प्रस्तावना
तालिबान ने अगस्त 2021 में अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर कब्ज़ा किया. इसी के साथ अमेरिकी इतिहास के सबसे बड़े सैन्य अभियान का भी अंत हो गया. अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका का ये सैन्य अभियान सितंबर 2001 में ट्विन टावर पर आतंकी हमले के बाद शुरू हुआ था.[1] 1990 के दशक में बना तालिबान एक तरह से पश्तून मूल के लोगों के लड़ाकुओं का समूह है. 1979 में अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत संघ के हमले और 1989 में अफ़ग़ानिस्तान से सोवियत सेना की वापसी और इसके बाद कई साल के गृह युद्ध के बाद 1996 में तालिबान पहली बार सत्ता में आया. 2001 में जब अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया तो उसका मकसद सितंबर 2001 के आतंकी हमले के मास्टरमाइंड ओसामा बिन लादेन को पकड़ना था. लादेन को तालिबान के संस्थापक और प्रमुख नेता मुल्ला उमर ने अफ़ग़ानिस्तान में शरण दे रखी थी.[2]
2001 से 2021 के बीच अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने अफ़ग़ानिस्तान में एक सुरक्षा घेरा बनाने का दावा किया लेकिन अफ़ग़ानिस्तान का इतिहास विदेशी शक्तियों के विरोध और अलग-अलग कबीलाई गुटों के बीच संघर्ष से भरा रहा है. अमेरिका एक ऐसी महाशक्ति है, जो इस इलाके की क्षेत्रीय ताकतों के साथ मिलकर अफ़ग़ानिस्तान और तालिबान के साथ सामरिक और रणनीतिक रूप अलग-अलग तरीकों से निपटा था. अमेरिका का उद्देश्य भी अलग था और उसके तौर-तरीके भी अलग थे. [a] पाकिस्तान और सऊदी अरब के साथ मिलकर अमेरिका ने सोवियत सेना के ख़िलाफ जंग में अफ़ग़ान मुजाहिदीनों की मदद की थी. सोवियत सेना के ख़िलाफ अफ़ग़ानी मुजाहिदीनों की मदद की ये नीति अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर के शासनकाल में 1979 में शुरू हुई. बाद में अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन[3] ने भी इस नीति को आगे बढ़ाया.
अंतरराष्ट्रीय समुदाय अभी तक इस हक़ीकत को स्वीकार नहीं कर पा रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता अब तालिबान के हाथों में है. 2021 में तालिबान जब से दोबारा सत्ता में आया है, तब से उसकी प्राथमिकता ये रही है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय उसे मान्यता दे. ये स्वीकार करे कि अफ़ग़ानिस्तान में उसकी सरकार वैध है.
अंतरराष्ट्रीय समुदाय अभी तक इस हक़ीकत को स्वीकार नहीं कर पा रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता अब तालिबान के हाथों में है. 2021 में तालिबान जब से दोबारा सत्ता में आया है, तब से उसकी प्राथमिकता ये रही है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय उसे मान्यता दे. ये स्वीकार करे कि अफ़ग़ानिस्तान में उसकी सरकार वैध है. 1996 में सिर्फ पाकिस्तान, यूनाइटेड अरब अमीरात (UAE) और सऊदी अरब ने ही तालिबान की सत्ता को मान्याता दी थी और ये सभी क्षेत्रीय ताकतें हैं. इस बार यानी 2021 में तालिबान के दोबारा सत्ता में आने के बाद किसी देश ने अभी तक आधिकारिक तौर पर उसे मान्यता नहीं दी है. हालांकि चीन, रूस, उज़बेकिस्तान और UAE जैसे कुछ देशों ने तालिबान को अपने यहां स्थित अफ़ग़ानिस्तान के दूतावासों पर कब्ज़ा करने की मंजूरी दे दी है.
तालिबान का जो मौजूदा राजनीतिक ढांचा है, उसमें सत्ता पर हक्कानी नेटवर्क के लोग काबिज हैं. हक्कानी नेटवर्क तालिबानी विद्रोही समूह का सबसे क्रूर और हिंसक संगठन है. हक्कानी नेटवर्क की स्थापना कबीलाई सरदार जलालुद्दीन हक्कानी ने तब की थी जब अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत संघ का कब्ज़ा था. तालिबान का हिस्सा होने के नाते पाकिस्तान की ख़ुफिया एजेंसी[4] इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) ने भी उसकी मदद की. फिलहाल हक्कानी नेटवर्क को जलालुद्दीन हक्कानी के बेटे सिराजुद्दीन, अनस और खलील[5] चला रहे हैं. ये तीनों लोग तालिबान की नई सियासी और सत्ता की व्यवस्था[6] में प्रमुख पदों पर हैं. अफ़ग़ानिस्तान के दक्षिणी हिस्से के तालिबान के जो पारंपरिक सदस्य हैं (कंधार का होने की वजह से इन्हें कंधारिया कहा जाताहै), उन्हें भी सत्ता में प्रमुख पद मिले हैं. अमीर अल-मुमिनिन हिबतुल्लाह अखुंदज़ादा तालिबान के सर्वोच्च अफ़ग़ानी इस्लामी नेता हैं. कार्यवाहक प्रधानमंत्री मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद और गृह एवं शरणार्थी मंत्रालय का पद भी अपने पास रखकर हक्कानी नेटवर्क ने साबित कर दिया है कि अफ़ग़ानिस्तान की नई सरकार में उसकी कितनी अहमियत है. तालिबान सरकार में मुल्ला उमर के बेटे मुल्ला याकूब के पास रक्षा मंत्रालय है. सितंबर 2021 में[7] अफ़ग़ानिस्तान पर कब्जे के बाद तालिबान के अलग-अलग गुटों में सत्ता की हिस्सेदारी कैसे होगी, इसे लेकर आईएसआई के पूर्व प्रमुख फैज़ हामिद ने एक समझौता करवाया था. इससे ये साबित होता है कि इस वक्त पाकिस्तान ही अफ़ग़ानिस्तान का सबसे महत्वपूर्ण पड़ोसी, वार्ताकार और उस पर प्रभाव डालने में सक्षम देश है. हालांकि पिछले कुछ समय से दोनों देशों के बीच तनाव देखने को मिला है. खासकर जिस तरह तहरीक-ए-तालिबान ने पाकिस्तान सरकार और वहां की सेना के ख़िलाफ [b] जंग छेड़ रखी है.
1990 के दशक में अफ़ग़ानिस्तान में जो तालिबानी शासन था और अब जो सरकार है, उनके बीच कई समानताएं देखी जा सकती हैं. हालांकि दोहा समझौते को आधार बनाकर तालिबान अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने खुद की मार्केटिंग एक खुली सोच वाली सरकार के रूप में कर रहा है लेकिन हकीकत ये है कि तालिबान ने अपनी धार्मिक कट्टरता और विचारधारा[8] से ज़्यादा समझौता नहीं किया है. पश्चिमी देशों और अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी देशों की तालिबान से एक प्रमुख मांग ये रही है कि वो लड़कियों और महिलाओं को पढ़ने का मौका दे. उन्हें सियासत में समुचित हिस्सेदारी दे. लेकिन तालिबान के अलग-अलग गुटों में इसे लेकर मतभेद हैं. ऐसे में तालिबान को पश्चिमी देशों की मांग और अल्लाह के आदेश[9] (शरीयत)के मुताबिक शासन चलाने में संतुलन बनाने में मुश्किल आ रही है. तालिबान के सर्वोच्च नेता[10] हिबतुल्लाह अखुंदज़ादा ने कुछ साल पहले पाकिस्तान के बलूचिस्तान में कहा था कि एक मुजाहिद मदरसे में पढ़ेगा. एक करज़ई स्कूल में पढ़ेगा. ऐसे में अपने इस विचार से पलटना उनके और तालिबान के लिए बहुत मुश्किल होगा.
1996 से 2001 के बीच के तालिबानी शासन और मौजूदा सरकार की तुलना करें तो ये सामने आता है कि ये मुद्दे नब्बे के दशक में भी उठे थे. महिला अधिकार का मुद्दा हमेशा से तालिबान और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच विवाद का विषय रहा है. सत्ता में आने से पहले भी तालिबान जिस तरह शरिया कानून की व्याख्या करता है और उसी के हिसाब से क्रूरता से सज़ा देता है, उसे लेकर हमेशा विवाद होता रहा है. तालिबान के लिए महिला अधिकार जैसे मुद्दों पर अपनी पारंपरिक विचारधारा से अलग जाने का मतलब ये होगा कि वो अपने संस्थापक मुल्ला उमर के दिखाए रास्ते[11] से भटक रहा है. ये गौर करने वाली बात है कि तालिबान के जो वरिष्ठ नेता मौजूदा सरकार में फैसले लेने की ताकत रखते हैं, उनमें से कई नेता मुल्ला उमर के साथ काम कर चुके हैं. वो मुल्ला उमर की विचारधारा पर टिके रहेंगे. अगर वो इन मुद्दों पर अपनी राय बदलते हैं तो फिर उसका मतलब ये निकाला जाएगा कि वो पश्चिमी देशों के एजेंडे पर चल रहे हैं और जिसका वो पिछली सरकार के वक्त पर विरोध कर रहे थे. अगर ऐसा होता है तो फिर तालिबान के अलग-अलग गुटों में अंदरूनी खींचतान होगी[12] और फिर सरकार गिर भी सकती है. तालिबान को घरेलू मोर्चे पर इस्लामिक स्टेट ऑफ ख़ुरासन प्रोविंस (ISKP) का भी ख़तरा झेलना पड़ रहा है. इसके अलावा पाकिस्तान, ईरान और ताजिकिस्तान से सीमा विवाद को लेकर भी टकराव है.[13], [14]
तालिबान-अफ़ग़ानिस्तान संकट के समाधान में मिडिल पावर और क्षेत्रीय ताकतों का प्रवेश
अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ और अमेरिका दोनों ने ही सीधे दख़ल दी और दोनों ही देश नाकाम रहे. ऐसे में अब पश्चिमी एशिया, मध्य एशिया और दक्षिणी एशिया के कई देश अपने सामरिक लक्ष्यों और राष्ट्रीय हितों को साधने के लिए अफ़ग़ानिस्तान के मामले में शामिल होना चाह रहे हैं. रूस और अमेरिका तो अफ़ग़ानिस्तान से पूरी तरह से वापस हो चुके हैं. ऐसे में तालिबान के सियासी और भू-राजनीतिक मंसूबों से पैदा हो सकने वाले ख़तरों को कम करने में मिडिल पावर और क्षेत्रीय ताकतें अहम भूमिका निभा सकती हैं. हालांकि चीन ने तालिबान की नई सरकार के साथ कुछ सामरिक समझौते किए हैं लेकिन सुरक्षा के मामले में अफ़ग़ानिस्तान के करीबी पड़ोसी देशों के मुकाबले चीन का प्रभाव कम है.[15]
ऐसे में ये देखना अहम होगा कि सुरक्षा को लेकर बड़े पश्चिमी देशों की मदद के बिना ये क्षेत्रीय ताकतें गैर परम्परागत तरीके से अफ़ग़ानिस्तान में सरकार और सुरक्षा व्यवस्था चलाने वाले तालिबान से कैसे निपटती हैं. अगस्त 2021 में जब अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से वापस जाने का फैसला किया तब राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा कि था कि अमेरिका कूटनीतिक स्तर पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर अफ़ग़ानिस्तान के लोगों की मदद करता रहेगा. ये सुनिश्चित करेगा कि अफ़ग़ानी लोगों को अंतरराष्ट्रीय मदद मिलती रहे. अमेरिकी क्षेत्रीय कूटनीति और बातचीत के ज़रिए ये कोशिश कर रहेगा कि अफ़ग़ानिस्तान में हिंसा और अस्थिरता का माहौल ना रहे.[16] इसका अर्थ ये हुआ कि अमेरिका ने की सुरक्षा की जिम्मेदारी क्षेत्रीय ताकतों के हवाले कर दी. हालांकि तालिबान के ईरान और पाकिस्तान से रिश्तों पर काफी चर्चा हो चुकी है. लेकिन अफ़ग़ानिस्तान के अरब देशों की क्षेत्रीय ताकतों, खासकर क़तर के साथ संबंध पर ज़्यादा चर्चा नहीं हुई है जबकि क़तर के ही सहयोग से अमेरिका को दोहा समझौता कराने में मदद मिली.
मिडिल पावर या क्षेत्रीय ताकतों को परिभाषित करना आसान नहीं है. सैद्धांतिक रूप से ये सदियों पुरानी धारणा है. अगर इसकी शुरूआती परिभाषा को देखें तो पंद्रहवीं सदी में इटली में मिलान के मेयर जियोवानी बोतेरो ने मिडिल पावर ऐसे देश को कहा था जिसके पास खुद की इतनी ताकत और अधिकार हो कि वो “बिना किसी दूसरे देश के सहयोग के अपने पैरों पर खड़ा हो सके”.[17] ये एक तरह से सिर्फ मूल विचार है. दुनिया के भू-राजनीतिक परिदृश्य में मिडिल पावर की अवधारणा नेपोलियन के युद्धों और द्वितीय विश्व युद्ध[18] के बीच आई. उदाहरण के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान कनाडा के प्रधानमंत्री रहे मैकेंज़ी किंग ने कहा था कि उनका देश इस जंग में शामिल नहीं होगा.[19] इस शब्द का इस्तेमाल तब किया जाता है जब छोटे देश या राजतंत्र वाले साम्राज्य द्विध्रुवीय वैश्विक राजनीतिक व्यवस्था में शामिल हुए बगैर खुद को मज़बूत करने की कोशिश करते हैं. एशिया, अफ्रीका और साउथ अमेरिका के कई देश, जिनका उपनिवेशवाद का इतिहास रहा है और जो औपनिवेशिकवाद से स्वतंत्र हुए थे, वो खुद को मिडिल पावर कहलाना पसंद करते हैं. इस समय चल रहे रशिया-यूक्रेन युद्ध के दौरान भी ऐसे कई देश हैं जिन्होंने रूस की निंदा करने के लिए चलाई जा रही अमेरिका और पश्चिमी देशों की वैश्विक मुहिम का विरोध किया.[20]
इस पूरी वैश्विक व्यवस्था में भारत की स्थिति दिलचस्प है. 3.3 ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी और 1.4 अरब से ज़्यादा की आबादी होने के बावजूद भारत को मिडिल पावर[21] माना जाता है. अभी तक इस बात की स्पष्ट व्याख्या नहीं हो सकी है कि आखिर मिडिल पावर देश की परिभाषा क्या है. उनके प्रभाव को कैसे मापा जा सकता है. क्या राजनीतिक मकसद के लिए अपने पड़ोसी देशों या दूसरे क्षेत्रों में सैनिक कार्रवाई करने की क्षमता से इसका निर्धारण होता है. क्या आर्थिक ताकत के आधार से ये तय होता है या फिर आबादी और सैनिक के अनुपात के आधार पर किसी को मिडिल पावर देश घोषित किया जा सकता है.
अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की अगुवाई में जो जंग चली, वो इस क्षेत्र में करीब दो दशक तक चले अलग-अलग देशों के हितों को एक साथ ले आई. शुरू में अमेरिका का एक ही मक़सद था. ओसामा बिन लादेन को पकड़ना या मारना. ये लक्ष्य मई 2011 में हासिल हो गया जब पाकिस्तान के एबॉटाबाद इलाके में अमेरिकी सेना के स्पेशल ऑपरेशन में लादेन मारा गया.
अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की अगुवाई में जो जंग चली, वो इस क्षेत्र में करीब दो दशक तक चले अलग-अलग देशों के हितों को एक साथ ले आई. शुरू में अमेरिका का एक ही मक़सद था. ओसामा बिन लादेन को पकड़ना या मारना. ये लक्ष्य मई 2011 में हासिल हो गया जब पाकिस्तान के एबॉटाबाद इलाके में अमेरिकी सेना के स्पेशल ऑपरेशन में लादेन मारा गया. जिस इलाके में लादेन को शरण दी गई थी वो इलाका अफ़ग़ानिस्तान की तोरा-बोरा पहाड़ियों से करीब 500 किलोमीटर दूर है. इस घटना से ये भी साबित हुआ कि आतंकवाद के खिलाफ जंग में अमेरिका का सहयोगी होने के बावजूद पाकिस्तान किस तरह बेईमानी करता है. पाकिस्तान ऐसी दोहरी भूमिका इसलिए निभाता है क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान में उसके सामरिक हित अमेरिका के हितों से अलग हैं. पाकिस्तान का मकसद अपने क्षेत्रीय हित साधना है. पाकिस्तान चाहता है कि अफ़ग़ानिस्तान पर भारत का ज़्यादा प्रभाव ना हो. उसे आतंकवाद के खिलाफ जंग और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा की अमेरिका और पश्चिमी देशों की मुहिम से ज़्यादा मतलब नहीं है. अपने क्षेत्रीय हितों को प्राथमिकता देने का पाकिस्तान का ये नज़रिया 1971 की जंग में भारत के हाथों हार के बाद और मज़बूत हुआ. इस युद्ध में हार के बाद ही पाकिस्तान को अपना पूर्वी हिस्सा खोना पड़ा, जिसे अब बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है.[22]
अफ़ग़ानिस्तान युद्ध की आड़ में अब दक्षिण एशिया और खाड़ी देशों के मिडिल पावर देश अपने क्षेत्रीय हितों को साधने की कोशिश कर रहे हैं. ये मिडिल पावर वाले देश खुद को महाशक्तियों की छाया से दूर रखकर बड़ी सैनिक शक्ति वाले देशों की आपसी जंग में उलझने से भी बच सकते हैं, साथ ही अफ़ग़ानिस्तान में चले रहे संघर्ष में सीधे शामिल हुए बगैर में अपने क्षेत्रीय और राष्ट्रीय हितों का बेहतर तरीके से ख्याल रख सकते हैं. फिर चाहे वो सैनिक मामले हों या आर्थिक. हालांकि बात जब अफ़ग़ानिस्तान खासकर तालिबान की हो तो खाड़ी देशों और दक्षिण एशिया के देशों में हितों में थोड़ा टकराव होता है. उदाहरण के लिए सऊदी अरब ने अमेरिका और पाकिस्तान के साथ मिलकर अफ़ग़ानिस्तान के मुजाहिदीनों की मदद तब की थी, जब वो सोवियस संघ की सेना के ख़िलाफ लड़ रहे थे. लेकिन भारत, ईरान और ताजिकिस्तान जैसी क्षेत्रीय ताकतों ने अफ़ग़ानिस्तान की तरफ तभी कदम बढ़ाए जब सोवियत सेना वहां से वापस चली गई. लीडरशिप की व्यवस्था बन गई और 1996 में जब तालिबान ने सत्ता संभाली. इन देशों ने तालिबान के ख़िलाफ जंग में अहमद शाह मसूद और नॉर्दर्न अलायंस की मदद की. सैन्य विश्लेषक थॉमस विथिंगटन ने इन देशों को शुरूआती एंटी तालिबानी टीम[23] कहा था. नॉर्दर्न अलायंस के लड़ाके पंजशीर घाटी में रहकर काम करते थे. अगर आज की बात करें तो चीन शायद इकलौता देश है जो तालिबान से सीधे तौर पर बात कर रहा है. हालांकि तालिबान के साथ चीन का रिश्ता एक बड़े शक्तिशाली देश का है, क्षेत्रीय ताकत का नहीं.[24] सिर्फ पाकिस्तान ही तालिबान का क्षेत्रीय साझेदार देश है.
बड़ी महाशक्तियां और मिडिल पावर्स तालिबान शासित अफ़ग़ानिस्तान को मानवीय सहायता और विकास काम में मदद मुहैया कराने पर तो सहमत हैं लेकिन इस बात लेकर उनमें मतभेद हैं कि तालिबान को एक राजनीतिक ताकत के तौर पर कैसी भूमिका निभाने दी जाए. इस बार पर इन देशों की राय उनकी भू-राजनीतिक स्थिति, जातीय और सामारिक ज़रूरतों के हिसाब से तय होती है. यही वजह है कि तालिबान को लेकर आम राय बनाना मुश्किल है. तालिबान के लिए भी स्थायी विकास के लिए अफ़ग़ानिस्तान की सीमाओं को सुरक्षित रखना और देश में सुरक्षित माहौल बनाना एक चुनौती हो गया है. ये देखना दिलचस्प होगा कि तालिबान संयुक्त राष्ट्र (UN)जैसी बहुदेशीय संस्थाओं से कैसे संबंध रख पाता है. अपने जटिल क्षेत्रीय भू- राजनीतिक परिस्थिति की वजह से अफ़ग़ानिस्तान के पास ये क्षमता है कि वो मज़बूती से अपनी बात दुनिया के सामने रख सकता है. हालांकि तालिबान ने कहा है कि वो सभी देशों के साथ अच्छे रिश्ते चाहता है लेकिन तालिबान की विदेश नीति अब तक अपरिभाषित और अस्पष्ट है.[25]
अगस्त 2021 यानी तालिबान के कब्ज़े में आने के बाद से अफ़ग़ानिस्तान मिडिल पावर्स के लिए अपना प्रभाव दिखाने का एक मंच बन गया है. सऊदी अरब, यूनाइटेड अरब अमीरात, क़तर, ईरान और तुर्किये जैसे देश इस होड़ में शामिल हैं. इसके लिए वो अपने धार्मिक और वैचारिक मतभेदों को भी भुलाने को तैयार हैं. ये बात खास तौर पर सऊदी अरब के लिए सही है. इस्लाम धर्म में सऊदी अरब की काफी अहमियत है और अफ़ग़ानिस्तान और तालिबान के साथ ये ऐतिहासिक रूप से भी जुड़ा है.
अफ़ग़ानिस्तान की नई हकीकत: सऊदी अरब, यूएई और इस्लामिक सहयोग संगठन
1980 के दशक के बाद से सऊदी अरब में काफी बदलाव आ चुके हैं. तब सऊदी अरब उन अरब लड़ाकों को एक मंच मुहैया कराता था, जो सोवियत सेना के ख़िलाफ लड़ने के लिए मुजाहिदिनों की मदद करने अफ़ग़ानिस्तान जाते थे. मुजाहिदीनों को मज़बूत करने के सऊदी अरब के फैसले को अमेरिका की उस नीति का समर्थक माना जाता था, जो अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ के कब्ज़े के ख़िलाफ अपनाई थी. हालांकि जो अरब लड़ाके सोवियत सेना से लड़ने अफ़ग़ानिस्तान जाते थे और जिन्हें ‘अरब अफ़ग़ान’ कहा जाता था, वो ऐसा किसी देश की नीति के तहत नहीं करते थे, वो तो लड़ने के लिए इसलिए जाते थे क्योंकि उनकी और अफ़ग़ानिस्तान की विचारधारा एक ही थी और इस्लामिक भाईचारे की विचारधारा थी. पश्चिमी एशिया मामलों के एक्सपर्ट थॉमस हेगमर के मुताबिक ये कहना एक गलतफहमी है कि 1980 के दशक में जो अरब लड़ाके अफ़ग़ानिस्तान गए, उन्हें किसी देश का समर्थन हासिल था. इसी गलतफहमी ने ‘ब्लोबैक थ्योरी’ को जन्म दिया. ‘ब्लोबैक थ्योरी’ के मुताबिक जिन अरब अफगानों (और बाद में अल-क़ायदा) को अमेरिका और सऊदी अरब ने समर्थन दिया, वही अरब अफ़ग़ान लड़के बाद में अमेरिका और सऊदी अरब के ख़िलाफ हो गए. अरब देशों और पश्चिमी देशों की सरकारों ने इन विदेशी लड़ाकों की भर्ती को मौन सहमति ज़रूर दी लेकिन उन्होंने इन्हें आर्थिक मदद नहीं दी. इन विदेशी लड़ाकों को पैसे गैर सरकारी इस्लामिक चैरिटेबल संगठनों[26] की तरफ से दिए जाते थे. इतिहासकार माइकल रूबिन ने 2002 में अपने एक लेख में लिखा था कि स्थानीय अफ़ग़ानी लोग कई बार इन अरब लड़ाकों से नाराज़ भी हो जाते थे. हालांकि अफ़ग़ानी लोग इन अरब लड़ाकों की पैसे जुटाने की क्षमता की तो सराहना करते थे लेकिन जंग के मैदान में इनकी मौजूदगी को वो अपने लिए परेशानी बढ़ने की वजह मानते थे.[27]
लेकिन अब सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (MBS) और संयुक्त अरब अमीरत के प्रिंस मोहम्मद बिन ज़ायेद[28] के विचार काफी बदल चुके हैं. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 1990 के दशक के बाद से दुबई और अबु धाबी दुनिया के बड़े वित्तीय केंद्र के तौर पर उभरे हैं. UAE ने अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद अशरफ गनी और उनके परिवार को स्थायी तौर पर अपने यहां शरण दी है.[29] हालांकि सऊदी अरब, UAE और अमेरिका के बीच करीबी संबंध हैं, इसके बावजूद 2013 में अमेरिका और तालिबान के बीच पहली आधिकारिक वार्ता क़तर में हुई. उसी साल तालिबान ने दोहा में अपना पहला आधिकारिक राजनीतिक ऑफिस खोला, जिसने तालिबान और अमेरिका के बीच बातचीत के लिए एक अहम कड़ी की भूमिका निभाई. हालांकि उस दौरान तालिबान का शीर्ष नेतृत्व यानी तालिबान के बड़े नेता पाकिस्तान में रहते थे, अफ़ग़ानिस्तान में नहीं.[30]
क़तर को जिस तरह तालिबान और अमेरिका के बीच बातचीत करवाने में कामयाबी मिल रही थी, उसे लेकर शुरूआत में UAE खुश नहीं था. UAE को लगता था कि इसकी वजह से खाड़ी सहयोग परिषद में उसकी स्थिति कमज़ोर हो रही है. इसके साथ ही UAE को ये भी लगता था कि अमेरिका सरकार की नज़र में खाड़ी क्षेत्र में उसकी सर्वोच्चता पर भी इसका असर पड़ रहा है.
क़तर को जिस तरह तालिबान और अमेरिका के बीच बातचीत करवाने में कामयाबी मिल रही थी, उसे लेकर शुरूआत में UAE खुश नहीं था. UAE को लगता था कि इसकी वजह से खाड़ी सहयोग परिषद में उसकी स्थिति कमज़ोर हो रही है. इसके साथ ही UAE को ये भी लगता था कि अमेरिका सरकार की नज़र में खाड़ी क्षेत्र में उसकी सर्वोच्चता पर भी इसका असर पड़ रहा है. एक रिपोर्ट में ये कहा गया कि इसी वजह से UAE सरकार ने अमेरिका में अपने राजदूत यूसुफ अल- ओतयबा से नाराज़गी भी जताई कि आखिर क़तर को बातचीत कराने में कामयाबी क्यों मिल रही है और दोहा में तालिबान का राजनीतिक ऑफिस[31] कैसे खुल गया. न्यूयॉर्क टाइम्स अखबार ने 2011 में एक लीक ई-मेल के हवाले से ये रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि UAE से बाहर तालिबान का राजनीतिक कार्यालय[32] खुलने से सरकार नाखुश है. अमेरिका की नज़रों में अपनी अहमियत बढ़ाने के लिए UAE ने बहरीन के साथ मिलकर[33] सितंबर 2020 में इज़रायल के साथ शांति के लिए अब्राहम समझौते की पहल की. हालांकि, 2021 में अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान की शासन के बाद से सऊदी अरब और UAE ने तालिबान के नेताओं को लेकर सतर्कतापूर्ण नीति अपनाई है. हालांकि कुछ तालिबानी नेता आम नागरिक के तौर पर इन खाड़ी देशों में रहते हैं, लेकिन अब ये खाड़ी देश अफ़ग़ानिस्तान को लेकर वो नीतियां नहीं अपना सकते, जो 1990 के दशक में अपनाईं थीं.
2017 में कांधार शहर में अफ़ग़ानिस्तान में UAE के राजदूत जुमा मोहम्मद काबी की हत्या कर दी गई. ये आतंकी हमला गवर्नर हाउस परिसर में तब हुआ, जब वो एक प्रतिनिधिमंडल[34] के साथ वहां मौजूद थे. इस घटना से नाराज़ UAE के गुस्से[35] को शांत करने के लिए तालिबान ने इस हमले के लिए स्थानीय गुटों की आपसी प्रतिद्वंदिता और गुप्त खुफिया ईकाइयों यानी “कॉवर्ट इंटेलिजेंस सर्किल्स” को जिम्मेदार बताया. लेकिन इस हमले के बाद UAE ने अफ़ग़ानिस्तान में अपनी राजनयिक मौजूदगी को काफी कम कर दिया. सऊदी अरब भी उसी के नक्शे कदम पर चला और अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से दो साल में एक बार बातचीत का फैसला किया. UAE ने इस कांधार हमले के लिए हक्कानी नेटवर्क को जिम्मेदार माना. वो सार्वजनिक तौर पर इसका एलान भी करने वाला था लेकिन बाद में उसने फैसला किया कि इसे लेकर बंद कमरे में पाकिस्तान के साथ बातचीत की जाए. हालांकि, ये बातचीत UAE के लिए निराशाजनक रही. ऐसे में इस बात को लेकर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए 2021 में जिस तेज़ी से तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में कब्ज़ा किया, उसके लिए UAE तैयार नहीं था. UAE इस बात को लेकर भी बहुत निराश है कि अफ़ग़ानिस्तान की मौजूदा सरकार में हक्कानी नेटवर्क की अहम भूमिका है.[36]
इसके बाद से ही अफ़ग़ानिस्तान के मुद्दे को लेकर UAE और सऊदी अरब अब बहुपक्षीय दृष्टिकोण अपनाते हैं. हालांकि तालिबान के साथ रिश्तों को लेकर वो सतर्कतापूर्ण तरीके से द्विपक्षीय बातचीत भी करते हैं लेकिन दोनों देशों ने इस बात को कुबूल किया है कि तालिबान की अंतरिम सरकार[37] के साथ बातचीत के लिए सबसे बेहतर तरीका इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) को इसमें शामिल करना है. इससे वो सीधे तालिबान से ताल्लुक रखने से बच जाते हैं. इन देशों का ये भी मानना है कि उन्होंने जिस तरह पूर्व की तालिबानी सरकार को मान्यता दी थी, वो एक ऐतिहासिक गलती थी. अमेरिका की भी यही कोशिश है कि इस्लामिक विचारधारा होने की वजह से तालिबान के मामले में OIC ही ज़्यादा महत्वपूर्ण निभाए. संयुक्त राष्ट्र (UN) की भूमिका को अफ़ग़ानिस्तान में मानवीय सहायता पहुंचाने तक ही सीमित रखा गया है.
सऊदी अरब ने तो इस बार अफ़ग़ानिस्तान के मामलों से और भी ज़्यादा दूरी बना रखी है. 1980 और 1990 के दशक में सऊदी अरब ने अमेरिका की खुफिया एजेंसियों के साथ मिलकर अफ़ग़ान मुजाहिदीनों को करीब एक अरब डॉलर की आर्थिक मदद मुहैया कराई थी. हालांकि, ये पैसे सिर्फ़ सोवियत सेना से लड़ने पर ही खर्च नहीं किए गए. इनकी मदद से अफ़ग़ानिस्तान में कई विकास परियोजनाएं भी चलाईं गईं, जिससे अफ़ग़ानिस्तान के कबीलाई सरदारों के बीच चल रही आपसी जंग को ख़त्म किया जा सके. लेकिन इसमें ज़्यादा कामयाबी नहीं मिली. सऊदी अरब ने हेज़्ब-ए-इस्लामी के नेता और अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री गुलबुद्दीन हिकमतयार को अपनी तरफ मिलाने की कोशिश की. हज़ारों आम नागरिकों की हत्या करने की वजह से गुलबुद्दीन हिकमतयार को काबुल का कसाई यानी ‘बुचर ऑफ काबुल’ भी कहा जाता है. गुलबुद्दीन हिकमतयार ने सऊदी अरब से आर्थिक और राजनीतिक मदद तो ली लेकिन उसने 1990 में कुवैत पर इराक के हमले का सार्वजनिक तौर पर समर्थन किया जबकि सऊदी अरब इसका विरोध कर रहा था. इसके बाद सऊदी अरब ने अफ़ग़ानिस्तान में मुजाहिदीनों की मदद करनी बंद कर दी और सिर्फ मानवीय सहायता ही करने लगा.[38] दिलचस्प बात ये है कि जिस हेज़्ब-ए-इस्लामी ने अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़े के लिए तालिबान की मदद की, उसी हेज़्ब-ए-इस्लामी को अब अपने ऑफिस बंद करने पड़ रहे हैं. अफ़ग़ानिस्तान के ग्रामीण इलाकों में उसके सदस्यों पर हमले हो रहे हैं.[39]
मोहम्मद बिन सलमान की अगुआई में सऊदी अरब अपने यहां आधारभूत बदलाव ला रहा है. सऊदी अरब की कोशिश अपनी अर्थव्यवस्था में विविधता लाने की है जिससे उससे सिर्फ पेट्रोलियम उत्पादों के निर्यात पर ही निर्भर ना रहना पड़े. यही वजह है कि वो कट्टर इस्लामिक विचारधारा से उदार विचारधारा की तरफ बढ़ रहा है. इस तरह के बदलाव लाना सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से बहुत ज़ोखिम भरा है. इन बदलावों को ना सिर्फ घरेलू मोर्चे पर चरमपंथियों से चुनौती मिलेगी बल्कि देश से बाहर भी तालिबान जैसे कट्टरपंथी संगठनों के उभार से इन बदलावों को ख़तरा होगा.[40] अगर तालिबान और अल-क़ायदा जैसे कट्टरपंथी संगठनों को लोगों का व्यापक और स्वभाविक समर्थन मिलता है तो फिर ये सऊदी अरब ही नहीं बल्कि पूरे खाड़ी देशों में हो रहे राजनीतिक और आर्थिक बदलावों के लिए बड़ी चुनौती होगा. तालिबान की जीत पर फिलीस्तीन जिहादी संगठन हमास ने जिस तरह जश्न मनाया, वो चिंताजनक है. सऊदी अरब और यूनाइटेड अरब अमीरात के लिए ज़्यादा चिंता की बात ये है कि जॉर्डन की मुस्लिम ब्रदरहुड की राजनीतिक शाखा ने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की जीत को “अमेरिका के क्रूर कब्जे की हार”[41] के तौर पर परिभाषित किया है. इससे साफ है कि सऊदी अरब और UAE जैसे देशों के लिए कट्टरपंथ अब भी बड़ा ख़तरा बना हुआ है.
दिसंबर 2021 में इस्लामिक सहयोग संगठन ने OIC के मानवीय, सांस्कृतिक और सामाजिक मामलों के सहायक महासचिव तारिग अली बख़ीत को अफ़ग़ानिस्तान में अपना विशेष दूत नियुक्त किया. दिसंबर 2021 में ही अफ़ग़ानिस्तान को लेकर OIC की मीटिंग हुई, लेकिन इसमें किसी तरह की सहायता का कोई वादा नहीं किया गया. OIC के ज़रिए बातचीत करने का फैसला इसलिए किया गया क्योंकि सऊदी अरब और यूनाइटेड अरब अमीरात खुद को ना तो तालिबान के दोस्त के रूप में दिखाना चाहते हैं, ना ही दुश्मन के तौर पर पेश करना चाहते हैं.[42] उन्हें इस बात का एहसास है कि अफ़ग़ानिस्तान के मामलों में दख़ल देने के लिए सबसे करीबी देश पाकिस्तान और क़तर है, खासकर पाकिस्तान. ऐसे में इस्लामाबाद और दोहा की अनदेखी कर काबुल में अपनी प्रभावपूर्ण मौजूदगी दिखाने के लिए उन्हें अफ़ग़ानिस्तान में अपनी राजनयिक और सैनिक क्षमता को मज़बूत करना होगा.
UAE ने सितंबर 2021 में ही काबुल में अपने दूतावास को दोबारा खोल दिया था लेकिन फिलहाल इसका काम मानवीय सहायता देना और लोगों के बीच आपसी संपर्क बढ़ाने तक ही सीमित है.[43] UAE ऐसा कर सकता था क्योंकि 2017 में कांधार में उसके राजदूत की हत्या के बाद से ही काबुल में उसके दूतावास में कर्मचारियों की संख्या कम थी. सऊदी अरब ने भी नवंबर 2021 में काबुल में अपने दूतावास को दोबारा खोल दिया लेकिन फरवरी 2023 में उसने अचानक अपना काम रोककर दूतावास के सभी कर्मचारियों को पाकिस्तान भेज दिया. सऊदी अरब को ये ख़ुफिया सूचना मिली थी कि दूतावास परिसर में उसके कर्मचारियों पर हमला हो सकता है.[44] सऊदी दूतावास को अचानक इस तरह बंद किए जाने को कई लोग अफ़ग़ानिस्तान की विभिन्न स्थानीय गुटों की आपसी लड़ाई से होने वाले ख़तरों के तौर पर देख रहे हैं. हालांकि कुछ लोगों का ये भी कहना है कि इसके पीछे ईरान का हाथ हो सकता था. वो अफ़ग़ानिस्तान में अपने हित साधने के लिए सऊदी अरब को काबुल से बाहर करना चाहता है.[45]
सऊदी अरब तालिबान के साथ संबंध रखने को तैयार है लेकिन वो इस बात को लेकर चिंतित है कि तालिबान के अलग-अलग गुटों में ही एकजुटता की कमी है. अगर तालिबान खुद को बदलता है तो फिर सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात उसके साथ आपसी रिश्ते मज़बूत करने को तैयार हो जाएंगे.
सऊदी अरब ने तालिबान के साथ द्विपक्षीय बातचीत की भी पहल की है. तालिबान के प्रतिनिधियों के साथ बैठकें की हैं. तालिबान ने सऊदी अरब से अपने इस्लामिक विद्वानों को अफ़ग़ानिस्तान भेजने की अपील की लेकिन सऊदी अरब इस अपील पर सावधानीपूर्वक विचार कर रहा है. सऊदी अरब तालिबान के साथ संबंध रखने को तैयार है लेकिन वो इस बात को लेकर चिंतित है कि तालिबान के अलग-अलग गुटों में ही एकजुटता की कमी है. अगर तालिबान खुद को बदलता है तो फिर सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात उसके साथ आपसी रिश्ते मज़बूत करने को तैयार हो जाएंगे. तब तक OIC की ही ये जिम्मेदारी होगी कि वो अफ़ग़ानिस्तान में मानवीय सहायता मुहैया कराए क्योंकि यूक्रेन युद्ध और गाज़ा संकट की वजह से दुनिया का ध्यान अब उन क्षेत्रों पर है. OIC अब अपने इस्लामिक विचारधारा के भाईचारे की दुहाई देते हुए तालिबान को इस बात के लिए मनाने की कोशिश कर रहा है कि वो अफ़ग़ानिस्तान में लड़कियों की पढ़ाई और महिला अधिकारों[46] को बढ़ावा दे. यही मांग पश्चिमी देशों समेत दुनिया के बाकी देश भी कर रहे हैं. लेकिन यहां भी क़तर की अहम भूमिका है क्योंकि तालिबान के सबसे बड़े नेता हिबतुल्लाह अखुंदज़ादा तक क़तर की ही पहुंच है.[47]
तालिबान शासन से अंतरराष्ट्रीय समुदाय को कोई भी बात करनी होती है तो उसमें क़तर ही सबसे अहम भूमिका निभाता है. वैश्विक स्तर पर क़तर का कद तब से और भी बढ़ गया जब उसने कुछ खाड़ी देशों द्वारा उसके ख़िलाफ की गई नाकाबंदी का सफलता से मुकाबला किया. जून 2017 से जनवरी 2021 के बीच UAE, बहरीन और मिस्र[48] के समर्थन से सऊदी अरब ने क़तरकी नाकेबंदी की थी. इस दौरान क़तर ने तुर्किये के साथ अपने सामरिक संबंध मज़बूत किए और अब ये दोनों देश अफ़ग़ानिस्तान के मामलों को लेकर मिलकर काम कर रहे हैं. हालांकि अफ़ग़ानिस्तान को लेकर क़तर और तुर्किये के हित अलग हैं. उनका दृष्टिकोण और उनकी नीतियां भी अलग हैं.
‘नए’ अफ़ग़ानिस्तान पर तुर्किये और क़तर का असर
2017 में एक अमेरिकी टेलीविज़न नेटवर्क को दिए इंटरव्यू में अमेरिका में UAE के राजदूत यूसुफ अल-ओतैबा ने कहा था कि सऊदी अरब और यूनाइटेड अरब अमीरात के साथ क़तर के मतभेदों में बारे में हर कोई जानता है. ऐसे में ये महज संयोग नहीं हो सकता कि दोहा में हमास का शीर्ष नेतृत्व रहता है. दोहा में ही तालिबान का दूतावास है और दोहा में ही मुस्लिम ब्रदरहुड की भी लीडरशिप है. यूसुफ अल-ओतैबा ने कहा था कि क़तर जो कर रहा है, वो उनका देश नहीं कर सकता. UAE चाहता है कि खाड़ी देशों में धर्मनिरपेक्ष, समृद्ध, सशक्त और मज़बूत सरकारें हों. यूसुफ अल-ओतैबा के मुताबिक उनकी सरकार का क़तर के साथ मतभेद इसी बात को लेकर है कि वो खाड़ी देशों का भविष्य जैसा देखना चाहते हैं, क़तर की सोच उससे अलग है.[49]
हालांकि, इस बारे में अभी आखिरी तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता कि क्या क़तर की नाकेबंदी अपने लक्ष्यों को हासिल करने में कामयाब रही या फिर इसने मुसीबतों से लड़ने का क़तर का संकल्प और मजबूत किया. लेकिन इतना तो तय है कि इस नाकेबंदी की वजह से क़तर और तुर्किये करीब आए. क़तर के समर्थन में तुर्किये ने अपनी सेना वहां भेजी.[50] क़तर ने ईरान के साथ भी बातचीत के नए रास्ते खोले. ईरान को इस क्षेत्र में सऊदी अरब का दुश्मन[51] माना जाता है. क़तर एक मध्यस्थ के रूप में तालिबान और अमेरिका के बीच वार्ता भी करवा रहा है. क़तर चाहता है कि खाड़ी देशों और पश्चिमी देशों यानी दोनों जगह उसका प्रभाव बढ़े. इस मकसद में वो काफी हद तक कामयाब रहा है. मार्च 2022 में अमेरिका ने क़तर को एक अहम गैर-नाटो सहयोगी देश कहा था. खाड़ी क्षेत्र में क़तर पहला देश है, जिसके लिए अमेरिका ने ऐसा कहा.[52]
दोहा स्थित तालिबान के ऑफिस ने मुल्ला बरादर, शेर मोहम्मद अब्बास स्टानिकज़ई और सुहैल शाहीन जैसे तालिबानी नेताओं को अपनी छवि सुधारने और तालिबान की सरकार को अंतरराष्ट्रीय समुदाय की मान्यता दिलाने के क्षेत्र में काम करने का मौका दिया है. तालिबान के ये प्रतिनिधि बातचीत के ज़रिए दुनिया को ये बताने की कोशिश कर रहे हैं कि मौजूदा तालिबानी सरकार इसकी पूर्ववर्ती मुल्ला उमर सरकार की तुलना में ज़्यादा उदार है. इससे तालिबान की सरकार को वैधता मिलती है. ये नेता भी शांतिवर्ता के लिए नॉर्वे समेत कई देशों में जाते हैं. इस बातचीत से तालिबान को ये मान्यता मिलती दिख रही है कि वो महज एक विद्रोही सेना (इंसर्जेंट मिलिशिया)नहीं बल्कि अफ़ग़ानिस्तान की राजनीति का एक अहम खिलाड़ी है. क़तर से चलने वाला अल जज़ीरा न्यूज़ चैनल भी तालिबान के नेताओं को दुनिया के सामने अपनी बात रखने का मंच मुहैया कराता है. यही वजह है कि अगस्त 2021 में जब तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा किया था तो अल जज़ीरा ही इकलौता न्यूज़ नेटवर्क था, जिसे काबुल ने बिना किसी बाधा के कवरेज़ करने की सुविधा मिली थी.
क़तर की नाकेबंदी ने तुर्किये को इस बात के लिए एक शानदार मौका मुहैया कराया कि वो सऊदी अरब और UAE जैसी खाड़ी क्षेत्र की शक्तियों के सामने खुद को शक्तिशाली सुन्नी मुस्लिम प्रधान देश के तौर पर स्थापित कर सके. तुर्किये इकलौता इस्लामी देश है तो नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन (NATO)का सदस्य है. हालांकि अफ़ग़ानिस्तान का जटिल संकट तुर्किये को अपनी स्थिति मज़बूत करने का मौका नहीं दे रहा है. इसके अलावा इस वक्त तुर्किये की आर्थिक हालत भी खराब है. इसने भी भू-राजनीतिक मोर्चे पर बड़ी भूमिका निभाने की तुर्किये की महत्वाकांक्षा को कमज़ोर किया है.[53]
अफ़ग़ानिस्तान के साथ तुर्किये का नागरिक और सांस्कृतिक संबंध सदियों पुराने हैं. तुर्किये ने अफ़ग़ानिस्तान में अपने पहले कूटनीतिक मिशन की स्थापना 1921 में की थी. मार्च 2021 में दोनों देशों ने राजनयिक रिश्तों के सौ साल पूरे होने का जश्न मनाया. उस समय अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका समर्थित अशरफ गनी की सरकार थी. तब काबुल में तुर्किये के राजदूत ओगुज़ान इर्तुगुल ने कहा था कि तुर्किये हमेशा से अफ़ग़ानिस्तान में ऐसी शांति चाहता है, जिसकी अगुवाई अफ़ग़ानी लोग करें. उन्होंने कहा था कि तुर्किये ऐसी स्थायी शांति स्थापति करने में अफ़ग़ानी भाइयों की मदद करने को तैयार है, जहां अफ़ग़ानिस्तान के सभी समाज के लोग एक साथ आएं.[54]
तुर्किये ने 1996 की तालिबानी सरकार को मान्यता नहीं दी थी. हालांकि इसके बावजूद उसने काबुल में अपनी राजनयिक मौजूदगी बनाए रखी. अफ़ग़ानिस्तान में गृहयुद्ध के दौरान तुर्किये ने तालिबान के ख़िलाफ नॉर्दर्न अलायंस का साथ दिया. नॉर्दर्न अलायंस के मिलिट्री लीडर अब्दुल राशिद दोस्तम को 1996 और 2021 में अंकारा में शरण दी थी.
तुर्किये ने 1996 की तालिबानी सरकार को मान्यता नहीं दी थी. हालांकि इसके बावजूद उसने काबुल में अपनी राजनयिक मौजूदगी बनाए रखी. अफ़ग़ानिस्तान में गृहयुद्ध के दौरान तुर्किये ने तालिबान के ख़िलाफ नॉर्दर्न अलायंस का साथ दिया. नॉर्दर्न अलायंस के मिलिट्री लीडर अब्दुल राशिद दोस्तम को 1996 और 2021 में अंकारा में शरण दी थी. अफ़ग़ानिस्तान में तर्किये मूल के लोगों की भी अच्छी खासी आबादी है. इस वजह से तुर्किये के लिए अफ़ग़ानिस्तान के अंदरूनी और कबीलाई इलाकों तक पहुंच बनानी आसान होती है. तुर्किये ने अशरफ गनी और उससे पहले की हामिद करज़ई सरकार के दौरान भी सरकारी व्यवस्था में अपनी उपस्थिति बनाए रखी. इस दौरान अफ़ग़ानिस्तान में तुर्किये की दशा क़तर से बेहतर थी. हालांकि अब तालिबान सरकार ने तुर्किये की भूमिका को मानवीय सहायता और राजनयिक तौर पर मान्यता देने तक ही सीमित रखी है.
इंटरनेशनल सिक्योरिटी असिस्टेंस फोर्स (ISAF) के तहत तुर्किये की सेना भी 2001 के बाद से अफ़ग़ानिस्तान में तैनात थी. 2002 में उसने ISAF की कमान संभाली. हालांकि, इसने खुद को अफ़ग़ानिस्तान में चले रहे गृहयुद्ध से दूर ही रखा. तुर्किये की सेना ने काबुल के आसपास सुरक्षा की जिम्मेदारी को ही अपने पास रखा. तुर्किये ने बहुत सोच-समझकर खुद को जंग से दूर रखा. तुर्किये नहीं चाहता था कि उसे भी एक ऐसे देश के तौर पर देखा जाए जो अमेरिका के नेतृत्व में दूसरे देश में सशस्त्र दखल देता है. तुर्किये ISAF में सिर्फ इसलिए शामिल हुआ कि वो यूरोपीय देश का भरोसा जीत सके. तुर्किये इन देशों का विश्वास इसलिए जीतना चाहता कि वो यूरोपीयन यूनियन (EU)का सदस्य बनने के उसकी लंबे वक्त से जारी कोशिशों में मदद करें और उसे EU के सदस्य देश के तौर पर मान्यता दें. लंबे वक्त तक चले अफ़ग़ान युद्ध ने अमेरिका और यूरोपीयन यूनियन के साथ तुर्किये के रिश्तों में काफी उथल-पुथल पैदा की. तुर्किये के राष्ट्रपति रेचेप इर्दोगन ने अमेरिका पर आरोप लगाया कि उसने जुलाई 2016 में उनके खिलाफ तख्त़ापलट की साज़िश का समर्थन किया. हालांकि तख्त़ापलट की ये कोशिश नाकाम रही. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने तालिबान की जीत से पहले तुर्किये को अफ़ग़ानिस्तान में बड़ी भूमिका निभाने का ऑफर दिया. अमेरिका को उम्मीद थी कि इससे तुर्किये के साथ सामान्य रिश्ते बनाने में मदद मिलेगी और तालिबान के साथ बातचीत की प्रक्रिया में NATO का दखल भी बना रहेगा. तुर्किये ने काबुल एयरपोर्ट की सुरक्षा की जिम्मेदारी उठाने का प्रस्ताव दिया लेकिन तालिबान ने ये धमकी दी कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के बाद अगर बाहरी देश का एक भी सैनिक अफ़ग़ानिस्तान में मौजूदा रहेगा तो आक्रमणकारी समझा जाएगा और उसके ख़िलाफ ज़िहाद[55] छेड़ा जाएगा. आज काबुल एयरपोर्ट पर सुरक्षा की जिम्मेदारी तालिबान के पास है, जबकि ग्राउंड ऑपरेशन[56] का काम अबुधाबी की कंपनी GAAC संभालती है. नवंबर 2023 में प्लाई दुबई एयरलाइंस ने काबुल से पहली अंतरराष्ट्रीय उड़ान शुरू की.[57] इस कंपनी का मुख्यालय भी UAE में है. शारजाह की कंपनी एअर अरेबिया भी काबुल से जल्द ही हवाई सेवा शुरू कर सकती है. टर्किश एअरवेज़ और क़तर एअरवेज़ ने अभी तक काबुल से उड़ान सेवा शुरू नहीं की है. इससे ये साबित होता है कि तालिबान पर अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए अरब देशों के बीच कितनी कड़ी प्रतिस्पर्धा चल रही है.[58]
निष्कर्ष
मिडिल पावर्स और क्षेत्रीय शक्तियां, खासकर पश्चिमी एशिया के देश, तेज़ी से बदलती नई विश्व व्यवस्था में अपने लिए ज़्यादा बड़ी भूमिका चाहते हैं. G-20 से लेकर BRICS प्लस तक नई संस्थाएं खड़ी हो रही हैं जो अमेरिका और चीन[59] के बीच द्विध्रुवीय विश्व व्यवस्था का मुकाबला कर सकें. सितंबर 2023 में चीन ऐसा पहला देश बना जिसने तालिबानी के शासन वाले अफ़ग़ानिस्तान में अपना राजदूत नियुक्त किया.[60] दिलचस्प बात ये है कि अफ़ग़ानिस्तान के लिए अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि टॉम वेस्ट ने भविष्यवाणी की है कि चीन आर्थिक तौर पर अफ़ग़ानिस्तान की बड़े पैमाने पर मदद नहीं करेगा. ऐसे में अफ़ग़ानिस्तान और चीन के रिश्तों से अमेरिका को कोई दिक्कत नहीं है.[61]
पश्चिमी एशिया, दक्षिण एशिया और मध्य एशिया की क्षेत्रीय ताकतों के अफ़ग़ानिस्तान में अपने अलग-अलग हित हैं. यहां तक की आतंकवाद और सुरक्षा जैसे मुद्दों को लेकर भी इनके बीच मतभेद हैं. ये देश आतंकवाद के ख़तरों को दूर करने के लिए अलग-अलग दवाब डालते हैं. अमेरिका ने हाल ही में अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट ख़ुरासन प्रोविंस (ISKP) पर काबू पानेके लिए तालिबान की तरफ से की जा रही कोशिशों की सराहना की है, जबकि दूसरे देश इन दो आतंकवादी गुटों से अलग आतंकी इकोसिस्टम पर एक्शन करने की मांग करते हैं.[62]
बड़े पश्चिम एशियाई देश तालिबान को लेकर अब तक उदासीन दृष्टिकोण अपनाए हुए हैं, लेकिन उन्हें भी इस बात की चिंता है कि कहीं अफ़ग़ानिस्तान एक बार फिर इस्लामिक आतंकवाद का केंद्र ना बन जाए. मोहम्मद बिन सलमान ने इस बात को स्वीकार किया है कि आतंकवाद को लेकर सऊदी अरब की विरासत संदिग्ध है.
बड़े पश्चिम एशियाई देश तालिबान को लेकर अब तक उदासीन दृष्टिकोण अपनाए हुए हैं, लेकिन उन्हें भी इस बात की चिंता है कि कहीं अफ़ग़ानिस्तान एक बार फिर इस्लामिक आतंकवाद का केंद्र[63] ना बन जाए. मोहम्मद बिन सलमान ने इस बात को स्वीकार किया है कि आतंकवाद को लेकर सऊदी अरब की विरासत संदिग्ध है. 2001 में न्यूयॉर्क में हुए आतंकी हमले में शामिल ज़्यादातर हमलावर सऊदी मूल के ही थे. हालांकि इसके साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि अल-क़ायदा के निशाने पर सऊदी राजपरिवार के सदस्य भी थे. सऊदी अरब और क़तर के बीच मतभेद की एक बड़ी वजह यही है कि क़तर खाड़ी देश में राजनीतिक इस्लाम को समर्थन देता है.[64]
हालांकि तालिबान के ख़तरे का सामना करने के लिए सऊदी अरब और UAE जैसे अमेरिका के सहयोगी देश भी ये मानने लगे हैं कि तालिबान अब अफ़ग़ानिस्तान की एक सियासी हकीकत है और इससे निपटने का सबसे बेहतर तरीका ये है कि पाकिस्तान को इसमें शामिल किया जाए. इसने नई तरह की चिंताएं पैदा की है क्योंकि इससे पाकिस्तान को ये मौका मिल जाएगा कि वो आतंकवादी संगठनों का इस्तेमाल अपनी विदेश नीति में कर सकता है. ये पाकिस्तान को बातचीत में ज़्यादा ताकत देगा क्योंकि पाकिस्तान एक परमाणु सम्पन्न देश भी है. कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि खाड़ी क्षेत्र के विभिन्न देशों में पिछले कुछ वक्त में राजनयिक स्तर पर जिस तरह की नरमी आई है, अब्राहम समझौता हुआ है, सऊदी अरब और ईरान के संबंध सुधरे हैं. उसे देखते हुए ये कहा जा सकता है कि अब ये देश अफ़ग़ानिस्तान को एक साझा सुरक्षा के ख़तरे के नज़रिए से देखेंगे. खाड़ी देशों का अल्पकालिक मकसद तो ये होगा कि वो तालिबान को उतना नियंत्रण में रख सकें, जितना मुमकिन है. लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में राजनीतिक इस्लाम और चरमपंथ का उदय इन खाड़ी देशों को एक बार फिर इस बात के लिए मज़बूर करेगा कि वो भविष्य में अफ़ग़ानिस्तान की सुरक्षा की भी चिंता करें.
Endnotes
[1] Matthieu Aikins, “Inside the Fall of Kabul”, New York Times, December 10, 2021, https://www.nytimes.com/2021/12/10/magazine/fall-of-kabul-afghanistan.html
[2] Driss El-Bay, “Afghanistan: The pledge binding al-Qaeda to the Taliban”, BBC, September 01, 2021, https://www.bbc.com/news/world-asia-58473574
[3] Interview with Zbigniew Brzezinski, “How Jimmy Carter and I Started the Mujahideen”, Le Nouvel Observateur (France), January 15-16, 1998, https://www.outlookindia.com/website/story/how-jimmy-carter-and-i-started-the-mujahideen/213722
[4] Matt Wladman, “The Sun in the Sky: The Relationship Between Pakistan's ISI and Afghan Insurgents”, Crisis States Discussion Papers, no.18 (2010), https://www.files.ethz.ch/isn/117472/dp%2018.pdf
[5] Taliban’s Haqqani appears in public”, DW, June 03, 2022, https://www.dw.com/en/talibans-most-wanted-leader-haqqani-appears-in-public/a-61030993
[6] Jeff M. Smith, “The Haqqani Network: The New Kingmakers In Kabul”, War on the Rocks, November 12, 2021, https://warontherocks.com/2021/11/the-haqqani-network-afghanistans-new-power-players/
[7] Kamran Yousuf, “ISI Chief visits Kabul to meet Taliban leadership”, Tribune, September 05, 2021, https://tribune.com.pk/story/2318701/isi-chief-visits-kabul-to-meet-taliban-leadership
[8] John Butt, A Taleban Theory of State: A review of the Chief Justice’s book of jurisprudence, Afghanistan Analysts Network, September 03, 2023, https://www.afghanistan-analysts.org/en/reports/political-landscape/a-taleban-theory-of-state-a-review-of-the-chief-justices-book-of-jurisprudence/
[9] Daniel Victor, “Explained: Shariah law, and what it means for Afghan women”, Indian Express, August 27, 2021, https://indianexpress.com/article/explained/what-is-shariah-law-taliban-afghanistan-women-7462483/
[10] Fazelminallah Qazizai, “Why the Taliban View Education as a Weapon”, New Lines Magazine, April 04, 20222, https://newlinesmag.com/letter-from-kabul/why-the-taliban-view-education-as-a-weapon/
[11] “Mullah Omar- in his own words”, The Guardian, September 26, 2001, https://www.theguardian.com/world/2001/sep/26/afghanistan.features11
[12] Thomas Ruttig, “Have the Taliban Changed?”, CTC SENTINEL 14, no. 3 (2021), https://ctc.usma.edu/have-the-taliban-changed/
[13] Eltaf Najafizada, “Taliban Prepare Suicide Bomber in Water Dispute With Iran”, Bloomberg, August 07, 2023, https://www.bloomberg.com/news/articles/2023-08-07/taliban-prepare-suicide-bombers-in-water-dispute-with-iran?utm_source=website&utm_medium=share&utm_campaign=twitter
[14] “‘Won’t tolerate anymore’: Pakistan’s latest threat to Taliban ruled Afghanistan over ‘terror safe havens’”, Times of India, July 15, 2023, https://timesofindia.indiatimes.com/world/pakistan/wont-tolerate-anymore-pakistans-latest-threat-to-taliban-ruled-afghanistan-over-terror-safe-havens/articleshow/101783748.cms?from=mdr
[15] Akmal Dawi, “Isolated Taliban Find Active Diplomacy With China”, VOA News, May 25, 2023, https://www.voanews.com/a/isolated-taliban-find-active-diplomacy-with-china/7109217.html
[16] White House, “Remarks by President Biden on the End of the War in Afghanistan”, August 31, 2021 https://www.whitehouse.gov/briefing-room/speeches-remarks/2021/08/31/remarks-by-president-biden-on-the-end-of-the-war-in-afghanistan/
[17] Dong-Min Shin, “A Critical Review of the Concept of Middle Power”, E-International Relations, December 04, 2015, https://www.e-ir.info/2015/12/04/a-critical-review-of-the-concept-of-middle-power/
[18] Carsten Holbraad, “The Role of Middle Powers”, Cooperation and Conflict 6, no. 2 (1971): 77–90, http://www.jstor.org/stable/45082994
[19] F. H. Soward, “On Becoming and Being a Middle Power: The Canadian Experience”, Pacific Historical Review 32, no. 2 (1963): 111–36, https://www.jstor.org/stable/4492152
[20] Shivshankar Menon, “The Fantasy of the Free World”, Foreign Affairs, April 04, 2022, https://www.foreignaffairs.com/articles/india/2022-04-04/fantasy-free-world
[21] “India’s GDP grows by 7.2% in FY23: Govt data”, Times of India, May 31, 2023, https://timesofindia.indiatimes.com/business/india-business/indias-gdp-grows-by-7-2-in-fy23-govt-data/articleshow/100651861.cms?from=mdr
[22] Michael Rubin, Who is Responsible for the Taliban?, The Washington Institute for Near East Policy, March 01, 2022, https://www.washingtoninstitute.org/policy-analysis/who-responsible-taliban
[23] Thomas Withington, “The early anti-Taliban team”, Bulletin of Atomic Scientists 57, no.6 (2001): 13-15, https://journals.sagepub.com/doi/pdf/10.2968/057006004
[24] Vinay Kaura, China draws closer to the Taliban as regional foreign ministers prepare to meet in Beijing, Middle East Institute, March 24, 2022, https://www.mei.edu/publications/china-draws-closer-taliban-regional-foreign-ministers-prepare-meet-beijing
[25] “Want good relations with all countries, to work for Afghanistan, says Taliban”, Hindustan Times, March 03, 2020, https://www.hindustantimes.com/india-news/taliban-says-want-good-relations-with-all-countries-including-india/story-UxvJdURUXEINkDLNXY6TMK.html
[26] Thomas Hegghammer, “The Rise of Muslim Foreign Fighters”, International Security 35, no. 3 (2011): 53-94, https://www.belfercenter.org/sites/default/files/files/publication/The_Rise_of_Muslim_Foreign_Fighters.pdf
[27] Michael Rubin, Who is Responsible for the Taliban?, The Washington Institute for Near East Policy, March 01, 2022, https://www.washingtoninstitute.org/policy-analysis/who-responsible-taliban
[28] David D. Kirkpatrick, “The Most Powerful Arab Ruler Isn’t M.B.S., It’s M.B.Z”, New York Times, June 02, 2019, https://www.nytimes.com/2019/06/02/world/middleeast/crown-prince-mohammed-bin-zayed.html
[29] Marc Santora, Matthew Rosenberg, and Adam Nossiter, “Ghani has taken refuge in UAE, says Dubai”, Telegraph India, August 19, 2021, https://www.telegraphindia.com/world/ghani-has-taken-refuge-in-uae-says-dubai/cid/1827061
[30] Karen DeYoung, “U.S. to launch peace talks with Taliban”, Washington Post, June 18, 2013, https://www.washingtonpost.com/world/national-security/us-to-relaunch-peace-talks-with-taliban/2013/06/18/bd8c7f38-d81e-11e2-a016-92547bf094cc_story.html
[31] David D. Kirkpatrick, “Persian Gulf Rivals Competed to Host Taliban, Leaked Emails Show”, New York Times, July 31, 2017, https://www.nytimes.com/2017/07/31/world/middleeast/uae-qatar-taliban-emails.html
[32] Kirkpatrick, “Persian Gulf Rivals Competed to Host Taliban, Leaked Emails Show
[33] "The Abraham Accords Declaration," September 15, 2020, https://www.state.gov/wp-content/uploads/2020/10/Abraham-Accords-signed-FINAL-15-Sept-2020-508-1.pdf
[34] “Five UAE officials killed in Kandahar attack”, France 24, January 11, 2017, https://www.france24.com/en/20170111-afghanistan-uae-diplomats-killed-kandahar-attack
[35] Jibran Ahmad, “Taliban Seeks to reassure UAE over Afghanistan Attack”, Reuters, January 19, 2017, https://www.reuters.com/article/us-afghanistan-attack-idUSKBN15320B
[36] Interview conducted by the author in April 2022
[37] “The special envoy of OIC Secretary General arrives Afghan capital Kabul,” Organisation of Islamic Cooperation, March 6, 2022, https://www.oic-oci.org/topic/?t_id=32880&t_ref=21663&lan=en
[38] Tam Hussein, “Ex-Saudi Intelligence Head Weighs In on Afghanistan”, New Lines Magazine, October 11, 2021, https://newlinesmag.com/review/ex-saudi-intelligence-head-weighs-in-on-afghanistan/
[39] Afghan Analyst, September 17, 2023, Twitter (also known as X), https://twitter.com/AfghanAnalyst2/status/1703368222270017875
[40] “Many Saudis are seething at Muhammad bin Salman’s reforms”, The Economist, January 08, 2022, https://www.economist.com/middle-east-and-africa/2022/01/06/many-saudis-are-seething-at-muhammad-bin-salmans-reforms
[41] Aaron Magid, and Mohammad Barhouma, New Political and Security Challenges for Jordan and Gulf States After U.S. Withdrawal from Afghanistan, Carnegie Endowment for International Peace, September 17, 2021, https://carnegieendowment.org/sada/85367
[42] Interview with subject 1 on condition of anonymity
[43] Zaini Majeed, “‘A positive step’: UAE Reopens Embassy in Afghanistan; Taliban Says ‘we have good relations’”, Republic World, November 21, 2021, https://www.republicworld.com/world-news/rest-of-the-world-news/uae-reopens-embassy-in-afghanistan-taliban-says-we-have-good-relations.html
[44] Nizamuddin Rezahi, “Amid Security Threats, Saudi Arabia Closes its Embassy in Kabul”, Khaama Press, February 06, 2023, https://www.khaama.com/amid-security-threats-saudi-arabia-closes-its-embassy-in-kabul/
[45] Lynne O’Donnell, “Why Did Saudi Diplomats Leave Kabul?”, Foreign Policy, February 15, 2023, https://foreignpolicy.com/2023/02/15/afghanistan-saudi-diplomats-flee-kabul-taliban/
[46] “Muslim Scholars Delegation to Afghanistan Meets the Ministers of Education and Higher Education,” Organisation of Islamic Cooperation, September 9, 2023, https://www.oic-oci.org/topic/?t_id=39474&t_ref=26599&lan=en
[47] Ayaz Gul, “Taliban chief’s rare meeting with Qatar reignites debate on fate of Afghan women”, Voice of America, June 1, 2023, https://www.voanews.com/a/taliban-chief-s-rare-meeting-with-qatar-official-reignites-debate-on-fate-of-afghan-women-/7118894.html
[48] Marc Jones, “Hacking, Bots and Information Wars in the Qatar Spat”, POMEPS Briefings 31, (2017): 9-10, https://pomeps.org/wp-content/uploads/2017/10/POMEPS_GCC_Qatar-Crisis.pdf
[49] Embassy of the United Arab Emirates- Washington, “Highlights from Ambassador Yousef Al Otaiba July 26 Interview on the Charlie Rose Show”, Youtube, July 27, 2017, https://www.youtube.com/watch?v=tjhCFMQuW6E
[50] Paul Alexander, “Turkey Agrees to Send up to 3,000 Troops to Qatar Amid Gulf Diplomatic Crisis”, VOA News, June 08, 2017, https://www.voanews.com/a/turkey-agrees-to-send-up-to-3000-troops-to-qatar-amid-gulf-diplomatic-crisis/3892808.html
[51] Nader Kabbani, The blockade on Qatar helped strengthen its economy, paving the way to stronger regional integration, Brookings, January 19, 2021, https://www.brookings.edu/blog/order-from-chaos/2021/01/19/the-blockade-on-qatar-helped-strengthen-its-economy-paving-the-way-to-stronger-regional-integration/
[52] “US officially designates Qatar as a major non-NATO ally”, Al Jazeera, March 10, 2022, https://www.aljazeera.com/news/2022/3/10/us-officially-designates-qatar-as-a-major-non-nato-ally
[53] Gulcin Ozkan, “Erdoğan has wrecked Turkey’s economy- so what next?”, The Conversation, March 12, 2023, https://theconversation.com/erdogan-has-wrecked-turkeys-economy-so-what-next-205502
[54] Oğuzhan Ertuğrul, “Celebrating 100 Years of Turkish-Afghan Diplomatic Relations”, Tolo News, March 01, 2021, https://tolonews.com/opinion170362#:~:text=The%20Turkish%20Embassy%20became%20the,to%20recognize%20the%20Ankara%20Government.
[55] Ayaz Gul, “Taliban Threaten Turkish Troops With ‘Jihad’ of They Stay in Afghanistan”, VOA News, July 13, 2021, https://www.voanews.com/a/south-central-asia_taliban-threaten-turkish-troops-jihad-if-they-stay-afghanistan/6208200.html
[56] “UAE firm signs contract with Afghanistan to manage air traffic across the country”, AFP, September 9 2022, https://travel.economictimes.indiatimes.com/news/aviation/international/uae-firm-signs-contract-with-afghanistan-to-manage-air-traffic-across-the-country/94093433
[57] “FlyDubai flights to Kabul resume”, TOLO News, November 15, 2023, https://tolonews.com/afghanistan-186041
[58] Ayaz Gul, “Turkey, Qatar agree to jointly run Kabul airport, present plan to the Taliban”, VOA News, December 24, 2021, https://www.voanews.com/a/turkey-qatar-agree-to-jointly-run-kabul-airport-present-plan-to-taliban-/6369052.html
[59] Tim Sweijs and Michael J Mazarr, “Mind the Middle Powers”, War On The Rocks, April 4, 2023, https://warontherocks.com/2023/04/mind-the-middle-powers/
[60] “Taliban gives a warm welcome to China’s new ambassador to Afghanistan,” Al Jazeera, September 13, 2023, https://www.aljazeera.com/news/2023/9/13/taliban-gives-a-warm-welcome-to-chinas-new-ambassador-to-afghanistan
[61] Stimson Center, “US police on Afghanistan: A conversation with Tom West”, YouTube, September 12, 2023, https://www.youtube.com/watch?v=sz-80ArSyFE&t=3135s
[62] David Ignatius, “In Afghanistan, the Taliban has all but extinguished Al Qaeda”, The Washington Post, September 14, 2023, https://www.washingtonpost.com/opinions/2023/09/14/al-qaeda-afghanistan-taliban-destroyed/
[63] Kabir Taneja, “From war to peace: The regional stakes in Afghanistan’s future”, Observer Research Foundation, March 26, 2021, https://www.orfonline.org/research/from-war-to-peace-the-regional-stakes-in-afghanistans-future/
[64] Peter Atiken, “Bret Baier’s week in Saudi Arabia yields behind the scenes look at country in transition”, Fox News, September 20, 2023, https://www.foxnews.com/world/brett-baiers-week-saudi-arabia-yields-look-country-transition-tectonic-changes
FootNotes
[a] सऊदी अरब ने आम तौर पर फंडिंग में मदद की.
[b] तहरीक-ए-तालिबान पूरे पाकिस्तान में शरिया कानून लागू करना चाहता है और वो अफगानिस्तान सीमा के पास स्थित इलाकों को पाकिस्तान से आज़ाद करना चाहता है. ये संगठन पाकिस्तान में कई आतंकी हमले और बम धमाकों के लिए जिम्मेदार रहा, जिसमें सैंकड़ों लोगों की जान गई.
[c] दोहा समझौता फरवरी 2020 में अमेरिका और तालिबान के बीच कतर की राजधानी दोहा में हुआ. इसके बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान में मौजूद नाटो की सेना को वापस बुला लिया. इसी के बाद तालिबान के साथ उसकी जंग ख़त्म हो गई.
[d] करज़ई का मतलब अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई से है. हामिद करज़ई के ऐसे व्यक्ति के तौर पर देखा जाता था, जिसने मदरसे में नहीं बल्कि विदेश में पढ़ाई की है. करज़ई ने 1979 से 1983 के बीच भारत के हिमाचल प्रदेश में पढ़ाई की.
[e] नॉर्दर्न अलायंस यूनाइटेड फ्रंट का ऐसा सैनिक गठबंधन था, जो 1989 में अफगानिस्तान से सोवियत सेना की वापसी के बाद काबुल पर शासन कर रहा था. 1996 में इसे तालिबान ने सत्ता से हटा दिया. इस नॉर्दर्न अलायंस में अफगानिस्तान के और भी कई कबीलाई सरदार शामिल थे जिन्होंने 1996 से 2001 तक तालिबान के ख़िलाफ जंग लड़ी.
[f] तालिबान के दोबारा सत्ता में आने के बाद मसूद के बेटे ने पंजशीर घाटी में फिर विद्रोह को बुलंद करने की कोशिश की.
[g] यूनाइटेड अरब अमीरात के पांच और राजनयिक मारे गए.
[h] अल जज़ीरा ने अरब विद्रोह के दौरान और फिलीस्तीन के मुद्दे पर जिस तरह की भड़काऊ कवरेज़ की, वो भी सऊदी अरब और UAE के साथ कतर के तनाव की एक वजह है.
[i] अफगानिस्तान की काम एअरलाइंस और एरिना एअरलाइंस ने UAE, सऊदी अरब, तुर्किये और भारत के लिए अपनी उड़ानें जारी रखीं.
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