Author : Harsh V. Pant

Originally Published नवभारत टाइम्स Published on Apr 02, 2024 Commentaries 0 Hours ago

इन दस वर्षों में उन्होंने भारतीय विदेश नीति को ऐसा रूप दिया, जिसके बारे में पहले शायद ही किसी ने कल्पना की हो. 

मोदी सरकार में कैसी बदली भारत की विदेश नीति

राजनीति में एक दिन भी काफी लंबा समय हो सकता है, लेकिन विदेश नीति में एक दशक को भी अक्सर गंभीर मूल्यांकन के लिहाज से पर्याप्त नहीं माना जाता. हालांकि, पिछला दशक इस मामले में अपवाद रहा है. इस दौरान वैश्विक राजनीति में आए बदलावों की प्रकृति तो खास है ही, इनका दायरा भी व्यापक रहा है. ऐसे में भारतीय विदेश नीति में भी बुनियादी बदलाव आना स्वाभाविक है. लेकिन विदेश नीति में आए इन बदलावों पर वैश्विक हालात और समीकरणों के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत भागीदारी की भी अमिट छाप नजर आती है.

याद किया जा सकता है कि मोदी जब 2014 में सत्ता में आए थे तो उन्हें एक ऐसा क्षत्रप बताया जा रहा था जिसे विदेशी नीति का कोई अनुभव नहीं था. ‘हिंदू राष्ट्रवादी नेता’ की उनकी छवि को भी खास तौर पर इस्लामी राष्ट्रों के साथ अच्छे रिश्तों की राह में बाधा माना जा रहा था. लेकिन मोदी ‘इंडिया फर्स्ट’ के मंत्र को केंद्र में रखते हुए एक व्यावहारिक विदेश नीति को अपनाकर विरोधियों और समर्थकों दोनों को चौंकाने में कामयाब रहे. इन दस वर्षों में उन्होंने भारतीय विदेश नीति को ऐसा रूप दिया, जिसके बारे में पहले शायद ही किसी ने कल्पना की हो. 

पीएम मोदी की अगुवाई में सबसे बड़ा बदलाव यह आया कि वैश्विक मंच पर न केवल अहम भूमिका निभाने बल्कि रूल मेकर के रोल में आने की नई दिल्ली की आकांक्षा लगातार मजबूत होती गई.

रूल मेकर का रोल

पीएम मोदी की अगुवाई में सबसे बड़ा बदलाव यह आया कि वैश्विक मंच पर न केवल अहम भूमिका निभाने बल्कि रूल मेकर के रोल में आने की नई दिल्ली की आकांक्षा लगातार मजबूत होती गई. वैश्विक मंच पर मोदी की कूटनीति ने भारतीय आकांक्षाओं को नए पंख दिए.

इसका नतीजा यह हुआ कि पिछले दशक तक वैश्विक मामलों में अहम भूमिका की पेशकश ठुकराने वाला देश एक ऐसे राष्ट्र में तब्दील हो गया, जो ग्लोबल गवर्नेंस में योगदान करने के लिए हमेशा आगे नजर आता है. पिछले दिनों सोमालिया के पास समुद्री डाकुओं के चंगुल में फंसे एक कमर्शियल जहाज को छुड़ाने का भारतीय नौसेना का अभियान इस बात का ताजा सबूत है.

मोदी के इस एक दशक के दौरान घरेलू और विदेशी का कृत्रिम विभाजन खत्म हो गया. भारत की मुख्य प्राथमिकता घरेलू मोर्चे पर विकास के जरिए हो रही कायापलट ही रही. भारतीय कूटनीति भी विकास संबंधी राष्ट्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति के एक साधन के रूप में संचालित होती रही. इसने बाहरी दुनिया से हमारे संपर्कों को एक खास व्यावहारिक नजरिया दिया जिसके तहत अब विचारधारा के बजाय भागीदारी महत्वपूर्ण भूमिका में आ गई.

एक बेहतरीन उदाहरण तब सामने आया, जब यूक्रेन युद्ध के बीच भारत पश्चिमी देशों के साथ करीबी रिश्ता बनाए रखते हुए रूस से अपने विशिष्ट संबंध भी कायम रखने में कामयाब रहा.

संबंध राष्ट्रीय जरूरतों से तय होने लगे. इसका एक बेहतरीन उदाहरण तब सामने आया, जब यूक्रेन युद्ध के बीच भारत पश्चिमी देशों के साथ करीबी रिश्ता बनाए रखते हुए रूस से अपने विशिष्ट संबंध भी कायम रखने में कामयाब रहा.

चीन पर ध्यान

इस दशक के दौरान जो सबसे बड़ा बदलाव इस मामले में देखने को मिला, वह है पाकिस्तान के साथ उलझे रहने के बजाय बंगाल की खाड़ी के समुद्री भूगोल पर बढ़ता जोर, जिससे दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच जुड़ाव को बढ़ावा मिलता है. इसे एक बड़ी उपलब्धि इस रूप में भी कही जा सकती है कि भारत के लिए पाकिस्तान के बजाय अपनी असली रणनीतिक चुनौती चीन पर ध्यान केंद्रित करना आसान हो गया है.

गलवान घाटी में हुई भिड़ंत के बाद भारत ने यह स्टैंड लिया कि जब तक सीमा पर हालात सामान्य नहीं हो जाते, तब तक दोनों देशों के रिश्ते भी सामान्य नहीं हो सकते. देखा जाए तो यह रुख बेहद कड़ा है, लेकिन पीछे हटने की कोई सूरत नहीं. पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया में भारत की बढ़ती मौजूदगी और हिंद प्रशांत क्षेत्र की सामरिक समीकरणों को आकार देने में भारत की बढ़ती दिलचस्पी नई वास्तविकता की ओर संकेत करती हैं. भारत अब अपने लिए बड़ी वैश्विक और क्षेत्रीय भूमिका सुनिश्चित करना चाहता है. इसलिए उसे पीछे हटना मंजूर नहीं.

पिछले कुछ वर्षों में भारत, विरोधियों को चुनौती देने और वैचारिक पृष्ठभूमि की चिंता किए बगैर दोस्तों को साथ लाने में सफल रहा है. चाहे शी चिनफिंग के बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव का 2014 से विरोध करने की बात हो या उसकी सैन्य आक्रामकता का उसी की शैली में जवाब देने की. चाहे किसी औपचारिक गठबंधन में गए बगैर ही अमेरिका से करीबी स्थापित करने की बात हो या यूरोपीय देशों के सहयोग से अपनी घरेलू क्षमता बढ़ाने की. भारत ने इस दौरान गजब की व्यावहारिकता दिखाई है.

अतीत में सिद्धांत को लेकर उलझे रहने वाला भारत आज विश्व मंच पर एक जिम्मेदार स्टेकहोल्डर के तौर पर मौजूद है. कोरोना महामारी के दौरान उसकी वैक्सीन मैत्री पहल के जरिए दुनिया इस नई भूमिका में उसके आत्मविश्वास की झलक देख चुकी है. भारत अब वैश्विक समस्याएं हल करने में दिलचस्पी ले रहा है. नेतृत्वहीनता के दौर से गुजर रही दुनिया में मोदी के नेतृत्व ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी एक अलग छाप छोड़ी है. इसका ताजा उदाहरण है भारत की G20 अध्यक्षता.

नेतृत्वहीनता के दौर से गुजर रही दुनिया में मोदी के नेतृत्व ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी एक अलग छाप छोड़ी है. इसका ताजा उदाहरण है भारत की G20 अध्यक्षता.

महत्वाकांक्षी नजरिया

वैश्विक राजनीति के इस चुनौतीपूर्ण दौर में मोदी ने भारत को एक अनोखी और विशेष आवाज दी है. आज किसी भी अन्य बड़ी शक्ति के मुकाबले भारतीय अपने भविष्य को लेकर ज्यादा महत्वाकांक्षी नजरिया रखते हैं और यही चीज उनके विदेशी संबंधों को तय करने में सबसे अहम भूमिका निभा रही है. मोदी का नेतृत्व उस भावना को न केवल समझ रहा है बल्कि उसका प्रभावी इस्तेमाल भी कर रहा है. मोदी की खासियत है कि वह इस राष्ट्रीय आकांक्षा को अपनी विदेश नीति में गूंथने के साथ-साथ अपनी छवि से भी जोड़ने में सफल रहे हैं.

यह लेख नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है

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