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नीति आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में वर्ष 2015-16 से 2019-21 के पांच साल के बीच 13.5 करोड़ लोग बहुआयामी गरीबी से बाहर निकल गये हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, ओडिशा और राजस्थान में सबसे तेजी से गरीबी घटी है. रिपोर्ट में बताया गया कि ग्रामीण इलाकों में गरीबी में सबसे तेजी से कमी आयी है. गांवों में गरीबी 32.59 प्रतिशत से घट कर 19.28 प्रतिशत रह गयी है. वहीं शहरी क्षेत्रों में गरीबी 8.65 प्रतिशत से कम होकर 5.27 प्रतिशत हो गयी है.
देश में गरीबी के कम होने की जानकारी दिया जाना एक अच्छी खबर है. लेकिन, नीति आयोग की इस रिपोर्ट को समझना और सही संदर्भ में देखा जाना जरूरी है. दरअसल, अर्थजगत में गरीबी को मापने के तरीके को लेकर लंबे समय से एक बहस चलती रही है जो आगे भी चलती रहेगी. इससे पहले, पिछले वर्ष अप्रैल में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष या आईएमएफ की एक रिपोर्ट आयी थी, जिसमें कहा गया था कि भारत में अत्यधिक निर्धनता लगभग खत्म हो गयी है.
अर्थशास्त्रियों सुरजीत भल्ला, करण भसीन और अरविंद विरमानी की लिखी रिपोर्ट में कहा गया था कि वर्ष 2011 के समय के स्तर से वर्ष 2019 में अत्यधिक निर्धनता घटकर एक प्रतिशत से भी नीचे आ गयी है. गरीबी की माप के कई तरीके हैं. एक सीधा तरीका आय की गणना का है, जिसमें प्रतिदिन की आय के आधार पर गरीबी का हिसाब लगाया जाता है. विश्व बैंक ने सारी दुनिया के लिए अत्यधिक निर्धनता की माप के लिए प्रति व्यक्ति प्रति दिन 1.9 डॉलर का एक मापदंड तय किया हुआ था. पिछले वर्ष इसे बढ़ाकर 2.15 डॉलर कर दिया गया. इसमें यह देखा जाता था कि इतनी राशि में कोई व्यक्ति कितना सामान खरीद सकता है.
नीति आयोग ने अभी जो गरीबी के बारे में गणना की है, उसमें केवल आय को आधार मानने की बजाय विभिन्न तरह के मानदंडों का प्रयोग किया है. इनमें स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर से जुड़े कई मानदंडों की तुलना की गयी है.
मगर, नीति आयोग ने अभी जो गरीबी के बारे में गणना की है, उसमें केवल आय को आधार मानने की बजाय विभिन्न तरह के मानदंडों का प्रयोग किया है. इनमें स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर से जुड़े कई मानदंडों की तुलना की गयी है. जैसे, पोषण, स्वच्छता, रसोई गैस, पढ़ाई आदि की उपलब्धता के आधार पर बहुआयामी निर्धनता इंडेक्स तैयार किया गया है. नीति आयोग ने यह मापदंड संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनडीपी के मापदंडों के आधार पर तय किये हैं. और इसके लिए आंकड़े नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे से लिये गये हैं. चौथा नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 में हुआ था.
अगला सर्वे पांच साल बाद पूरा होना था, मगर कोविड की वजह से उसमें देर हुई और वह 2019-21 में हुआ. नीति आयोग ने अभी अपनी रिपोर्ट में इसी अवधि के बीच गरीबी घटने की रिपोर्ट जारी की है. लेकिन, यह सर्वे मुख्य रूप से स्वास्थ्य का सर्वे है. नीति आयोग ने संभवतः इन मानदंडों के साथ-साथ वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के मापने के तरीकों का इस्तेमाल कर रिपोर्ट जारी की है. मुझे लगता है कि इस प्रक्रिया में कल्याणकारी योजनाओं के तहत दी जाने वाली मदद को भी किसी प्रकार से माप के तरीके में इस्तेमाल किया गया है.
गरीबी के बारे में नीति आयोग की नयी रिपोर्ट का विश्लेषण करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत में जीडीपी या सकल घरेलू उत्पाद में लगातार वृद्धि हो रही है. इसका असर समाज में नीचे के तबके पर भी हुआ है. अगर रईस लोग खर्च करते हैं तो वह पैसा धीरे-धीरे नीचे तक पहुंचता जाता है. यानी गरीबी का कम होना स्वाभाविक है. लेकिन, यहां एक महत्वपूर्ण बात ध्यान रखी जानी चाहिए कि निर्धनता और असमानता दोनों अलग चीजें हैं.
गरीबी तय करने के लिए प्रति व्यक्ति के प्रति दिन लगभग दो डॉलर की कमाई के मापदंड के आधार पर हिसाब लगाया जाए तो ऐसे किसी परिवार की कमाई बहुत ज्यादा नहीं होगी. ऐसे में समझने वाली बात यह है कि यदि देश की जीडीपी बढ़ रही है तो निचले तबके की आय उस अनुपात में नहीं बढ़ रही है जिस अनुपात में ऊपरी तबकों की आय बढ़ती है. तो आंकड़ों के आधार पर गरीबी घटती प्रतीत होती है.
मगर, आर्थिक असमानता की चुनौती मौजूद रहती है. भारत के आज आर्थिक महाशक्ति बनने की बात होती है. भारत अभी दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था है और कहा जा रहा है कि वर्ष 2027-28 तक वह दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा. लेकिन इन महत्वाकांक्षी लक्ष्यों के साथ-साथ भारत में आज अति-निर्धनता के दूर होने की भी बात हो रही है. यह दोनों बातें विरोधाभासी प्रतीत होती हैं.
यदि भारत आर्थिक तरक्की की राह पर नयी ऊंचाइयां तय कर रहा है, तो समाज के निचले तबके की कमाई में मामूली बढ़त को बड़ी उपलब्धि कहना उचित नहीं है. उदाहरण के लिए, यदि निचले तबके की कमाई 20 रुपये से बढ़कर 30 या 40 रुपये हो गयी तो उसे उसकी कमाई को दोगुना बताकर उपलब्धि बताना बहुत सही नहीं है. यदि भारत एक आर्थिक महाशक्ति बन रहा है तो 20 रुपये की कमाई को 200 रुपये होनी चाहिए.
रिपोर्ट का एक सकारात्मक पहलू यह है कि इससे पता चलता है कि सरकार की जनकल्याणकारी नीतियों का लाभ निचले तबके तक पहुंच रहा है. केंद्र सरकार की स्वच्छ भारत अभियान, पोषण अभियान, जल जीवन, उज्जवला आदि योजनाओं का गरीबी को घटाने में बड़ा योगदान है.
यानी निर्धनता और असमानता दो अलग चीजें हैं. हालांकि, नीति आयोग के बहुआयामी निर्धनता में कमी आने की रिपोर्ट का एक सकारात्मक पहलू यह है कि इससे पता चलता है कि सरकार की जनकल्याणकारी नीतियों का लाभ निचले तबके तक पहुंच रहा है. केंद्र सरकार की स्वच्छ भारत अभियान, पोषण अभियान, जल जीवन, उज्जवला आदि योजनाओं का गरीबी को घटाने में बड़ा योगदान है.
पिछले वर्ष आईएमएफ की रिपोर्ट में भी कहा गया था कि गरीबी को कम करने में प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना का बड़ा योगदान था. इस रिपोर्ट में नेशनल सैंपल सर्वे के उपभोग के आधार पर किये जाने वाले सर्वे को असफल बताया गया था. आईएमएफ ने साथ ही यह भी कहा था कि भोजन पर दी जाने वाली सब्सिडी से गरीबी में लगातार कमी आयी है.
इससे पहले भारत में नेशनल सैंपल सर्वे के तहत हर पांच साल पर उपभोग का सर्वेक्षण कर गरीबी की माप की जाती थी. इन दिनों देश में विभिन्न तरह की सरकारी योजनाओं को लेकर सवाल उठते रहते हैं और उन्हें लोकलुभावन योजना कहकर पैसे की बर्बादी तक बताया जाता है. लेकिन, ऐसे सर्वे बताते हैं कि इस तरह की योजनाएं कितनी सार्थक हैं. इनकी बदौलत समाज के नीचे के 25-30 प्रतिशत तबके की मदद हो रही है और यह बहुत जरूरी है. यदि देश में गरीबी को दूर करने को लेकर गंभीरता से प्रयास करना है तो ऐसी नीतियों को बरकरार रखा जाना चाहिए.
यह लेख प्रभात खबर में प्रकाशित हो चुका है.
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Abhijit was Senior Fellow with ORFs Economy and Growth Programme. His main areas of research include macroeconomics and public policy with core research areas in ...
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