Occasional PapersPublished on Mar 30, 2024
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भारत में जल प्रशासन का कायाकल्प: नई राष्ट्रीय जल नीति की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम

  • Nilanjan Ghosh
  • Ambar Kumar Ghosh

    वैश्विक स्तर पर जल प्रबंधन और जल प्रशासन को लेकर आमूलचूल परिवर्तन का आह्वान किया गया है. यानी जल प्रशासन को लेकर पारंपरिक एवं गैर वैज्ञानिक सोच ही नहीं, बल्कि इंजीनियरिंग पर आधारित नज़रिए से भी आगे बढ़कर समग्र रूप से एकीकृत नदी बेसिन गवर्नेंस फ्रेमवर्क में बदलाव का आह्वान किया गया है. लेकिन भारत के जल प्रशासन ढांचे की बात की जाए, तो उसमें इस तरह का कोई भी बदलाव दिखाई नहीं देता है. भारत में जल प्रशासन के तौर-तरीक़ों में परिवर्तन को लेकर कुछ भी क़दम नहीं उठाए जाने की वजह से न केवल विभिन्न स्तरों पर पारिस्थितिक समस्याएं पैदा हुई हैं, बल्कि भारत का यह लचर रवैया तमाम विवादों की वजह भी बन गया है. ज़ाहिर है कि जल प्रबंधन और जल प्रशासन के बारे में जानकारियों और समझबूझ की बेहद कमी है और इस पेपर में ऐसी सभी कमियों की विस्तृत पड़ताल की गई है, जो जल प्रशासन के क्षेत्र में इस व्यापक बदलाव की राह में रुकावट पैदा करती हैं. साथ ही इस पेपर में वर्तमान संस्थागत तंत्र और क़ानूनों की कमियों के बारे में भी विस्तार से चर्चा की गई है. इसके अतिरिक्त, इस पेपर में नई राष्ट्रीय जल नीति की व्यापक रूपरेखा की पहचान करके भारत में वॉटर गवर्नेंस के क्षेत्र में उभरती चुनौतियों से निपटने के लिए एक मार्ग प्रशस्त करने का भी प्रयास किया गया है.

Attribution:

नीलांजन घोष और अंबर कुमार घोष, भारत में जल प्रशासन का कायाकल्प: नई राष्ट्रीय जल नीति की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम ओआरएफ सामयिक पेपर नंबर 427, फरवरी 2024, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन.

प्रस्तावना

पानी की प्रकृति ऐसी होती है कि उसे सीमाओं में बांध कर नहीं रखा जा सकता है. लगातार बहने वाली पानी की इसी प्रकृति की वजह से जल प्रशासन यानी वॉटर गवर्नेंस में कई प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. हालांकि, "सीमा पार जल" की जो पारंपरिक परिभाषा है, उसमें अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक सीमाओं को लांघने वाले पानी को शामिल किया गया है, लेकिन "सीमा पार जल" की जो नवीनतम परिभाषाएं हैं, उनमें इस धारणा को व्यापक बनाया गया है और इसमें किसी भी सीमा को पार करने वाले पानी को शामिल किया गया है. यानी कि "सीमा पार जल" की नई परिभाषा के मुताबिक़ इसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर से लेकर किसी भी क्षेत्र की छोटी से छोटी सामाजिक इकाई के पार जाने वाले पानी को शामिल किया गया है.[1] अगर पानी के बहाव से जुड़े इस विस्तारित परिप्रेक्ष्य की बात की जाए, तो इसमें एक देश के भीतर राज्यों के बीच प्रवाहित होने वाला पानी भी शामिल है. उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार से सीमा पार जल की नई व्याख्या सामने आई है, उसके अनुसार जल आवंटन को लेकर आर्थिक और पारिस्थितिकी तंत्र क्षेत्रों के बीच विवाद पैदा होते हैं.[2] अपने छोटे-छोटे फायदों के लिए जब बहते पानी में मानवीय दख़लंदाज़ी की जाती है, तो कहीं न कहीं इससे जल प्रवाह की व्यवस्था पर असर पड़ता है और इसकी वजह से पानी की आपूर्ति बाधित होती तथा नीचे के इलाक़ों के पारिस्थितिक तंत्र को ख़ासा नुक़सान पहुंचता है.

सरफेस वॉटर यानी सतही जल संसाधनों की योजना और प्रबंधन के लिए नदी बेसिनों को सर्वोत्तम प्राकृतिक इकाइयों के रूप में स्वीकारा गया है,[3] बावज़ूद इसके हमेशा से एक नदी की प्रणाली को नियंत्रित करने के लिए नदी बेसिनों को अलग-अलग इकाइयों में विभाजित करने देखा जाता है. इस विभाजन की दो मूल वजहें हैं. पहली वजह यह है कि इससे संसाधनों का प्रबंधन आसान हो जाता है और दूसरी वजह यह है कि राजनीतिक या भौगोलिक क्षेत्राधिकारों को लेकर कोई विवाद नहीं होता है.[4] यह एक पारंपरिक नज़रिया है, जिसमें पानी को एक क्षेत्र विशेष का ही हिस्सा माना जाता है, जिसका वहां के लोगों द्वारा अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ उपयोग किया जाता है.[5] भारत के विभिन्न राज्यों के साथ-साथ केंद्र और राज्य सरकारों के बीच जल संसाधनों के बंटवारे को लेकर अक्सर होने वाले विवादों के लिए इसी न्यूनतावादी दृष्टिकोण अर्थात संकीर्ण नज़रिए को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. इसके साथ ही भारतीय लोकतंत्र की संघीय प्रकृति में जो विकेंद्रीकृत शासन संरचना है, उसे भी इन विवादों के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है.[6]

भारत में कुल 25 प्रमुख नदी बेसिन और 103 उप-नदी बेसिन हैं, इनमें से कई नदी बेसिन ऐसे हैं, जिनका दायरा कई-कई राज्यों में फैला हुआ है. भारत में नदियों के किनारे पर बसा हर राज्य भारतीय संविधान में उल्लिखित शक्तियों और प्रावधानों के आधार पर इन नदी बेसिनों पर अपने अधिकार क्षेत्र का दावा करता है.  

भारत में कुल 25 प्रमुख नदी बेसिन और 103 उप-नदी बेसिन हैं, इनमें से कई नदी बेसिन ऐसे हैं, जिनका दायरा कई-कई राज्यों में फैला हुआ है. भारत में नदियों के किनारे पर बसा हर राज्य भारतीय संविधान में उल्लिखित शक्तियों और प्रावधानों के आधार पर इन नदी बेसिनों पर अपने अधिकार क्षेत्र का दावा करता है.[7] जल संसाधनों के इस्तेमाल से जुड़े विवाद सिर्फ़ पानी की कमी की वजह से पैदा नहीं होते हैं, बल्कि इनके पीछे प्राकृतिक तौर पर आपस में जुड़ी जल प्रणाली पर नियंत्रण को लेकर भी विवाद पैदा होते हैं.[8] पानी को राज्य का विषय माना जाता है, इसी कारण से पानी पर नियंत्रण को लेकर राज्यों के बीच राजनीतिक टकराव शुरू हुए हैं, यानी इन विवादों के पीछे कहीं न कहीं राज्यों के बीच पानी के अधिकार को लेकर परस्पर विरोधी धारणाएं भी हैं.[9] देखा जाए तो विभाजित वॉटर गवर्नेंस का यह नज़रिया नदियों पर बनी पारंपरिक संरचनाओं यानी बांधों के प्रभुत्व और जल प्रशासन को लेकर न्यूनतावादी विचारों से प्रेरित है. ज़ाहिर है कि भारत में इन्हीं पारंपरिक विचारों ने जल प्रबंधन के तौर-तरीक़ों को निर्धारित किया है. इतना ही नहीं इसी सोच ने भारत में हाइड्रोलॉजिकल परियोजनाओं के विकास, सिंचाई नेटवर्क के लिए जल संसाधनों के प्रबंधन, जो कि देश के खाद्य सुरक्षा उपायों से जुड़े हैं और अंतर्राज्यीय जल संसाधनों के प्रबंधन एवं राज्यों के बीच संभावित विवादों को आकार देने का काम किया है.

इस पेपर में पानी से संबंधित मौज़ूदा संस्थागत तंत्रों और नियम-क़ानूनों की उन कमियों और जानकारियों के बीच के अंतर की पहचान की गई है, जिनकी वजह से जल प्रशासन को लेकर बदलाव की कोशिशों में रुकावटें आ रही हैं. इसके साथ ही, यह पेपर एक नई राष्ट्रीय जल नीति की व्यापक रूपरेखा के बारे में चर्चा करके भारत में जल प्रशासन के समक्ष आने वाली नई-नई चुनौतियों से का समाधान तलाशने के लिए एक मार्ग प्रशस्त करने का भी प्रयास करता है.

जल प्रशासन का मॉडल

भारत और विश्व के दूसरे देश वॉटर गवर्नेंस को लेकर दुविधा का सामना कर रहे हैं. दरअसल, इन देशों के बीच जल प्रशासन को लेकर दो विपरीत प्रकार के मॉडलों के लेकर ज़बरदस्त दुविधा है.[A] यह दुविधा ब्रिटिश शासन के दौरान जल प्रबंधन को लेकर अपनाए गए विभिन्न प्रकार के तौर-तरीक़ों यानी पारंपरिक संरचनात्मक निर्माणों जैसे कि बांध आदि को चुनने, या फिर अधिक व्यापक और समग्र जल प्रबंधन प्रणाली को अपनाने के बीच है. यह असमंजस तब सामने आया, जब पश्चिमी देशों द्वारा नदियों पर व्यापक स्तर पर बांधों के निर्माण और दूसरे तरह के निर्माणों के दुष्प्रभावों को पहचाना गया. ज़ाहिर है कि नदियों पर बांधों जैसे स्थाई निर्माण न केवल नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में रुकावट पैदा करते हैं, बल्कि नदी बेसिन के दायरे में पारिस्थितिक तंत्र को इस स्तर तक नुक़सान पहुंचाते हैं, जिसकी भरपाई असंभव होती है. यूरोपियन यूनियन ने (EU) ने वर्ष 2000 में में वॉटर फ्रेमवर्क डायरेक्टिव यानी जल प्रशासन से संबंधित दिशा-निर्देशों को अपनाकर इस समस्या का समाधान तलाशने की कोशिश की और नतीज़तन पूरे यूरोप में कई बांधों को बंद कर दिया गया. तब से लेकर अब तक फ्रांस, स्वीडन, फिनलैंड, स्पेन और यूके जैसे विभिन्न देशों में क़रीब-क़रीब 5,000 ऐसे बांधों को तोड़ा जा चुका है.[10] इस वॉटर फ्रेमवर्क डायरेक्टिव में यूरोपीय संघ के सदस्य देशों से जल निकायों यानी नदियों आदि की पारिस्थितिकी को बरक़रार रखते हुए उन्हें और सशक्त करने की ज़रूरत पर भी ज़ोर दिया गया है. इसकी वजह से प्राकृतिक जल प्रवाह को बरक़रार रखने में मदद मिलेगी. कुछ इसी तरह से अमेरिका में भी नदियों पर बने बांधों को तोड़ा जा रहा है. ज़ाहिर है कि अमेरिका में 1920 और 1960 के दशक के बीच व्यापक स्तर पर बांधों का निर्माण किया गया था. अमेरिका में नदी बेसिन इकोसिस्टम की पुनर्स्थापना के लिए हाल के दशकों में 1,000 से अधिक ऐसे बांधों को तोड़ा गया है.[11]

जहां तक भारत की बात है, तो उसने अभी तक इंटीग्रेटेड वॉटर रिसोर्स मैनेजमेंट यानी एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन (IWRM) की ओर परिवर्तन को अभी तक वास्तविक अर्थों में नहीं अपनाया है.[B] कहने का तात्पर्य यह है कि भारत के पानी से जुड़े तकनीक़ी सेक्टर ने जल संसाधन विकास के पुराने और अप्रचलित सिद्धांतों के साथ क़दमताल करना जारी रखा है. इतना ही नहीं, दीर्घकालिक स्थिरता से जुड़े मुद्दों को दरकिनार करते हुए तात्कालिक आर्थिक लाभ को प्रमुखता दी है. इसके अतिरिक्त, भारत में जल-तकनीक़ी सेक्टर द्वारा न सिर्फ़ जल प्रबंधन के मौज़ूदा तरीक़ों का अनुसरण करने पर ज़ोर दिया गया है, बल्कि इस दिशा में बदलाव की किसी भी कोशिश का विरोध किया गया है.[12]

इस सबसे बावज़ूद, पिछले दशक के घटनाक्रमों पर गौर किया जाए, तो भारत ने व्यापक वॉटर गवर्नेंस फ्रेमवर्क को अपनाने के लिए विशेष क़दम उठाए हैं और कई पहलों की शुरुआत की है. वर्ष 2016 में भारत में जल प्रबंधन और जल प्रशासन से संबंधित दो बिल प्रस्तावित किए गए थे. इस बिलों के नाम ड्राफ्ट नेशनल वॉटर फ्रेमवर्क बिल और भू-जल के संरक्षण, बचाव, विनियमन और प्रबंधन के लिए मॉडल बिल था. इसके अलावा 'ए 21st सेंचुरी इंस्टीट्यूशनल आर्किटेक्चर फॉर इंडियाज वॉटर रिफॉर्म्स' शीर्षक वाली एक रिपोर्ट[13] प्रकाशित की गई थी. इन दोनों बिलों और जल सुधार रिपोर्ट का मसौदा अर्थशास्त्री एवं जल व ग्रामीण विकास विशेषज्ञ मिहिर शाह की अध्यक्षता वाली समितियों द्वारा तैयार किया गया था.[C] जल शक्ति मंत्रालय ने वर्ष 2019 में एक नई राष्ट्रीय जल नीति का मसौदा तैयार करने के लिए मिहिर शाह की अगुवाई में स्वतंत्र विशेषज्ञों की एक कमेटी का गठन किया था. इस समिति द्वारा वर्ष 2021 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी गई थी, बावज़ूद इसके डॉफ्ट पॉलिसी को अभी तक संसद में विचार के लिए पेश नहीं किया जा सका है.

निसंदेह तौर पर ये कहा जा सकता है कि, जैसे-जैसे मानव सभ्यता का विकास हुआ है, वैसे-वैसे हर क्षेत्र में आधुनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर का भी निर्माण हुआ है. जल प्रबंधन के सेक्टर में भी इंजीनियरिंग ने प्रगति की और ऐसे बांधों का निर्माण किया जा सका, जो न केवल नदियों के प्रवाह को बदलने में सक्षम हैं, बल्कि पानी के भंडारण और उसे दूसरी जगह पर प्रवाहित करने में भी सक्षम हैं. बड़े बांधों के व्यापक उपयोग से न केवल एक्वीफायर यानी भूमिगत जल के भंडारण का प्रबंधन करने के लिए अधिक शक्तिशाली पंपिंग टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल सुगम हुआ है, बल्कि काफ़ी हद तक सतही जल को नियंत्रित करना भी संभव हुआ है. इन बड़े बांधों के कई और लाभ मिले, जैसे कि इनसे बाढ़ पर काबू पाने में मदद मिली, वहीं हाइड्रो इलेक्ट्रिक यानी पनबिजली का उत्पादन भी संभव हुआ. इसके साथ ही गर्मी के दौरान पानी की कमी की समस्या से निपटने और विभिन्न इलाक़ों में पानी की उपलब्धता को सुनिश्चित करने में भी ये बांध कारगर साबित हुए. इसके अलावा इन बांधों से सिंचाई नहरें निकाले जाने से नए-नए भू-भाग में खेती-बाड़ी का कार्य करना आसान हुआ और इससे अधिक समय तक कृषि पैदावार सुनिश्चित करना भी संभव हुआ. समय के साथ-साथ पानी की कमी को स्थानीय समस्या के रूप में देखा जाने लगा, साथ ही यह भी माना जाने लगा कि अगर पानी की आपूर्ति को बढ़ाने वाली योजनाओं को समझदारी के साथ अमल में लाया जाता है, तो पानी की बहुलता वाले इलाक़ों से पानी को जल की कमी वाले इलाक़ों में पहुंचाया जा सकता है. इसके साथ ही यह भी माना जाने लगा कि पानी को एक समान तौर पर वितरित करने के लिए, प्राकृतिक जल प्रवाह में दख़ल देकर जल आपूर्ति का विस्तार किया जाना चाहिए.[14] देखा जाए तो पानी की उपलब्धता को लेकर इन सभी नज़रियों ने ऐसे क्षेत्रों में पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने में सहायता की, जो पानी की कमी का सामना कर रहे थे. लेकिन इससे कई दूसरी चुनौतियां सामने आईं, जो पानी की कमी जैसी चुनौती से कहीं अधिक बड़ी थीं. ज़ाहिर है कि एक ऐसी रणनीति जो सिर्फ़ और सिर्फ़ हाइड्रोलॉजिकल साइकिल यानी पानी के प्रवाह के चक्र को अपने मुताबिक़ ढालने पर केंद्रित थी, वो कहीं न कहीं घातक साबित होने लगी, क्योंकि इसका नदी बेसिन इकोसिस्टम पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगा. इस क्षेत्र में हुई रिसर्च से यह सामने आया है कि जल प्रबंधन के लिए 'जैसा चल रहा है, ठीक चल रहा है' का पारंपरिक नज़रिया अब टिकाऊ नहीं है. इतना ही नहीं रिसर्च के मुताबिक़ इस दृष्टिकोण की वजह से तमाम हितधारकों के बीच व्यापक स्तर पर तनाव पैदा होने की भी संभावना है.[15] यानी की अब स्वार्थी एवं इंजीनियरिंग पर आधारिक जल प्रशासन के मॉडल के बजाए वैकल्पिक रूप से एक नए, समग्र एवं विभिन्न मुद्दों को लेकर एक साथ चलने वाले दृष्टिकोण (IWRM [D]) को अपनाना चाहिए.[16]

नदी बेसिन के स्तर पर एकीकृत जल नियंत्रण

कई देश अब यह मानने लगे हैं कि जल प्रबंधन और रिवर बेसिन यानी नदी घाटियों को नियंत्रित करने के लिए व्यापक सोच अपनाए जाने की ज़रूरत है.[17] इसी के मद्देनज़र दुनिया के कई देशों ने बांधों का उपयोग समाप्त करने और नदी के पानी को संरक्षित करने के लिए वैकल्पिक तरीक़ों को अमल में लाने की नीतियां बनाई हैं. उदाहरण के तौर पर ऑस्ट्रेलिया ने मरे-डार्लिंग बेसिन पर वॉटर मार्केट स्थापित किया है, जिसे मरे-डार्लिंग बेसिन प्राधिकरण द्वारा नियंत्रित किया जाता है. यह वॉटर मार्केट किसानों को जल उत्पादकता बढ़ाने यानी फसल की पैदावार के लिए पानी के कम से कम उपयोग के लिए प्रोत्साहित करने एवं टिकाऊ जल प्रबंधन में योगदान देने में सक्षम बनाता है.[18] चिली में, नेशनल वॉटर कोड यानी राष्ट्रीय जल संहिता (1981) ने जल अधिकारों की एक हस्तांतरणीय प्रणाली स्थापित की है, जिसका भूमि उपयोग या स्वामित्व से कोई लेनादेना नहीं है. चिली में जल बाज़ारों में अक्सर यह देखने में आता है कि तमाम तरह के कार्यों के लिए पानी की ज़रूरतों के लिए किसान पानी को 'किराए' पर लेने और देने जैसी गतिविधियों में शामिल होते हैं.[19] पश्चिमी अमेरिका में जल संकट के ख़तरे को कम करने के लिए शिकागो मर्केंटाइल एक्सचेंज में दिसंबर 2019 में वॉटर डेरिवेटिव ट्रेडिंग शुरू की गई.[20] इसने पश्चिमी अमेरिका में नदियों के पानी के प्रबंधन की दिशा में उल्लेखनीय रूप से परिवर्तन लाने का काम किया, क्योंकि पहले पश्चिमी अमेरिका में नदियों को नियंत्रित करने के लिए अंधाधुंध तरीक़े से बांधों का निर्माण किया जाता था, लेकिन अब इस नज़रिए में बदलाव आया है और जल प्रबंधन के लिए वैकल्पिक तरीक़े अपनाए जा रहे हैं.[21]

पश्चिमी अमेरिका में जल संकट के ख़तरे को कम करने के लिए शिकागो मर्केंटाइल एक्सचेंज में दिसंबर 2019 में वॉटर डेरिवेटिव ट्रेडिंग शुरू की गई.  इसने पश्चिमी अमेरिका में नदियों के पानी के प्रबंधन की दिशा में उल्लेखनीय रूप से परिवर्तन लाने का काम किया, क्योंकि पहले पश्चिमी अमेरिका में नदियों को नियंत्रित करने के लिए अंधाधुंध तरीक़े से बांधों का निर्माण किया जाता था, लेकिन अब इस नज़रिए में बदलाव आया है और जल प्रबंधन के लिए वैकल्पिक तरीक़े अपनाए जा रहे हैं. 

जहां तक भारत की बात है, तो भारत ने अभी तक वॉटर मार्केट जैसी कोई पहल नहीं की है. हालांकि, भारत में अकादमिक सेक्टर में वॉटर मार्केट की परिकल्पना पर चर्चा ज़रूर की जा रही है और पानी की कमी के दौरान पानी की मांग के प्रबंधन के लिए इसे एक महत्वपूर्ण माध्यम बताया गया है.[22], [23] चर्चा इस बात पर भी चल रही है कि भारतीय संदर्भ में वॉटर फ्यूचर मार्केट लाभदायक सिद्ध होंगे या नहीं.[24], [25] वर्ष 2022 में कई रिपोर्टों में यह सामने आया है कि नीति आयोग ने सलाह-मशविरा के लिए लोगों के बीच शेयर बाज़ारों में जल व्यापार के लिए विभिन्न साधनों का एक मसौदा अनुशंसा पत्र पेश करने की योजना बनाई है. इसमें स्पॉट ट्रेडिंग, फ्यूचर ट्रेडिंग यानी वायदा कारोबार जैसे डेरिवेटिव उपकरणों और व्यापार योग्य लाइसेंस आदि कुछ विचाराधीन उपकरण शामिल थे.[26] वर्तमान में, नीति आयोग ने एक पारदर्शी प्लेटफॉर्म के ज़रिए उपचारित अपशिष्ट जल अधिकारों और पात्रता के आदान-प्रदान पर एक दस्तावेज़ पेश किया है.[27] जल बाज़ारों का प्रमुख उद्देश्य पानी की उचित क़ीमत के बारे में पता लगाना है, ज़ाहिर है कि यही क़ीमत जल संसाधान की कमी का मूल्य बता सकती है. विशेष जल शुल्क के मामले में ऐसा कभी नहीं होता है, जिसे अक्सर सरकारों या वॉटर रेगुलेटरों द्वारा निर्धारित किया जाता है. पानी की मांग का प्रबंधन तभी बेहतर तरीक़े से हो सकता है जब बाज़ार मूल्य पानी की भौतिक उपलब्धता या भविष्य में होने वाली कमी का संकेत देता है. कुल मिलाकर भारत के लिए यह एकदम सटीक है, ऐसे में भारत को बेहतर जल नियंत्रण या जल प्रशासन के लिए इस प्रकार के जल बाज़ारों की स्थापना पर विचार करना चाहिए.

यहां सबसे बड़ा मुद्दा जल प्रबंधन और नियंत्रण के लिए पूरे तंत्र के एक नज़रिए[E]  की ज़रूरत का है, यानी एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता का है, जिसमें सामान्य जल का प्रबंधन और ख़ास तौर पर नदी बेसिन का प्रबंधन, दोनों शामिल हैं. जहां तक नदी बेसिन की बात है, ये एकीकृत प्रणालियों के रूप में कार्य करते हैं. यानि कि नदी बेसिन में हर घटक एक दूसरे से जुड़ा होता है और अगर इसके एक हिस्से में बदलाव किया जाता है, तो यह जगह और समय दोनों के लिहाज़ से बेसिन के दूसरे हिस्सों को भी प्रभावित कर सकता है. नदी बेसिन में यह बदलाव प्राकृतिक उथल-पुथल या फिर मानवीय गतिविधियों से पैदा हो सकते हैं.[28] जब कोई नदी बहती है तो ख़ास तौर भारत के संदर्भ में उसके प्रवाह में सिर्फ़ रसायनों वाला पानी शामिल नहीं होता है, बल्कि गाद, ऊर्जा और जैव विविधता भी शामिल होती है. अगर इनमें से किसी तत्व के साथ छेड़छाड़ की जाती है, तो ज़ाहिर तौर पर इसका दूरी चीज़ों पर भी असर पड़ेगा. नदी बेसिन के एक हिस्से में होने वाली गतिविधियां, जैसे अपशिष्ट जल का नदी में प्रवाह या फिर नदी के जल ग्रहण क्षेत्रों में वनों की कटाई जैसी गतिविधियां कहीं न कहीं डाउनस्ट्रीम के सभी इलाक़ों पर असर डालेंगी.[29] उदाहरण के तौर पर भारत में गंगा नदी पर वर्ष 1975 में फरक्का बैराज का निर्माण किया गया था. फरक्का बैराज के निर्माण के बाद गंगा नदी के डेल्टा में गाद का प्रवाह बाधित हो गया और इससे उपजाऊ मिट्टी का निर्माण भी सीमित हो गया. नदी के साथ आने वाली गाद जब आगे नहीं जा पाई तो वह फरक्का बैराज के पीछे जमा हो गई और बिहार में बाढ़ से होने वाले नुक़सान के लिए भी कहीं न कहीं इसे ही ज़िम्मेदार ठहराया गया.

ऐसे में जब नदी बेसिन के स्तर पर एकीकृत दृष्टिकोण को लेकर नियम और सिद्धांतों को बनाने का सिलसिला चल रहा है, तो इस सबसे बीच (वर्तमान जानकारी और दस्तावेज़ों के आधार पर) निम्नलिखित प्रमुख बातें निकलकर सामने आई हैं:[30]

  • पानी को एक गतिशील या परिवर्तनशील तत्व समझा जाना चाहिए, जो कि इको-हाइड्रोलॉजिकल साइकिल यानी पारिस्तिथिकी-जल विज्ञान चक्र का अभिन्न अंग है. पानी को मानवीय आवश्यकताओं और सुविधा के आधार पर उपयोग किए जाने वाले भौतिक संसाधनों का भंडार नहीं समझा जाना चाहिए.
  • आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो पानी अनमोल है और इसका जिस किसी भी रुप में उपयोग होता है, उसमें यह मूल्यवान है. जिसमें पारिस्थितिक तंत्र भी शामिल है. पानी और प्रवाह के तरीक़ों से संबंधित इकोसिस्टम सेवाओं का मूल्यांकन करके पानी के इस मोल को समझा और स्वीकारा जाना चाहिए. इतना ही नहीं, व्यापक इकोलॉजिकल-इकोनॉमिक फ्रेमवर्क यानी पारिस्थितिक-आर्थिक ढांचे के भीतर एक वित्तीय संपत्ति के रूप में पानी को मान्यता दी जानी चाहिए. सामाजिक तौर पर देखा जाए तो पानी के मूल्य और महत्व को मानने के दौरान इसके सर्व-सुलभता के गुण की भी अनदेखी नहीं करनी चाहिए.
  • जल प्रबंधन और जल प्रशासन के दौरान नदी बेसिन को इसकी प्राथमिक इकाई के रूप में कार्य करना चाहिए.
  • आर्थिक प्रगति या फिर खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जल आपूर्ति में लगातार बढ़ोतरी करना आवश्यक नहीं है. पानी की आपूर्ति बढ़ाने के बजाए पानी के उपयोग को कम से कम करने वाली तकनीक़ों की खोज पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए.
  • जल विकास परियोजनाओं का व्यापक स्तर पर मूल्यांकन किए जाने की ज़रूरत है और यह मूल्यांकन पूरे हाइड्रोलॉजिक साइकिल यानी जल विज्ञान चक्र के ढांचे के अंतर्गत किया जाना चाहिए.
  • सामाजिक, पारिस्थितिक और आर्थिक स्तर पर जल संसाधनों की महत्वपूर्ण भूमिकाओं को समझने के लिए एक पारदर्शी एवं बहुविषयक जानकारी बेहद ज़रूरी है, यानी पानी की भूमिका की पता लगाने के लिए व्यापक स्तर पर शोध किए जाने की ज़रूरत है.
  • सूखे और बाढ़ की घटनाओं पर गंभीरता के विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है और इन्हें पारिस्थितिक तंत्र में आए बदलाव के लिहाज़ से समझना चाहिए.
  • नदी बेसिन के विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित नीतियों के निर्धारण, निर्णय लेने और लागत-साझाकरण के लिए एक एकीकृत दृष्टिकोण बेहद अहम है. इसमें नदी बेसिन, संबंधित उद्योग, कृषि, शहरी विकास, नेविगेशन और पारिस्थितिकी तंत्र जैसे क्षेत्र शामिल हैं. इसके अतिरिक्त, ग़रीबी उन्मूलन रणनीतियों पर भी विचार किया जाना चाहिए.
  • नदी बेसिन और इसे प्रभावित करने वाली प्राकृतिक एवं सामाजिक-आर्थिक शक्तियों के बारे में विस्तृत और बहुविषयक जानकारी होना बेहद ज़रूरी है और इसके लिए पुख्ता प्रयास किए जाने चाहिए.
  • इस मामले में लैंगिक विमर्श किया जाना भी बेहद अहम है, जैसा कि डबलिन स्टेटमेंट में ज़ाहिर किया गया है.[F] डबलिन वक्तव्य के मुताबिक़ "महिलाएं पानी का इंतज़ाम करने, प्रबंधन करने और सुरक्षा में सबसे प्रमुख भूमिका निभाती हैं."[31]

उपरोक्त बिंदु सिर्फ सांकेतिक हैं और इन्हें इस समस्या का समाधान करने के लिए अंतिम नहीं माना जा सकता है, बल्कि समय के साथ और विचारों की प्रगति के साथ इन्हें और तथ्यपरक बनाया जा सकता है. हालांकि, यह निश्चित है कि ये बातें कहीं न कहीं जल प्रशासन के क्षेत्र में परिवर्तन की दिशा में एक बुनियाद बनाने का काम ज़रूर करती हैं.

समस्या की उत्पत्ति की पड़ताल

भारत में पानी से जुड़े विवादों के लिए भी इसी स्वार्थी या छोटी सोच को ज़िम्मेदार बताया जा सकता है. यानी पारंपरिक इंजीनियरिंग और नियो-क्लासिकल इकोनॉमिक सोच से प्रेरित उस संकीर्ण नज़रिए को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है, जो पानी की आपूर्ति को बढ़ाने की योजनाओं की जड़ में होता है. नियो-क्लासिकल इकोनॉमिक सोच में आपूर्ति और मांग को सबसे ज़्यादा महत्व दिया जाता है. ज़ाहिर है कि यह एक न्यूनीकरणवादी दृष्टिकोण है, यानी ऐसा दृष्टिकोण है जिसमें किसी जटिल घटना का उसके सरल या मौलिक घटकों के संदर्भ में विश्लेषण और वर्णन किया जाता है, इस सोच को अर्थमेटिक हाइड्रोलॉजी अर्थात 'अंकगणितीय जल विज्ञान' कहा जाता है. इस नज़रिए के अंतर्गत जल प्रबंधन के समक्ष आने वाली चुनौतियों और उन चुनौतियों के समाधानों को कुछ नंबरों में सुगम बना दिया जाता है, लेकिन इसमें कई महत्वपूर्ण चीज़ें, जिन्हें बदला जाना चाहिए, उनकी अनदेखी कर दी जाती है. इसी के फलस्वरूप जल प्रबंधन से जुड़ी तमाम दिक़्क़तें पैदा होती हैं.[32] इसी अपने फायदे की सोच की वजह से बड़े पैमाने पर सीमा पार हिमालयी जल को लेकर भारत में पर्यावरण सुरक्षा संबंधी चिंताएं पैदा हुई हैं. यह दृष्टिकोण ब्रिटिश काल के इंजीनियरों द्वारा पेश किए गए संरचनात्मक इंजीनियरिंग मॉडल से प्रभावित है. ज़ाहिर है कि उस समय के इंजीनियरों को हिमालयी क्षेत्र में पानी के भंडार और प्रवाह को लेकर अधिक जानकारी नहीं थी.[33] उल्लेखनीय है कि जल प्रबंधन में सबसे बड़ी चुनौती व्यापक स्तर पर टिकाऊ विज्ञान के बगैर जल संसाधन से संबंधित योजनाओं को बनाने और प्रबंधन में एक ही तरह की टेक्नोलॉजी का उपयोग किया जाना रही है.[34] भारत में वर्तमान वॉटर टेक्नोक्रेसी अर्थात जल तकनीकी तंत्र में इसी नज़रिए का बोलबाला है (बाद के खंडों में इस पर विस्तृत चर्चा की गई है).

प्रस्तावित नदी लिंक परियोजना देखा जाए तो न्यूनतावादी 'अंकगणितीय हाइड्रो-लॉजिकल' मॉडल का एक सटीक उदाहरण है. यह परियोजना पानी की कमी से जुड़ी समस्या का समाधान तलाशने के लिए जल आपूर्ति बढ़ाने के तौर-तरीक़ों पर बल देती है. इस परियोजना के अंतर्गत व्यापक स्तर पर एक ऐसी प्रणाली की स्थापना शामिल है, जिससे पानी के भंडारण और उसे देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक आपूर्ति करना संभव हो सके. इस परियोजना के तहत मुख्य रूप से पानी के लिहाज़ से भरपूर समझे जाने वाले गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना बेसिन से पानी की कमी वाले प्रायद्वीपीय नदी बेसिनों तक जल आपूर्ति किया जाना है. इस कार्य के लिए परियोजना के तहत नौ बड़े बांध, 24 छोटे बांध बनाना और लगभग 12,500 किलोमीटर नहरों का निर्माण शामिल है. इसके लिए केंद्रीय जल आयोग के पूर्व अध्यक्ष ए.डी. मोहिले द्वारा तैयार किए गए एक दस्तावेज़ से "अतिरिक्त पानी" और "कम पानी" वाले रिवर बेसिनों की जानकारी ली गई थी.[G] यह ऐसा दस्तावेज़ था, जो प्रकाशित नहीं हुआ था,[35] और रिवर बेसिनों के इस वर्गीकरण को एकीकृत जल संसाधन विकास योजना के लिए गठित नेशनल कमीशन द्वारा अपनाया गया था.[36] स्थिरता, समानता,[37] और पारिस्थितिक-आर्थिक व्यावहारिकता के लिहाज़ से देखा जाए तो प्रस्तावित नदी लिंक परियोजना में वैज्ञानिक नज़रिए का पूरी तरह से अभाव है.[38] यह परियोजना कितनी अधिक ख़र्चीली होगी और इसका पारिस्थितिक तंत्र पर कितना गंभीर प्रभाव पड़ेगा, जो काफ़ी हद तक विभिन्न राज्यों के बीच पानी से जुड़ी विवादों को भड़का भी सकते हैं, अगर इन सभी चितांओं को छोड़ भी दिया जाए, तब भी इस प्रकार की आशंकाएं बनी हुई हैं कि नदी लिंक परियोजना कहीं न कहीं दक्षिण एशिया में अंतरराष्ट्रीय जल-राजनीतिक हालात को बिगाड़ सकती है.[39]

हिमालयी क्षेत्र में पनबिजली परियोजनाएं

हिमालयी क्षेत्र में पड़ने वाले उत्तराखंड राज्य को वर्ष 2013 और 2021 में बड़ी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ा था. यह राज्य ग्लोबल वार्मिंग से बुरी तरह से प्रभावित है और भूकंप के लिहाज़ से भी बेहद संवेदनशील है. बावज़ूद इसके इस राज्य में हाइड्रोपावर परियोजनाओं के अंधाधुंध निर्माण ने तमाम तरह के सवाल खड़े कर दिए हैं. ज़ाहिर है कि पनबिजली परियोजनाओं के अंधाधुंध निर्माण के पीछे कहीं न कहीं तात्कालिक लाभ हासिल करना मुख्य मक़सद होता है और इस दौरान इसके संभावित ख़तरों को पूरी तरह से नज़रंदाज़ कर दिया जाता है. ऐसा करना भविष्य में वहां के निवासियों के लिए बेहद ख़तरनाक साबित हो सकता है और देखा जाए तो यह आपदाओं को भी आमंत्रित करता है और जिसका ख़ामियाजा लोगों को अपने जानमाल के नुक़सान से चुकाना पड़ता है. लंबे वक़्त से वैज्ञानिकों द्वारा ग्लेशियरों के पिघलने और उत्तराखंड जैसे क्षेत्रों में विकास परियोजनाओं के निर्माण से जुड़े ख़तरों को लेकर चेतावनी दी जाती रही है.[40]

हिमालयन रीजन में चल रही तमाम पनबिजली परियोजनाएं किसी ख़तरे से कम नहीं है, यह एक सच्चाई है. हालांकि इन बहुउद्देशीय परियोजनाओं की संकल्पना के पीछे का मकसद बाढ़ पर काबू पाना, ऊपरी इलाक़ों में पनबिजली जलाशयों में जल भंडारण करना, रोज़गार के अवसरों को पैदा करना एवं सर्विस व टूरिज़्म सेक्टर को बढ़ावा देना होता है. 

हिमालयन रीजन में चल रही तमाम पनबिजली परियोजनाएं किसी ख़तरे से कम नहीं है, यह एक सच्चाई है. हालांकि इन बहुउद्देशीय परियोजनाओं की संकल्पना के पीछे का मकसद बाढ़ पर काबू पाना, ऊपरी इलाक़ों में पनबिजली जलाशयों में जल भंडारण करना, रोज़गार के अवसरों को पैदा करना एवं सर्विस व टूरिज़्म सेक्टर को बढ़ावा देना होता है. लेकिन ये बड़ी परियोजनाएं देखा जाए तो न केवल व्यापक स्तर पर इकोसिस्टम को प्रभावित करती हैं, बल्कि लंबे समय के लिए इस पर अपना असर डालती हैं.[41] ज़ाहिर है कि जब पहाड़ी क्षेत्रों की नदियों पर बांध बनाए जाते हैं, तो इनसे नदियों का प्राकृतिक प्रवाह प्रभावित होता है, नदियों के साथ आने वाली गाद रुकती है और इससे इकोसिस्टम पर भी व्यापक असर पड़ता है, आख़िरकार इस सबसे पारिस्थितिकी तंत्र से जुड़ी सेवाएं प्रभावित होती हैं, यानी समाज पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से गंभीर असर पड़ता है. पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं डाउनस्ट्रीम, आर्थात नदी के बहाव वाले निचले इलाक़ों में रहने वाले लोगों की आजीविका को ज़बरदस्त तरीक़े से प्रभावित करती हैं, ज़ाहिर है कि इन क्षेत्र में रहने वाली ग़रीब आबादी ख़ास तौर पर इन पर निर्भर होती है.[42] उल्लेखनीय है कि जब भी ऐसी बड़ी परियोजनाओं की संकल्पना की जाती है, तो भविष्य में होने वाले इस तरह के नुक़सान का कोई आंकलन नहीं किया जाता है. अगर इस नुक़सान के बारे में पहले ही गंभीरता के साथ विचार किया जाए, तो यह निश्चित है कि ऐसी परियोजनाएं शायद बेमानी और अव्यावहारिक मान ली जाएंगी.

ऐसे कई उदाहरण मौज़ूद हैं,[43] जो यह साफ तौर पर बताते हैं कि किस प्रकार से तीस्ता नदी (ब्रह्मपुत्र नदी की एक सहायक नदी) के किनारे लगातार हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स के बेतरतीब निर्माण ने नदी पर संकट खड़ा कर दिया है.[44] गर्मी के दिनों में नदी के प्रवाह में कमी और बांग्लादेश व भारत के बीच बढ़ते जल विवाद के लिए सिक्किम एवं पश्चिम बंगाल में 25 से अधिक पनबिजली परियोजनाओं के निर्माण को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. तीस्ता नदी पर जो भी पनबिजली परियोजनाएं हैं, उनके बारे में दावा किया जाता है कि वे 'रन-ऑफ-रिवर' परियोजनाएं हैं, यानी बहते पानी से बिजली पैदा करने का काम करती हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि इन परियोजनाओं की वजह से विपरीत मौसम के दौरान नदी के जल प्रवाह में गिरावट आती है. ऐसे हालातों में हर समय बिजली पैदा करने के लिए टरबाइन चलाने हेतु पानी को एकत्र करने की ज़रूरत होती है. इसके लिए अलग से काफ़ी ख़र्च करना पड़ता है और यह पनबिजली परियोजनाओं में निवेश को वित्तीय लिहाज़ से गैरलाभकारी बना देता है, नतीज़तन तमाम निजी कंपनियां ऐसी परियोजनाओं के संचालन में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाती हैं. इसके अलावा, इससे नदी का जल प्रवाह भी बुरी तरह से प्रभावित होता है, यानी नदी में बहने वाले पानी की मात्रा में कमी आती है, जिससे नदी बेसिन का इकोसिस्टम गंभीर रूप से प्रभावित होता है.[45]

अंतर्राज्यीय जल प्रशासन और विवादों से भरा संघवाद

 

भारत में फेडरल वॉटर गवर्नेंस यानी संघीय जल प्रशासन के समक्ष अंतर्राज्यीय जल (नदी) विवाद एक बड़ी चुनौती हैं. सच्चाई यह है कि भारत की वो नदियां जो एक से अधिक राज्यों में बहती हैं, जल विवाद का अखाड़ा बन चुकी हैं. ऐसी नदियों पर राज्यों की ओर से अपना अधिकार जताया जाता है और उन्हें ग़लत तरीक़े से खाद्य सुरक्षा का आर्थिक साधन बताया जाता है. साथ ही दो या अधिक राज्यों में बहने वाली नदियों के इकोसिस्टम को लेकर राज्यों का नज़रिया एक नहीं होता है और जल संसाधन विकास के लिए पारंपरिक विचारों को अपनाया जाता है.[46] विभिन्न राज्यों के बीच नदी के पानी पर अपने अधिकार और नियंत्रण को लेकर ऐसे विवाद भारतीय गणराज्य की स्थापना के बाद से ही चलते आ रहे हैं. इन विवादों के पीछे कई ऐतिहासिक, संस्थागत और राजनीतिक वजहें हैं, लेकिन इतना लंबा वक़्त गुजरने के बाद भी इन विवादों का समाधान नहीं निकाला जा सका है.[47] संघवाद भारत का एक बुनियादी और अटल सिद्धांत है.[48] भारत के वर्तमान संघीय ढांचे में पानी से संबंधित वैधानिक शक्तियां केंद्र सरकार और राज्यों के बीच विभाजित हैं. इसका मुख्य मकसद राज्य के हितों को सुनिश्चित करते हुए इस अनमोल प्राकृतिक संसाधन का सर्वोत्तम तरीक़े से इस्तेमाल संभव बनाना है. भारतीय संविधान की अनुसूची VII अंतर्राज्यीय जल उपयोग और अंतर्राज्यीय जल के विनियमन के बीच अंतर को बताती है. भारतीय संविधान की अनुसूची VII अंतर्राज्यीय नदियों को विनियमित करने हेतु क़ानून बनाने के लिए संसद (सूची I-यूनियन सूची की प्रविष्टि 56) को अधिकार प्रदान करती है. इसके साथ ही राज्यों के पास पानी के उपयोग को सुनिश्चित करने का विशेषाधिकार होता है, जैसे कि पानी को आपूर्ति, सिंचाई, नहरों, जल निकासी, तटबंधों, जल भंडारण और पनबिजली उत्पादन जैसे उद्देश्यों के लिए पानी का उपयोग करने का अधिकार होता है (सूची II-राज्य सूची की प्रविष्टि 17), जो कि सूची I की प्रविष्टि 56 के प्रावधानों के अनुरूप है.

परंपरागत तौर पर देखा जाए, तो नदियों पर दावे की इस व्यवस्था का तर्क इस विचार पर आधारित है कि अंतर्राज्यीय नदियां चूंकि राज्यों की राजनीतिक या प्रशासनिक सीमाओं को पार करके बहती हैं, ऐसे में राज्यों द्वारा नदियों पर अपना विशेषाधिकार नहीं जताया जा सकता है. यद्यपि गौर करने लायक बात यह भी है कि जहां संघ की सूची में साफ तौर पर 'अंतर्राज्यीय जल' का उल्लेख किया है, वहीं राज्य सूची में 'अंतर-राज्य' का अलग से उल्लेख नहीं किया गया है, बल्कि इसमें सिर्फ़ 'जल' शब्द का उपयोग किया गया है. इसका मतलब यह है कि राज्यों के पास सूची II की प्रविष्टि 17 में शामिल मामलों पर पूर्ण वैधानिक अधिकार है, भले ही नदी का स्रोत दूसरे राज्य में हो या फिर सहायक नदियां दूसरे राज्य में प्रवाहित होती हों.[49] व्यापक स्तर पर सार्वजनिक हित में राज्यों के इस वैधानिक अधिकार को सिर्फ़ संसद द्वारा क़ानून बनाकर ही समाप्त किया जा सकता है. ज़ाहिर है कि संवैधानिक फ्रेमवर्क में इस मसले को लेकर स्पष्टता का अभाव है और इससे राज्यों को नदियों पर नियंत्रण का अधिकार मिल जाता है. साथ ही अंतर्राज्यीय नदियों के मामले में संसद के हाथ भी वैधानिक रूप से बंध जाते हैं.

इसी कारण से आम तौर पर केंद्र सरकार द्वारा नदी बेसिन पर आधारित व्यापक नज़रिया अपनाने से दूरी बनाई गई है और नदियों से जुड़े विवादों का समाधान तलाशने के लिए वैकल्पिक तरीक़ों को अमल में लाया गया है. ज़ाहिर है कि ऐसे विवादों के निपटारे हेतु विभिन्न राज्यों की सहभागिता के लिए एक भरोसेमंद नीतिगत ढांचे का अभाव है. इसके लिए उस पॉलिसी इकोसिस्टम को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है, जो अचानक किसी घटना का सामना करने के लिए तैयार किया गया है.[50] विशेष तौर पर अंतर-राज्य नदी जल विवाद अधिनियम, 1956 जैसे अधिनियमों में संशोधन किया गया है और इस अधिनियम का अमूमन इस्तेमाल भी किया जाता है. वहीं नदी बोर्ड अधिनियम, 1956 जैसे अन्य क़ानून भी हैं, जो केंद्र सरकार को अंतर्राज्यीय सहभागिता सुनिश्चित करने के लिए बोर्ड स्थापित करने का अधिकार देते हैं, लेकिन इस क़ानून का उपयोग नहीं होता है. देखा जाए तो वर्तमान में अंतर्राज्यीय नदी विवाद को लेकर जो संवैधानिक अस्पष्टता है और ढुलमुल नीतियां हैं, वो कहीं न कहीं अंतर्राज्यीय सहभागिता में विश्वास को कमज़ोर करती हैं. इसका कारण केंद्र सरकार की हिचकिचाहट है, जो अंतर्राज्यीय जल को विनियमित करने में अपनी संवैधानिक भूमिका का निर्वहन करने से दूर भागती है. इस स्थिति को 'अंतर्राज्यीय जल के विवाद से भरे संघवाद' के रूप में जाना जाता है, जो भारत में नदी बेसिन के नियंत्रण के प्राथमिक फ्रेमवर्क के तौर पर एकीकृत नदी बेसिन प्रबंधन नज़रिए को अपनाने में रुकावट पैदा करता है.[51]

लोकसभा ने वर्ष 2019 में लंबे वक़्त से लटके पड़े अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम में संशोधन को मंजूरी दे दी. इसका मकसद निर्णय और उसके बाद उसे अमल में लाने के लिए एक तय समय सीमा निर्धारित करना और विवाद के समाधान की प्रक्रिया में तेज़ी लाना है. इसके अलावा इस अधिनियम में संशोधन ने केंद्र सरकार को राज्यों के बीच नदी जल से जुड़े विवाद को इंटरस्टेट रिवर वॉटर डिस्प्यूट्स ट्रिब्यूनल यानी अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद न्यायाधिकरण में भेजे जाने से पहले संबंधित पक्षों के बीच बातचीत के ज़रिए समाधान निकालने के लिए एक विवाद समाधान समिति बनाने का भी अधिकार दिया. इसके अलावा इस संशोधन के माध्यम से ट्रिब्यूनल्स में भी उल्लेखनीय बदलाव देखे गए और वे देश भर में कई पीठों के साथ देश के न्यायिक ढांचे में स्थायी परिवर्तन बन गए. इतना ही नहीं, इस संशोधन में ट्रिब्यूनल के निर्णयों को अंतिम और विवादित पक्षों को उन्हें मानने के लिए बाध्यकारी बनाकर उनका पालन सुनिश्चित करने का भी प्रावधान किया गया. इसके अलावा अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम में संशोधन ने केंद्र सरकार को ट्रिब्यूनलों के फैसलों को लागू करने के लिए योजनाएं बनाने का भी अधिकार दिया.[52] कुल मिलाकर यह संशोधन भारत में अंतर्राज्यीय जल विवादों से निपटने की पूरी प्रक्रिया में सुधार के लिए निर्णय और विवाद समाधान प्रक्रिया में व्याप्त तमाम कमियों को दूर करने का मार्ग प्रशस्त करता है.

अंतर्राज्यीय नदी विवाद: कावेरी जल विवाद की केस स्टडी

कर्नाटक और तमिलनाडु राज्यों के बीच कावेरी बेसिन विवाद काफ़ी पुराना है और यह विवाद दिखाता है कि भारत के वॉटर गवर्नेंस का ढांचा कितना बिखरा हुआ और अव्यवस्थित है. साथ ही यह विवाद यह भी दर्शाता है कि जल प्रशासन के नज़रिए में समग्रता का भी अभाव है.[53] इसकी एक और वजह यह भी है कि भारतीय संविधान में पानी को राज्य का विषय बताया गया है, इस कारण से नदी बेसिन के उपयोग को लेकर कोई स्पष्टता नहीं है और यह एक हिसाब से टुकड़ों में विभाजित है, यानी राज्य अपने क्षेत्र में जैसे चाहे नदी बेसिन का उपयोग करता है और यह भी राज्यों के बीच विवाद का कारण बनता है. इसी घटना को "विवादों से भरा संघवाद" कहा जाता है.[54] कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच बढ़ते कावेरी जल विवाद को लेकर किए गए विस्तृत आर्थिक विश्लेषण में सामने आया है कि धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य में लगातार इज़ाफा हो रहा है और धान की फसल के लिए पानी की बहुत अधिक आवश्यकता होती है. ऐसे में दोनों राज्यों के बीच अधिक से अधिक पानी का उपयोग करने की होड़ बढ़ गई है.[55] कावेरी वॉटर ट्रिब्यूनल (CWT) द्वारा वर्ष 2007 में दिया गया निर्णय ‘अर्थमेटिक हाइड्रोलॉजी’ का सटीक उदाहरण है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा फरवरी 2018 में दिए गए एक फैसले में कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच पानी के आवंटन में कुछ बदलाव किए गए थे. इस फैसले में तमिलनाडु के लिए कावेरी जल के वार्षिक आवंटन को कम कर दिया गया था, यानी पहले तमिलनाडु के 192 टीएमसी जल का आवंटन किया जाता था, जिसे घटाकर 177.25 टीएमसी वार्षिक कर दिया गया था. इसके साथ ही इस फैसले में शहरों के लिए भी पानी की आवश्यकता को स्वीकार किया गया और तमिलनाडु के हिस्से से कम किए गए शेष 14.75 टीएमसी पानी को लगातार बढ़ रहे बेंगलुरु की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कर्नाटक को दे दिया गया. सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय में जो एक स्पष्ट संदेश छिपा था, वो यह था कि तमिलनाडु में जल प्रबंधन को सुधारने यानी पानी के बेहतर तरीक़े से उपयोग को लेकर काफ़ी कुछ किया जाना है. लेकिन इस फैसले में कावेरी वॉटर ट्रिब्यूनल के निर्णय के साथ कोई व्यापक छेड़छाड़ नहीं की गई थी और सबसे प्रमुख बात यह थी कि नदी बेसिन के पारिस्थिकी तंत्र से जुड़े अहम मुद्दों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया था.

कावेरी नदी विवाद का बेहतर हल निकालने के लिए उसी प्रकार का नज़िरया अपनाए जाने की आवश्यकता है, जो कि मेकॉन्ग नदी आयोग द्वारा अपनाया गया है. यानी नीचे से ऊपर के नज़रिए को अपनाने की ज़रूरत है और इसके लिए इसमें इकोसिस्टम का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों समेत अलग-अलग स्तरों पर शामिल विभिन्न हितधारकों को भी साथ लेने की आवश्यकता है. 

एक और अहम बात यह है कि CWT ने अपने निर्णय में न तो दक्षिण एशिया में बारिश के बदले स्वरूप को ध्यान में रखा और न ही मौसम की बदलती प्रकृति और कावेरी बेसिन में पानी के प्रवाह की मात्रा को ही प्रमुखता दी.[56] ज़ाहिर है कि जिस प्रकार से वर्षा के पैटर्न में अत्यधिक उतार-चढ़ाव की संभावना है, उसके मद्देनज़र जुलाई से सितंबर महीने के दौरान अधिक पानी छोड़ने की सिफ़ारिश वास्तविकता में अमल में लाई जा सकेगी, इस पर संदेह है. एकीकृत बेसिन प्रशासन के नज़रिए से देखें तो, जिस प्रकार से पर्यावरण संरक्षण के लिए पानी की आरक्षित मात्रा 10 टीएमसी रखी गई है और समुद्र में हर हाल में प्रवाहित होने वाले पानी की मात्रा 4 टीएमसी निर्धारित की गई है, वो देखा जाए तो चिंताओं को और बढ़ाने वाला है. जिस तरह से पानी की इतनी कम मात्रा आवंटित की गई है, उसमें पारिस्थितिकी तंत्र के आधार पर पानी के उपयोग का कोई तर्कसंगत या वैज्ञानिक मूल्यांकन नज़र नहीं आता है, बल्कि यह लगता है कि पानी की मात्रा निर्धारित करने में मनमानी की गई है. साथ ही ऐसा भी लगता है कि ट्रिब्यूनल द्वारा इस प्रकार का निर्णय देते समय वैश्विक स्तर पर प्राकृतिक रूप से बिना किसी अवरोध के बहने वाली नदियों से होने फायदों के बारे उपलब्ध जानकारी की अनदेखी की गई है. ज़ाहिर है कि नदियों के मुक्त प्रवाह को आज पूरी दुनिया में एकीकृत बेसिन गवर्नेंस के ज़रूरी घटकों के रूप में मान्यता प्रदान की जा रही है.[57]

कावेरी वॉटर ट्रिब्यूनल के अंतिम आदेश के मुताबिक़ जिस प्रकार से सुप्रीम कोर्ट ने कावेरी जल प्रबंधन प्राधिकरण/बोर्ड (CWMA) स्थापित करने का निर्देश दिया है, उसकी भी पड़ताल की जानी चाहिए. CWT के वर्ष 2007 के फैसले में CWMA को लेकर जिस प्रकार की परिकल्पना की गई है, उसमें नदी बेसिन प्रणाली की जटिलता और उसकी बहुआयामी प्रकृति को लेकर स्पष्टता का अभाव नज़र आता है. इसके साथ ही उसके निर्णय में नदी बेसिनों से जुड़े विभिन्न विषयों और मुद्दों के विशेषज्ञों की टीम के गठन का भी अभाव दिखाई देता है, विशेषज्ञों की इस टीम में इससे जुड़ी विभिन्न विषयों की समझ रखने वाले लोग शामिल हैं. ट्रिब्यूनल के निर्णय के मुताबिक़ जिस प्रकार के CWMA ढांचे की कल्पना की गई है, उसमें इंजीनियरिंग पेशेवरों का बोलबाला है, यानी कि इसमें पूर्णकालिक अध्यक्ष के पद पर मुख्य अभियंता रैंक का एक सिंचाई इंजीनियर और सचिव शामिल हैं. जिस तरह से CWMA में एकतरफा इंजीनियरों को प्रमुखता दी गई है, वो कहीं न कहीं वैश्विक स्तर पर इस क्षेत्र में अपनाई जाने वाली सर्वोत्तम प्रथाओं के विपरीत है. पूरी दुनिया में मौज़ूदा समय में जल प्रबंधन और जल प्रशासन के लिए एक बहु-विषयक नज़रिए को अपनाने पर अधिक ज़ोर दिया जाता है.[58] वैज्ञानिक तरीक़े से किए गए शोधों से यह साफ तौर पर पता चला है कि कावेरी विवाद जैसे पेचीदा मसलों को केवल पारंपरिक इंजीनियरिंग और कृषि समाधानों के ज़रिए हल नहीं किया जा सकता है, जैसा कि कावेरी वॉटर ट्रिब्यूनल द्वारा प्रस्तावित किया गया है. कावेरी नदी विवाद का बेहतर हल निकालने के लिए उसी प्रकार का नज़िरया अपनाए जाने की आवश्यकता है, जो कि मेकॉन्ग नदी आयोग द्वारा अपनाया गया है. यानी नीचे से ऊपर के नज़रिए को अपनाने की ज़रूरत है और इसके लिए इसमें इकोसिस्टम का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों समेत अलग-अलग स्तरों पर शामिल विभिन्न हितधारकों को भी साथ लेने की आवश्यकता है.[59]

खाद्य सुरक्षा की परिभाषा और सिंचाई नेटवर्क्स में अंतर

 

जहां तक खाद्य सुरक्षा का मुद्दा है, तो इस मसले पर भी भारत का दृष्टिकोण संसाधनों को बढ़ाने पर रहा है. यानी कि खाद्यान्न की आपूर्ति बढ़ाने के लिए मुख्य रूप से पारंपरिक इंजीनियरिंग पर आधारित रणनीतियों को ही अपनाया गया है. भारत में खाद्यान्न की आपूर्ति बढ़ाने के लिए कई सारी पहलें शुरू की गईं, जैसे कि 1960 के दशक के अंत में हरित क्रांति की शुरुआत की गई, वहीं 1970 के दशक के अंत में न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) प्रक्रिया की शुरूआत की गई और किसानों से खाद्यान्न की सरकारी ख़रीद की नीतियां भी लागू की गईं. खाद्य सुरक्षा की इन सभी पहलों के ज़रिए कहीं न कहीं विशेष रूप से चावल और गेहूं जैसी कृषि उपजों की ख़रीद पर ध्यान केंद्रित किया गया. ये फसलें ऐसी हैं, जिनकी पैदावार के दौरान पानी की अत्यधिक खपत होती है. देखा जाए तो हरित क्रांति की वजह से देश में कृषि उपजों की पैदावार में बढ़ोतरी हुई, वहीं सरकार द्वारा चावल और गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य में मिलेट्स जैसी फसलों की तुलना में अधिक बढ़ोतरी की गई. मिलेट्स के उत्पादन में कम पानी की आवश्यकता होती है. इसका मकसद कहीं न कहीं गेहूं और चावल के उत्पादन को बढ़ावा देना और उसकी अधिक से अधिक ख़रीद को सुगम बनाना था. न्यूनतम समर्थन मूल्य देखा जाए तो कृषि उपज के लिए वित्तीय कवच प्रदान करता है और यह सुनिश्चित करता है कि फसल का कम से कम एमएसपी के बराबर मूल्य तो हासिल  होगा ही.[60] ज़ाहिर है कि किसी ऐसी परिस्थिति में जब कृषि उपज की क़ीमतें एमएसपी से नीचे गिर जाएं, तो किसानों के पास सरकार को एमएसपी पर चावल/गेहूं बेचने का विकल्प मौज़ूद होता है. समय के साथ-साथ यह एमएसपी चावल और गेहूं के लिए आधार क़ीमत बन गई, यानी वो क़ीमत बन गई जहां से इन उपजों के मूल्य शुरू होते थे. जब भी कमीशन फॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट्स एंड प्राइस यानी कृषि लागत और मूल्य आयोग ने चावल और गेहूं के लिए एमएसपी बढ़ाया, तो व्यापारियों ने भी उसी के मुताबिक़ इस फसलों की क़ीमतों में बढ़ोतरी की, जिसके फलस्वरूप इन खाद्यान्नों की मार्केट प्राइस अर्थात बाज़ार दरों में इज़ाफा हो गया.

क़ीमतों में समय-समय पर होने वाली इस बढ़ोतरी ने मिलेट्स जैसी कम पानी वाली फसलों की तुलना में चावल और गेहूं को काफ़ी फायदा पहुंचाया. ऐसा होने की वजह से पानी का अत्यधिक उपयोग करने वाली फसलों, जैसे की गेहूं और चावल के व्यापार (दो प्रतिस्पर्धी फसलों के बीच क़ीमतों के अनुपात के रूप में) में ख़ासा बदलाव दिखने लगा. इससे मिलेट्स की पैदावार में किसानों की दिलचस्पी कम हुई. उल्लेखनीय है कि मिलेट्स की उपज के लिए धान की तुलना में केवल 10 से 20 प्रतिशत पानी की ही ज़रूरत होती है. मिलेट्स के उत्पादन को लेकर यही बात भारत के अलग-अलग हिस्सों में दिखाई दी, यानी इसकी पैदावार कम होती गई. जैसे कि कृष्णा और कावेरी नदियों के बेसिन में और उत्तराखंड व उत्तर प्रदेश में ऊपरी गंगा बेसिन में मिलेट्स का उत्पादन कम हो गया. इन क्षेत्रों में गैर-मानसूनी गर्मी के महीनों के दौरान गेहूं और/या धान ने प्रमुख फसलों की जगह ले ली, जिनकी अक्सर फसल वर्ष की तीसरी उपज के रूप में पैदावार की जाती है. फसल उत्पादन के तरीक़े में आए इस बदलाव की वजह से जहां भू-जल का अत्यधिक दोहन होने लगा, वहीं सरफेस वॉटर के उपयोग में भी ख़ासी बढ़ोतरी हुई.

कृषि अर्थशास्त्रियों का कहना है कि भारत में सिंचाई कार्यों के लिए ज़्यादातर भू-जल का उपयोग किया जाता है. ऐसे में गौर करने वाली बात यह है कि भू-जल के अत्यधिक इस्तेमाल से भू-जल में कमी आती है और इसका सतही जल प्रवाह पर असर पड़ता है. इसके अलावा, इस तथ्य की भी अक्सर अनदेखी कर दी जाती है कि सतही प्रवाह के बनाए रखने के लिए भू-जल बेहद ज़रूरी होता है. दक्षिण भारत के कई हिस्सों में नहरों के माध्यम से सिंचाई का दायरा काफ़ी बढ़ गया है और इसका सतही जल प्रवाह पर विपरीत असर पड़ा है. उदाहरण के तौर पर कावेरी नदी घाटी के क्षेत्रों में 1990 के दशक के दौरान ग्रीष्मकालीन धान की खेती के लिए सिंचित कृषि क्षेत्र का उल्लेखनीय रूप से विस्तार हुआ. हरियाणा और पंजाब जैसे क्षेत्रों में भी जल विवाद के ऐसे मामले सामने आए हैं. इन राज्यों में अधिक उपज देने वाली विभिन्न प्रकार की पानी के अत्यधिक उपयोग वाली फसलों ने पानी की मांग में वृद्धि की है. बांग्लादेश और भारत के बीच तीस्ता नदी विवाद में भी यह देखने को मिला है, जहां ग्रीष्मकालीन धान के रकबे में व्यापक स्तर पर बढ़ोतरी हुई है. इन उदाहरणों से साफ प्रतीत होता है कि किस प्रकार से 'एग्रीकल्चर इकोनॉमिक'  यानी आर्थिक दृष्टिकोण से खेती करने के विचार और बड़ी सिंचाई परियोजनाओं के माध्यम से जल प्रबंधन के लिए पारंपरिक इंजीनियरिंग के नज़रिए ने मिलकर, जल विवाद की घटनाओं को बढ़ा दिया है. इसके पीछे की प्रमुख वजह कहीं न कहीं अधिक पानी का उपयोग करने वाली और संसाधन-गहन फसलों के उत्पादन व ख़रीद के संदर्भ में परिभाषित खाद्य सुरक्षा का दोषपूर्ण नज़रिया है. ज़ाहिर है कि यह दृष्टिकोण वैश्विक स्तर पर वैज्ञानिक तरीक़े से निकाले गए निष्कर्षों एवं सर्वश्रेष्ठ प्रणालियों के बिलकुल उलट है. इन निष्कर्षों और प्रणालियों के मुताबिक़ पानी के उपयोग और खाद्य सुरक्षा में किसी भी लिहाज़ से कोई सीधा संबंध नहीं है.[61] इतना ही नहीं, निष्कर्ष बताते हैं कि जल प्रबंधन के कई और बेहतर तौर-तरीक़े उपलब्ध हैं, जो पानी और खाद्य सुरक्षा, दोनों को ही अलग कर सकते हैं.[62]

दक्षिण एशिया के बड़े भू-भाग में कृषि से जुड़ी गतिविधियों का व्यापक स्तर पर विस्तार हुआ है. इसकी वजह से बहुत बड़े पैमाने पर बदलाव भी हुए हैं, जो कि न केवल इकोसिस्टम को हानि पहुंचाने का काम करते हैं, बल्कि फसल की पैदावार समेत तमाम अहम सेवाओं की क्षमता को कम करते हैं.[63] उर्वरकों और कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से खाद्य प्रणाली के इकोसिस्टम को बुरी तरह से प्रभावित किया है. उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग की वजह से भारत के उत्तर और दक्षिण के कई इलाक़ों में प्राकृतिक मिट्टी की उर्वरता पर भी असर पड़ा है. इसके अलावा, नदियों पर बड़े-बड़े बाधों के बनने से नदियों की गाद ले जाने की क्षमता पर असर पड़ा है, जिससे इकोसिस्टम की प्राकृतिक मिट्टी निर्माण की प्रक्रिया प्रभावित हो रही है.[64]

एक एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता

मौज़ूदा दौर में जल प्रबंधन और जल प्रशासन का जो मॉडल है, वो नदियों के प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए बांधों के निर्माण पर भरोसा करता है, लेकिन यह मॉडल अब टिकाऊ नहीं है. पानी के प्रबंधन का जो वर्तमान तकनीकी तंत्र है, उसमें विभिन्न नीतिगत सुधारों को लागू के लिए उत्साह का अभाव नज़र आता है. कहा जा सकता है कि जल प्रशासन के मॉडल में बदलाव लाने के लिए जो भी कोशिशें की जा रही हैं, उन्हें उन लोगों के विरोध का सामना करना पड़ता है, जो यथास्थिति यानी जो जैसा चल रहा है, वैसा चलने देने का समर्थन करते हैं.[65] हाल ही में इस क्षेत्र में बदलाव के प्रयासों के विरोध से भी यह स्पष्ट हो जाता है. वर्ष 2016 की '21वीं सेंचुरी इंस्टीट्यूशनल आर्किटेक्चर फॉर इंडियाज वॉटर रिफॉर्म्स' शीर्ष वाली रिपोर्ट में जल प्रबंधन को लेकर कई प्रकार की सिफ़ारिशें की गई हैं.[66],[67] इस रिपोर्ट में एक ऐसे राष्ट्रीय जल आयोग के गठन की सिफ़ारिश की गई है, जो जल प्रबंधन से जुड़े अलग-अलग मुद्दों पर एक साथ मिलकर कार्य करे. इसके साथ ही इसमें प्रबंधन और अन्य दूसरे प्रमुख क्षेत्रों के विशेषज्ञों, सामाजिक वैज्ञानिकों और पेशेवरों की अधिक से अधिक भागीदारी सुनिश्चित करने की बात भी कही गई है. हालांकि, वर्तमान में जल प्रबंधन के सेक्टर में संलग्न लोगों की ओर से इन सिफ़ारिशों की ज़बरदस्त तरीक़े से आलोचना की गई.[68] देखा जाए तो जल प्रशासन के क्षेत्र में किसी भी बदलाव का विरोध करने की इस प्रवृति की जड़ें कहीं न कहीं ब्रिटिश काल में जमी हुई हैं, उस वक़्त नदियों को नियंत्रित करने के लिए उन पर बांधों के निर्माण को सबसे सुगम उपाय माना जाता था. ब्रिटिश शासन के दौरान रूड़की (अब आईआईटी रूड़की) में थॉम्पसन इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना की गई थी. इस इंजीनियरिंग कॉलेज ने नदियों को नियंत्रित करने के लिए उन पर बांध और बैराज जैसी संरचनाओं के निर्माण को सबसे कारगर साधन बताया और नदियों को नियंत्रित करने के इस विचार का आज भी पूरे भारत में सिविल इंजीनियरिंग विभागों में आंख मूंदकर पालन किया जा रहा है. ब्रिटिश शासन के दौरान कोसी नदी की बाढ़ को काबू करने के लिए सारदा बैराज का निर्माण एवं रुड़की के पास ऊपरी गंग नहर के निर्माण जैसी शुरुआती परियोजनाओं ने नदियों के प्रवाह को बदलने का काम किया. इन निर्माण संरचनाओं ने देखा जाए तो नदी बेसिन के इकोसिस्टम को इतना अधिक बदल दिया कि जिसकी भरपाई नामुमकिन है.[69]

पश्चिम बंगाल में फरक्का बैराज परियोजना की व्यावहारिकता को लेकर भी शुरुआत में चिंताएं जताई गई थीं. दरअसल, इस परियोजना के निर्माण का मकसद नदी की गाद को बाहर निकालना था, ताकि कोलकाता पोर्ट और संबंधित पारिस्थितिकी तंत्र की समस्याओं को दूर किया जा सके. लेकिन परियोजना की शुरुआत में ही इसके उद्देश्य के क़ामयाब होने को लेकर सवाल उठाए गए थे. आगे चलकर फरक्का बैराज परियोजना को लेकर यह आशंकाएं सच साबित हुईं  और फरक्का बैराज भारत व बांग्लादेश के बीच विवाद का मुद्दा बन गया है. यह कहा जाता है कि इस बैराज के बनने से गाद की समस्या पैदा हुई, साथ ही गंगा डेल्टा में उपजाऊ मिट्टी के निर्माण की प्रक्रिया में रुकावट आई है.[70] भारत के जिन तकनीक़ी विशेषज्ञों ने शुरुआती दौर में फरक्का बैराज के निर्माण का विरोध किया था, उनकी बातों को प्रशासन द्वारा नहीं सुना गया और उनके सवालों को अनदेखा कर दिया गया.[71] इसके अलावा, केंद्रीय जल प्रशासन फ्रेमवर्क में कोई एकरूपता नहीं होने की वजह से भी राज्यों के बीच जल विवाद बढ़े हैं. सच्चाई यह है कि केंद्रीय स्तर पर जल विवादों से जुड़े मसलों से निपटने के लिए कोई एकीकृत व्यवस्था नहीं है और भारत में व्यवस्थित जल प्रशासन के समक्ष यह बड़ी चुनौतियों में से एक है.

एक नई राष्ट्रीय जल नीति की दिशा में क़दम

भारत के जल शक्ति मंत्रालय ने नवंबर 2019 में एक नई जल नीति का मसौदा तैयार करने के लिए एक कमेटी का गठन किया था. यह एक स्वतंत्र समिति थी और पिछली कमेटियों से अलग थी, साथ ही इसमें प्रत्यक्ष रूप से सरकारी दख़ल नहीं था. मंत्रालय द्वारा इस समिति को भारत में अधिक प्रभावी जल प्रशासन व्यवस्था के लिए नई-नई नीतियों की सिफ़ारिश करने का कार्य सौंपा गया था. इस कमेटी को जल प्रशासन के क्षेत्र से जुड़े विभिन्न हितधारकों की ओर से सुझाव मिले. इन सुझावों में बांधों और बैराजों के निर्माण जैसी पारंपरिक सोच से परे हटकर 21वीं सदी की नई चुनौतियों से निपटने के लिए नए-नए विचार प्रस्तुत किए गए थे. ये सुझाव देखा जाए तो आज की ज़मीनी हक़ीक़त के अनुरूप थे और समग्रता के साथ जल प्रशासन के क्षेत्र में बदलाव की ज़रूरत को बताने वाले थे.[72] इस कमेटी ने वर्ष 2021 में अपनी रिपोर्ट सौंपी. इस रिपोर्ट में जल प्रशासन को लेकर कमांड-और-कंट्रोल पॉलिसी से आगे बढ़कर जल प्रशासन के एकीकृत मॉडल को अपनाने की वक़ालत की गई है. समिति की कुछ प्रमुख सिफ़ारिशें निम्नलिखित हैं:

  • समिति द्वारा प्रस्तावित नई जल नीति में जल आपूर्ति में निरंतर बढ़ोतरी करने की विवशता को स्वीकार किया गया है, साथ ही पानी की मांग के प्रबंधन को लेकर बदलाव का पुरज़ोर समर्थन किया गया है. गौरतलब है कि भारत के जल संकट का समाधान मुख्य रूप से फसलों के विविधीकरण में छिपा हुआ है. रिपोर्ट में खाद्यान्न की सरकारी ख़रीद प्रक्रिया में मिलेट्स जैसे पोषक अनाजों, दालों और तिलहन को भी शामिल करने की सिफ़ारिश की गई है. ज़ाहिर है सरकार द्वरा ख़रीदी गईं ये अलग-अलग प्रकार की फसलें न केवल मिड डे मील के माध्यम से बच्चों को पोषण प्रदान करने का काम करेंगी, बल्कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिए लाखों नागरिकों को खाद्यान्न उपलब्ध कराने में भी अहम भूमिका निभाएंगी. इस तरह की सिफ़ारिशों का मकसद किसानों को अपनी फसल में विविधिता लाने के लिए प्रोत्साहित करना है. मिलेट्स, दाल और तिलहन जैसी फसलों की पैदावार से कहीं न कहीं पानी की खपत भी कम होगी यानी जल संरक्षण के प्रयासों को मज़बूती मिल सकेगी. ये फसलें पोषण के लिहाज़ से भी बेहद महत्वपूर्ण हैं और स्वास्थ्य को दुरुस्त रखने में लाभदायक हैं. इसलिए इनका उत्पादन बढ़ने से कुपोषण और मधुमेह जैसी चुनौतियों से लड़ने में भी मदद मिल सकती है. इस दिशा में राष्ट्रीय जल मिशन के अंतर्गत 'सही फसल' जैसे अभियान[73] की शुरुआत भी बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि ऐसे अभियानों से किसानों को पानी की कमी वाले इलाक़ों में ऐसी फसलें उगाने के लिए प्रेरित किया जाता है, जिनकी पैदावार में ज़्यादा पानी की ज़रूरत नहीं होती है.
  • रिपोर्ट में शहरी क्षेत्रों में पानी की आपूर्ति और अपशिष्ट जल प्रबंधन को लेकर भी सुझाव दिए गए हैं और इसके लिए रिड्यूस-रिसाइकिल-रियूज यानी पानी के कम उपयोग, पुन: चक्रण और दोबारा उपयोग की परिकल्पना को बुनियादी योजना बनाने की बात कही गई है. इसमें विकेंद्रीकृत अपशिष्ट जल प्रबंधन की प्रक्रिया को अपनाकर अपशिष्ट जल का समुचित उपचार और शहरी नदी क्षेत्रों के पारिस्थितिक तंत्र को दोबारा से स्थापित करना शामिल है. इसके अलावा, रिपोर्ट में पेयजल का उपयोग करने वाले कार्यों के अलावा बाक़ी सभी कामों, जैसे कि फ्लशिंग, अग्नि सुरक्षा और गाड़ियां धोने के लिए उपचारित अपशिष्ट जल का उपयोग करने का सुझाव दिया गया है.
  • समिति के मुताबिक़ बांधों में जो भी पानी एकत्र किया जाता है, उसका सिंचाई कार्यों के लिए ठीक से उपयोग नहीं किया जा रहा है. समिति ने अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया है कि बांधों से सिंचाई के लिए पानी की आपूर्ति पाइपों के माध्यम से की जाए, साथ ही इसकी लगातार समुचित निगरानी की जाए और इससे जुड़े आंकड़ों को एकत्र किया जाए, इसके लिए पर्यवेक्षी नियंत्रण और डेटा अधिग्रहण तंत्र का उपयोग किया जाए. पाइपों के माध्यम से दबावयुक्त पानी की आपूर्ति के ज़रिए की जाने वाली सूक्ष्म सिंचाई से कम लागत में सिंचित भूमि का विस्तार करने में मदद मिल सकती है. रिपोर्ट में पानी की गुणवत्ता में सुधार को भी प्राथमिकता दी गई है. रिपोर्ट में केंद्र और राज्य स्तर पर जल गुणवत्ता विभाग को जल मंत्रालयों के अंतर्गत लाने का भी सुझाव दिया गया है, ताकि उन संभावित कमियों पर अच्छी तरह से नज़र रखी जा सके, जिनकी वजह से पानी की गुणवत्ता प्रभावित होती है. प्रस्तावित नई जल नीति के मसौदे में सीवेज उपचार के लिए अत्याधुनिक, कम लागत वाली, कम ऊर्जा खपत वाली और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील प्रौद्योगिकियों को अपनाने की बात कही गई है. इसके अलावा नई नीति में पानी प्रदूषित करने वाले कारकों की निगरानी और इसको लेकर बेहतर समझ विकसित करने के लिए एक टास्क फोर्स गठित करने की भी सिफ़ारिश की गई है.
  • नई नीति "प्रकृति-आधारित समाधान" जैसे कि जलग्रहण क्षेत्रों के कायाकल्प के माध्यम से पानी की आपूर्ति पर विशेष बल देती है. इसमें ख़ास तौर पर शहरी क्षेत्रों में पर्यावरण संरक्षण और टिकाऊ रहन-सहन के लिए कई क़दमों को उठाने का सुझाव दिया गया है. सिफ़ारिश किए गए नवाचारों में ख़ास तौर पर डिज़ाइन किए गए 'ब्लू-ग्रीन इन्फ्रास्ट्रक्चर' यानी कि वर्षा उद्यान और बायो-स्वेल्स का निर्माण, गीले घास के मैदानों के निर्माण के साथ नदियों के प्राकृतिक प्रवाह की बहाली, बायोरेमेडिएशन के लिए वेटलैंड का निर्माण, साथ ही शहरी इलाक़ों में अर्बन पार्कों का निर्माण और घरों की छतों पर पौधे लगाना आदि शामिल हैं.
  • नई जल नीति भू-जल के सतत और न्यायसंगत प्रबंधन को सर्वोच्च प्राथमिकता देती है, साथ ही भू-जल के प्रबंधन में सभी हितधारकों की सहभागिता पर भी ज़ोर देती है. इसमें यह कहा गया है कि एक्वीफायर यानी ज़मीन के भीतर मौज़ूद पानी के भंडारों को लेकर सभी हितधारकों को इसके संरक्षण के तौर पर इनकी पूरी जानकारी उपलब्ध कराई जानी चाहिए. जैसे कि इन भूमिगत जलाशयों की सीमा कहां तक है, इनकी जल भंडारण क्षमता कितनी है और इनका प्रवाह किस तरह का है. इस दिशा में, ग्राउंड वॉटर मैनेजमेंट एंड रेगुलेशन स्कीम के अंतर्गत केंद्रीय भू-जल बोर्ड ने बारहवीं योजना के दौरान एक एक्वीफायर मैपिंग एंड मैनेजमेंट प्रोग्राम शुरू किया गया है. इस कार्यक्रम का मकसद सामुदायिक भागीदारी के साथ भूमिगत जल भंडार के अनुरूप और किसी विशेष क्षेत्र के अनुरूप विशिष्ट भू-जल प्रबंधन योजनाएं तैयार करना है और इसके लिए एक्वीफायर के बारे में विस्तार से हर प्रकार की जानकारी एकत्र करना है.[74]
  • भारत में पहले जो जल नीति थी, उसमें नदियों को लेकर बेहद अपरिपक्व और लचर नज़रिया अपनाया गया था. ज़ाहिर है कि भारत में नदियों को काफी सम्मान दिया जाता है और ऐतिहासिक रूप से लोगों द्वारा नदियों को श्रद्धा के भाव से देखा जाता है, उन्हें पवित्र माना जाता है. इसी के मद्देनज़र नई राष्ट्रीय जल नीति के मसौदे में नदियों के संरक्षण और नदियों के कायाकल्प को प्राथमिकता में रखा गया है. समिति की रिपोर्ट में भी नदी के प्रवाह को बहाल करने के लिए कई पहलों की सिफ़ारिश की गई है. जैसे कि नदी के जलग्रहण क्षेत्रों का दोबारा से वनीकरण करना, भू-जल के दोहन के लिए सख़्त नियम-क़ानून बनाना और नदी-तल पंपिंग एवं रेत और बोल्डर का खनन करना. यह नीति राइट्स ऑफ रिवर एक्ट अर्थाथ नदियों के अधिकार से संबंधित क़ानून बनाने के लिए मसौदा तैयार करने की भी सिफ़ारिश करती है, जिसमें नदियों के प्रवाह के साथ ही उनके समुद्र में गिरने तक का अधिकार शामिल होना चाहिए.[75]
  • निसंदेह तौर पर भारत जैसे विशाल देश में प्रभावी जल प्रबंधन और जल प्रशासन के लिए सभी हितधारकों के मिलकर कार्य करने की ज़रूरत है, लेकिन दुर्भाग्य से केंद्र और राज्य सरकारों के संबंधित विभागों में इस मुद्दे पर कोई तालमेल नहीं है, यानी वे बगैर एक दूसरे को विश्वास में लिए स्वतंत्र होकर मनमर्जी से कार्य करते हैं.[76] रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में एकीकृत और प्रभावशाली वॉटर गवर्नेंस इंफ्रास्ट्रक्चर स्थापित करने के लिए सिंचाई और पेयजल से लेकर, सरफेस वॉटर, भू-जल एवं अपशिष्ट जल से जुड़े अलग-अलग सरकारी विभागों के बीच अधिक तालमेल, समन्वय और जानकारी का आदान-प्रदान सुनिश्चित करने की आवश्यकता है.[77]
  • जल प्रशासन के क्षेत्र में जो सबसे बड़ी दिक़्क़त है, वो इससे जुड़े प्रशासनिक ढांचे में ज़बरदस्त विभाजन है, यानी कोई तालमेल नहीं होना है. इतना ही नहीं, देश में जल प्रबंधन को लेकर राज्यों के बीच जो विवाद चल रहे हैं, उन्होंने इस प्रशासनिक समस्या को और गहरा कर दिया है. गौरतलब है कि जब जल प्रबंधन को लेकर इकोसिस्टम के अनुरूप कोई समग्र और एकीकृत योजना बनाई जाती है, तो उसमें न सिर्फ़ केंद्र और राज्यों के बीच विभिन्न स्तरों पर ऊपर से नीचे तक बेहतर तालमेल की आवश्यकता होती है, बल्कि राज्यों के बीच भी पारस्परिक समन्वय की ज़रूरत होती है. इसके अतिरिक्त जल प्रशासन से संबंधित प्रमुख संस्थानों के निर्माण के दौरान केंद्र और राज्यों के बीच जो तालमेल है, उसमें राजनीति की भी प्रमुख भूमिका होती है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि कि नदी बेसिन कहीं न कहीं जितनी एक प्राकृतिक इकाई है, उतनी ही राजनीतिक इकाई भी है. अगर राजनीतिक रूप से समन्वय नहीं हो, तो दो विरोधी राज्यों के बीच जल विवाद से जुड़े मामलों को सुलझाने में काफ़ी दिक़्क़तें आ सकती हैं, साथ ही ट्रिब्यूनल या अदालत के फैसलों के कार्यान्वयन में भी देरी हो सकती है. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में बेहतर और प्रभावशाली जल प्रशासन के लिए संस्थागत स्तर पर केंद्र और राज्यों के बीच तालमेल और सहमति होना बेहद महत्वपूर्ण है.[78] इसके अलावा, दो राज्यों के बीच नदी विवाद जैसे संवेदनशील मुद्दों को लेकर संघीय सहमति देखा जाए तो चुनाव में मिलने वाले बहुमत पर आधारित होती है. ऐसे विवादों को अक्सर चुनावी मुद्दा बनाया जाता है और इस पर आम जनता की राय ली जाती है, ताकि जनता के मुताबिक़ विवाद का समाधान तलाशा जा सके. इसलिए, राजनीतिक विचार-विमर्श के आधार पर ही आम सहमति का निर्माण किया जाना चाहिए और इस कार्य को संस्थागत तरीक़े से पूरा करना चाहिए. ऐसा होने पर न सिर्फ़ राज्यों के लिए उचित प्रतिनिधित्व का भरोसा क़ायम होता है, बल्कि दो विरोधी पक्षों को अपनी बात कहने का उचित मौक़ा भी मिलता है और इसमें केंद्र की भूमिका समन्वयक की होती है.[79]
  • नई राष्ट्रीय जल नीति के प्रस्ताव में एक ऐसे राष्ट्रीय जल आयोग के गठन की सिफ़ारिश की गई है, जिसमें इससे जुड़े तमाम विषयों के विशेषज्ञों एवं विभिन्न स्तरों के हितधारकों का उचित प्रतिनिधित्व हो. ज़ाहिर है कि ऐसा राष्ट्रीय जल आयोग राज्य के लिए भी उदाहरण पेश करेगा और वे भी ऐसा करने के लिए प्रेरित होंगे. देखा जाए तो सरकार के जल विभागों में मुख्य रूप से केवल सिविल इंजीनियरिंग, हाइड्रोलॉजी और हाइड्रोजियोलॉजी क्षेत्र के पेशेवर ही शामिल होते हैं. जबकि बेहतर, एकीकृत, बहुविषयक और बहुआयामी नज़रिए वाले जल प्रशासन के लिए जल प्रबंधन, सामाजिक विज्ञान, एग्रोनॉमी, मृदा विज्ञान, हाइड्रोमेट्रोलॉजी, जन स्वास्थ्य, रिवर इकोलॉजी और पारिस्थितिक अर्थशास्त्र जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों के विशेषज्ञों के बीच पारस्परिक विचार-विमर्श बेहद आवश्यक है. इसके अलावा भारत में एक लचीली राष्ट्रीय जल नीति के लिए अन्य सिफ़ारिशों में जल से जुड़े प्रमुख और प्राथमिक हितधारकों के साथ टिकाऊ साझेदारी बनाना और उन्हें किसी भी संस्थागत निर्णय प्रक्रिया में भागीदार बनाना भी शामिल है. इससे इन प्राथमिक हितधारकों के पास जो स्थानीय जानकारी उपलब्ध है, उसके बारे में बता चलेगा और यह नीति निर्धारण के दौरान बेहद फायदेमंद साबित होगी.
निष्कर्ष

ब्रिटिश शासन के दौरान और उसके पश्चात नदियों पर हुए बांधों और बैराजों के निर्माण के वक़्त व्यापक स्तर पर अहम बातों और विषयों की अनदेखी की गई. जिन विषयों की उपेक्षा की गई उनमें इको-हाइड्रोलॉजी (जिसमें बाढ़ और सूखे को इको-हाइड्रोलॉजिकल साइकिल के अभिन्न घटकों के रूप में शामिल किया जाता है), हाइड्रो-मेट्रोलॉजी (जिसमें मौसम से संबंधित परिवर्तनों और चरम मौसमी घटनाओं के बीच संबंध को समझना शामिल है) और सेस्मिक साइंस यानी भूकंपीय विज्ञान (जिसमें विभिन्न निर्माणों को भूकंपरोधी बनाया जाता है) शामिल हैं. इसके साथ ही नदी प्रणालियों के समग्र WEBS दृष्टिकोण को भी नज़रंदाज़ किया गया. WEBS दृष्टिकोण के मुताबिक़ एक नदी प्रणाली केवल पानी यानी वॉटर का प्रवाह (W) नहीं है, बल्कि गाद यानी सेडिमेंट्स (S) व ऊर्जा (E) के प्रवाह का एक गतिशील संतुलन है, साथ ही नदी बेसिन का पानी जैव विविधता यानी बायोडयवर्सिटी (B) को बरक़रार रखने के लिए है.[80]

भारत में नेशनल एक्शन प्लान फॉर क्लाईमेट चेंज के अंतर्गत स्थापित किए गए आठ मिशनों में से एक राष्ट्रीय जल मिशन 2009 है. भारत का यह राष्ट्रीय जल मिशन नदी बेसिन के स्तर पर कई कार्य प्रस्तावों पर बल देता है, जिनमें जल प्रशासन के लिए एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन का प्रोत्साहन भी शामिल है. 

वैश्विक लिहाज़ से देखा जाए तो पारंपरिक निर्माण पर आधारित इंजीनियरिंग से IWRM अर्थात एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन की ओर परिवर्तन करना कोई आसान काम नहीं है. कहने का मतलब है कि यह कार्य कई मुश्किलों से भरा हुआ है और भारत के मामले में तो यह एक कड़वी सच्चाई है. एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन के नियम और सिद्धांत हालांकि अभी पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाए हैं और इस पूरे मुद्दे को बेहतर तरीक़े से कवर भी नहीं करते हैं, लेकिन यह सच है कि ये सिद्धांत जल प्रबंधन को लेकर विभिन्न स्तरों पर दिशानिर्देश के तौर पर काम ज़रूर करते हैं. IWRM का विषय ऐसा नहीं है कि इसको लेकर एक बार जो तय हो जाए, उसी पर क़ायम रहा जा सकता है, बल्कि यह निरंतर परिवर्तित होने वाला विषय है. जैसा कि इस पेपर में भी विस्तार से बताया गया है कि IWRM  में जल प्रशासन की बढ़ती व्यापक चुनौतियों के मुताबिक़ चीजों को अपडेट करने, सुधार करने और बदलाव करने की पूरी गुंजाइश है. हाइड्रोलॉजिस्ट मालिन फाल्कनमार्क की IWRM की परिभाषा की बात करें तो, यह ज़मीन, जल और इकोसिस्टम के एकीकरण पर बल देती है, जिसका लक्ष्य सामाजिक समानता, आर्थिक क्षमता और पर्यावरणीय स्थिरता को संतुलित करना है.[81] ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन को ख़तरों के मद्देनज़र जल प्रबंधन और जल प्रशासन के एकीकरण के दौरान इन मसलों पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए. इसी तरह से जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदा होने वाले ख़तरों (चाहे हिमनदों के पिघलने के कारण हाइड्रोलॉजिकल चक्र में बदलाव हो, या स्वच्छ पानी के प्रवाह में कमी और साथ ही समुद्र के स्तर में वृद्धि हो) को देखते हुए नदी बेसिन के स्तर पर एकीकृत जल प्रबंधन के लिए बेसिन इकोसिस्टम की अनुकूलन क्षमता पर भी विचार करने की ज़रूरत है. IWRM इस सभी चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए सभी स्तरों (सामयिक, क्षेत्रीय और स्थानिक) और अलग-अलग व्यवस्थाओं में एकीकरण की मांग करता है.

वैश्विक स्तर पर IWRM का हल्का-फुल्का विरोध भी है. लेकिन यह जो भी थोड़-बहुत विरोध है, वो इसलिए है, क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि IWRM में जल प्रबंधन के दौरान राजनीतिक पहलुओं को नज़रंदाज़ कर दिया जाता है. इन राजनीतिक पहलुओं में विवाद, टकराव और चर्चा-परिचर्चा शामिल हैं. आलोचकों का कहना है कि IWRM सामाजिक परेशानियों, संस्थागत परिस्थितियों एवं शक्ति संतुलन की अनदेखी करता है. अलोचकों का यह भी तर्क है कि यह जल प्रबंधन जैसे एक जटिल मुद्दे को एक बेहद आसान और अगंभीर मॉडल में बदल देता है, साथ ही यह राजनीति और ताक़त की ज़मीनी हक़ीक़त को भी नज़रंदाज़ करता है.[82] देखा जाए तो ये जो भी आलोचनाएं हैं, वो विभिन्न सैद्धांतिक फ्रेमवर्क में अंतर्विरोधों को सामने लाने का काम करती है, लेकिन एक मुकम्मल नीति बनाने की दिशा में व्यावहारिक विकल्प प्रस्तुत नहीं करती हैं. इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि IWRM कोई ऐसा फ्रेमवर्क तैयार नहीं करता है, जिसमें कोई बदलाव नहीं किया जा सके, बल्कि यह लगातार विकसित हो रहे जल प्रशासन के क्षेत्र के लिए लचीले दिशानिर्देश प्रस्तुत करता है. यानी ऐसे दिशानिर्देश सामने लाने का काम करता है, जिनमें समय के साथ-साथ और बदलते हालातों की ज़रूरत के मुताबिक़ बदलाव किया जाना मुमकिन है.

कुल मिलाकर IWRM की आलोचना करने वाले लोग अलग-अलग सैद्धांतिक मॉडलों से पैदा होने वाले परस्पर विरोधी विचारों से लागातर प्रभावित होते हैं, बावज़ूद इसके वे IWRM के लिए कोई बेहतर और उत्साहजनक पॉलिसी का विकल्प पेश करने में नाक़ाम रहते हैं. यही वजह है कि वैश्विक स्तर पर भी जल प्रशासन को लेकर IWRM का कोई विकल्प नज़र नहीं आता है और वैश्विक जल नीति के जो भी दिशानिर्देशन हैं, वो भी कहीं न कहीं IWRM द्वारा प्रस्तुत किए गए सिद्धांतों से ही प्रेरित नज़र आते हैं. यूरोपियन यूनियन वॉटर फ्रेमवर्क डायरेक्टिव भी IWRM की इस प्रभावशाली भूमिका को स्वीकार करता है. दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और रूस जैसे देशों की जल नीतियों में भी इसकी छाप नज़र आती है. इन देशों में जल प्रशासन के संदर्भ में एक एकीकृत फ्रेमवर्क के दायरे में पानी के अलग-अलग उपयोगों के बीच जटिल तालमेल को न केवल स्वीकार किया गया है, बल्कि सामाजिक और पारिस्थितिक चिंताओं का समाधान तलाशने पर भी ख़ास तौर पर ध्यान दिया गया है. यह स्पष्ट रूप से बताता है कि जल प्रशासन के लिए छोटी से छोटी समस्याएं भी बेहद अहम हैं और ये पूरी प्रणाली पर असर डालती हैं. ख़ास तौर पर नदी बेसिन की बात करें, तो इसमें कहीं भी कोई भी बदलाव होने पर इसका हर अवयव अपनी प्रतिक्रिया देता है, यानी उस बदलाव का कुछ न कुछ प्रभाव हर स्तर पर अवश्य पड़ता है.

भारत की बात की जाए तो, भारत में भी तमाम ऐसे नीतिगत दस्तावेज़ों के उदाहरण मौज़ूद हैं, जिनमें एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन के दिशानिर्देशों का असर दिखाई देता है. भारत में नेशनल एक्शन प्लान फॉर क्लाईमेट चेंज के अंतर्गत स्थापित किए गए आठ मिशनों में से एक राष्ट्रीय जल मिशन 2009 है. भारत का यह राष्ट्रीय जल मिशन नदी बेसिन के स्तर पर कई कार्य प्रस्तावों पर बल देता है, जिनमें जल प्रशासन के लिए एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन का प्रोत्साहन भी शामिल है. लेकिन वास्तविकता में भारत में वॉटर टेक्नोक्रेसी अर्थात जल तकनीक़ी तंत्र में यह विचार कहीं भी नज़र नहीं आता है. दूसरी ओर, जल प्रशासन के लिए एक बहु-विषयक दृष्टिकोण का विचार, जिसे वर्ष 2016 के ड्राफ्ट बिल और रिपोर्ट ('ए 21st सेंचुरी इंस्टीट्यूशनल आर्किटेक्चर फॉर इंडियाज वॉटर रिफॉर्म्स') में प्रस्तावित किया गया है, वो जल शक्ति मंत्रालय की कार्यविधि में समाहित लगता है. उल्लेखनीय है कि नई राष्ट्रीय जल नीति के लिए वर्ष 2019 में गठित समिति की ओर से जो सिफ़ारिशें प्रस्तुत की गई हैं, वो पारंपरिक एवं ब्रिटिश काल के इंजीनियरिंग मॉडल को पीछे छोड़कर उसे बहु-विषयक नज़रिए से प्रतिस्थापित करने का एक समयानुकूल मौक़ा उपलब्ध कराती हैं. गौरतलब है कि यह बहु-विषयक दृष्टिकोण इंजीनियरिंग को सामाजिक और पारिस्थितिक विज्ञान के साथ समन्वित करने का काम करता है. हालांकि, अभी यह देखा जाना शेष है कि नई राष्ट्रीय जल नीति के लिए गठित मसौदा समिति द्वारा जो सिफ़ारिशें पेश की गई हैं, वे भारत में जल प्रशासन और जल प्रबंधन के लिए एक एकीकृत दृष्टिकोण स्थापित करने की दिशा में चल रहे इस व्यापक बदलावों में अपनी परिवर्तनकारी भूमिका निभा पाएंगी या नहीं.

Endnotes:

 [A] यहां पैराडाइम शब्द का उपयोग उस संदर्भ में किया गया है, जिस प्रकार से Kuhn (1969) द्वारा उल्लेख किया गया था. उन्होंने सामान्य वैज्ञानिक जानकारी के परिवर्तन की व्याख्या करते समय इसका उपयोग किया था. देखें- Thomas Kuhn, The Structure of Scientific Revolutions. (Chicago: University of Chicago Press, 1969).

[B] IWRM का प्रमुख फोकस जल की मांग के प्रबंधन, जल प्रवाह को बरक़रार रखने और पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली पर है.

[C] शाह पूर्ववर्ती योजना आयोग के सदस्य भी रह चुके हैं.

[D] ग्लोबल वॉटर पार्टनरशिप IWRM को "... एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में परिभाषित करती है जो जीवंत इकोसिस्टम और पर्यावरण की स्थिरता से समझौता किए बगैर एक समान तरीक़े से आर्थिक और सामाजिक कल्याण को प्रोत्साहित करने के लिए पानी, भूमि और संबंधित संसाधनों के समन्वित विकास और प्रबंधन को बढ़ावा देता है." IWRM अपने तीन स्तंभों, यानी सामाजिक समानता, आर्थिक क्षमता और पर्यावरणीय स्थिरता के साथ नदी बेसिन समेत विभिन्न स्तरों पर पानी के समग्र प्रशासन को बढ़ावा देने के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत प्रस्तुत करता है.

[E] सिस्टम एप्रोच एक एकीकृत प्रणाली के विभिन्न उप-घटकों के पारस्परिक संबंध एवं पारस्परिक निर्भरता को स्वीकार करता है. ज़ाहिर है कि सिर्फ़ पारस्परिक संबंध एवं पारस्परिक निर्भरता को लेकर लगातार विचार-विमर्श के ज़रिए ही संपूर्ण प्रणाली की व्यावहारिक और समग्र रूपरेखा तैयार की जाती है. एक जल प्रणाली या नदी बेसिन की बिलकुल यही स्थिति है, जहां सिस्टम के एक भाग में कुछ दख़लंदाज़ी करना, उसके अन्य हिस्सों में गंभीर गड़बड़ी पैदा कर सकता है.

[F] जल और सतत विकास पर डबलिन वक्तव्य (जिसे डबलिन सिद्धांतों के रूप में भी जाना जाता है) एक घोषणा है. इस घोषणा को जनवरी 1992 में आयरलैंड के डबलिन में जल एवं पर्यावरण पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के बाद जारी किया गया था. इस सम्मेलन में जल पेशेवरों और विशेषज्ञों ने वैश्विक जल समस्याओं पर गंभीर विचार-विमर्श किया था. डबलिन स्टेटमेंट में यह माना गया है कि पानी की बढ़ती कमी इसके अत्यधिक दोहन का नतीज़ा है. पानी को एक ऐसा संसाधन माना जाता है, जो हर जगह पर प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है.

[G] यह कार्यप्रणाली केवल 50 से 75 प्रतिशत निर्भरता के आधार पर आपूर्ति पक्ष पर कुछ नंबरों से संबंधित है और व्यापक पारिस्थितिकी तंत्र की आवश्यकताओं या जल प्रवाह की ज़रूरतों की चिंता किए बगैर इन्हें आर्थिक मांग के साथ जोड़ती है.

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[2] Nilanjan Ghosh, “Challenges to Environmental Security in the Context of India–Bangladesh Transboundary Water Relations,” Decision (Springer) 42, No. 2 (April 28, 2015): 211–28 https://doi.org/10.1007/s40622-015-0082-4

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[6] Sayanangshu Modak and Ambar Kumar Ghosh, “Federalism and Interstate River Water Governance in India,” ORF Occasional Paper, January 2021, https://www.orfonline.org/research/federalism-and-interstate-river-water-governance-in-india

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[8] Nilanjan Ghosh and Jayanta Bandyopadhyay, “A Scarcity Value Based Explanation of Trans-Boundary Water Disputes: The Case of the Cauvery River Basin in India,” Water Policy 11, No. 2 (April 1, 2009): 141–67, https://doi.org/10.2166/wp.2009.017.

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[12] Nilanjan Ghosh, “New Hope for Water Governance,” Mail Today, February 29, 2020

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[17] Q. Schiermeier, “Dam removal restores rivers,” Nature, 557 (2018): 290-91.

[18] “Water Markets,” Murray-Darling Basin Authority, Australian Government, June 2023, https://www.mdba.gov.au/water-use/water-markets.

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[20] Nilanjan Ghosh, “Water futures market for the hydrological future of South Asia,” Expert Speak, Observer Research Foundation, September 29, 2020, https://www.orfonline.org/expert-speak/water-futuresmarket-hydrological-future-south-asia/

[21] Nilanjan Ghosh, Economics of Hostile Hydropolitics over Transboundary waters: Scarcity Values and Interstate Water Conflicts in India and US, (Saarbrucke: VDM Verlag, 2009)

[22] Nilanjan Ghosh, “Water Scarce Economies and Scarcity Values: Can water futures trading combat water scarcity?,” Occasional Paper No. 342, January 2022, Observer Research Foundation, https://www.orfonline.org/research/water-scarce-economies-and-scarcity-values/

[23] Nilanjan Ghosh, “Conceptual Framework of a South Asian Water Futures Exchange,” Commodity Vision, 4 (1), December 17, 2010: 8-18, https://www.indiawaterportal.org/articles/conceptual-framework-south-asian-water-futures-exchange-commodity-vision

[24] Roopa Madhav and Aasheerwad Dwivedi, “Why India must be wary of trading in water futures,” Mint, October 6, 2022, https://www.livemint.com/opinion/online-views/india-is-not-ready-to-trade-water-as-just-another-commodity-yet-11665074439986.html#:~:text=India%20is%20planning%20to%20start,of%20water%20and%20tradable%20licences.

[25] Nilanjan Ghosh, “How liquid can water be? Possibilities with water derivatives trading in India,” India Today, October 11, 2022, https://www.indiatoday.in/news-analysis/story/water-trading-futures-market-benefit-efficiency-sustainability-equity-issues-2283719-2022-10-11

[26] Yogima Seth Sharma, “Niti Aayog Draft in the Works for Water Trading on Bourses,” The Economic Times, September 22, 2022, https://economictimes.indiatimes.com/news/economy/policy/niti-aayog-draft-in-the-works-for-water-trading-on-bourses/articleshow/94506476.cms?from=mdr.

[27] NITI Aayog, Water Trading Mechanism To Promote Reuse Of Treated Wastewater, Water and Land Resources Vertical: NITI Aayog, July 2023, https://www.niti.gov.in/sites/default/files/2023-07/Water-Trading-in-treated-waste-water-%26-role-of-regulatory-mechanism.pdf

[28] Nilanjan Ghosh and J. Bandyopadhyay, “Sustaining the Liquid Mosaic: Longer Steps Needed,” Economic and Political Weekly Vol 51, Issue no: 52, 2016: 20-24.

[29] Jayanta Bandyopadhyay, “Towards a synergy-based approach to river basin governance,” ORF

Issue Brief No 308, Observer Research Foundation, August 27, 2019, https://www.orfonline.org/research/towards-a-synergy-based-approach-to-river-basin-governance

[30] Nilanjan Ghosh, “Water, Ecosystem Services, and Food Security: Avoiding the costs of ignoring the Linkage,” in Low Carbon Pathways for Growth in India, ed. R Kathuria (New Delhi: Springer, 2018), 161-76

[31] “The Dublin Statement on Water and Sustainable Development,” International Conference on Water and the Environment (ICWE), Dublin, Ireland, organised on 26–31 January 1992, http://www.wmo.int/pages/prog/hwrp/documents/english/icwedece.html

[32] Nilanjan Ghosh and Jayanta Bandyopadhyay, “Governing the Ganges and Brahmaputra: Beyond Reductionist Hydrology,” Occasional Paper No.273, (New Delhi: Observer Research Foundation, 2020).

[33] Nilanjan Ghosh, “Challenges to Environmental Security in the Context of India-Bangladesh Trans-boundary Water Relations,” Decision (Springer) 42 (2), 2015: 211-28.

[34] Nilanjan Ghosh and Anandajit Goswami, Sustainability Science for Social, Economic, and Environmental Development (Hershey, PA: IGI Global, 2014).

[35] A.D. Mohile, “India’s Water and Its Plausible Balance in Distant Future,” Unpublished, 1998.

[36] “National Commission on Integrated Water Resource Development Plan (NCIWRDP),”

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[37] Jayanta Bandyopadhyay, Water, Ecosystems and Society: A Confluence of Disciplines (Sage India, 2009)

[38] Yoginder K Alagh, Ganesh Pangare, and Biksham Gujja, Interlinking of rivers in India: overview and Ken-Betwa link, (Academic Foundation, 2006)

[39] Jayanta Bandyopadhyay and Shama Perveen, “The interlinking of Indian rivers: Questions on the Scientific, Economic and Environmental dimension of the project,” in Interlinking rivers in India: issues and concerns, ed. M.Q. Mirza et al., (Abingdon: Taylor and Francis, 2008).

[40] Mujib Mashal and Hari Kumar, “Before Himalayan Flood, India Ignored Warnings of Development Risks,” New York Times, February 8, 2021, https://www.nytimes.com/2021/02/08/world/asia/india-flood-ignored-warnings.html

[41] Jayanta Bandyopadhyay, Nilanjan Ghosh, and Chandan Mahanta, IRBM for Brahmaputra: Water Governance, Environmental Security and Human Well-being, (New Delhi: Observer Research Foundation, 2016).

[42] Nilanjan Ghosh, “Hydropower in the Himalayas: the economics that are often ignored,” The Third Pole, March 29, 2018.

[43] Nilanjan Ghosh and Jayanta Bandyopadhyay, “Governing the Ganges and Brahmaputra: Beyond Reductionist Hydrology,” Occasional Paper No.273, September 2020, Observer Research Foundation,  https://www.orfonline.org/wp-content/uploads/2020/09/ORF_OccasionalPaper_273_Ganges-Brahmaputraad1.pdf

[44] Jayanta Basu, “The canal, the climate and the Teesta,” The Third Pole, June 20, 2017, https://www.thethirdpole.net/en/climate/the-canal-the-climate-and-the-teesta/

[45] Nilanjan Ghosh, “Hydropower in the Himalayas: the economics that are often ignored,” The Third Pole, March 29, 2018.

[46] Nilanjan Ghosh, Jayanta Bandyopadhyay and Jaya Thakur, Conflict over Cauvery Waters: Imperatives for Innovative Policy Options, ORF Monograph, September 2018, Observer Research Foundation; Nilanjan Ghosh and Jayanta Bandyopadhyay, “A scarcity value-based explanation of trans-boundary water disputes: the case of the Cauvery River Basin in India,” Water Policy, 11(2), April, 2009: 141-167; Nilanjan Ghosh, “Sustaining the Liquid Mosaic,” Economic and Political Weekly 51(52), (2016): 20–24.; Nilanjan Ghosh, “From Reductionist to Holistic Paradigm: Combining Ecology, Economics, Engineering, and Social Sciences in a Transdisciplinary Framework for Water Governance,” Ecology, Economy and Society-the INSEE Journal, 1(2), July, 2018: 69–72.

[47] Pyaralal Raghavan, “There has not been a final settlement on any interstate river water dispute since 1980,” The Times of India, September 7, 2016, https://timesofindia.indiatimes.com/blogs/minorityview/there-has-not-been-a-final-settlement-on-any-inter-state-river-water-dispute-since-1980/

[48] Risha Kulshrestha, “Kuldip Nayar v. Union of India and Ors. – Case Summary,” Law Times Journal, September 14, 2018, https://lawtimesjournal.in/kuldip-nayar-v-union-of-india-and-ors-case-summary/#google_vignette; Shivangi Goel, “S.R. Bommai vs. Union of India,” Law Times Journal, October 2, 2019. https://lawtimesjournal.in/s-r-bommai-vs-union-of-india/

[49] Sarkaria Commission, Chapter XVII: Inter-State River Water Disputes, 1988 https://interstatecouncil.nic.in/wp-content/uploads/2015/06/CHAPTERXVII.pdf

[50] Srinivas Chokkakula, “Interstate river water governance: shift focus from conflict resolution to enabling cooperation,” Centre for Policy Research, June 13, 2019, https://www.cprindia.org/news/interstate-river-water-governance-shift-focus-conflict-resolution-enabling-cooperation

[51] Nilanjan Ghosh, and Jayanta Bandyopadhyay, “Sustaining the Liquid Mosaic,” Economic & Political Weekly 51, No. 52, December 24, 2016, https://www.epw.in/journal/2016/52/water-governance/sustaining-liquid-mosaic.html.

[52] “The Inter-State River Water Disputes (Amendment) Bill, 2019,” PRS Legislative Research, https://prsindia.org/billtrack/the-inter-state-river-water-disputes-amendment-bill-2019.

[53] Nilanjan Ghosh, Jayanta Bandyopadhyay and Jaya Thakur, Conflict over Cauvery waters: Imperatives for innovative policy options (New Delhi: Observer Research Foundation, 2018).

[54] Nilanjan Ghosh and Sayanangshu Modak. “Water Disputes in the Cauvery and the Teesta Basins:

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[55] Nilanjan Ghosh, Jayanta Bandyopadhyay and Jaya Thakur, Conflict over Cauvery waters: Imperatives for innovative policy options, (New Delhi: Observer Research Foundation, 2018).

[56] Nilanjan Ghosh, Jayanta Bandyopadhyay and Jaya Thakur, Conflict over Cauvery waters: Imperatives for innovative policy options,

[57] Angela H. Arthington, “Environmental Flow Concepts and Holistic Applications in River Basin

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[58] Jayanta Bandyopadhyay, Water, Ecosystems and Society: A Confluence of Disciplines (Sage Publications: 2009)

[59] Yoginder Kumar Alagh, Economic policy in a liberalising economy, (Singapore: Springer, 2018), https://doi.org/10.1007/978-981-13-2817-6

[60] Nilanjan Ghosh, “Food fears fuel Water Conflicts,” Mail Today, February 3, 2019

[61] Nitin Kaushal et al. “Towards a healthy Ganga - improving river flows through

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[62] Jonas Förare ed., Water and Food, (Stockholm: The Swedish Research Council Formas: 2008), https://www.formas.se/download/18.462d60ec167c69393b91e03c/1549956098121/WaterforFood.pdf

[63] Nilanjan Ghosh, “Water, Ecosystem Services, and Food Security,”

[64] Ranjan Bhattacharyya et al. “Soil Degradation in India: Challenges and Potential Solutions,” Sustainability, 7(2015): 3528-3570, doi:10.3390/su7043528

[65] Nilanjan Ghosh, “Water Wars over Paradigms,” ORF Expert Speak, May 14, 2020, https://www.orfonline.org/expert-speak/water-wars-over-paradigms-66120#:~:text=The%20ongoing%20%E2%80%9Cwater%20wars%E2%80%9D%20is,talks%20of%20a%20holistic%20approach.

[66] Mihir Shah et al, A 21st Century Institutional Architecture for India’s Water Reforms,

[67] Nilanjan Ghosh, “India’s Enduring War of Water Governance Paradigms,” Issue Brief No. 446, February 2021, Observer Research Foundation, http://20.244.136.131/research/indias-enduring-war-of-water-governance-paradigms ; M. Dinesh Kumar et al., "Mihir Shah Committee Report (2016) on Water Reforms in India: A Critique," Institute for Resource Analysis and Policy Occasional Paper, December, 2016 http://www.irapindia.org/images/irap-Occasional-Paper/IRAP-Occasional-Paper-No9.pdf

[68] Amitabh Sinha, “CWC staff slam Mihir Shah panel report on water reforms,” The Indian Express, August 26, 2016, https://indianexpress.com/article/india/india-news-india/cwc-staff-slam-mihir-shah-panel-report-on-water-reforms-2996427/

[69] Renita D’Souza, “Water in British India: The Making of a ‘Colonial Hydrology,” History Compass (2006), https://doi.org/10.1111/j.1478-0542.2006.00336.x

[70] Anamitra Anurag Danda et al. “Managed Retreat: Adaptation to Climate Change in the Sundarbans ecoregion in the Bengal Delta,” Journal of Indian Ocean Region (2019), DOI: 10.1080/19480 881.2019.1652974

[71] Nilanjan Ghosh, “Challenges to Environmental Security in the Context of India-Bangladesh Transboundary Water Relations,” Springer, 2015, https://www.researchgate.net/publication/275659552_Challenges_to_environmental_security_in_the_context_of_India-Bangladesh_transboundary_water_relations

[72] Mihir Shah, ”1st Jayanta Bandyopadhyay Endowment Lecture on Water Governance,” XII Biennial Conference of the Indian Society for Ecological Economics, January 31 – February 2, 2024.

[73] PIB Report, Ministry of Jal Sakti, Government of India, December 16, 2021, https://pib.gov.in/Pressreleaseshare.aspx?PRID=1782283

[74] PIB Report, Ministry of Jal Sakti, Government of India, December 16, 2021, https://pib.gov.in/Pressreleaseshare.aspx?PRID=1782283

[75] Sayanangshu Modak, “Rivers and their legal rights,” ORF Expert Speak, October 29, 2021, https://www.orfonline.org/expert-speak/rivers-and-their-legal-rights#:~:text=The%20right%20to%20flow.,to%20be%20free%20from%20pollution; Sayanangshu Modak, “Should rivers have legal rights?,” ORF Expert Speak, June 16, 2020, https://www.orfonline.org/expert-speak/should-rivers-have-legal-rights-like-you-me-67967

[76] Interview with Mihir Shah, “Must learn from success stories, break silos, take people along,” The Indian Express, August 29, 2016, https://indianexpress.com/article/explained/mihir-shah-panel-water-management-cwc-3001152/

[77] Mihir Shah, “What India’s new water policy seeks to deliver,” The Indian Express, October 30, 2021, https://indianexpress.com/article/opinion/columns/what-indias-new-water-policy-seeks-to-deliver-7595819/

[78] Srinivas Chokkakula, “Indian states have fought over shared rivers for long. Modi must make them cooperate now,” The Print, June 13, 2019, https://theprint.in/opinion/indian-states-have-fought-over-shared-rivers-for-long-modi-must-make-them-cooperate-now/249361/

[79] Sayanangshu Modak and Ambar Kumar Ghosh, “Federalism and Interstate River Water Governance in India,” Occasional Paper, Observer Research Foundation, January 2021, https://www.orfonline.org/research/federalism-and-interstate-river-water-governance-in-india

[80] Jayanta Bandyopadhyay, “Towards a synergy-based approach to river basin governance,” Issue Brief, Observer Research Foundation, August 27, 2019, https://www.orfonline.org/research/towards-a-synergy-based-approach-to-river-basin-governance

[81] Malin Falkenmark, “Water Management and Ecosystems: Living with Change,” TEC Background Paper 9, Stockholm: Global Water Partnership, 2003, https://www.gwp.org/globalassets/global/toolbox/publications/background-papers/09-water-management-and-eco-systems.-living-with-change-2003-english.pdf

[82] Mark Giordano and Tushaar Shah, “From IWRM back to integrated water resources management,” International Journal of Water Resources Development, 30:3, 364-376: 2014, DOI: 10.1080/07900627.2013.851521

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Authors

Nilanjan Ghosh

Nilanjan Ghosh

Dr. Nilanjan Ghosh is a Director at the Observer Research Foundation (ORF), India. In that capacity, he heads two centres at the Foundation, namely, the ...

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Ambar Kumar Ghosh

Ambar Kumar Ghosh

Ambar Kumar Ghosh is an Associate Fellow under the Political Reforms and Governance Initiative at ORF Kolkata. His primary areas of research interest include studying ...

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