बांग्लादेश में पिछले दिनों जो हुआ है, उसका असर इस पूरे क्षेत्र में महसूस किया जा रहा है. इसका परिणाम क्या निकलता है, यह साफ होने में अभी समय लगेगा. लगभग 15 बरसों से बांग्लादेश में स्थिरता थी, लेकिन अब उसकी जगह इस डर ने ले ली है कि पता नहीं आगे क्या हो. शेख हसीना की सरकार गिरने से पहले ही दक्षिण एशिया के देशों में कई चुनौतियां थीं. भारत को छोड़कर, ज्यादातर देशों में राजनीतिक और आर्थिक उथल-पुथल अपना असर दिखा रही है.
अस्थिर पड़ोसी
पाकिस्तान में काफी समय से अस्थिरता बनी हुई है और किसी को नहीं पता कि आगे क्या करना है. तालिबान के शासन में अफगानिस्तान अपने बहिष्कृत दर्जे से बाहर आने की असफल कोशिश कर रहा है. इसी तरह, नेपाल में ऐसा लगता है कि कभी न खत्म होने वाला राजनीतिक बदलाव चल रहा है. लोग इससे इतना थक चुके हैं कि जब एक की जगह दूसरा गठबंधन सत्ता में आता है, तो कोई उस पर ध्यान नहीं देता. म्यांमार एक असफल राज्य बनने की ओर है, क्योंकि सैन्य जुंटा का नियंत्रण कमजोर हो रहा है. इसके चलते कई non-state actors उभर आए हैं, लेकिन उनके बीच कोई तालमेल नहीं है. एक और पड़ोसी देश श्रीलंका में आर्थिक संकट ने राजनीतिक दिशा तय की है.
पाकिस्तान में काफी समय से अस्थिरता बनी हुई है और किसी को नहीं पता कि आगे क्या करना है. तालिबान के शासन में अफगानिस्तान अपने बहिष्कृत दर्जे से बाहर आने की असफल कोशिश कर रहा है. इसी तरह, नेपाल में ऐसा लगता है कि कभी न खत्म होने वाला राजनीतिक बदलाव चल रहा है.
भारत से उम्मीदें
शेख हसीना सरकार में बांग्लादेश लोगों को स्थिरता का भ्रम दे रहा था, जबकि उनके नेतृत्व की नींव बहुत पहले से ही हिलने लगी थी. अब जब बांग्लादेश और पूरे क्षेत्र के लोग हसीना के बाद के राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य से दो-चार हो रहे हैं, तो बुद्धिजीवियों में उसके भविष्य के बारे में निराशा है. यह निराशा खासतौर से जुड़ी है इस क्षेत्र में भारत की कथित असफलता से. उन्हें लगता है कि भारत ने कुछ नहीं किया, जबकि उसके पॉलिसी मेकर्स देश को एक वैश्विक नेता के रूप में पेश करते रहे हैं और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी बढ़ती भूमिका के बारे में बात करते हैं.
तीन पक्ष: इस बहस के तीन पहलू हैं, जिन पर रोशनी डालना जरूरी है. पहली बात यह कि वैश्विक शक्ति संतुलन में बदलाव के कारण अब दक्षिण एशिया जैसी कोई चीज नहीं रही. भले ही कभी भू-राजनीतिक विश्लेषण के लिए यह एक मानसिक नक्शा रहा हो, लेकिन आज इस तरह की स्ट्रैटिजिक मैपिंग का कोई मतलब नहीं रह गया है. भारत और इसके आस-पास का क्षेत्र एक व्यापक हिंद-प्रशांत का हिस्सा है. यह क्षेत्र चीन और भारत के शानदार उदय का कारण बना है. भारत को पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया ही नहीं, व्यापक प्रशांत क्षेत्र के साथ महत्वपूर्ण संबंध विकसित करने की जरूरत है.
नई हकीकत
अब मामला भारत और पाकिस्तान की जगह भारत और चीन के बीच हो गया है. नई दिल्ली को इस वास्तविकता का सामना करना ही होगा. भारत के सभी पड़ोसियों के साथ चीन की साझेदारी और हिंद महासागर में उसकी बढ़ती उपस्थिति इसका प्रमाण है. अब दक्षिण एशिया की ओर लौटने का कोई रास्ता नहीं. जैसे-जैसे बड़ी ताकतों के बीच जियो-पॉलिटिकल होड़ तेज होगी, वैसे-वैसे भारत के पड़ोसी देशों पर असर पड़ेगा. शेख हसीना की सरकार का गिरना इसका एक उदाहरण है.
दूसरा पहलू
बौद्धिक रूप से यह कहना बहुत गंभीर लगता है कि भारत का अपने पड़ोसियों पर दबदबा घट रहा है. लेकिन, सच यही है कि अपने पड़ोसियों पर भारत का कभी प्रभाव नहीं रहा. आजादी के बाद से ही पड़ोसी देशों ने भारत के कथित आधिपत्य को चुनौती दी है. पाकिस्तान तो इस मामले में बिल्कुल चरम पर पहुंच गया. उसने यह कभी स्वीकार नहीं किया कि उपमहाद्वीप में उसकी हैसियत भारत से कमतर है. आंतरिक और बाहरी जरियों से उसने नई दिल्ली को चुनौती देने की कोशिश की. भारत के साथ बराबरी करने के सपने ने पाकिस्तान को बर्बाद करके रख दिया. दूसरे पड़ोसियों ने भी भारत के प्रभाव को संतुलित करने के लिए खूब प्रयास किए.
वैश्विक शक्ति संतुलन में बदलाव के कारण अब दक्षिण एशिया जैसी कोई चीज नहीं रही. भले ही कभी भू-राजनीतिक विश्लेषण के लिए यह एक मानसिक नक्शा रहा हो
बांग्लादेश से रिश्ते
भारत ने अपनी बात मनवाने के लिए सैन्य या आर्थिक दबाव का भी इस्तेमाल किया है. लेकिन, ऐसा करने पर ज्यादातर उसे नुकसान ही हुआ. यह भूलना आसान है कि शेख हसीना जब पीएम नहीं थीं, तब 15 साल पहले बांग्लादेश के साथ भारत के रिश्ते कितने खराब थे. यहां तक कि हसीना के नेतृत्व में भी ढाका का सबसे महत्वपूर्ण रक्षा साझेदार चीन था. पड़ोसी देशों की संस्थाओं को कभी भी बहुत कम करके नहीं आंका जाना चाहिए. इसी तरह से, क्षेत्र के हालात को नियंत्रित करने की भारत की क्षमताओं को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर नहीं देखा जाना चाहिए.
भारत की अपने क्षेत्रीय छवि से जुड़ा है. उसके चारों तरफ अस्थिरता है. अचरज की बात यह नहीं है कि हिंदुस्तान इस अस्थिरता को खत्म करने में सक्षम नहीं, बल्कि हैरानी यह है कि वह खुद को इस उथल-पुथल से बचाने में सफल रहा है.
भारत की साख
बहस का तीसरा पहलू भारत की अपने क्षेत्रीय छवि से जुड़ा है. उसके चारों तरफ अस्थिरता है. अचरज की बात यह नहीं है कि हिंदुस्तान इस अस्थिरता को खत्म करने में सक्षम नहीं, बल्कि हैरानी यह है कि वह खुद को इस उथल-पुथल से बचाने में सफल रहा है. बहुत समय भारतीय विदेश नीति में यह बात चलती रही कि जब तक नई दिल्ली और इस्लामाबाद के बीच समझौता नहीं हो जाता, तब तक भारत आगे नहीं बढ़ पाएगा. लेकिन भारत ने दिखाया है कि पड़ोस से आने वाली चुनौतियों और पाकिस्तान के पतन के बावजूद भारतीय विदेश नीति की साख बढ़ी है. यह हमारे देश के धैर्य और लचीलेपन का प्रमाण है.
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