचरण की वजह से राज्यसभा की ये साख कि वो 'वरिष्ठों का सदन' है, काफी हद तक प्रभावित हुई है और इसने राज्यों के हितों का ध्यान रखने वाली अहम संस्था के रूप में अपनी क्षमता का पूरी तरह से उपयोग नहीं किया है.

मूल निवासी क़ानून में ढील

ऊपरी सदन में सदस्यों की गुणवत्ता को और ख़राब करने में डोमिसाइल यानी मूल निवासी संबंधी आवश्यकताओं को कमज़ोर करने या इनमें ढील दिया जाना अहम कारण है. चूंकि, राज्यसभा को राज्यों के हितों का प्रतिनिधित्व करना था अतः राज्यसभा सदस्यों के लिए यह ज़रूरी था कि वह जिस राज्य का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं उन्हें उसी राज्य का निवासी होना चाहिए. 2003 में सरकार ने रिप्रेजेंटेशन ऑफ पीपल एक्ट, 1951 यानी जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन करते हुए निवास स्थान संबंधी आवश्यकता को समाप्त कर दिया. सरकार के इस फ़ैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने कुलदीप नायर बनाम भारत सरकार (2006)[35] के इस मामले को यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया कि यह संघीय सिद्धांत नहीं है कि राज्यसभा में किसी राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति को उसी राज्य का 'साधारण नागरिक' होना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने इस बात कि ओर भी इशारा किया कि गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1919 में ऐसा कोई प्रावधान मौजूद नहीं था. सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार इसके बाद बने गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट 1935 में भी ऐसी कोई शर्त नहीं रखी गई थी. सर्वोच्च न्यायालय ने फ़ैसला दिया कि, 'ऊपरी सदन का उद्देश्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर सम्मानजनक डिबेट यानी विचार-विमर्श करना है. इस विचार-विमर्श में अनुभवी व्यक्तियों से यह उम्मीद की जाती है कि वे अपने अनुभव को साझा करते हुए विचार-विमर्श के दौरान अपने अनुभव को आधार बनाएंगे.' ऐसे में मूल निवास स्थान संबंधी आवश्यकता को एक ज़रूरी पात्रता नहीं माना जा सकता.


हालांकि, इस फ़ैसले के आलोचकों का तर्क है कि चूंकि राज्यसभा सदस्यों को (नियुक्त सदस्यों को छोड़कर) राज्य विशेष का प्रतिनिधित्व करना है अतः उन सदस्यों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह उस राज्य के रहने वाले ही होने चाहिए. यदि ऐसा नहीं होता तो उन्हें उस राज्य की समस्या और मुद्दों की पर्याप्त जानकारी नहीं होगी.[36] मूल निवास स्थान संबंधी पात्रता को हटाने की वजह से राजनीतिक दलों के लिए यह आसान हो गया है कि वह अपने पसंदीदा लोगों को राज्यसभा में भेज सके. राज्यसभा में अनेक बार लोकसभा चुनाव हारने वाले लोगों को भी भेजा जाता है. ऐसे में उन लोगों को भी राज्यसभा भेज दिया जाता है जिनका राज्य विशेष से कोई लेना देना नहीं होता. ऐसी स्थिति में राज्यसभा पहुंचने वाले सदस्य राज्य के हितों का ध्यान रखने की बजाय उन्हें राज्यसभा में भेजने वाली पार्टी को ही प्राथमिकता देते हैं.[37] 2019 में राज्यसभा के 41 ऐसे सदस्य थे जो निवास स्थान संबंधी पात्रता को पूरा नहीं करते थे.[38] निवास स्थान संबंधी पात्रता को कमज़ोर करने वाले संशोधन के दौरान ही राज्यसभा चुनाव के दौरान मतदान को 'ओपन' यानी ख़ुला करने का भी प्रावधान किया गया था. जिसका मतलब ये हुआ कि विधानसभा के सदस्यों (MLAs) को राज्य में अपनी पार्टी की ओर से तय उम्मीदवार के पक्ष में ही ख़ुले तौर पर मतदान करना अनिवार्य किया गया था. अपनी पार्टी के निर्देशों का उल्लंघन करने वाले MLA के ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती है. इन दोनों परिवर्तनों की वजह से राज्यसभा अब राज्यों की प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था कम रह गई है. वह अब राजनीतिक दलों के लिए अपनी ताकत दिखाने का मंच बनकर रह गई है.

'वित्त विधेयक' संबंधी दोष

संविधान के अनुच्छेद 110 में इस बात की व्याख्या की गई है कि 'मनी बिल' यानी वित्त विधेयक के दायरे में क्या-क्या आएगा. इसमें यह भी सुनिश्चित किया गया है कि इस विधायक के दायरे में वित्त से संबंधित कौन से विशेष मुद्दों को शामिल किया जाएगा. अनुच्छेद 109 में लोकसभा को वित्त विधेयक के मामले में राज्यसभा से ज़्यादा अधिकार प्रदान किए गए हैं. इसमें यह बात विशेष रूप से कही गई है कि ऐसे विधायक लोकसभा में पारित होने के बाद ही राज्यसभा भेजे जाएंगे. राज्यसभा को वित्त विधेयक को लेकर सुझाव देने का अधिकार तो है लेकिन लोकसभा के लिए इन सुझावों को मानना या इन्हें स्वीकार करना अनिवार्य नहीं है. राज्यसभा यदि वित्त विधेयक को नामंजूर भी करती है तो भी यह माना जाता है कि वित्त विधेयक को दोनों ही सदनों ने मंजूरी दे दी है.[39]

यह बात कौन तय करता है कि विधेयक विशेष, वित्त विधेयक है या नहीं? यह अधिकार केवल लोकसभा के अध्यक्ष के पास होता है और राज्यसभा उनके फ़ैसले को चुनौती नहीं दे सकती. पिछले कुछ वर्षों में यह आरोप लगते रहे हैं कि ऐसे विधेयक जो वित्त विधेयक की परिभाषा के दायरे में नहीं आते उनको भी लोकसभा के अध्यक्ष ने वित्त विधेयक के रूप में स्वीकार किया है. ऐसा करते हुए वो पहले तो राज्यसभा को बायपास करते हैं और दूसरा ऐसे विधेयकों को राज्यसभा की पहुंच से दूर कर देते हैं. आरोप है कि ऐसा इसलिए किया जाता है, क्योंकि केंद्र सरकार को राज्यसभा में बहुमत हासिल नहीं होती है.[40],[41]

हाल के वर्षों में राज्यसभा को बायपास करने के कुछ उल्लेखनीय उदाहरण दिए जा सकते हैं. इसमें आधार (टारगेटेड डिलीवरी ऑफ फाइनेंशियल एंड अदर सब्सिडीज़, बेनिफिट्स एंड सर्विसेज) बिल 2017 तथा फाइनेंस यानी वित्त विधेयक 2018 का उल्लेख किया जा सकता है. इन दोनों ही बिलों को वित्त विधेयक के रूप में राज्यसभा में भेजा गया था.[42] सर्वोच्च न्यायालय ने यह फ़ैसला तो दिया है कि अध्यक्ष के फ़ैसलों को अदालत में चुनौती दी जा सकती है लेकिन अब तक अध्यक्ष के किसी भी फ़ैसले को न्यायिक जांच परख के बाद पलटा नहीं गया है.[43] हालांकि सर्वोच्च न्यायालय की बेंच वर्तमान में कुछ विधेयकों को वित्त विधेयक बनाकर जल्दबाजी में मंजूरी दिए जाने की वैधता को लेकर विचार कर रही है.[44]

एक और मुद्दा यह है कि क्या राज्यसभा सदस्यों को निर्वाचित सरकार की स्थिरता को बनाए रखने के लिए 1985 में पारित किए गए एंटी डिफेक्शन लॉ यानी दल बदल कानून [l] के दायरे में रखा जाए. लेकिन निर्वाचित सरकार लोकसभा (और राज्यों के मामले में विधानसभा में उसे प्राप्त समर्थन के दम पर) में उसे प्राप्त समर्थन के आधार पर टिकी होती है. सरकार की स्थिरता का राज्यसभा से कोई लेना-देना नहीं होता. राज्यसभा में यदि विभिन्न दलों की मजबूती में तुलनात्मक संख्या के आधार पर परिवर्तन होता भी है तो इसकी वजह से सरकार की स्थिरता को कोई ख़तरा उत्पन्न नहीं होता. इसी वजह से यह तर्क दिया जाता है कि ऊपरी सदन के सदस्यों को दल बदल कानून के दायरे में लाने की कोई आवश्यकता नहीं है. इन सदस्यों को दल बदल कानून के दायरे से बाहर रखने की वजह से ऊपरी सदन में MPs अपनी पार्टी के आदेश को ध्यान में रखकर ही मतदान करते हैं. ऐसे में राज्यसभा की पुनरीक्षण सदन के रूप में जो भूमिका है वह कमज़ोर होती है. अतः राज्यसभा सदस्यों को दल बदल कानून की बेड़ियों से आजाद करने के लिए संस्थात्मक सुधारों की आवश्यकता है.

सिफ़ारिशें

भारतीय राजनीति में आजादी के बाद के पहले चार दशकों में राज्यसभा की भूमिका रस्म अदायगी की ही रही है. इन चार दशकों में भारत में राजनीतिक परिदृश्य पर अधिकांश वक़्त कांग्रेस पार्टी का ही प्रभुत्व था. लेकिन केंद्र में 1990 के दौरान गठबंधन का दौर आरंभ हुआ. उस दौरान किसी भी एक पार्टी को आम चुनाव में बहुमत नहीं मिला और विभिन्न दलों ने गठबंधन बनाकर सरकार चलने का काम किया. इस दौर में राज्यसभा ने अहम भूमिका अदा की. गठबंधन के दौर में छोटे, क्षेत्रीय दलों को काफ़ी महत्व मिलने लगा. इसका कारण यह था कि इन दलों का समर्थन या विरोध, सरकार के भाग्य का फ़ैसला करता था. इसी वजह से राज्यसभा भी केंद्र और राज्यों के बीच में एक मध्यस्थ की भूमिका में आ गई और उसका महत्व काफ़ी तेजी से बढ़ गया. अनेक मौकों पर ऊपरी सदन ने ऐसे कानून और नीतियां बनाई जिन्होंने राज्यों के हितों की रक्षा की.

लेकिन केंद्र में 1990 के दौरान गठबंधन का दौर आरंभ हुआ. उस दौरान किसी भी एक पार्टी को आम चुनाव में बहुमत नहीं मिला और विभिन्न दलों ने गठबंधन बनाकर सरकार चलने का काम किया. इस दौर में राज्यसभा ने अहम भूमिका अदा की. गठबंधन के दौर में छोटे, क्षेत्रीय दलों को काफ़ी महत्व मिलने लगा. 

हालांकि, 2014 से एक पार्टी, भारतीय जनता पार्टी (BJP), के प्रभुत्व का दौर दोबारा आ गया है. ऐसे में राज्यसभा एक बार फिर से समीक्षा का सदन होने को लेकर बढ़ती हुई चुनौतियों का सामना कर रही है. हालांकि, ऊपरी सदन में वर्तमान में मौजूद 245 सीटों में से 98 सीटों के साथ BJP अल्पमत में है. इसके बावजूद उसने चुनिंदा क्षेत्रीय दलों (नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस ग्रुपिंग) के साथ गठबंधन करते हुए वह ताकत हासिल कर ली है जिसके दम पर वह महत्वपूर्ण विधेयकों को बगैर किसी दिक्कत के पारित करवाने में सफ़ल हो रही है. 2014 से 2024 में हुए पिछले आम चुनाव तक आरामदायक बहुमत के साथ लोकसभा में काम करने वाली BJP पर यह आरोप लग रहा है कि वह राज्यसभा को अंडरकट करते हुए यानी उसकी उपेक्षा करते हुए कुछ विधेयकों को मनी बिल बनाकर ऐसे विधेयकों को राज्यसभा की पैनी नज़रों से बचा लेती है.[45]

राज्यसभा उम्मीदवारों का चयन करते वक़्त राजनीतिक बातों या विचारों पर हमेशा से ध्यान दिया जाता रहा है. लेकिन निचले सदन में बहुमत हासिल करने के बाद BJP के दौर में यह बात और भी ख़ुले तौर की जाने लगी है.[46] इसके चलते पिछले एक दशक में जहां राज्यसभा का प्रभाव घटा है वही इसका राजनीतिकरण बढ़ गया है. इसके चलते अनेक विश्लेषकों ने राज्यसभा में सुधारों को लागू करते हुए इसे और भी मज़बूत करने का आह्ववान किया है.[47] मुमकिन है कि ऐसा करने से बहुसंख्यकवाद की प्रवृत्ति को नियंत्रण में लिया जा सके.
केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों का परीक्षण करने के लिए रणजीत सिंह सरकारिया आयोग का गठन किया गया था. इस आयोग ने 1987 में अपनी रिपोर्ट में राज्यसभा के कार्य में सुधार के लिए अनेक सिफ़ारिशें की थी. इसके बाद नेशनल कमीशन टू रिव्यू द वर्किंग ऑफ़ द कॉन्स्टिट्यूशन (NCRWC) यानी संविधान के कार्य की समीक्षा के लिए बने राष्ट्रीय आयोग ने 2002 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी. इस आयोग ने राज्यसभा उम्मीदवारों के लिए मूल निवास स्थान संबंधी आवश्यकता से जुड़े सवाल विशेष को हटाने पर विचार किया था. उसने इसका विरोध करते हुए इसे "अनुचित" बताया और कहा कि यह "इस संस्था के मूल संघीय चरित्र के साथ समझौता है". [m],[48] कुछ अन्य समीक्षा समितियों ने भी सुधारों की सिफारिश की है. इसमें एक सुधार यह है कि राज्यसभा चुनाव में गुप्त मतदान का उपयोग किया जाना चाहिए. सदन में प्रस्ताव पर चर्चा और विचार विमर्श के लिए अधिक समय आवंटित किया जाना चाहिए तथा नियुक्त होने वाले सदस्यों का चयन करने के लिए एक स्थापित व्यवस्था की जानी चाहिए.[49] केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों को दोबारा परखने के लिए मदन मोहन पूंछी आयोग का गठन किया गया था. सरकारिया आयोग की रिपोर्ट आने के लंबे अंतराल के बाद स्थापित किए गए इस आयोग ने 2010 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी. आयोग ने अनेक सिफ़ारिशें की जिसमें से एक सिफ़ारिश यह भी थी कि राज्यसभा सदस्य को चुनने वाले इलेक्टोरल कॉलेज यानी मतदाताओं में विस्तार करते हुए इसमें पंचायत और म्युनिसिपैलिटी को भी शामिल किया जाना चाहिए. इस आयोग ने सदन की समितियों के कामकाज को और मज़बूत करने की भी वकालत की थी.[50]

राज्यसभा को प्रभावी बनाने के लिए की गई असंख्य सिफ़ारिशों में से कुछ सिफ़ारिशों पर नीचे दिए गए मुद्दों में प्रकाश डाला गया है.

परिसीमन: ऊपरी सदन में प्रतिनिधित्व बेहतर किया जाये

वर्तमान में जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था बड़े राज्यों को अनुचित लाभ पहुंचा रही है. उत्तर प्रदेश जैसे बड़ी आबादी वाले राज्य के पास जहां ऊपरी सदन में 31 सीटें हैं, वही मेघालय, मणिपुर, नगालैंड, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा, गोवा और केंद्र शासित पुडुचेरी के पास केवल एक-एक ही सीट उपलब्ध है. प्रत्येक राज्य को लोकसभा की सीटें उसकी जनसंख्या (1971 में किए गए परिसीमन) के आधार पर तय की गई थी. इस वजह से ज़्यादा आबादी वाले राज्यों को अधिक सीटें मिली थी. राज्यसभा को सभी राज्यों को उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए ऐसी व्यवस्था को अपनाना होगा जो न्यायसंगत हो. संसदीय सीटों की संख्या में इज़ाफ़ा करने के लिए ताजा परिसीमन पर विचार किया जा रहा है. परिसीमन का यह काम संभवतः 2026 में आरंभ हो सकता है. ऐसे में अधिक जनसंख्या वाले राज्यों को वर्तमान में उपलब्ध संसदीय सीटों से अधिक सीटें मिलने की संभावना है.[51] ऐसे में राज्यसभा वह मंच हो सकता है जहां आबादी को आधार बनाए बगैर सभी राज्यों को समान प्रतिनिधित्व उपलब्ध करवाया जा सके. ऐसा हुआ तो ताज़ा परिसीमन की वजह से उत्पन्न होने वाले विवादों को कुछ हद तक शांत किया जा सकेगा. [n] यह कदम उठाया गया तो हाल के वर्षों में राज्यसभा चुनाव को लेकर लगने वाले राजनीतिक आरोप प्रत्यारोपों को भी कम किया जा सकेगा. पंछी कमिटी की ओर से दिए गए सुझाव कि, स्थानीय स्वशासी निकायों की भी राज्यसभा सदस्यों के चुनाव में भूमिका होनी चाहिए, पर विचार किया जा सकता है. ऐसा किया गया तो राज्यसभा को प्रशासन के ग्रासरूट यानी ज़मीनी स्तर पर मौजूद लोगों के साथ जोड़कर अधिक प्रतिनिधिक या रिप्रेज़ेंटेटिव बनाया जा सकेगा.[52]

राज्यसभा को 'स्थाई सदन' कहा जाता है, क्योंकि इसके सदस्य रोटेशन में सेवानिवृत होते हैं. लेकिन हकीकत में राज्यसभा की बैठक कभी भी उस वक़्त नहीं होती जब लोकसभा का सत्र ना चल रहा हो.[o],[53] राज्यसभा की 'स्थाई या निरंतर सदन' के रूप में प्रासंगिकता को बनाए रखने के लिए राज्यसभा की बैठकों को लोकसभा की बैठक से अलग रखा जाना चाहिए. अर्थात इसकी बैठक उस वक़्त भी आयोजित की जाए जब लोकसभा की बैठक नहीं हो रही है.

टेबल 1: राज्यसभा और लोकसभा में वर्तमान सीट आवंटन (1971 के बाद से स्थिर)

राज्य 

जनसंख्या का %

राज्य सभा सीट का %

लोकसभा सीटों का %

उत्तर प्रदेश 

16.12

14.72

16.28

महाराष्ट्र 

9.20

8.23

8.62

तमिलनाडु 

7.52

7.79

7.74

कर्नाटक 

5.34

5.19

5.17

पंजाब 

2.47

3.03

2.49

हरियाणा 

1.83

2.16

1.72

पुदुचेरी  

0.09

0.43

0.19

 

सदस्यता संबंधी नियमों में फेरबदल की ज़रूरत

2003 के पहले मौजूद निवास स्थान संबंधी नियम को दोबारा लागू किया जाए. ऐसा करने के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 3 में संशोधन किया जाए ताकि राज्यसभा में राज्य के हितों पर होने वाले अतिक्रमण को आगे बढ़ने से रोका जा सके. केवल उन्हीं लोगों को राज्यसभा का सदस्य बनने का अवसर दिया जाए जो किसी राज्य विशेष में रहते हो या चुनाव से कम से कम 5 वर्ष पूर्व तक वहां के निवासी हो.[54] ऐसा होने पर ही निर्वाचित MPs अधिक जवाबदेह बनेंगे और सदन में राज्य विशेष से जुड़ी चिंताओं पर अपनी बात रख पाएंगे.[55]

एक और अहम ढांचागत सुधार है, जिसे लागू करते हुए हाल के वर्षों में ऊपरी सदन में देखे गए अत्यधिक राजनीतिकरण को कम किया जा सकता है. प्रत्येक राज्य से निर्वाचित होने वाले राज्यसभा सदस्यों में से आधे सदस्यों को वैधानिक रूप से अपने-अपने क्षेत्र का विशेषज्ञ होना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए. ये विशेषज्ञ प्रत्यक्ष रूप से किसी भी राजनीतिक दल के साथ संबंधित या सलंग्नित नहीं होंगे. ऐसा होने पर पेशेवर राजनीतिज्ञ और जागरूक नागरिकों के बीच एक संतुलन स्थापित किया जा सकेगा. इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 80 में एक साधारण संशोधन करना होगा.

वित्तीय अधिकारों में समानता सुनिश्चित की जाए 

जैसा की हाल ही में बिहार से राज्यसभा MP मनोज कुमार झा ने एक अखबार के कॉलम में लिखा था कि ऊपरी सदन की वैधता और प्रभावकारिता के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा इस सदन के पास वित्तीय अधिकार का अभाव है. इस सदन को प्रभावी बनाने के लिए वित्त विधेयक को भी इस सदन के कार्य क्षेत्र में शामिल किया जाना चाहिए.[56] ऐसा होने पर सदन में राज्य की चिंताओं का बेहतर ढंग से प्रस्तुतीकरण हो सकेगा और सहयोगात्मक तथा स्पर्धात्मक संघवाद की अवधारणा को भी मज़बूती मिलेगी. लोकसभा के सदस्य अपने संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से जुड़ी तात्कालिक चिंताओं को लेकर ही आमतौर पर व्यस्त रहते हैं. इसके अलावा उन्हें इस बात की भी चिंता रहती है कि क्या उन्हें पार्टी की ओर से दोबारा टिकट मिलेगा और क्या वे फिर से निर्वाचित हो सकेंगे. इन्हीं चिंताओं की वजह से वे राज्य की समस्याओं से जुड़े विभिन्न मसलों पर बारीकी से होने वाली चर्चा के लिए ज़्यादा वक़्त नहीं दे पाते. राज्यसभा के MPs इस मामले में भी वर्तमान में हो रहे काम को और आगे बढ़ा सकते हैं.

 

दल बदल कानून को या तो ख़ारिज़ करें या संशोधित 

दल बदल कानून में सांसद को संसद में मिले फ्री स्पीच यानी बोलने की आज़ादी के विशेषाधिकार पर कम ज़ोर दिया गया है. इस कानून में पार्टी अनुशासन पर ही बहुत ज़्यादा बल दिया गया है. इसमें आवश्यकता अनुरूप संशोधन, विशेषतः राज्यसभा के मामले में, किया जाना चाहिए. इस कानून को राज्यसभा में उस वक़्त लागू किया जाना चाहिए जब कोई सदस्य अविश्वास प्रस्ताव के दौरान या फिर वित्त विधेयक के मामले में पार्टी व्हिप का उल्लंघन करते हुए मतदान करें.

संघीय चुनौतियों को निपटाने के दौरान राज्यसभा के असर को मज़बूत करें

भारत की आज़ादी के बाद के राजनीतिक इतिहास से यह पता चलता है कि राज्यसभा को संवैधानिक रूप से काउंसिल ऑफ स्टेटस के रूप में देखा गया था लेकिन केंद्र ने कभी भी केंद्र-राज्य से जुड़े मसलों का हल निकालने के लिए इसका उपयोग नहीं किया है. इस बात के अनेक उदाहरण मिल सकते हैं. 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तानी घुसपैठ के ख़िलाफ़ राजनीतिक रूप से एकजुट जवाब देने की बात सोची तो उन्होंने विपक्षी दलों, जिसमें अनेक राज्य स्तरीय क्षेत्रीय पार्टियां शामिल थीं, के साथ अलग-अलग तरीके से बात की, लेकिन उन्होंने कभी भी राज्यसभा के माध्यम से ऐसा करने का प्रयास नहीं किया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली वर्तमान सरकार ने जब भी किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर आम सहमति बनाने की कोशिश की है तो उसने भी हमेशा यह कोशिश राज्यसभा की परिधि या कार्य क्षेत्र से बाहर ही की है.

2014 में योजना आयोग को समाप्त कर दिया गया था. [p] इसी प्रकार इंटर-स्टेट काउंसिल [q] का काम शुरू ही नहीं हो पाया है. ऐसे में अपने पास मौजूद अनुभवी कानून निर्माताओं तथा विशेषज्ञों का लाभ लेते हुए राज्यसभा केंद्र तथा राज्यों के बीच विवादासपद मुद्दों को लेकर चर्चा करने और उसमें हस्तक्षेप करने का एक अहम मंच बन सकती है. संसदीय समितियों की भूमिका को महत्व देकर सरकार राज्यसभा के पास मौजूद विभिन्न संसाधनों का उपयोग करते इसका लाभ उठा सकती है. दुर्भाग्यवश हाल के वर्षों में यह पाया गया है कि सरकार महत्वपूर्ण विधेयकों को संसदीय समितियों के पास भेजती ही नहीं है या इन विधेयकों को संसदीय समिति के पास भेजने की संख्या में भारी गिरावट आई है. [r],[57]

निष्कर्ष

सफ़ल लोकतंत्र में चेक्स एंड बैलेंसेस अर्थात नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था एक जटिल प्रक्रिया होती है. केवल चुनाव जीतने की वजह से ही चुनाव जीतने वाले दल या सरकार बनाने वाले गठबंधन को असीमित शक्तियां नहीं मिल जाती और यह मिलनी भी नहीं चाहिए. रचनात्मक स्थिरता और विवेक पूर्ण सदन होने के नाते एक विशाल एवं जटिल संघीय व्यवस्था में राज्यसभा की भूमिका और उसकी वैधता को मजबूती प्रदान की जानी चाहिए. उसकी मज़बूती में कमी लाने की कोई ज़रूरत नहीं है, जैसा कि कुछ सदस्य समय-समय पर सुझाव देते रहते हैं. एक ऐसे वक़्त में जब केंद्र और राज्यों के संबंध, विशेषतः उन राज्यों में जहां विपक्ष की सरकारें हैं, काफ़ी तनावपूर्ण हो गए हैं. इसकी वजह से संघवाद पर लगातार हमले हो रहे हैं. ऐसे में राज्यसभा की काउंसिल आफ स्टेट्स के रूप में सोची गई भूमिका को और भी मज़बूती देना ज़रूरी हो गया है. यह उसी वक़्त हो सकता है जब राज्यसभा के कार्य को प्रभावित करने वाली कुछ ढांचागत और कार्यात्मक कमियों को दूर किया जाएगा.

एक ऐसे वक़्त में जब केंद्र और राज्यों के संबंध, विशेषतः उन राज्यों में जहां विपक्ष की सरकारें हैं, काफ़ी तनावपूर्ण हो गए हैं. इसकी वजह से संघवाद पर लगातार हमले हो रहे हैं. ऐसे में राज्यसभा की काउंसिल आफ स्टेट्स के रूप में सोची गई भूमिका को और भी मज़बूती देना ज़रूरी हो गया है. 

और अंत में पिछले वर्ष चुनी गई 18वीं लोकसभा की रचना निकट भविष्य में राज्यसभा के कार्य करने के तरीके और राजनीतिक क्रियाकलापों को प्रभावित कर सकती है. 2014 और 2019 के विपरीत 2024 के चुनाव में केंद्र में सत्ता संभाल रही पार्टी को 543 लोकसभा सीटों में से 240 सीटों पर ही जीत मिल सकी थी. ऐसे में सत्ता संभालने वाले दल के पास अपने दम पर बहुमत नहीं है और उसने सहयोगियों के साथ मिलकर केंद्र सरकार स्थापित की है. इसका मतलब यह है कि गठबंधन की राजनीति ने वापसी की है और अब क्षेत्रीय दलों के पास ख़ुद का लोहा मनवाने के लिए थोड़ी जगह बन गई है. राज्यसभा की 245 में से 98 सीटों पर ही सत्तारूढ़ गठबंधन का कब्ज़ा है. ऐसे में वह महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित करने के लिए छोटे दलों का समर्थन मांगने की कोशिश करेगा. इसके परिणामस्वरूप राज्यसभा अब आम सहमति बनाने, नीति पर विचार- विमर्श करने और उनकी समीक्षा करने का एक महत्वपूर्ण संस्थान बनेगा. इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि वह राज्य के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाला एक महत्वपूर्ण मंच बन जाएगा.

किसी भी संदर्भ में बदलती हुई राजनीतिक डायनैमिक्स राज्यसभा की भूमिका को मौलिक रूप से नया आकर दे सकती है. लेकिन इस रिसर्च पेपर में जिन ढांचागत सुधारों पर चर्चा की गई है वे सुधार ही सही मायने में एक अर्थपूर्ण एवं स्थाई बदलाव लाकर भारतीय संसदीय व्यवस्था में ऊपरी सदन की भूमिका को मज़बूती प्रदान कर सकते हैं.

Endnotes

[a] Contrary to the conceived function of a second chamber, the upper house under British rule operated under a limited voting system and comprised a significant portion of members appointed by the British. It was part of the deliberate British effort to oppose certain decisions made by the largely elected Central Assembly.

[b] Beyond Loknath Mishra, there were other members of the CA who expressed strong views about the relevance of a second chamber. For instance, Shibban Lal Saksena emphasised, “I cannot refrain from saying that I am one of those who believe in only one chamber and not two chambers. Here they have provided for two chambers and the worst part of this is that in the Upper Chamber we shall have twelve nominated members; and we passed the other day that even those members, who have been nominated and who will never seek the vote of the people, can become ministers also. I think this is a most undemocratic aspect of our Constitution.” See:  https://indianexpress.com/article/opinion/columns/ncp-general-secretary-jitendra-awhad-sanatana-dharma-is-not-hinduism-8928925/

[c] See: https://cms.rajyasabha.nic.in/UploadedFiles/ElectronicPublications/Role_Parliamentary_Democracy.pdf

[d] The Seventh Schedule (section) of the Constitution separates all subjects in the country into three groups: Central subjects (on which the central government makes laws and handles), state subjects (which are the exclusive legislative domain of the states), and concurrent subjects (on which both can legislate).

[e] The bill abolishing privileges and allowances of former rulers, was, however, reintroduced as the 26th Amendment Bill, after the composition of the Rajya Sabha had changed, and this time it was passed on 28 December 1971.

[f] The 45th Amendment Bill was passed in the parliament as a legislation titled 44th Amendment Act

[g] The 64th and 65th amendments sought to increase the powers and autonomy of panchayats and nagar palikas, which many states ruled by opposition parties interpreted as an indirect attempt by the Central Government to attenuate the power of the states. They opposed the bills in the Rajya Sabha and successfully prevented their passing, unlike in the Lok Sabha, where the ruling Congress party could use its brute majority to push them through. Later, following discussions and the evolution of a national consensus, the bills were reintroduced as the 73rd and 74th amendments bills in 1993 and passed by both houses.

[h] The Prevention of Terrorism Bill, 2001, in its original form fell through in the Rajya Sabha as opposition parties felt that it curtailed personal freedoms and also contained clauses that could be misused. The Central Government then called a joint meeting of both houses of parliament in March 2002, and since the Lok Sabha has many more members than the Rajya Sabha, was able to get it passed.

[i] A decade later, the bill remains in limbo.

[j] The Women’s Reservation Bill, which reserves 33 percent of seats in Parliament and state legislatures for women, became controversial after some political parties raised intersectionality-related issues, demanding that the caste reservations already being provided to the scheduled castes, scheduled tribes, and other backward castes should also be incorporated within the quota that would be reserved for women, thereby introducing sub-quotas. However, other political parties opposed such further segmentation.

[k] The Banking Service Commission Act was passed in 1975 following the nationalisation of 14 major banks in 1969 to create a centralised service to recruit public-sector bank officers. However, it was soon realised that such a service could interfere with the autonomy of the banks, and the idea was dropped, with the Act being eventually repealed in 1978.

[l] The anti-defection law was passed in 1985 to curtail a practice that had become rampant since the late 1960s—that of elected representatives, both at the Centre and the state assemblies, switching parties, not from conviction but from monetary and other incentives offered to them. Often, such switching of sides led to the elected governments in several states, especially when they had narrow majorities, losing such majority and being voted out. The law, which has undergone revisions, lays down that any defecting MP or MLA loses their seat.

[m] Despite this, the government at the time chose to remove the requirement the following year.

[n] In the US Senate, the Australian Senate, and the German Bundesrat, all states have equal representation, regardless of their demographic or geographical size.

[o] During the Kargil War of 1999, since the Lok Sabha was not in session, there were demands to convene the Rajya Sabha instead to discuss issues relating to the war, but nothing came of it.

[p] Its replacement, the NITI Aayog, is a think tank with no statutory powers.

[q] The Inter-State Council was set up in 1990 as an advisory body to deliberate upon issues of common interest between the Centre and the states. However, its meetings have been few and irregular.

[r] In the 14th Lok Sabha, as much as 60 percent of the bills were referred to various parliamentary committees. In the 15th Lok Sabha, this was up to 71 percent. However, in the 16th Lok Sabha, when the Modi-led government first came to power, the figure dropped drastically to 26 percent. This dropped further in the 17th Lok Sabha, when only 16 percent of bills were referred to parliamentary committees. See: https://thewire.in/politics/indias-decade-of-democratic-deficit

 

[1] Chakshu Roy, “Previous Attempts to Abolish Rajya Sabha,” The PRS Blog, December 16, 2010, https://prsindia.org/theprsblog/previous-attempts-to-abolish-rajya-sabha

[2] Manish Tewari, “What has Rajya Sabha Achieved that a Stand-Alone Lok Sabha has Not, or Would Not?,” The Indian Express, June 13, 2022, https://indianexpress.com/article/opinion/columns/ncp-general-secretary-jitendra-awhad-sanatana-dharma-is-not-hinduism-8928925/

[3] Times News Network, “Lok Sabha Worked Only 21 of 98 Hours,” Times of India, August 12, 2021,https://timesofindia.indiatimes.com/india/lok-sabha-worked-only-21-of-96-hours-this-session-rajya-sabha-28-of-98-hours/articleshow/85258562.cms

[4] Tewari, “What has Rajya Sabha Achieved that a Stand-Alone Lok Sabha has Not, or Would Not?”

[5] Manoj Kumar Jha, “Why the Rajya Sabha Matters,” The Indian Express, July 23, 2022, https://indianexpress.com/article/opinion/columns/rajya-sabha-manoj-khumar-jha-8046084/

[6] Valerian Rodrigues, “Revisiting the Rajya Sabha’s Role,” The Hindu, October 18, 2016, https://www.thehindu.com/opinion/lead/Revisiting-the-Rajya-Sabha%E2%80%99s-role/article14393715.ece

[7] Rekha Saxena, “Reforming the Rajya Sabha,” Seminar, June 2019, https://www.india-seminar.com/2019/717/717_rekha_saxena.htm

[8] Arup Ghosh, “Why Rajya Sabha is Essential for Indian Democracy and Saving it is not Mission Impossible,” Firstpost, April 1, 2022, https://www.firstpost.com/politics/why-rajya-sabha-is-essential-for-indian-democracy-and-saving-it-is-not-mission-impossible-10507121.html

[9]  “Global Data on National Parliaments,” IPU Parline, 2023, https://data.ipu.org/women-ranking?month=8&year=2023

[10] Elliot Bulmer, “Bicameralism: International IDEA Constitution-Building Primer 2,” IDEA2017

[11] Akshat Agarwal and Kevin James, “Rajya Sabha, the Safety Valve of Indian Federalism,” The Wire, March 8, 2019, https://thewire.in/government/rajya-sabha-the-safety-valve-of-indian-federalism

[12] Saxena, “Reforming the Rajya Sabha”

[13] The Constituent Assembly of India (Legislative) Debates, Volume 2, 1947,

https://eparlib.nic.in/bitstream/123456789/759806/1/cald_01_29-11-1947.pdf

[14] Rodrigues, “Revisiting the Rajya Sabha’s Role”

[15] Rodrigues, “Revisiting the Rajya Sabha’s Role”

[16] “Rajya Sabha: Fifty Years of Rajya Sabha (1952-2002),” Rajya Sabha, 2003.

[17] Saxena, “Reforming the Rajya Sabha”

[18]  Nirmalendu Bikash Rakshit, “Utility of the Rajya Sabha,” Economic and Political Weekly, August 24, 2002, https://www.epw.in/journal/2002/34/commentary/utility-rajya-sabha.html

[19] Anita Katyal, “Among the Factors that Forced Modi to Withdraw Land Bill: Fear of Defeat in Bihar Polls,” Scroll.in, August 5, 2015, https://scroll.in/article/746365/among-the-factors-that-forced-modi-to-withdraw-land-bill-fear-of-defeat-in-bihar-polls

[20] “Rajya Sabha: The Journey Since 1952,” Rajya Sabha Secretariat, 2019.

[21] Baijayant Panda, “Jay Panda: India’s Parliament is Paralysed by 19th Century Rules,” Quartz, December 16, 2015, https://qz.com/india/574143/jay-panda-indias-parliament-is-paralysed-by-19th-century-rules

[22] Vice President’s Secretariat, Government of India, https://pib.gov.in/newsite/PrintRelease.aspx?relid=194525

[23] “Rajya Sabha Functioning has Shown Certain Winds of Change, Says Chairman,” PIB Delhi, August 11, 2020; Shemin Joy, “Rajya Sabha Dominated by Opposition but Wrong to Call Upper House ‘Obstructionist’: Naidu,” Deccan Herald, May 13, 2020, https://www.deccanherald.com/india/rajya-sabha-dominated-by-opposition-but-wrong-to-call-upper-house-obstructionist-naidu-837079.html

[24] “Rajya Sabha: 2017-2022: An Overview,” Rajya Sabha Secretariat, New Delhi

[25]  “Opposition Dominated Rajya Sabha for Years, but Law Making Not Impacted,” Economic Times, May 13, 2020. https://economictimes.indiatimes.com/news/politics-and-nation/opposition-dominated-rajya-sabha-for-39-of-68-years-but-law-making-not-impacted-naidu/articleshow/75711769.cms?from=mdr

[26] “About 36% Rajya Sabha Candidates Declared Criminal Cases Against Themselves: Association for Democratic Reforms,” The Hindu, February 24, 2024, https://www.thehindu.com/news/national/about-36-rajya-sabha-candidates-declared-criminal-cases-against-themselves-association-for-democratic-reforms/article67881731.ece

[27] Nandini Chandrashekhar, “A Rajya Sabha Nomination and Bonds Worth Rs 120 Crore to BRS,” Newslaundry, March 26, 2024,

https://www.newslaundry.com/2024/03/26/a-rajya-sabha-nomination-and-bonds-worth-rs-120-crore-to-brs-at-the-time; Sonal Mehrotra Kapoor, “In AAP Settling for 2 Guptas For Rajya Sabha, A Debt and Thank You Note,” NDTV, January 4, 2018, https://www.ndtv.com/india-news/in-aap-settling-for-2-guptas-for-rajya-sabha-a-debt-and-thank-you-note-1796021

[28] “31% of Sitting Rajya Sabha Members have Declared Criminal Cases: Report,” NDTV, June 28, 2022, https://www.ndtv.com/india-news/31-of-sitting-rajya-sabha-members-have-declared-criminal-cases-association-for-democratic-reforms-report-3108348

[29] Nisha Anand, “Out of 225 Rajya Sabha Sitting MPs Analysed, 75 (33 per cent) Have Declared Criminal Cases Against Themselves,” Hindustan Times, August 19, 2023, https://www.hindustantimes.com/india-news/12-of-sitting-rajya-sabha-mps-billionaires-highest-percentage-in-andhra-pradesh-adr-report-101692424062611.html

[30] Vishwa Mohan, “Only Second Time in 66 Years History of Rajya Sabha: Majority of Nominated Members Joined a Ruling Party,” Times of India, August 8, 2018, https://timesofindia.indiatimes.com/india/only-second-time-in-66-yrs-history-of-rajya-sabha-majority-of-nominated-members-joined-a-ruling-party/articleshow/65316224.cms

[31] “Explained: Why Does Rajya Sabha have Nominated MPs, and Who Gets Nominated?,” The Indian Express, July 7, 2022, https://indianexpress.com/article/explained/rajya-sabha-nominated-mp-explained-8014310/

[32] Rudransh Mukherjee, “Normalization of the Nominated: Investigating the Political Activity of the Nominated Members to the Rajya Sabha,” Trivedi Centre for Political Datahttps://tcpd.ashoka.edu.in/normalization-of-the-nominated-investigating-the-political-activity-of-the-nominated-members-to-the-rajya-sabha/

[33] “More Nominated Members Joining Parties Now: RS data,” Hindustan Times, June 9, 2021,

https://www.hindustantimes.com/india-news/more-nominated-members-joining-parties-now-rs-data-101622919565338.html

[34]  Shishir Sinha, “House of Chaos. Disruptions Claimed Over 96 Hours in Lok Sabha, 103 Hours in Rajya Sabha,” Hindu Business Line, April 7, 2023, https://www.thehindubusinessline.com/news/national/disruptions-claimed-over-96-hours-in-lok-sabha-103-hours-in-rajya-sabha/article66706920.ece

[35] “No Domicile Clause for RS Elections: SC,” Times of India, August 23, 2006, https://timesofindia.indiatimes.com/india/no-domicile-clause-for-rs-elections-sc/articleshow/1917385.cms

[36] Rishi Ray, “Removal Of ‘Domicile’ Requirements for Rajya Sabha –Potential Threat to the Federal Structure,” October 2013, https://papers.ssrn.com/sol3/papers.cfm?abstract_id=2378129

[37] BV Shiva Shankar, “Karnataka: Nirmala Sitharaman, Jairam Ramesh Set to be Re-Elected to Rajya Sabha,” Times of India, May 30, 2022https://timesofindia.indiatimes.com/city/bengaluru/karnataka-nirmala-sitharaman-jairam-ramesh-set-to-be-re-elected-to-rajya-sabha/articleshow/91878201.cms; “BJP Eyes Gujarat Rajya Sabha Seat to get Jaishankar into House,” Times of India, June 3, 2019, https://timesofindia.indiatimes.com/india/bjp-eyes-gujarat-rajya-sabha-seat-to-get-jaishankar-into-house/articleshow/69625931.cms

[38] Saxena, “Reforming the Rajya Sabha”

[39] Nirun R.N. and Anu Stephen, “The Saga of Money Bill Controversies in India,” Live Law, June 21, 2023, https://www.livelaw.in/articles/the-saga-of-money-bill-controversies-in-india-231024

[40] Priyanka Rao, “Explainer: The Rights and Wrongs of Using Money Bills to Bypass the Rajya Sabha,” Scroll, December 25, 2015, https://scroll.in/article/777862/explainer-the-rights-and-wrongs-of-using-money-bills-to-bypass-the-rajya-sabha

[41] Sobhana K. Nair, “Congress Urges Speaker not to Bypass Rajya Sabha by Declaring 7 Key Bills as ‘Money Bills’,” The Hindu,  February 17, 2021, https://www.thehindu.com/news/national/congress-urges-speaker-not-to-bypass-rajya-sabha-by-declaring-7-key-bills-as-money-bills/article33861373.ece

[42]  P.D.T Achary, “Circumventing the Rajya Sabha,” The Hindu,  September 6, 2016, https://www.thehindu.com/opinion/lead/circumventing-the-rajya-sabha/article7531467.ece

[43] “Aadhaar Verdict: Speaker’s Call Now Open to Judicial Review,” Times of India, September 27, 2018, https://timesofindia.indiatimes.com/india/aadhaar-verdict-speakers-call-now-open-to-judicial-review/articleshow/65974099.cms

[44]  “CJI Chandrachud Agrees to List Petitions Challenging Money Bill Route for Contentious Amendments,” The Hindu, July 16, 2024, https://www.thehindu.com/news/national/supreme-court-to-consider-setting-up-bench-to-hear-pleas-against-passage-of-laws-as-money-bills/article68405773.ece

[45] Satish Mishra, “Question Mark over Rajya Sabha,” ORF Expert Speak, April 17, 2017,

https://www.orfonline.org/expert-speak/question-mark-rajya-sabha; Alok Prasanna Kumar, “The Perversion of ‘Money Bill’,” Deccan Herald, February 5, 2023, https://www.deccanherald.com/opinion/the-perversion-of-money-bill-1187965.html

[46] “In Unprecedented Move, Modi Government Sends Former CJI Ranjan Gogoi to Rajya Sabha,” The Wire, March 16, 2020. https://thewire.in/law/cji-ranjan-gogoi-rajya-sabha-nomination

[47] Jha, “Why the Rajya Sabha Matters”

[48] Saxena, “Reforming the Rajya Sabha”

[49] Anubhav Bijalwan and Deeksha Gupta, “Reform in the Rajya Sabha,” The Leaflet, February 14, 2020, https://theleaflet.in/reform-in-the-rajya-sabha/; Saubhadra Chatterji, “For Rajya Sabha Reforms, MPs Seek More Time to Speak, Assistants,” Hindustan Times, December 1, 2019, https://www.hindustantimes.com/india-news/for-rajya-sabha-reforms-mps-seek-more-time-to-speak-assistants/story-sqaD2kvlLkKM6pbuLDXmUI.html

[50] Saxena, “Reforming the Rajya Sabha”

[51] Mohd Sanjeer Alam, “India’s Delimitation Dilemma: Challenges and Consequences,” The India Forum, October 16, 2024, https://www.theindiaforum.in/politics/indias-delimitation-dilemma-challenges-and-consequences

[52] Saxena, “Reforming the Rajya Sabha”

[53]  V. Venkatesan, “For a Democratic Debate,” Frontline, July 3, 1999, https://frontline.thehindu.com/cover-story/article30159208.ece

[54]  “Disruptions in the Parliament,” Vidhi Legal Policy, 2016

[55]  Kuldip Nayar, “Who Belongs to the House, Who Doesn’t,” The Indian Express, May 19, 2016, https://indianexpress.com/article/opinion/columns/rajya-sabha-membership-supreme-court-who-belongs-to-the-house-who-doesnt-2807591/

[56] Jha, “Why the Rajya Sabha Matters”

[57] Saxena, “Reforming the Rajya Sabha”

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Authors

Niranjan Sahoo

Niranjan Sahoo

Niranjan Sahoo, PhD, is a Senior Fellow with ORF’s Governance and Politics Initiative. With years of expertise in governance and public policy, he now anchors ...

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Ambar Kumar Ghosh

Ambar Kumar Ghosh

Ambar Kumar Ghosh is an Associate Fellow under the Political Reforms and Governance Initiative at ORF Kolkata. His primary areas of research interest include studying ...

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