Occasional PapersPublished on Mar 02, 2024
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भारत में पंचायती संस्थानों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधि: प्रभाव और चुनौतियों का विस्तृत विश्लेषण!

  • Sunaina Kumar
  • Ambar Kumar Ghosh

    भारत के 73वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम ने स्थानीय सरकारों यानी गांव से लेकर ज़िले स्तर तक की पंचायती राज संस्थाओं के सशक्तिकरण का काम किया है. इस संवैधानिक संशोधन अधिनियम ने पंचायती राज संस्थानों में चुनाव के दौरान न केवल एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करने का मार्ग सुनिश्चित किया, बल्कि पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने का भी काम किया है. ग्रामीण पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी के मामले में भारत दुनिया के अग्रणी देशों में से एक है. भारत में 1.45 मिलियन से अधिक महिलाएं स्थानीय स्तर पर फैसले लेने में अपनी प्रमुख भूमिका निभाती हैं. ज़ाहिर है कि स्थानीय शासन, सतत विकास और लैंगिक समानता के बीच निर्वाचित महिला प्रतिनिधि एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं. यह अलग बात है कि देश भर में लोकल गवर्नेंस में महिलाओं के योगदान को उतना महत्व नहीं दिया जाता है, जितना दिया जाना चाहिए. इस पेपर में ग्रामीण भारत में स्थानीय स्व-शासन में महिलाओं की भागीदारी और उनके लगातार बढ़ते प्रतिनिधित्व का आकलन किया गया है. इसके अलावा महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाने की राह में आने वाली चुनौतियों का भी विस्तृत विश्लेषण किया गया है. इसके साथ ही इस पेपर में स्थानीय लोकतांत्रिक सरकार में महिलाओं की भागीदारी को और अधिक प्रोत्साहित करने के लिए प्रस्तावित नीतिगत सिफ़ारिशों पर भी विस्तार से चर्चा की गई है.

Attribution:

एट्रब्यूशन: सुनैना कुमार और अंबर कुमार घोष, “भारत में पंचायती संस्थानों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधि: प्रभाव और चुनौतियों का विस्तृत विश्लेषणओआरएफ़ ऑकेजनल पेपर नंबर 425, जनवरी 2024, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन.

प्रस्तावना

राजनीति में भागीदारी के लिए महिलाओं को प्रोत्साहित करना कई मायने में महत्वपूर्ण है. राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ने से न केवल लोकतंत्र को सशक्त किया जा सकता है, बल्कि इससे लैंगिक समानता को भी मज़बूती मिलती है. कहने का मतलब यह है कि राजनीति में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी के कई व्यापक राजनीतिक फायदे तो हैं ही, इसके कई आर्थिक लाभ भी हैं. इस मुद्दे पर किए गए शोधों के मुताबिक़ राजनीति में महिलाओं की सहभागिता से जब नीतियां बनाई जाती हैं, तो उनके बेहद प्रभावशाली नतीज़े हासिल होते हैं. इसके अलावा महिलाओं का अधिक प्रतिनिधित्व होने से राजनीति में भ्रष्टाचार कम होता है, लड़ाई-झगड़े और विवादों की संभावना कम हो जाती है. इतना ही नहीं राजनीति में जब अधिक संख्या में महिलाओं की भागीदारी होती है, तो उनकी कोशिश होती है कि श्रम बल में महिलाओं को अधिक से अधिक अवसर दिए जाएं, साथ ही उनकी यह भी कोशिश होती है महिलाओं की आर्थिक उन्नति भी हो.[1] वास्तविकता में क्रिटिकल मास सिद्धांत के अनुसार शासन से जुड़े ढांचे में या विभागों में महिलाओं की मौज़ूदगी नीति निर्धारण के लिए बेहद अहम है. इस सिद्धांत में राजनीति में भागीदारी करने वाली महिला प्रतिनिधियों को 'महत्वपूर्ण जनसमूह' बताया गया है. साथ ही इस सिद्धांत के अनुसार इन महिलाओं की मौज़ूदगी इतनी व्यापक होनी चाहिए, जो न सिर्फ़ राजनीति और शासन की प्रक्रिया में महिलाओं का स्पष्ट प्रतिनिधित्व सुनिश्चत करे, बल्कि महिला आबादी के सशक्तिकरण के लिए किए जाने वाले नीतिगत बदलावों में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाए. [2] राजनीतिक तौर पर महिलाओं के उचित प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए भारत समेत कई देशों में राजनीति में महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है. ज़ाहिर है कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को लेकर व्यापक स्तर पर असंतुलन है, साथ ही तमाम ऐसी सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक बाधाएं हैं, जो महिलाओं को राजनीति में प्रवेश करने से रोकती हैं. देखा जाए तो, संवैधानिक स्तर पर क़ानून बनाकर महिलाओं के आरक्षण का प्रावधान करने से राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिध्तव बढ़ा है. जिन देशों में लैंगिक आधार पर आरक्षण का प्रवाधान किया गया है, वहां अन्य देशों की तुलना में ग्रामीण स्तर पर पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी तुलनात्मक रूप से अधिक है (7 प्रतिशत तक).[3] जनवरी 2023 तक के आंकड़ों पर नज़र डालें, तो 88 देश ऐसे हैं, जिन्होंने स्थानीय चुनावों के लिए महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान किया है. [4]

 

ज़ाहिर है कि भारत का 73वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम, [A] वर्ष 1993 में पास किया गया था और लागू हुआ था. इस संवैधानिक संशोधन अधिनियम के अंतर्गत स्थानीय शासन की इकाइयों यानी ग्राम पंचायत, ब्लॉक समितियों और ज़िला परिषदों के चुनाव में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का प्रावधान किया गया है. इन स्थानीय इकाइयों को पंचायती राज संस्थानों (PRIs) के तौर पर जाना जाता है.[B] पंचायतों में महिलाओं के आरक्षण से संबंधित इस संवैधानिक संशोधन को लागू हुए तीस साल हो चुके हैं. इस अधिनियम की बदौलत ग्रामीण राजनीति में महिलाओं की स्थिति में ज़बरदस्त सुधार हुआ है. भारत जैसे देश में, जहां की राजनीति विविधितापूर्ण है, राष्ट्रीय स्तर से लेकर राज्य और ग्रामीण स्तर तक फैली हुई है, वहां पंचायत स्तर फैसले लेने वालों में 1.45 मिलियन से अधिक महिलाएं प्रमुख भूमिका निभा रही हैं. [5]

 

वर्ष 2023 की वैश्विक लैंगिक अंतर रिपोर्ट (127 रैंकिंग) में भारत पिछले वर्ष 2022 की तुलना में 8 पायदान ऊपर पहुंच गया था. इस रिपोर्ट में स्थानीय प्रशासन यानी ग्राम पंचायत स्तर पर महिलाओं के समावेशन को एक नए संकेतक के रूप में जोड़ा गया. [6] इसमें शामिल 146 देशों में से केवल 18 देश ऐसे मिले, जहां लोकल गवर्नेंस में 40 प्रतिशत से अधिक महिलाओं का प्रतिनिधित्व मिला. इन देशों में भारत शीर्ष पर था, यानी भारत में स्थानीय शासन में महिलाओं की सबसे अधिक भागीदारी है. (ग्राम पंचायत स्तर पर सभी निर्वाचित प्रतिनिधियों में से 44.4 प्रतिशत महिलाएं हैं). महिलाओं की भागीदारी के मामले में ग्लोबल साउथ के अन्य देशों में भारत का स्थान यूके (35.3 प्रतिशत) और जर्मनी (30.3 प्रतिशत) से आगे हैं, वहीं ग्लोबल साउथ के अन्य देशों जैसे कि ब्राजील (15.7 प्रतिशत), इंडोनेशिया (15.7 प्रतिशत), और चीन (28.1 प्रतिशत) से भी भारत आगे है.

 

इसके अतिरिक्त, सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) के फ्रेमवर्क में महिलाओं की सशक्त राजनीतिक भागीदारी [C] को एक लक्ष्य के तौर पर शामिल करना न केवल लोकतंत्र को बढ़ावा देने और संरक्षित करने के महत्व को ज़ाहिर करता है, बल्कि SDGs को प्राप्त करने में स्थानीय स्तर पर महिला नेतृत्व के महत्व को भी रेखांकित करता है.

 

चित्र 1: निर्वाचित स्थानीय निकायों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व (1 जनवरी 2020 तक)

 

 

स्रोत: यूएन वुमन[7]

 

वर्तमान में लैंगिक समानता, स्थानीय शासन और विकास के बीच के अहम संबंध की बात को स्वीकारा भी जा रहा है और समझा भी जा रहा है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि अगर स्थानीय निकायों और पंचायतों में महिला प्रतिनिधि शामिल होती हैं, तो वे स्थानीय प्राथमिकताओं पर ख़ास ज़ोर देती हैं और ऐसा करके विकास कार्यों को जनहित के अनुरूप निर्धारित करती हैं. ज़ाहिर है कि विकेंद्रीकृत शासन का उद्देश्य भी यही है और महिलाओं की सक्रिय भूमिका कहीं न कहीं टिकाऊ विकास के लिए बहुत ज़रूरी है. स्थानीय शासन में महिला प्रतिनिधियों के प्रभाव से जुड़ी रिसर्च के अनुसार पुरुषों की तुलना में महिला राजनीतिक प्रतिनिधियों ने स्थानीय लोगों के बीच आवश्यक सार्वजनिक वस्तुओं को बेहतर तरीक़े से पहुंचाने का काम किया है, इसके अलावा समावेशी और विकेंद्रीकृत लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के उद्देश्य को सही मायनों में पूरा करते हुए ज़मीनी स्तर पर टिकाऊ और स्थाई विकास को सशक्त किया है. [8] अधिक बराबरी वाले और ज़िम्मेदार स्थानीय समुदाय को बनाने में महिला राजनीतिक प्रतिधियों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि वे सर्व समावेशी भावना के साथ कार्य करती हैं, ऐसी नीतियों को प्रथामिकता देती हैं, जो लोगों और उनके परिवारों को आगे बढ़ाने में सहायक होती है. साथ ही महिलाएं जब लोकल गवर्नेंस में प्रमुख भूमिका में होती हैं, तो वे ज़ोरदारी के साथ लैंगिक समानता की बात उठाती है, यानी महिलाओं को प्रोत्साहित करती हैं. [9]

 

महिला मतदाताओं की संख्या में लगातार बढ़ोतरी होने के बावज़ूद भारत में 1990 के दशक तक राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को ज़्यादा तबज्जो नहीं जाती थी. लेकिन वर्ष 1993 में 73वें संवैधानिक संशोधन के ज़रिए जब महिलाओं को पंचायत के चुनावों में आरक्षण मिला, तब एक बदलाव का दौर शुरू और ग्रामीण इलाक़ों में पारंपरिक राजनीति या फिर कहा जाए कि पुरुषों को वर्चस्व वाली राजनीति को समाप्त करने की मांग उठी. उसके बाद धीरे-धीरे इस बदलाव ने ज़ोर पकड़ा और फिर जिस स्थानीय राजनीति में पुरुषों का दबदबा था, वहां महिलाओं को भी हिस्सेदारी का अवसर मिलने लगा. 1990 के दशक की शुरुआत में जब पंचायतों में महिलाओं के आरक्षण से संबंधित संशोधन पेश किया गया था, उस समय से महिलाओं से जुड़े तमाम संकेतक यह साफ दर्शाते हैं कि जब वे पहली बार राजनीति में उतरीं तब कई सामाजिक बंधनों में बंधी हुई थीं. वर्ष 1992-1993 में ग्रामीण महिलाओं की साक्षरता दर 34 प्रतिशत थी, जबकि वर्ष 2019-2021 में यह 65.9 प्रतिशत थी. वर्ष 1992-1993 में ग्रामीण महिलाओं की कुल प्रजनन दर 3.7 बच्चे प्रति महिला थी, जो 2019-2021 में घटकर 2.1 हो गई. इसके अलावा, महिलाओं (20-49 आयु वर्ग में) के लिए विवाह की औसत आयु में भी सुधार हुआ है, वर्ष 1992-1993 में लड़कियों के विवाह की औसत आयु 16.2 वर्ष थी, जो वर्ष 2019-2021 में बढ़कर 19.2 वर्ष हो गई है.[10] , [11] भारत में यह संवैधानिक संशोधन किए जाने के बाद के दशकों में स्थानीय शासन में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ा है. महिलाओं के इस बढ़ते प्रतिनिधित्व का असर भी देखा जा रहा है. जैसे कि महिला नेताओं की वजह से गांवों में सार्वजनिक वस्तुओं का बेहतर ढंग से वितरण होने लगा है, यानी लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ सुनिश्चित हो रहा है, साथ ही महिलाओं की क्षमता और योग्यता को लेकर जो पारंपरिक सोच थी, उसमें भी बदलाव देखा जा रहा है. [12]

  राजनीतिक तौर पर महिलाओं के उचित प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए भारत समेत कई देशों में राजनीति में महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है. ज़ाहिर है कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को लेकर व्यापक स्तर पर असंतुलन है, साथ ही तमाम ऐसी सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक बाधाएं हैं, जो महिलाओं को राजनीति में प्रवेश करने से रोकती हैं. 

हालांकि, ऐसा महसूस हो रहा है कि भारत में पंचायतों द्वारा किए जा रहे बेहतरीन कार्यों की सराहना करने में कंजूसी बरती जा रही है.[13] ख़ास तौर पर जब पंचायतों में महिलाएं चुनकर पहुंचती हैं और अपनी मेहनत से समाज के कल्याण के लिए कुछ अलग करती हैं, तो कहीं से भी प्रशंसा की आवाज़ नहीं सुनाई देती है. यह कहना उचित होगा कि भारत के ग्रामीण अंचलों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों (EWRs) के योगदान को काफी हद तक कम करके आंका गया है, या फिर एकदम से नज़रंदाज कर दिया गया है. भारत के कई गांवों में किए गए अध्ययनों में सामने आया है कि निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों को प्रशंसा और सराहना मिलने की उम्मीद बेहद कम होती है. ग्राम पंचायतों में महिला प्रतिनिधि पुरुष निर्वाचित प्रतिनिधियों के मुक़ाबले चाहे जितना अच्छा कार्य करें, उनकी उतनी तारीफ़ नहीं की जाती है, जितनी की जानी चाहिए. [14]

 

इस पेपर में पिछले कुछ वर्षों के दौरान ग्रामीण भारत में (पंचायत स्तर पर) लोकल गवर्नेंस में महिलाओं की भूमिका की विस्तृत समीक्षा की गई है, साथ ही महिलाओं के नेतृत्व में ग्रामीण इलाक़ों में हासिल की गई उपलब्धियों की चर्चा की गई है और उनके समक्ष पेश होने वाली चुनौतियों का विश्लेषण किया गया है. इसके अतिरिक्त, इस पेपर में पंचायत स्तर पर राजनीतिक गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए कई नीतिगत सिफ़ारिशें भी की गई हैं. इस सबके लिए पंचायतों में महिला जनप्रतिनिधियों की भूमिका से संबंधित पुस्तकों, विभिन्न शोध लेखों, अख़बारों में छपे समाचारों और सर्वेक्षण रिपोर्टों समेत दूसरे लेखकों द्वारा किए गए कार्यों का भी विस्तृत अध्ययन किया गया है और उनके निचोड़ को भी इसमें समाहित करने की कोशिश की गई है. इसके अलावा इस पेपर के लेखकों द्वारा पंचायतों में कार्य करने वाली निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों से बातचीत की गई है, साथ ही पंचायती राज संस्थाओं में कार्य करने वाले अधिकारियों और इन संस्थानों में अपने सेवाएं दे चुके नौकरशाहों का इंटरव्यू लिया गया है. इसके साथ ही निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों की सहायता करने एवं उनकी क्षमताओं को बढ़ाने में कार्यरत सिविल सोसाइटी के संगठनों के प्रतिनिधियों का भी साक्षात्कार लिया गया है. [D] इन सभी इनपुट एवं बातचीत से मिली जानकारी का प्राथमिक आंकड़ों के तौर पर उपयोग किया गया है, ताकि पेपर के निष्कर्षों को विश्वसनीय बनाया जा सके. एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि इस पेपर में जो भी अध्ययन किया गया है और निष्कर्ष निकाला गया है, वो पंचायत स्तर पर महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व और उनकी भूमिका पर केंद्रित है. लोकल गवर्नेंस के अंतर्गत आने वाले शहरी निकायों यानी नगर पालिकाओं और नगर निगमों में महिला जन प्रतिनिधियों की भूमिका एवं प्रभाव को लेकर इस पेपर में कोई चर्चा नहीं की गई है.

पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का क्रमिक विकास

भारत की संघीय राजनीतिक प्रणाली की बात करें, तो इसमें तीन तरह की सरकारों या शासन प्रक्रियाओं का प्रवाधान है. यानी राष्ट्रीय सरकार या केंद्र सरकार, राज्यों की सरकार और स्थानीय स्तर पर शासन व्यवस्था. स्थानीय स्तर पर शासन को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है, पहला शहरी क्षेत्रों में नगर निकाय और नगर परिषदें, दूसरा ग्रामीण इलाक़ों में पंचायती राज संस्थान. भारत में ग्रामीण आबादी बहुत अधिक है और आंकड़ों के मुताबिक़ देश की कुल जनसंख्या का लगभग 65 प्रतिशत हिस्सा गांवों में निवास करता है. [15] ग्रामीण इलाक़ों की रहने वाली इस बड़ी आबादी की वजह से देश में पंचायती राज संस्थानों का महत्व बढ़ जाता है, साथ ही ग्रामीण पंचायतों में राजनीति का भी महत्व बढ़ जाता है. ऐसा इसलिए है कि राजनीतिक तरीक़े से इन संस्थानों में पहुंचकर ग्रामीण आबादी के बड़े हिस्से के कल्याण के लिए कार्य किया जा सकता है और उनकी सहायता की जा सकती है. पंचायत प्रणाली की बात करें, तो इसमें गांव के स्तर पर (ग्राम पंचायत), ब्लॉक स्तर पर (पंचायत समिति) और ज़िला स्तर पर (ज़िला परिषद) पर समितियां शामिल होती है. इन समितियों के पास स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों के प्रबंधन की ज़िम्मेदारी होती है. इन समितियों के सदस्य स्थानीय निवासियों द्वारा चुने जाते हैं. ग्राम पंचायत कितनी बड़ी होगी, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वहां लोगों की आबादी कितनी है और गांवों की संख्या कितनी है. इसके साथ ही अलग-अलग राज्यों में ग्राम पंचायत के मानक भी अलग-अलग होते हैं. चुनावों के दौरान, गांव में रहने वाले मतदाता पंचायत समिति के सदस्यों का चयन करने के लिए मतदान करते हैं, वहीं ज़्यादातर राज्यों में सीधे ग्राम प्रधान (परिषद प्रमुख) का चुनाव किया जाता है. ग्राम प्रधान के चुनाव में ज़्यादातर राजनीतिक दलों द्वारा अपने उम्मीदवारों को उतारा जाता है. अगर कोई व्यक्ति गांव में प्रधानी का चुनाव लड़ता है, उसके लिए उसी गांव का निवासी होना ज़रूरी है. एक और अहम बात यह है कि ग्राम पंचायत में चुने गए सदस्य बहुमत के आधार पर कोई भी निर्णय ले सकते हैं. ग्राम पंचायत में ग्राम प्रधान के पास पंचायत समिति के सदस्यों द्वारा बहुमत के आधार पर लिए गए फैसलों को रोकने या पलटने का अधिकार नहीं होता है. [16]

 

हालांकि, भारत में स्व-शासन से संबंधित गांव स्तर के ढांचे का एक लंबा इतिहास रहा है. ज़ाहिर है कि आर्टिकल 40 में स्व-शासन को प्रोत्साहित करने का विचार पहले से ही शामिल है. इसमें महिलाओं के प्रतिनिधित्व का अलग से जिक्र किए बगैर इसे भारतीय संविधान की सरकारी नीति के गैर-प्रवर्तनीय निदेशक सिद्धांतों के तहत रखा गया था.[17] विकेंद्रीकरण से जुड़े मसलों को संबोधित करने के लिए वर्ष 1957 में भारत के सामुदायिक विकास कार्यक्रम की कार्य प्रणाली की जांच-पड़ताल करने के लिए नियुक्त की गई बलवंत राय मेहता समिति ने सिफ़ारिश की थी कि 20 सदस्यीय पंचायत समिति को "महिलाओं एवं बच्चों के बीच जाकर काम करने में दिलचस्पी रखने वाली" दो महिलाओं को नामांकित करना चाहिए." [18] वर्ष 1961 के महाराष्ट्र जिला परिषद और पंचायत समिति अधिनियम के अंतर्गत बलवंत राय मेहता समिति के इस सुझाव का पालन करते हुए प्रावधान किया गया है कि अगर चुनाव के दौरान किसी महिला उम्मीदवार जीत हासिल नहीं कर पाती है, तो तीनों पंचायती राज निकायों यानी ग्राम, ब्लॉक और जिला स्तर के निकायों में से हर एक में एक या दो महिलाओं को नामांकित किया जा सकता है. महाराष्ट्र में वर्ष 1978 में पंचायत समितियों और जिला परिषदों में महिला प्रतिनिधियों के लिए 320 सीटें थीं और उनमें से केवल छह महिलाओं को ही चुना गया था. इससे साफ ज़ाहिर होता है कि महिलाओं के चुनाव या नामांकन के प्रावधान का कोई विशेष प्रभाव नहीं दिखाई दिया और पंचायत प्रणाली में महिला जन प्रतिनिधियों को शामिल करने के मामले में यह कारगर सिद्ध नहीं पाया.

 

भारत में महिलाओं की स्थिति का आकलन करने के लिए बनाई गई समिति ने वर्ष 1974 में अपनी रिपोर्ट, जिसका शीर्षक 'समानता की ओर' था, में इस तथ्य के सामने लाने का काम किया था कि सरकार द्वारा जो भी योजनाएं बनाई जाती हैं, या फिर विकास से संबंधित जो भी नीतियां हैं, उनमें ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाली महिलाओं से जुड़ी दिक़्क़तों और उनके विचारों पर उतना ध्यान नहीं दिया गया है, जितना दिया जाना चाहिए. यानी एक लिहाज से ग्रामीण महिलाओं के नज़रिए को तबज्जो नहीं दी जाती है. [19] इस रिपोर्ट में ग्रामीण स्तर पर महिला पंचायतों की स्थापना का भी प्रस्ताव रखा गया, लेकिन इसमें पंचायत या ब्लॉक स्तर पर महिला प्रतिनिधियों के लिए आरक्षण को लेकर कुछ भी नहीं कहा गया था. वर्ष 1978 में पंचायती राज संस्थाओं पर गठित समिति (जिसे अशोक मेहता समिति भी कहा जाता है) ने प्रत्येक पंचायत में महिलाओं के लिए दो सीटें आरक्षित करने की सिफ़ारिश की थी. [20] इसी प्रकार से वर्ष 1988 में महिलाओं के लिए राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना नाम के नीतिगत दस्तावेज़ में महिला आरक्षण की सिफ़ारिश की गई थी. [21] इसमें कहा गया था कि गांव से लेकर ज़िला स्तर तक कार्यकारी-प्रमुख के 30 प्रतिशत पद महिलाओं के लिए आरक्षित होने चाहिए. इसी तरह की सिफ़ारिश वर्ष 1989 के 64वें संवैधानिक संशोधन विधेयक में भी की गई थी, जो कि पास नहीं हो पाया. [22] आख़िरकार, वर्ष 1993 में 73वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम (गांव, ब्लॉक और ज़िला स्तर पर पंचायतों के लिए) और 74वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम (नगर निगमों और नगर पालिकाओं के लिए) के ज़रिए पंचायती राज व्यवस्था को औपचारिक रूप से संविधान में सम्मलित किया गया. साथ ही इन दोनों ही अधिनियम में पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का प्रवाधान किया गया था. [23] 73वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम की बात करें, तो इसमें महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने के दौरान एससी-एसटी महिलाओं के लिए आरक्षण का विशेष प्रवाधन किया गया है. इस संशोधन अधिनियन के "खंड (1) के तहत प्रवाधान किया गया है कि महिलाओं के लिए जिनती भी सीटें आरक्षित होंगी उनमें से कम से कम एक तिहाई सीटें अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी." इसमें यह भी प्रावधान है कि "प्रत्येक पंचायत में प्रत्यक्ष चुनाव के माध्यम से भरी जाने वाली सीटों की कुल संख्या में से कम से कम एक तिहाई (अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों की संख्या सहित) महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी, इसके साथ ही इन आरक्षित सीटों को पंचायत के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों में हर चुनाव में बदला जा सकता है." [24]

 इस पेपर में पिछले कुछ वर्षों के दौरान ग्रामीण भारत में (पंचायत स्तर पर) लोकल गवर्नेंस में महिलाओं की भूमिका की विस्तृत समीक्षा की गई है, साथ ही महिलाओं के नेतृत्व में ग्रामीण इलाक़ों में हासिल की गई उपलब्धियों की चर्चा की गई है और उनके समक्ष पेश होने वाली चुनौतियों का विश्लेषण किया गया है. 

भारत में केंद्र सरकार द्वारा पंचायतों में महिलाओं के आरक्षण का प्रवाधान करने से पहले भी देश के कई राज्य ऐसे थे, जहां महिलाओं के लिए इस प्रकार के प्रवाधन किए जा चुके थे. यानी 73वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से गांव, ब्लॉक और जिला स्तर पर पंचायत चुनावों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित किए जाने से पहले, कुछ राज्यों ने पंचायतों में महिला आरक्षण को लागू कर दिया था. वर्ष 1961 में महाराष्ट्र द्वारा बलवंत राय समिति की सिफ़ारिशों को लागू करने के बाद वर्ष 1985 में कर्नाटक ने मंडल प्रजा परिषदों (स्थानीय लोगों की समिति) में महिलाओं के लिए 25 प्रतिशत आरक्षण का प्रवाधान किया था. इसके साथ ही कर्नाटक ने इन समितियों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए अतिरिक्त आरक्षण का प्रावधान किया था. इसी तरह से वर्ष 1986 में आंध्र प्रदेश ने ग्राम पंचायतों के लिए 22 से 25 प्रतिशत के बीच आरक्षण की व्यवस्था की थी, जिसमें निर्वाचित महिला सदस्यों के अलावा दो और महिलाओं को पंचायत समिति में शामिल करने का प्रावधान किया गया था.[25] अगर सम्रगता से देखा जाए तो 73वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम ने पूरे देश में पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रवाधान किया और इसका ज़बरदस्त असर भी देखने को मिला है. इसी संवैधानिक संशोधन का नतीज़ा है कि आज 1.45 मिलियन से अधिक महिलाएं भारत के गांव-गांव में पंचायतों में नेतृत्वकारी भूमिका निभा रही हैं. (तालिका 1 देखें). वर्तमान में देश में आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल समेत 20 राज्य ऐसे हैं, जिन्होंने अपने यहां पंचायती राज संस्थानों में महिलाओं के लिए आरक्षण को 50 प्रतिशत तक बढ़ा दिया है. [26]  जबकि कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों में पंचायतों में महिलाओं ने 50 प्रतिशत से भी अधिक सीटों पर जीत हासिल कर इस सीमा को भी पार कर लिया है. इससे यह स्पष्ट होता है कि महिलाओं को अब उन सीटों पर भी जीत हासिल हो रही है, जो उनके लिए आरक्षित नहीं है. [27]

 

तालिका 1: भारत के राज्यों में पंचायतों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों का प्रतिशत

 

States

Percentage

 

States

Percentage

1

आंध्र प्रदेश

50

16

मणिपुर

50.69

2

अरुणाचल प्रदेश

38.98

17

ओडिशा

52.68

3

असम

54.6

18

पंजाब

41.79

4

बिहार

52.2

19

राजस्थान

51.31

5

छत्तीसगढ़

54.78

20

सिक्किम

50.3

6

गोवा

36.72

21

तमिलनाडु

52.98

7

गुजरात

49.96

22

तेलंगाना

50.34

8

हरियाणा

42.12

23

त्रिपुरा

45.23

9

हिमाचल प्रदेश

50.12

24

उत्तर प्रदेश

33.34

10

जम्मू-कश्मीर

33.18

25

उत्तराखंड

56.01

11

झारखंड

51.57

26

पश्चिम बंगाल

51.42

12

कर्नाटक

50.05

     

13

केरल

52.41

     

14

मध्य प्रदेश

49.99

     

15

महाराष्ट्र

53.47

     

 

स्रोत: पीआईबी [E], [28]

 

यह ज़रूर है कि महिलाओं के लिए सीटों को आरक्षित करने के बाद से राजनीतिक तौर पर उनकी भागीदारी बढ़ी है, लेकिन गांव, ब्लॉक और ज़िला स्तर पर महिलाओं के लिए काम करना कम चुनौतीपूर्ण नहीं रहा है.

राज्यों में महिला प्रतिनिधियों के समक्ष आने वाली प्रमुख चुनौतियां

भारत एक विशाल देश है और विविधाओं से भरा हुआ है. भारत में जिस प्रकार से अलग-अलग क्षेत्रों में सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य अलग-अलग हैं और विकास से जुड़ी हुई प्राथमिकताएं भी अलग हैं, ऐसे में पंचायत स्तर पर महिला जन प्रतिनिधियों को भी अलग-अलग तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. राज्यों द्वारा महिलाओं को पंचायत की राजनीति में भागीदारी के लिए प्रोत्साहित करने के लिए तरह-तरह के प्रयास किए गए हैं. कुछ राज्यों ने ऐसी पंचायतों का गठन किया है, जहां सभी सदस्य महिलाएं हैं. जैसे कि महाराष्ट्र के अहमद नजर जिले के इंदापुर तहसील में 'मंजे राय पंचायत' और रालेगांव सिद्धि में महिला पंचायत का गठन किया गया. इसी प्रकार से पश्चिम बंगाल के झारग्राम सब डिवीजन में 'कुल्तिकरी ग्राम पंचायत' का गठन किया गया है. देखा जाए तो ऐसी सर्व महिला पंचायातों यानी जहां सभी सदस्य महिलाएं हैं, के पीछे कई कारक ज़िम्मेदार हैं, जिनसे इसकी प्रेरणा मिली है. इस कारकों में पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों की संख्या, स्थानीय राजनीति में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी और महिलाओं के बीच अपना समर्थन बढ़ाने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा दिया गया समर्थन. इस सर्व महिला पंचायतों ने ग्रामीण महिलाओं के सशक्तीकरण के क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य किया है. जैसे कि महिलाओं की साक्षरता बढ़ाने के अभियान चलाए हैं, साथ ही गांवों में महिलाओं को रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराने के लिए ख़ास तौर पर ध्यान दिया है, ताकि वे आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर बन सकें. [29]

 

कर्नाटक, ओडिशा, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों ने स्थानीय स्तर की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को सशक्त करने के लिए महिला ग्राम सभाओं की शुरुआत की है. हालांकि, कई सारे फैक्टर हैं जिनकी वजह से राज्यों की ग्राम सभाओं में महिलाओं की भागीदारी उत्साहजनक नहीं हो पाई है. जैसे कि महिलाओं के राजनीतिक गतिविधियों में आगे आने में कई सामाजिक अवरोध हैं और महिलाओं को अपने अधिकारों की समुचित जानकारी नहीं है. [30] पार्टिसिपेटरी रिसर्च इन एशिया [F] द्वारा वर्ष 2018 में राजस्थान में किए गए सर्वे के मुताबिक़ वहां अधिकांश महिला प्रतिनिधियों ने कभी भी ग्राम सभा की बैठक में शिरकत नहीं की, साथ ही गांव में ग्राम सभा द्वारा संचालित किए जाने वाले कार्यक्रमों और सरकारी योजनाओं में भी उनकी दिलचस्पी नहीं थी. उल्लेखनीय है कि महिला ग्राम सभा की परिकल्पना सबसे महाराष्ट्र में सामने आई थी. दरअसल, वहां स्वयं सहायता समूहों (SHGs) [G] और समुदाय की महिला सदस्यों ने शराब के विरुद्ध रणनीति बनाने के लिए 'महिला सभा' (महिलाओं की बैठक) की बैठक आयोजित की थी. बाद में गांवों में महिला ग्राम सभा की बैठकों में महिलाओं के स्वास्थ्य, महिलाओं के ख़िलाफ़ घरेलू हिंसा, कन्या भ्रूण हत्या, बाल विवाह और महिलाओं के लिए आजीविका के अवसरों जैसे महिलाओं से संबंधित विभिन्न मसलों पर भी ध्यान केंद्रित किया जाने लगा. [31]

 

भारत सरकार के पंचायती राज मंत्रालय द्वारा वर्ष 2008 में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों को लेकर एक स्टडी की गई थी. इस अध्ययन के अनुसार उत्तर प्रदेश, बिहार और असम जैसे राज्यों में महिला प्रधान पंचायत से संबंधित गतिविधियों में ज़्यादा रुचि नहीं लेती थीं, बल्कि वे अपने पारिवारिक कामकाज में ही लगी रहती थीं. जबकि इस अध्ययन में यह भी सामने आया कि अरुणाचल प्रदेश और केरल जैसे कुछ राज्यों में महिला प्रधान अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वहन गंभीरता से करती थीं. [32] इसके अलावा, केरल में यह भी देखा गया कि वहां निर्वाचित महिला प्रतिनिधि पंचायत-संबंधित गतिविधियों में अपनी पूरी भागीदारी निभाती थीं. [33] एक अन्य अध्ययन के मुताबिक़ पश्चिम बंगाल, सिक्किम, त्रिपुरा और केरल जैसे राज्यों में परिवार के सदस्य और सामुदायिक समूह, जैसे कि स्वयं सहायता समूह, क्लब और महिला पंचायत, महिलाओं को चुनावों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. इसके साथ ही इन राज्यों में पंचायत स्तर पर राजनीतिक दल भी बेहद सक्रिय हैं. [34] इन राज्यों में पंचायत स्तर पर राजनीति दलों की सक्रियता शायद इसलिए अधिक है, क्योंकि यहां गांव के लोगों की राजनीति में ज़बरदस्त दिलचस्पी है.

 

इसके अलावा, कई राज्य ऐसे भी हैं, जिन्होंने पंचायतों में महिला प्रतिनिधियों की नेतृत्व प्रतिभा को निखारने के लिए विभिन्न कौशल विकास कार्यक्रम भी शुरू किए हैं. उदाहरण के तौर पर, केरल में सरकारी स्तर पर कुदुम्बश्री पहल संचालित की जा रही है. इसके तहत स्वयं सहायता समूहों को शामिल किया गया है और महिला जन प्रतिनिधियों को प्रशिक्षित किया जा रहा है. इस पहल ने केरल में महिलाओं में राजनीतिक जागरूकता बढ़ाने का काम किया है और पिछले दो दशकों में गांव के स्तर पर राजनीति में कौशल विकसित करने का काम किया है. [35]

 

पंचायतों में महिला प्रतिनिधियों की भूमिका को लेकर वर्ष 2004 में हरियाणा में भी इसी तरह का अध्ययन किया गया था. इस शोध में यह सामने आया था कि हरियाणा में "महिला सरपंचों यानी ग्राम पंचायत की प्रमुख को पर्दा प्रथा, शिक्षा की कमी, अपनी ज़िम्मेदारी को निभाने में झिझक, पंचायत प्रणाली के बारे में जागरूकता की कमी और घर से बाहर निकले में तमाम तरह की पाबंदियों जैसी प्रमुख दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है." [36] हालांकि, ऐसा नहीं है कि महिलाओं की राजनीति में भागीदारी बढ़ने से कोई लाभ नहीं हुआ है. हरियाणा में किए गए इस अध्ययन में यह भी सामने आया कि महिलाओं को राजनीति में आने के लिए प्रोत्साहित करने के और महिलाओं को लोगों के बीच पहुंच कर उनसे जुड़ी परेशानियों को जानने-समझने का अवसर उपलब्ध कराने के कई फायदे भी हुए हैं. जब कोई महिला ग्राम पंचायत समिति में होती है, गांव की अन्य महिलाओं को महिला नेता के समक्ष अपनी समस्या साझा करने में सहूलियत होती है. ऐसा होने से महिलाओं की सामाजिक स्थित भी सशक्त होती है. कुल मिलाकर महिलाओं को राजनीति में आगे बढ़ाने के कई सकारात्मक नतीज़े भी हासिल हुए हैं.[37] हरियाणा के इसी प्रकार के एक अन्य अध्ययन और किया गया, जिसमें 21 जिलों में 295 महिला सरपंचों के साथ साक्षात्कार किया गया था. इस स्टडी के अनुसार निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों को अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करते समय कई सामाजिक-सांस्कृतिक अवरोधों से भी जूझना पड़ता है, लेकिन इसके बावज़ूद महिला प्रतिनिधियों की पंचायत से जुड़ी गतिविधियों में दिलचस्पी बढ़ी है, साथ ही समस्याओं का समाधान तलाशने की उनकी योग्यता में भी इजाफ़ा हुआ है. [38]

 

ग्राम पंचायतों में महिला प्रतिनिधित्व के सामने एक सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उन्हें अपने मन-मुताबिक़ कार्य करने की आज़ादी नहीं मिलती है. कहने का तात्पर्य यह है कि आरक्षित सीटों से जीतने वाली महिलाएं 'रबर स्टाम्प' बनकर रह जाती हैं. आरक्षित सीटों से जीतने वाली महिला प्रतिनिधियों की स्थिति का आकलन करने के लिए वर्ष 2008 में पंजाब की तीन ग्राम पंचायतों में एक सर्वेक्षण किया गया था. इस सर्वेक्षण के दौरान 75 प्रतिशत निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों ने बताया कि वे तो सिर्फ नाम की प्रतिनिधि हैं, जबकि पूरा कामकाज तो उनके पतियों द्वारा संभाला जाता है. [39] हाल के दिनों में किए गए इसी प्रकार के तमाम अध्ययनों में भी यही सच्चाई सामने आई है. इन अध्ययनों के अनुसार कई राज्यों में अभी भी महिलाओं को प्रॉक्सी के रूप में रखा जाता है और महिलाओं के लिए स्वतंत्र रूप से पंचायत से जुड़ी गतिविधियों को अंज़ाम देने से जुड़ी चुनौती बरक़रार हैं. [40] हालांकि, कई अध्ययन ऐसे भी हैं, जो यह बताते हैं कि समय के साथ-साथ ग्राम पंचायत से संबंधित कार्यों में महिला प्रतिनिधियों की भागीदारी में काफ़ी बढ़ोतरी हुई है. [41], [42]

 

वास्तविकता यह है कि रूढ़िवादी सामाजिक माहौल के बावज़ूद पूरे देश में कई गांवों में महिला प्रतिनिधियों ने सामाजिक परिवर्तन की अगुवाई करने का काम किया है और अपनी एक अलग पहचान क़ायम की है. कम लिंगानुपात के लिए कुख्यात हरियाणा राज्य की बात करें तो वहां पंचायत स्तर की महिला नेताओं ने अपने गांवों में महिला सशक्तिकरण की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया है. जैसे कि इन महिला नेताओं ने पर्दा प्रथा को कम करने, लड़कियों के लिए स्कूली शिक्षा को प्रोत्साहित करने, खुले में शौच को कम करने, स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों की संख्या में कमी लाने और लिंगानुपात में सुधार करने को लेकर अभूतपूर्व प्रयास किए हैं.[43] देश के कई अन्य राज्यों में भी महिला प्रतिनिधियों ने समाज में गहराई तक फैली पुरुष प्रधान सोच के विरुद्ध संघर्ष किया है. इतना ही नहीं, इन महिला नेताओं ने स्वयं सहायता समूह जैसी पहलों के माध्यम से महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के भी प्रयास किए हैं. [44] राजस्थान जैसे राज्यों में तो कई ऐसे उदाहरण भी देखने को मिले हैं, जहां बहुत पढ़ी-लिखी और उच्च पदों पर नौकरी करने वाली महिलाओं ने अपने गांवों के विकास के लिए पंचायत का चुनाव लड़ने का फैसला किया. [45]

 

इसके अलावा, राज्य सरकारों द्वारा पंचायतों को पर्याप्त धनराशि आवटंति नहीं किए जाने की वजह से भी ज़मीनी स्तर पर लिंग-समावेशी विकास यानी महिलाओं का विकास प्रभावित हुआ है.[46] इस स्थिति को ठीक करने के लिए केरल और कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों ने फंड आवंटन के तरीक़े में बदलाव कर महिलाओं के विकास में आने वाली रुकावटों को दूर करने की कोशिश की है. इसके लिए इन राज्यों ने पंचायतों के लिए लिंग आधारित बजट की शुरुआत की है. [47]

 

प्रमुख रुझान

 

पंचायत स्तर पर महिला नेताओं को तमाम तरह की सामाजिक और सांस्कृतिक रुकावटों से जूझना पड़ता है, जैसे कि परिवार और बच्चों के देखभाल की ज़िम्मेदारी, सामाजिक स्तर पर फैले तमाम सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों से संघर्ष और घर से बाहर निकलने में तमाम तरह की पाबंदियों का सामना करना पड़ता है. इसके अलावा इन पुरुषों के प्रभुत्व वाले इस राजनीतिक माहौल में महिलाओं को प्रेरित करने वाली महिला रोल मॉडलों नेताओं की भी कमी होती है, साथ ही पंचायत से जुड़े मुद्दों की उन्हें जानकारी नहीं होती है, जिससे वे सार्वजनिक तौर पर अपनी बात कहने में संकोच महसूस करती हैं. इन सारी बाधाओं के बावज़ूद महिलाओं के बीच राजनीतिक जागरूकता, जानकारी और आत्मविश्वास में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. इसकी प्रमुख वजह यह है कि धीरे-धीरे देश में सत्ता का विकेंद्रीकरण बढ़ता जा रहा है, साथ ही पंचायतों के अधिकारों में भी बढ़ोतरी हो रही है.

 पंचायतों में महिला प्रतिनिधियों की भूमिका को लेकर वर्ष 2004 में हरियाणा में भी इसी तरह का अध्ययन किया गया था. इस शोध में यह सामने आया था कि हरियाणा में "महिला सरपंचों यानी ग्राम पंचायत की प्रमुख को पर्दा प्रथा, शिक्षा की कमी, अपनी ज़िम्मेदारी को निभाने में झिझक, पंचायत प्रणाली के बारे में जागरूकता की कमी और घर से बाहर निकले में तमाम तरह की पाबंदियों जैसी प्रमुख दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है." 

निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि और उनके जनसांख्यिकीय प्रोफ़ाइल पर नज़र डालें तो कई प्रमुख रुझान सामने आते हैं. इसके साथ ही महिला और पुरुष जनप्रतिनिधियों के राजनीतिक सफर में भी कई तरह विषमताएं देखने को मिलती हैं. जब अलग-अलग राज्यों में महिला प्रतिनिधियों की भूमिका और उसके असर को लेकर व्यापक पैमाने पर अध्ययन किए गए, तो उनमें निम्न प्रकार से प्रमुख रुझान सामने आए हैं. [48], [49]

 

  • अध्ययनों में सामने आया है कि महिला प्रतिनिधि सामान्य तौर पर कम पढ़ी-लिखी होती हैं और पुरुष प्रतिनिधियों की तुलना में उनकी उम्र भी कम होती है. शैक्षणिय योग्यता में कमी का सीधा असर ऑफिस में उनके कामकाज पर पड़ता है. जो महिला प्रतिनिधि अशिक्षित हैं या फिर जिन्होंने प्राथमिक स्तर से कम शिक्षा ग्रहण की है, उन्हें ख़ास तौर पर ऑफिस में तमाम चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. [50]

 

  • एक और जो बात सामने आई है कि पंचायतों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधि ज़्यादातर शादीशुदा हैं. इसलिए पुरुष प्रतिनिधियों की तुलना में वे कार्यालय में कम समय दे पाती हैं. एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ महिला पंचायत सदस्य पंचायत से जुड़ी गतिविधियों में समय देने की अपेक्षा अपना ज़्यादातर वक़्त घरेलू कामकाज को निपटाने में व्यतीत करती हैं. जबकि पुरुष पंचायत प्रतिनिधि महिलाओं की तुलना में पंचायत से संबंधित कार्यों में ज़्यादा समय दे सकते हैं. [51]

 

  • ज़्यादातर महिला प्रतिनिधि ऐसी हैं जो पहली बार चुनकर आई हैं, यानी उनके पास राजनीति करने का या फिर पंचायत से जुड़े कार्य करने का पहले का कोई अनुभव नहीं है. इसके विपरीत पुरुष प्रतिनिधियों के पास पंचायत में काम करने का पहले का अनुभव है, या फिर वे किसी न किसी प्रकार से स्थानीय राजनीति के पहले से जुड़े रहे हैं. [52]

 

  • एक और बात जो सामने आई है, वो यह है कि ज़्यादातर मामलों में पुरुषों की तुलना में महिला प्रतिनिधिय किसी प्रकार की जानकारी हासिल करने के लिए या फिर अपना काम करने के लिए परिवार के सदस्यों या पड़ोसियों पर निर्भर होती हैं. ज़ाहिर है कि महिला प्रतिनिधियों के परिजन या शुभचिंतक ही पंचायत पदाधिकारियों, सरकारी अधिकारियों और मीडिया से संपर्क करते हैं और जानकारी हासिल करते हैं. [53]

 

  • अधिकांश महिला प्रतिनिधियों को दोबारा पंचायत में आने का अवसर प्राप्त नहीं होता है. इसका कारण यह है कि अगले चुनाव में उनकी आरक्षित सीटें अनारक्षित हो जाती हैं, साथ ही महिला प्रतिनिधि अनारक्षित सीट से चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाती हैं. [54]

 

  • साथ ही यह भी माना जाता है कि संपन्न ग्रामीण वर्ग या फिर उच्च जाति की ग्रामीण महिलाएं अपने पारिवारिक संबंधों के ज़रिए राजनीति में प्रवेश करती हैं. हालांकि कई मामलों में ऐसा भी देखा गया कि तमाम निर्वाचित महिला प्रतिनिधि ऐसी परिवारिक पृष्ठभूमि से भी होती हैं, जो या तो भूमिहीन होती हैं, या फिर उनके पास नाम मात्र की ज़मीन होती है, साथ ही उनके परिवार का राजनीति से कोई लेनादेना नहीं होता है. इनमें से कई महिला प्रतिनिधि अपने परिवार के पुरुषों की मदद लिए बगैर स्वतंत्र रूप से पंचायत में अपना कामकाज संभालती हैं. [55]
महिला प्रतिनिधियों द्वारा किए गए कार्यं का प्रभाव

निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों द्वारा किए गए कार्यों की प्रभावशीलता को निम्न विषयों पर उनके द्वारा उठाए गए क़दमों के ज़रिए समझा जा सकता है:

 

  • विकास और नीतिगत नतीज़े

निसंदेह तौर पर पंचायती संस्थाओं में महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण करने की व्यवस्था से न केवल महिलाओं की अधिक राजनीतिक भागीदारी का मार्ग प्रशस्त हुआ है, बल्कि इससे पंचायत स्तर की राजनीति में महिला नेताओं की नेतृत्व क्षमता और विकास संबंधी कार्यों को संचालित करने की उनकी योग्यता भी सामने आई है. [56] देखा जाए तो, महिला प्रतिनिधियों की नीतिगत प्राथमिकताएं अक्सर पुरुष प्रतिनिधियों से अलग होती हैं. इतना ही नहीं जब से महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण किया गया है और उनकी पंचायत में भागीदारी सुनिश्चित की गई है, तब से कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में स्थानीय संसाधनों का ज़्यादा बेहतर तरीक़े से उपयोग होने लगा है. वर्ष 2010 में 11 राज्यों में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक़, जिन गांवों में महिला प्रधान या सरपंच हैं, वहां भ्रष्टाचार में कमी आई है, साथ ही सरकारी योजनाओं और सेवाओं की आखिरी छोर तक डिलीवरी सुनिश्चित हुई है. इतना ही नहीं, महिलाओं के नेतृत्व में गांवों में पेयजल से जुड़ी सुविधाओं के विकास, स्वच्छता, शिक्षा और सड़कों के निर्माण जैसी बुनियादी ज़रूरतों पर अधिक ख़र्च किया गया है. ज़ाहिर है कि यह बुनियादी मुद्दे ग्रामीणों और ख़ास तौर पर ग्रामीण महिलाओं के लिए अहम थे.[57] ,[58] अध्ययन में यह भी सामने आया है कि पंचायत में महिला प्रतिनिधियों को गांव वालों की ओर से ज़्यादा तबज्जो नहीं मिलती है, यहां तक कि ग्रामीण महिलाओं द्वारा भी उन्हें ज़्यादा अहमियत नहीं दी जाती है. निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों में जब से युवा यानी नई पीढ़ी की महिलाओं की संख्या बढ़ी है, तब से स्थितियां बदली हैं. क्योंकि नई पीढ़ी की महिला प्रतिनिधि अपेक्षाकृत अधिक शिक्षित हैं और उन्हें अपने अधिकारों के बारे में जानकारी भी है. यही वजह है कि ऐसी महिला प्रतिनिधि सरकार द्वारा चलाए जा रहे कल्याणकारी कार्यक्रमों पर गंभीरता से काम करती हैं. इन कार्यक्रमों में आजीविका के अवसर और अधिकार, स्वच्छता, मां-बच्चे  का स्वास्थ्य, पोषण, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा, बच्चों की देखभाल समेत अन्य सामाजिक सेवाएं शामिल हैं. [59]

 

  • महिलाओं की भागीदारी और समावेशी शासन

उल्लेखनीय है कि गांव के ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा के लिए एक साल के भीतर ग्राम सभा की कम से कम दो बैठकें आयोजित होती हैं और महिला प्रतिनिधियों के इन बैठकों में हिस्सेदारी से सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. इसकी वजह यह है कि महिलाओं की मौज़ूदगी से सही मायने में लोकतंत्र की स्थापना होती है, बैठकों में विकास से जुड़े मुद्दों पर गंभीर विचार-विमर्श होता है और कहीं न कहीं ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित होती है, जिसमें सभी की भागीदारी है. अध्ययनों के मुताबिक़ जिन बैठकों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधि उपस्थित होती हैं, उनमें गांव की महिलाओं की भागीदारी की संभावना अधिक होती है, साथ ही इनमें ग्रामीण महिलाएं सहजता से अपनी समस्याओं को लेकर भी खुलकर बोलती हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि महिला नेता उनकी चिंताओं और आवश्यकताओं के प्रति ज़्यादा संवेदनशील होती हैं. [60] इससे यह भी पता चलता है कि जब महिलाएं निर्णय लेने की स्थिति में होती हैं, तो महिलाओं से जुड़ी प्राथमिकताओं को तबज्जो दी जाती है और उनकी समस्याओं का त्वरित निवारण किया जाता है. अध्ययनों से यह भी स्पष्ट तौर पर सामने आया है कि जिन निर्वाचन क्षेत्रों को महिलाओं के लिए आरक्षित किया गया है, उनमें नागरिक सुविधाओं, स्कूलों, चिकित्सा सुविधाओं और उचित मूल्य की दुकानों के मामले में काफ़ी प्रगति हुई है. [61] नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा आयोजित इंडिया पॉलिसी फोरम के हिस्से के तौर पर वर्ष 2010 में की गई एक स्टडी में यह सामने आया कि जिन गांवों में महिला प्रधान या महिला सरपंच हैं, वहां विभिन्न गतिविधियों में महिलाओं की हिस्सेदारी में अभूतपूर्व रूप से बढ़ोतरी दर्ज की गई है, साथ ही महिलाओं की नीतियों से जुड़े मसलों पर ज़्यादा ध्यान दिया गया है. रिसर्च में यह भी पता चला कि जिन गांवों में प्रधान या सरपंच का पद महिलाओं के लिए आरक्षित था, उन गांवों की ग्राम समितियों ने पेयजल, स्वच्छता, सड़कों के निर्माण, स्कूलों के रखरखाव, स्वास्थ्य केंद्रों की व्यवस्था और सिंचाई से जुड़ी सुविधाओं के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार हेतु अधिक धनराशि खर्च की. [62] कोविड-19 महामारी के दौरान सभी ने देखा कि संकट की परिस्थिति में महिलाएं किस प्रकार से नेतृत्वकारी भूमिका निभा सकती हैं. एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ कोविड-19 महामारी के वक़्त बड़ी संख्या में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों ने अपने ज़िम्मेदारी निभाई और शहरों से गांव आने वाले नागरिकों की पहचान करने से लेकर उन्हें बीमारी के दुष्प्रभावों से अवगत कराने तक का कार्य किया. इसके साथ ही कोरोना मरीज़ों के लिए खाने-पीने का सामान जुटाने, अस्पताल में बेड्स का इंतज़ाम करने और गर्भवती महिलाओं के लिए तत्काल चिकित्सा उपलब्ध कराने का काम किया था. [63] उल्लेखनीय है कि कई संस्थानों और संगठनों [H] ने ग्राम पंचायतों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के लिए उनके विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण कार्यक्रम भी शुरू किए हैं, ताकि उनकी जानकारी बढ़े, उनका कौशल विकास हो और व्यापक स्तर पर जागरूकता आए. [64] ज़ाहिर है कि इस प्रकार की पहलों ने न सिर्फ़ ग्राम पंचायत स्तर की महिला नेताओं को प्रेरित किया है, बल्कि जागरूकता पैदा करने में भी ज़बरदस्त भूमिका निभाई है. [65] अगर आंकड़ों पर नज़र डालें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि तमाम बंधनों और पूर्वाग्रहों के बावज़ूद महिला जनप्रतिनिधि पुरुषों की अपेक्षा ग्रामीण स्तर की स्थानीय प्रशासनिक व्यवस्थाओं को संभालने में प्रभावशाली सिद्ध हुई हैं, साथ ही उन्होंने नई-नई चीज़ों को ज़्यादा तेज़ी के साथ सीखा है. [66]

 

  • लैंगिक समानता

पंचायत जैसी जगहों पर जहां पारंपरिक तौर पर महिलाओं की मौज़ूदगी नहीं देखी जाती है, अब महिलाओं की बढ़ती संख्या ने उनके सशक्तीकरण का काम किया है, साथ ही जिस प्रकार से वे निर्णय लेने की स्थिति में पहुंची हैं, उसने महिलाओं के प्रति लैंगिक पूर्वाग्रहों को भी बदलने का काम किया है. कई निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों का कहना है कि पंचायत में पहुंचने के बाद न केवल उनका आत्मविश्वास बढ़ा है, बल्कि परिवार और समाज में भी उनका रसूख बढ़ा है. महिला जनप्रतिनिधियों के आगे बढ़ने से लोगों को भी प्रेरणा मिली है, क्योंकि राजनीति में महिला रोल मॉडल होने पर माता-पिता लड़कियों की शिक्षा पर अधिक ध्यान देते हैं. [67] इसके अलावा, निर्वाचित महिला प्रतिनिध अपने समाज की महिलाओं के लिए मिसाल बनी हैं और अक्सर उन्हें राजनीति में आने के लिए प्रेरित करती हैं.

 

वर्ष 2012 में किए गए एक अध्ययन में ग्राम पंचायतों में महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व और महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों के बीच एक अहम संबंध मिला है. इस अध्ययन के मुताबिक़ महिलाओं की राजनीति में सक्रीय भागीदारी बढ़ने और पंचायत में उनके प्रतिनिधित्व में बढ़ोतरी के साथ-साथ महिलाओं के विरुद्ध दर्ज़ होने वाले अपराधों में भी बढ़ोतरी हुई है. इसके अलावा इस अध्ययन में यह भी मिला है कि जहां महिला जनप्रतिनिधि हैं, उन क्षेत्रों में महिलाओं के ख़िलाफ़ दर्ज़ होने वाले अपराधों में विशेष तौर पर बढ़ोतरी हुई है. [68] बिहार राज्य में वर्ष 2021 में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार निर्वाचित महिला प्रतिनिधि घरेलू हिंसा और बाल विवाह जैसे मुद्दों में सक्रियता के साथ दख़ल देती हैं और इनका समाधान करने में अपनी अहम भूमिका निभाती हैं. 61 प्रतिशत निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधि के मुताबिक़, जब उन्हें अपने निर्वाचन क्षेत्रों में महिलाओं पर हिंसा से जुड़ी कोई शिकायत मिलती है, तो वे उसमें अपनी तरफ से दख़ल देती हैं. इसके अलावा 46 प्रतिशत महिला प्रतिनिधियों ने बताया कि उन्होंने बाल विवाह को रोकने के लिए क़दम उठाए थे. हालांकि, ज़्यादातर महिला नेता सामाजिक दबाव की वजह से इस मुद्दे पर बेबाक तरीक़े से बातचीत करने से कतराती दिखीं. [69]

 

पंचायत में महिला भागीदारी के समक्ष आने वाली चुनौतियां और बाधाएं

 

यह सभी को पता है कि जब महिलाएं निर्णय लेने वाले राजनीतिक पदों पर होती हैं, तो इसका अत्यधिक प्रभाव पड़ता है. इसके बावज़ूद एक सच्चाई यह भी है कि निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों को पंचायत तक पहुंचने और फिर वहां स्थानीय शासन व्यवस्था में अपनी भागीदारी को बरक़रार रहने के लिए कई बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.

 

  • आरक्षित सीटों का बदलाव

कई महिलाओं ने हर पांच साल में आरक्षित सीटों [I] को बदलने की नीति को एक बड़ी चुनौती बताया है. [70] हालांकि, हर पांच साल में आरक्षित सीटों को बदल देने का मकसद समाज में हाशिए पर पड़े समुदाओं और लोगों को राजनीतिक व्यवस्था का हिस्सा बनाना है. लेकिन हर चुनाव में आरक्षित सीटों को बदल देने का एक दुष्प्रभाव यह भी है कि महिला उम्मीदवार एक कार्यकाल पूरा करने के बाद उसी सीट से दूसरे कार्यकाल के लिए चुनकर नहीं आ सकती है और पहले कार्यकाल में हासिल किए गए अपने अनुभव का इस्तेमाल नहीं कर सकती है. यानी कि महिला प्रतिनिधित एक चुनाव में जीत के बाद पांच वर्षों तक तो शासन व्यवस्था को संभालती है, लेकिन फिर उसके बाद अपने परिवार में लौट जाती है और घरेलू कामकाज में व्यस्त हो जाती है. जबकि अधिकतर मामलों में निर्वाचित पुरुष प्रतिनिधि एक से ज़्यादा बार चुनाव लड़ते हैं. [71] एक और बात जो दिखाई देती है कि महिलाओं को आमतौर पर सामान्य वर्ग की अनारक्षित सीटों से चुनाव लड़ने का अवसर नहीं दिया जाता है. इसके पीछे सबसे बड़ी वजह यह होती है कि इन सीटों पर उम्मीदवार उतारने का निर्णय अक्सर या तो संबंधित राजनीतिक दल द्वारा लिया जाता है या फिर परिवार को वरिष्ठ पुरुष सदस्यों द्वारा लिया जाता है. पुरुषों के वर्चस्व वाली राजनीतिक पार्टियों को लगता है कि पुरुष उम्मीदवार की तुलना में महिला उम्मीदवारों के जीतने की संभावना कम होती है और इसी वजह से राजनीतिक दल महिला प्रत्याशियों को चुनावी मैदान में उतारने से हिचकिचाते हैं. [72] यहां तक कि राजनीतिक परिवारों की महिलाओं को भी चुनाव को दौरान ज़्यादातर 'सुरक्षित' सीटों पर ही टिकट दिया जाता है. यानी ऐसी सीटों पर उन्हें उतारा जाता है, जहां पहले परिवार के किसी पुरुष सदस्य ने जीत हासिल की हो और जहां से परिवार की महिला उम्मीदवार की जीत एक लिहाज़ से पक्की होती है. [73] हालांकि, ताज़ा चुनावी आंकड़े इस धारणा को झूठा साबित करते हैं, क्योंकि कुछ चुनावी नतीज़ों में सामने आया है कि महिला उम्मीदवारों के चुनाव जीतने की संभावना पुरुष उम्मीदवारों की तुलना में अधिक न भी हो, लेकिन बराबर तो होती ही है. [74] इस सबसे बावज़ूद राजनितिक गलियारों में महिला नेताओं की सफलता को हजम करना मुश्किल होता है और इसी वजह से अक्सर महिला नेता चुनाव जीतने के बाद दूसरी बार चुनाव में खड़ी नहीं होती हैं और अपने प्रशासनिक अनुभव का इस्तेमाल नहीं कर पाती है. [75]

 

  • महिलाओं को लेकर लैंगिक पूर्वाग्रह

महिला सशक्तीकरण के इतने प्रयासों के बावज़ूद महिलाओं को लैंगिक आधार पर भेदभाव का सामना पड़ता है. अधिकतर निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के अनुसार उन्हें लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है और एक महिला होने के नाते वे पंचायत में खुद को अलग-थलग महसूस करती हैं. [76] पंचायत सेक्रेटरी और दूसरे महत्वपूर्ण पदों पर जो कि प्रशासनिक भूमिकाओं वाले पद होते हैं, उन पर अधिकतर पुरुषों प्रतिनिधियों का ही कब्ज़ा होता है. इसके अलावा राजनीतिक अनुभव की कमी की वजह से पहली बार चुनाव जीतने वाली ज़्यादातर निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों को ब्लॉक के अफ़सरों, ज़िला प्रशासन के अधिकारियों और पुलिस अधिकारियों के साथ बातचीत करने में दिक़्क़त होती है. ऐसे ही हालातों की वजह से पंचायत की महिला सदस्यों से संबंधित पुरुष प्रतिनिधि दूसरे सरकारी ऑफिसों के अधिकारियों से बातचीत आदि में प्रमुख भूमिका निभाते हैं. यही कारण है कि भारत में कई ऐसे इलाक़े हैं, जहां आरक्षित सीटों पर महिलाओं को प्रॉक्सी या छद्म उम्मीदवारों के तौर पर खड़ा किया जाता है और चुना जाता है. ज़ाहिर है कि इन महिला उम्मीदरवारों की राजनीति में कोई रुचि नहीं होती है और इन पर परिवार के या फिर समाज के पुरुष सदस्यों का नियंत्रण होता है. [77]

 

वर्ष 2021 में महिला प्रतिनिधियों के समक्ष आने वाली चुनौतियों को लेकर किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि सामाजिक चुनौतियां सबसे बड़ी बाधा हैं और इनकी वजह से महिला प्रतिनिधि अपने निर्वाचन क्षेत्रों में बदलाव लाने में काफ़ी परेशानी का सामना करना पड़ता है. अध्ययन में शामिल 77 प्रतिशत निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों ने यह बात कही. [78] कई दूसरे सर्वेक्षणों से यह भी सामने आया है कि महिला प्रतिनिधियों को पुरुषों की अपेक्षा अपने मतदाताओं की ओर से कम सराहा जाता है, यानी उनके कामकाज को कम करके आंका जाता है. इतना ही नहीं गांव के लोग और मतदाता महिला प्रधान होने पर पंचायत द्वारा उपलब्ध कराई कई सेवाओं की गुणवत्ता से ख़ुश नहीं रहते हैं और उन्हें कामकाज को लेकर काफ़ी शिकायतें रहती हैं. आरक्षित सीटों से चुनाव जीतने वाली महिला प्रतिनिधि आर्थिक हैसियत के मालमे में पंचायत में मौज़ूद पुरुष प्रतिनिधियों की तुलना में कमज़ोर होती है, साथ ही उनके पास अनुभव का अभाव होता है और उनकी शैक्षणिक योग्यता भी कम होती है. इसलिए, जब मतदाता अपने नेताओं की क़ाबिलियत का मूल्यांकन करते हैं, तो कहीं न कहीं उनके जेहन में यह सभी बातें भी होती हैं. इसके अलावा, इस बात की भी प्रबल संभावना है कि ग्रामीणों के मन में यह बात गहराई से बैठ जाए कि नेता के तौर पर महिलाएं अधिक प्रभावशाली नहीं हो सकती हैं. यहां तक की महिला प्रतिनिधियों द्वारा अपने कामकाज के बल पर मिसाल क़ायम करने के बावज़ूद ग्रामीण अपनी सोच को बदल नहीं पाते हैं. [79]

 अध्ययनों से यह भी स्पष्ट तौर पर सामने आया है कि जिन निर्वाचन क्षेत्रों को महिलाओं के लिए आरक्षित किया गया है, उनमें नागरिक सुविधाओं, स्कूलों, चिकित्सा सुविधाओं और उचित मूल्य की दुकानों के मामले में काफ़ी प्रगति हुई है. 

ऐसा भी देखने को मिलता है कि ज़्यादातर महिला प्रतिनिधि दूसरी बार चुनाव मैदान में नहीं उतरती हैं और अगर चुनाव लड़ती भी हैं, तो जीत नहीं पाती हैं. इसके पीछे सामाजिक पूर्वाग्रह और लोगों की महिलाओं की प्रति दकियानूसी सोच प्रमुख कारण हो सकता है. पंचायत सदस्य रह चुकीं पूर्व महिला प्रतिनिधियों के मुताबिक़ पंचायतों में प्रशासनिक कार्य महिलाओं के लिए उपयुक्त नहीं हैं. इन पूर्व महिला प्रतिनिधियों ने यह भी कहा कि वे पंचायत में अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में खुद को अयोग्य महसूस करती थीं, इतना ही नहीं उन्हें अक्सर दोबारा चुनाव लड़ने को लेकर हतोत्साहित भी किया जाता था. कई पूर्व महिला प्रतिनिधियों ने यह भी कहा कि वे पंचायत की ज़िम्मेदारियों और घरेलू कार्यों के बीच संतुलन बनाए रखने में दिक़्क़तों का सामना करती थीं, इतना ही नहीं उन्हें पति या परिवार के विरोध से भी जूझना पड़ता था. विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में वर्ष 2019 में किए गए एक सर्वे में सामने आया कि महिलाओं को राजनीतिक संस्थानों और चुनावी नियमों के बारे में बेहद कम जानकारी थी. 30 वर्षों से महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था होने के बावज़ूद 27 प्रतिशत महिलाओं को यह तक नहीं मालुम था कि महिलाएं पंचायत की सदस्य बन भी सकती हैं या नहीं, क्योंकि इन महिलाओं ने इससे जुड़े सवाल का नहीं में जवाब दिया था. इसी सर्वेक्षण में यह भी पता चला कि ऐसे गांवों में जहां प्रधान के पद पर महिला है, वहां अपनी समस्या के समाधान के लिए महिलाओं की प्रधान से मिलने की कोशिश करने की संभावना सिर्फ़ 6 प्रतिशत अंक ही अधिक है. [80] अर्थात गांवों में लिंग आधारित पूर्वाग्रह अभी भी क़ायम हैं, यानी महिलाओं के प्रधान बनने के बावज़ूद लोगों को उनकी क्षमता पर भरोसा नहीं है.

 

  • महिलाओं में डिजिटल साक्षरता की कमी

ज़ाहिर है कि भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की डिजिटल संसाधानों तक पहुंच और समझ कम है, ख़ास तौर पर ग्रामीण इलाक़ों में तो महिलाओं की डिजिटल समझ बेहद कम है, जो कि महिला निर्वाचित प्रतिनिधियों के कामकाज में रुकावट डालने का काम करती है. [81] वर्तमान दौर में देश भर में सरकारी कामकाज में डिजटलीकरण बढ़ा है और ग्राम पंचायत व ब्लॉक स्तर पर लोकल गवर्नमेंट्स द्वारा सार्वजनिक सेवाओं को जन-जन तक पहुंचाने के लिए एवं उनकी शिकायतों का समाधान तलाशने में तेज़ी से डिजिटलीकरण अपनाया जा रहा है. बिहार में किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ सिर्फ़ 63 प्रतिशत निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के पास फोन था और उनमें से केवल 24 प्रतिशत महिला प्रतिनिधियों के पास स्मार्टफोन था. [82] देखा जाए तो पंचायतों में महिला प्रतिनिधियों के प्रशासनिक कार्यों को कुशलतापूर्वक संचालित करने में कम डिजिटल साक्षरता एक बड़ी बाधा बनी हुई है. [83]

 

  • दो बच्चों का मानदंड और न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता

भारत में कुछ राज्य, जैसे कि राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना  द्वारा 'दो-बच्चों' के मानदंड का पालन किया जाता है. [J] यानी इन राज्यों में दो से ज़्यादा बच्चों वाले उम्मीदवारों के पंचायत चुनाव लड़ने पर पाबंदी है. सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्यों के इस क़ानूनी प्रावधान को मान्यता प्रदान की है. [84]  इसके अलावा, हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्यों ने उम्मीदवारों के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता भी निर्धारित की है. ये सभी नीतियां जाने-अनजाने में महिलाओं के राजनीति में प्रवेश में रुकावट पैदा करती हैं, क्योंकि अक्सर गांवों में महिलाएं अधिक पढ़ी-लिखी नहीं होती है, साथ ही परिवार नियोजन में उनकी भूमिका सीमित होती है. [85] महिला नेताओं की ओर से ऐसे प्रावधानों पर चिंता जताते हुए इनका विरोध किया गया है. ज़ाहिर है कि ऐसे प्रावधान पंचायत स्तर महिलाओं के राजनीति में उतरने में अवरोध पैदा करते हैं. [86]

 

नीतिगत सिफ़ारिशें

भारत में जब से पंचायतों में महिलाओं के लिए सीटें अरक्षित करने का प्रावधान किया गया है, तब से गांव, ब्लॉक और ज़िला स्तर पर पंचायतों में न सिर्फ़ महिलाओं की समुचित भागीदारी सुनिश्चित हुई है, बल्कि वे विकास कार्यों में अपना योगदान भी दे पा रही हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि आरक्षण मिलने मात्र से महिलाओं के लिए सबकुछ ठीक हो गया है. सच्चाई यह है कि पंचायतों में चुनी जाने वाली महिला प्रतिनिधियों को अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वहन करने के दौरान तमाम चुनौतियों का भी सामना पड़ता है. ऐसे में संस्थागत सुधारों के ज़रिए, क्षमता निर्माण पर ध्यान देकर और सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों के माध्यम से इन चुनौतियों का समाधान किए जाने की ज़रूरत है. भारत के गांवों में स्थानीय राजनीतिक गतिविधियों में महिलाओं की ज़्यादा से ज़्यादा भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए निम्नलिखित सिफ़ारिशें बेहद महत्वपूर्ण हैं.

 

  • महिला प्रतिनिधियों के क्षमता निर्माण से जुड़े कार्यक्रमों मे बढ़ोतरी

 

ज़ाहिर है कि अगर निर्वाचित महिला प्रतिनिधि प्रशिक्षित होंगी, तो वे पंचायत के कामकाज को संचालित करने में अपनी भूमिका और ज़िम्मेदारियों को अपने बलबूते संभाल सकेंगी. सरकारी प्रशिक्षण संस्थानों द्वारा सिविल सोसाइटी के संगठनों के सहयोग से नवनिर्वाचित महिला प्रतिनिधियों की क्षमता निर्माण के लिए चलाए गए प्रशिक्षण कार्यक्रमों का सकारात्मक असर देखने को मिला है. हालांकि, इस प्रकार से प्रशिक्षण कार्यक्रमों को थोड़े-थोड़ समय के बाद आयोजित करते रहना चाहिए. इसके साथ ही ऐसे प्रशिक्षण कार्यक्रमों की गुणवत्ता पर भी नज़र रखने की आवश्यकता है. इसके अलावा, पंचायत के लिए निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों की डिजिटल समझ-बूझ को निखारने पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए. अक्सर देखा जाता है कि महिला प्रतिनिधि सार्वजनिक रूप से बोलने में झिझकती हैं और ऐसे प्रशिक्षण कार्यक्रमों में पुरुष प्रतिनिधियों की तुलना में महिलाओं द्वारा कम सवाल पूछे जाते हैं. [87] इसके लिए ज़रूरी है कि महिला प्रतिनिधियों को सहज माहौल में प्रशिक्षण दिया जाए, जहां वे बेझिझक होकर अपने सवाल पूछ सकें और चर्चा-परिचर्चा में हिस्सा ले सकें.

 

  • स्वयं सहायता समूहों के साथ मेलजोल को बढ़ावा देना

 

भारत के तकरीबन सभी राज्यों में देखा जाता है कि पंचायत के लिए निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के कामकाज में हाथ बंटाने और सरकारी योजनाओं एवं कार्यक्रमों को जन-जन तक पहुंचाने में महिला स्वयं सहायता समूह मदद करते हैं. [88] ज़ाहिर है कि पंचायत का चुनाव लड़ने वाली तमाम महिलाएं ऐसी हैं, जो किसी न किसी स्वयं सहायता समूह से जुड़ी होती हैं. वर्ष 2021 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार SHGs के साथ काम कर चुकी महिलाएं राजनीति में आने पर अपनी ज़िम्मेदारियों को ज़्यादा प्रभावी तरीक़े से संभालती हैं. इसकी वजह है कि SHGs में कार्य करने के दौरान उन्हें एक बड़े नेटवर्क से जुड़ने का अवसर मिलता है और उनमें मिलजुल कर कार्य करने की योग्यता विकसित होती है, जिससे उन्हें लोगों के बीच जाकर काम करने का अच्छा-ख़ासा अनुभव प्राप्त होता है. [89] केरल की बात की जाए, तो पंचायत की महिला प्रतिनिधियों और SHGs का यह मेलजोल वहां ख़ास तौर पर सफल रहा है. केरल में कुदुम्बश्री कार्यक्रम ने पंचायतों के विकास से संबंधित पहलों की सफलता में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है. अगर सरकार और स्वयं सहायता समूहों के इस तरह के साझा प्रयासों में बढ़ोतरी की जाए, तो निश्चित तौर पर इससे न सिर्फ़ महिला प्रतिनिधियों की राजनीतिक समझ बढ़ेगी, बल्कि स्थानीय राजनीति और विकास से जुड़े कार्यों में उनकी भागीदारी में भी इजाफ़ा हो सकता है.

 

  • निगरानी और जागरूकता अभियान

 

पंचायतों में महिलाओं की संख्यां से जुड़े आंकड़ों पर नज़र डालें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि पंचायतों में महिलाओं की अच्छी-ख़ासी भागीदारी है. लेकिन महिलाओं की भागीदारी से जुड़ी वास्तविकता पर नज़र डालें तो कुछ और ही तस्वीर सामने आती है. दरअसल, कई जगहों पर आज भी ऐसा है कि महिला पदाधिकारियों को उनके परिवार या समाज के पुरुष सदस्यों द्वारा नियंत्रित किया जाता है, यानी महिला प्रतिनिधियों को एक तरह से रबर स्टाम्प की भांति उपयोग किया जाता है और इस प्रकार से महिला नेताओं की राजनीतिक हैसियत को चोट पहुंचाई जाती है. इसके लिए ज़रुरी है कि जिन राज्यों में इस तरह की घटनाएं सामने आती हैं, वहां स्थानीय प्रशासन के अधिकारियों को महिला पंचायत प्रतिनिधियों के कामकाज पर नज़दीकी से नज़र रखी जाए और इसके लिए अलग से एक तंत्र विकसित किया जाए. इससे यह सुनिश्चित हो सकेगा कि महिला प्रतिनिधित पंचायत से जुड़ी गतिविधियों को स्वतंत्र तरीक़े से अंज़ाम दे पाएंगी और उसमें समाज के पुरुष सदस्यों की दख़लंदाज़ी नहीं होगी. इसके साथ ही, महिला उम्मीदवारों और प्रतिनिधियों की सुरक्षा का भी पुख़्ता इंतज़ाम किया जाना चाहिए, ताकि हिंसा का डर महिलाओं को स्थानीय चुनाव लड़ने से न रोक पाए. ऐसे में सरकार द्वारा गांवों में शुरू किए गए जागरूकता अभियान राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को लेकर पूर्वाग्रहों और दकियानूसी विचारों को बदलने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं.

 

  • संस्थागत सुधार लागू करना

पंचायतों में महिला प्रतिनिधियों से संबंधित आंकड़ों को गौर से देखा जाए तो पता चलता है कि आम तौर पर महिला प्रतिनिधि की आर्थिक स्थिति पुरुष प्रतिनिधियों की तुलना में कमज़ोर होती है. पंचायत चुनाव के उम्मीदवार के तौर पर और पंचायत सदस्य के तौर पर, दोनों की स्थितियों में आरक्षित सीट से चुनाव लड़ने वाली महिलाएं आर्थिक दिक़्क़तों में घिरी होती हैं. [K], [90] ऐसे में अगर आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवारों की महिला उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिए सरकार द्वारा राशि प्रदान की जाए या फिर राजनीतिक दलों द्वारा उनका सहयोग किया जाए, तो निश्चित तौर पर अधिक संख्या में महिलाएं पंचायत चुनाव लड़ने के लिए आगे आएंगी, साथ ही वे दोबारा चुनाव लड़ने की भी हिम्मत जुटा पाएंगी. इसके अलावा, अगर निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों को वेतन के रूप में अधिक धनराशि दी जाती है, वे तमाम सामाजिक बंधनों के बावज़ूद पंचायत से जुड़ी गतिविधियों में अधिक दिलचस्पी दिखाएंगी और समर्पित होकर कार्य कर पाएंगी.

 

उत्तराखंड और कर्नाटक जैसे राज्यों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों का संगठन इस दिशा में बेहतरीन कार्य कर रहा है. यह संगठन पंचायत की महिला प्रतिनिधियों के कामकाज में सुधार लाने और गांवों या ब्लॉक में अपनी गतिविधियों को अंज़ाम देने के दौरान महिलाओं के समक्ष आने वाली चुनौतियों का समाधान तलाशने वाले प्रभावशाली प्लेटफॉर्म के तौर पर उभरा है. [91] ऐसे में इन संघों की मदद करने और इन्हें सशक्त बनाने की ज़रूरत है. इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण मसला आरक्षित सीटों से जुड़ा हुआ है. अभी हर चुनाव में सीटों का आरक्षण बदल जाता है. ऐसे में दो कार्यकाल के लिए सीटों को आरक्षित करने का प्रावधान किया जाना चाहिए. [92] इतना ही नहीं, निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के अलावा पंचायत अधिकारियों के रूप में भी अधिक संख्या में महिलाओं को नियुक्त करना चाहिए. इसके अतिरिक्त, गांव, ब्लॉक और ज़िला स्तर पर पंचायती राज संस्थाओं में सरकारी अधिकारियों एवं निर्वाचित पुरुष प्रतिनिधियों के लिए लैंगिक समानता के बारे में बताने वाले कार्यक्रमों का आयोजन करना चाहिए. पुरुष अधिकारियों एवं प्रतिनिधियों में महिलाओं के प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण विकसित होने से पंचायतों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के लिए एक व्यावहारिक और सहज माहौल तैयार होगा.

 

  • महिला प्रतिनिधियों से जुड़े सटीक आंकड़ों की आवश्यकता

 

ग्राम पंचायतों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के जुड़े आकंड़ों की बात की जाए तो, फिलहाल राज्यों के स्तर पर मैक्रो डेटा उपलब्ध हैं, जिनसे व्यापक रुझानों का ही पता चलता है. लेकिन कई ज़िलों और क्षेत्रों में प्रासंगिक ताज़ा आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, जिससे वास्तविक स्थिति पता नहीं चल पाती है. देश में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के समक्ष आने वाली चुनौतियों को लेकर व्यापक स्तर पर अलग-अलग आंकड़ों की उपलब्धता बेहद अहम हैं. व्यापक स्तर पर उपलब्ध ऐसे आंकड़ों का विश्लेषण करके ही पूरे भारत में पंचायत की राजनीति में महिलाओं के अधिक से अधिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित किया जा सकता है. इसके अतिरिक्त, पंचायत स्तर की राजनीति में महिलाओं के बढ़ते प्रतिनिधित्व में अवरोध पैदा करने वाली संस्थागत बाधाओं का समाधान तलाशने और इसके लिए नीतियां बनाने में भी ये सूक्ष्म आंकड़ें बेहद कारगर सिद्ध होंगे.

कहने का मतलब यह है कि पंचायती संस्थानों में महिलाओं का कारगर प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने में आने वाली तमाम बाधाओं और चुनौतियों को दूर करने के लिहाज़ से अभी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है. इसके लिए संस्थागत और प्रशासनिक सुधारों को अमल में लाने और महिला प्रतिनिधियों के कौशल विकास व उनकी क्षमता निर्माण से जुड़े कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने की ज़रूरत 

निष्कर्ष

भारत में पंचायत स्तर पर महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने का प्रावधान बहुत फायदेमंद रहा है. इसका सबसे बड़ा लाभ तो यह है कि इससे गांव-गांव में महिलाओं का राजनीतिक सशक्तिकरण हुआ है. यह सच्चाई है कि स्थानीय स्तर पर महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को प्रोत्साहित करने के मामले में भारत दुनिया के शीर्ष देशों में से एक है. हालांकि, इस क्षेत्र में अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है. कहने का मतलब यह है कि पंचायती संस्थानों में महिलाओं का कारगर प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने में आने वाली तमाम बाधाओं और चुनौतियों को दूर करने के लिहाज़ से अभी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है. इसके लिए संस्थागत और प्रशासनिक सुधारों को अमल में लाने और महिला प्रतिनिधियों के कौशल विकास व उनकी क्षमता निर्माण से जुड़े कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने की ज़रूरत है. इसके साथ ही महिला प्रतिनिधियों के समक्ष आने वाली चुनौतियों से जुड़े हर तरह के आंकड़ों को जुटाना भी बेहद महत्वपूर्ण है. ऐसा करने से न केवल महिलाओं की राजनीतिक हैसियत सशक्त होगी, बल्कि भारत की चुनावी राजनीति में महिलाओं की बराबरी की भागीदारी सुनिश्चित करने का मार्ग भी प्रशस्त होगा.

Endnotes:

 

[A] 74वें संशोधन अधिनियम के अतंर्गत भी महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटों को आरक्षित करने का प्रावधान किया गया है. लेकिन इस अधिनियम के बारे में इस पेपर में कोई अध्ययन नहीं किया जा रहा है, क्योंकि 74वें संशोधन के तहत शहरी क्षेत्रों यानी नगर निकायों में महिला सशक्तिकरण का प्रावधान किया गया है, जो कि इस पेपर का विषय नहीं है.

[B] PRIs का तात्पर्य ग्राम पंचायतों (ग्राम समितियों), पंचायत समितियों (ब्लॉक समितियों) और ज़िला परिषदों (ज़िला स्तर की समितियों) से है.

[C] एसडीजी का लक्ष्य 5.5: “राजनीतिक, आर्थिक और सार्वजनिक जीवन में निर्णय लेने के सभी स्तरों पर महिलाओं की पूर्ण और प्रभावशाली भागीदारी सुनिश्चित करना एवं उन्हें नेतृत्वकारी भूमिका निभाने के लिए समान अवसर उपलब्ध कराना.”

 

[D] महिला ग्राम पंचायत सदस्यों के साथ-साथ चयनित महिला प्रतिनिधियों का टेलीफोन के माध्यम से एवं व्यक्तिगत साक्षात्कार आयोजित किया गया. इस पेपर में साक्षात्कार में शामिल की गई महिला प्रतिनिधियों को पंचायत स्तर पर मिलने वाले अवसरों, चुनौतियों और उनके समग्र अनुभवों को शामिल किया गया है. पंचायत स्तर पर महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने के लिए आरक्षण नीति के प्रभाव का आकलन करने के लिए लेखकों ने पंचायती राज संस्थानों के साथ मिलकर काम करने वाले कुछ सरकारी अधिकारियों, स्वयं सहायता समूहों और सिविल सोसाइटी संगठनों से भी बातचीत की है और उनका नज़रिया जाना है.

 

[E] नागालैंड में नगरपालिका क़ानूनों के अंतर्गत वर्ष 2005 तक महिलाओं के लिए आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं था. हालांकि, आदिवासी समूह आरक्षण को लागू करने का विरोध करते रहे हैं. मिजोरम में पंचायत व्यवस्था नहीं है. मिजोरम में लोकल गवर्नमेंट का गठन स्वायत्त ज़िला परिषदों द्वारा किया जाता है, जिसमें महिलाओं के लिए आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है. मेघालय के खासी लोगों की पारंपरिक ग्राम-स्तरीय संस्था, डोरबार श्नोंग ने महिलाओं को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी है. इससे पहले, महिलाओं को डोरबार श्नोंग की बैठकों में हिस्सा लेने से रोक दिया गया था और केवल परिवार के वयस्क पुरुष सदस्य द्वारा उनका प्रतिनिधित्व किया जा सकता था. डोरबार के दबदबे की वजह से ज़्यादातर महिलाएं उनके विरुध खुलकर बोलने से कतराती हैं.

 

[F] PRIA की स्थापना वर्ष 1982 में की गई थी. यह सहभागी अनुसंधान और प्रशिक्षण के लिए एक वैश्विक केंद्र है. इसका प्रमुख कार्य सूचना और गतिशीलता के ज़रिए नागरिकों को सशक्त बनाना है, साथ ही नागरिक ज़रूरतों के प्रति सरकारी एजेंसियों को संवेदनशील बनाना है.

 

[G] भारत में लगभग 12 मिलियन स्वयं सहायता समूह हैं, जिनमें से 88 प्रतिशत SHGs ऐसे हैं, जिनमें सिर्फ़ महिला सदस्य हैं. SHGs महिलाओं को आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से सशक्त करके, उन्हें पैसे का प्रबंधन करने, वित्तीय निर्णय लेने, बेहतर सामाजिक नेटवर्क बनाने, संपत्ति का मालिकान हक़ दिलाने और आजीविका के अलग-अलग साधन उपलब्ध कराने जैसे विभिन्न तरीक़ों से सशक्त बनाकर उनकी क्षमता बढ़ाते हैं. अधिक जानकारी के लिए देखें - Sreeparna Chakrabarty, “Self Help Groups can help in widening women’s labour force participation: Economic Survey 2022-23,” The Hindu, January 31, 2023.

 

[H] इनमें नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल डेवलपमेंट, केरल इंस्टीट्यूट ऑफ लोकल एडमिनिस्ट्रेशन, सरदार पटेल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन का सेंटर फॉर पंचायत ट्रेनिंग औवं UNNATI, अहमदाबाद स्टडी एक्शन ग्रुप, इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस ट्रस्ट, SUTRA, सोसाइटी फॉर पार्टिसिपेटरी रिसर्च इन साउथ एशिया और यंग वुमन्स क्रिश्चियन एसोसिएशन जैसे NGO शामिल हैं.

 

[I] संविधान के अनुच्छेद 243डी (1) और (3) के अनुसार, एक पंचायत के भीतर विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में आरक्षित सीटों को रोटेशन द्वारा आवंटित किया जा सकता है.

 

[J] जन्म नियंत्रण से संबंधित उपायों को प्रोत्साहित करने के लिए एक सरकार की ओर से किए गए प्रयास, ' two-child' में कहा गया है कि दो से अधिक बच्चों वाले व्यक्ति को सरपंच या सदस्य के रूप में चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा. अधिक जानकारी के लिए देखें- “Two Child Policy in Indian States”, The Indian Express, October 23, 2019.

 

[K] विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुषों की तुलना में महिलाएं आर्थिक तौर पर कमज़ोर होती है. इसकी प्रमुख वजह रोज़गार के अवसरों की कमी, कम वेतन और जटिल सामाजिक-सांस्कृतिक पूर्वाग्रह हैं. इन बाधाओं की वजह से महिलाएं मज़बूरन अपने घर की चाहरदीवारी में सीमित हो जाती हैं. अधिक जानकारी के लिए देखें- Atul Thakur, “Women paid less than men for same work in towns and villages”, Times of India, March 19, 2023, http://timesofindia.indiatimes.com/articleshow/98762052.cms?from=mdr&utm_source=contentofinterest&utm_medium=text&utm_campaign=cppst

[1] Kevin Kruse, “New Research: Women more effective than men in all leadership measures,” Forbes, March 31, 2023,

https://www.forbes.com/sites/kevinkruse/2023/03/31/new-research-women-more-effective-than-men-in-all-leadership-measures/?sh=1f59a65a577a.

 

[2] Sarah Childs & Mona Lena Krook, “Critical Mass Theory and Women’s Political Representation,” Political Studies: 2008 VOL 56, 725–736, https://mlkrook.org/pdf/childs_krook_2008.pdf.

 

[3] “SDG 5: Gender Equality,” UNStatshttps://unstats.un.org/sdgs/report/2023/Goal-05/#:~:text=Quotas%20also%20contribute%20to%20higher,of%20management%20positions%20in%202021

 

[4] UN Women, “Women in Local Government,” https://localgov.unwomen.org/.

 

[5] Ministry of Panchayati Raj, “State/UT-Wise Details of Elected Representatives & EWRs,”  https://panchayat.gov.in/state-ut-wise-details-of-elected-representatives-ewrs/; “Women in Panchayati Raj Institutions: Successful for some, barriers for many,” Outlook, September 20, 2023, https://www.outlookindia.com/national/women-in-panchayati-raj-institutions-successful-for-some-barrier-for-many-news-319213

 

[6] World Economic Forum, “Global Gender Gap Report 2023,” June 2023, https://www3.weforum.org/docs/WEF_GGGR_2023.pdf.

 

[7] Ionica Berevoescu, and Julie Ballington, “Women’s Representation in Local Government: A Global Analysis,” UN Women, December 2021, https://www.unwomen.org/sites/default/files/2022-01/Womens-representation-in-local-government-en.pdf.

 

[8] Zohal Hessami and Mariana Lopes da Fonseca, “Female Political Representation and Substantive Effects on Policies: A Literature Review,” IZA Institute of Labour Economics, Discussion Paper Series, April 2020, IZA DP No. 13125.

 

[9] Ionica Berevoescu and Julie Ballington, “Women’s Representation in Local Government: A Global Analysis,” UN Women, December 2021, https://www.unwomen.org/sites/default/files/2022-01/Womens-representation-in-local-government-en.pdf.

 

[10] “India - Summary Report - National Family Health Survey 1992-93,” International Institute for Population Studies Bombay, The DHS Program, 1995, https://dhsprogram.com/pubs/pdf/SR162/SR162.pdf.

 

[11] “National Family Health Survey - 5 2019-21”, International Institute for Population Sciences, https://rchiips.org/nfhs/NFHS-5_FCTS/India.pdf.

 

[12] Anjani Datla, “Women as Leaders: Lessons from Political Quotas in India,” National Bureau of Economic Research, 2009, http://users.nber.org/~rdehejia/!@$devo/Lecture%2009%20Gender/gender%20and%20politics/HKS763-PDF-ENG2.pdf.

 

[13] T.R.Raghunandan, “Re-Energizing Democratic Decentralization in India,” Rethinking Public Institutions in India, May 18, 2017, https://doi.org/10.1093/oso/9780199474370.003.0012.

 

[14] Esther Duflo, and Petia Topalova, “Unappreciated Service: Performance, Perceptions, and Women Leaders in India,” October 2004, https://poverty-action.org/sites/default/files/publications/unappreciated.pdf.

 

[15] “Economic Survey Highlights Thrust on Rural Development,” PIB Delhi, January 31, 2023, https://pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=1894901.

 

[16] “Panchayat: A Knowledge hub”, PRIAhttps://www.pria.org/panchayathub/knowledgeresources.

 

[17] Esther Duflo, “Women Empowerment and Economic Development,” Journal of Economic Literature, December 2012, Vol. 50, No. 4, pp. 1051-1079; Nafisa Halim, Kathryn M. Yount, Solveig A. Cunningham and Rohini P. Pande, “Women’s Political Empowerment and Investments in Primary Schooling in India,” Social Indicators Research, February 2016, Vol. 125, No. 3, pp. 813-851.

 

[18] Peter Ronald deSouza, “Multi-State Study of Panchayati Raj Legislation and Administrative Reform,” Background Papers, September 27, 2000, https://documents1.worldbank.org/curated/en/958641468772791330/pdf/280140v130IN0Rural0decentralization.pdf.

 

[19] “Report On The Committee On The Status Of Women In India,” Ministry of Education and Social Welfare, Government of India, December 1974, https://pldindia.org/wp-content/uploads/2013/04/Towards-Equality-1974-Part-1.pdf.

 

[20] Ashok Mehta, “Report of the Committee on Panchayati Raj Institutions,” Government of India, 1978. https://indianculture.gov.in/reports-proceedings/report-committee-panchayati-raj-institutions.

 

[21] Sharmila Chandra. “National Perspective Plan for Women Makes No Headway,” India Today, November 7, 2013, https://www.indiatoday.in/magazine/indiascope/story/19890930-national-perspective-plan-for-women-makes-no-headway-816578-1989-09-29;

Nandini Prasad, “Training needs to women in Panchayats: An Overview,” UNESCO House, 1998.

 

[22] Raghabendra Chattopadhyay and Esther Duflo, “Women as Policy Makers: Evidence from a Randomized Policy Experiment in India,” Econometrica, September 2004, Vol. 72, No. 5, pp. 1409-1443.

 

[23] Chattopadhyay and Duflo, “Women as Policy Makers: Evidence from a Randomized Policy Experiment in India”.

 

[24] “The Constitution (Seventy-Third Amendment) Act, 1992| National Portal of India”, Government of India,  December 13, 2023, https://www.india.gov.in/my-government/constitution-india/amendments/constitution-india-seventy-third-amendment-act-1992.

 

[25] Rajesh Kumar Sinha, “Women in Panchayats,” Kurukshetra, 2018, https://www.pria.org/uploaded_files/panchayatexternal/1548842032_Women%20In%20Panchayat.pdf.

 

[26]  Anuja, “India: 25 Years on, Women’s Reservation Bill Still Not a Reality.” Al Jazeera, September 9, 2021. https://www.aljazeera.com/news/2021/9/8/25-years-india-women-reservation-bill-elected-bodies-gender.

 

[27] Madhu Joshi and Devaki Singh, “77% women in Panchayati Raj Institutions believe they can’t change things easily on ground,” The Print, April 24, 2021, https://theprint.in/opinion/77-women-in-panchayati-raj-institutions-believe-they-cant-change-things-easily-on-ground/644680/.

 

[28] Press Trust of India, December 1, 2021, https://pib.gov.in/PressReleaseIframePage.aspx?PRID=1776866#:~:text=However%2C%20as%20per%20the%20information,Uttarakhand%20and%20West%20Bengal%2C%20have

 

[29] Ashim Mukhopadhyay, “Kultikri: West Bengal's Only All-Women Gram Panchayat,” Economic and Political Weekly, June 3, 1995, Vol. 30, No. 22, pp. 1283-1285.

 

[30] Jitendra, “Democracy’s Better Half,” Down To Earth, December 15, 2014, https://www.downtoearth.org.in/coverage/democracys-better-half-47642.

 

[31] PRIA, “How to Conduct Mahila Sabhas?,” 2018, https://www.pria.org/knowledge_resource/1564115720How%20to%20conduct%20Mahila%20Sabhas_English.pdf

 

[32] Sarika Malhotra, “Ground Report: Is Reservation for Women in Panchayats Working at the Grassroot Level?”, Business Today, August 26, 2014, https://www.businesstoday.in/magazine/cover-story/story/bihar-women-panchayats-mgnrega-indira-awas-yojana-137007-2014-08-21; Neetu Singh, "A Gram Pradhan Has Several Responsibilities. How Can a Woman Be Expected to Handle It?,” Gaon Connection, March 14, 2020, https://en.gaonconnection.com/the-curious-case-of-female-gram-pradhan-and-their-male-representatives-who-are-their-husbands-sons-or-fathers-in-laws-yes-its-quite-common/; Uttara Chaudhuri and Mitali Sud, “Women as Proxies in Politics: Decision Making and Service Delivery in Panchayati Raj,” The Hindu Centre for Politics and Public Policy, October 16, 2015, https://www.thehinducentre.com/the-arena/current-issues/women-as-proxies-in-politics-decision-making-and-service-delivery-in-panchayati-raj/article64931527.ece#Six; Siddhartha Mukerji, “Social Roots of Local Politics: Women Contestants in the Panchayat Elections of Uttar Pradesh (2015),” Indian Journal of Gender Studies, 28(1) 113–126, 2021.

 

[33] Jiby J Kattakayam, “50% Women’s Reservation in Kerala Local Body Polls and the Diminution of a Male Bastion,” The Times of India, December 2, 2020, https://timesofindia.indiatimes.com/blogs/jibber-jabber/50-womens-reservation-in-kerala-local-body-polls-and-the-diminution-of-a-male-bastion/.

 

[34] Sanchita Hazra, “Women Participation in Panchayat Raj in West Bengal: An Appraisal,” Economic Affairs 62, no. 2 (2017): 347. https://doi.org/10.5958/0976-4666.2017.00019.5.

 

[35] “With ‘Kudumbasree’ Training, Young Kerala Women Script History,” Daijiworld, September 24, 2023, https://www.daijiworld.com/news/newsDisplay?newsID=1123585.

 

[36] B. Devi Prasad and S. Haranath, “Participation of Women and Dalits in Gram Panchayat,” Journal of Rural Development 23 (3): 297–318, 2004.

 

[37] B. Devi Prasad and S. Haranath, “Participation of Women and Dalits in Gram Panchayat”

 

[38] Pareena G. Lawrence and Kavita Chakravarty, “Life Histories of Women Panchayat Sarpanches from Haryana, India: From the Margins to the Center,” Cambridge Scholars Publishing, 2017.

 

[39] D.P. Singh, “Impact of 73rd Amendment Act on Women’s Leadership in the Punjab,” International Journal of Rural Studies 15 (1): 1–8, 2008.

 

[40] Shubhomoy Sikdar, “In Madhya Pradesh Panchayats, Husbands of Elected Women Taking Oath,” The Hindu, August 8, 2022, https://www.thehindu.com/news/national/other-states/male-family-member-take-oath-on-behalf-of-women-in-mp/article65742124.ece.

 

[41] Hiral Dave, “Husbands Make Most of Gujarat’s 50% Reservation for Women in Local Bodies,” Hindustan Times, February 3, 2017, https://www.hindustantimes.com/india-news/husbands-make-most-of-gujarat-s-50-reservation-for-women-in-local-bodies/story-JBJEf5unFrZrnHr2xp1niO.html.

 

[42] Uma Mahadevan-Dasgupta, “Why Women Are the Game-Changers in Local Governments,” The Hindu, August 24, 2022. https://www.thehindu.com/opinion/op-ed/why-women-are-the-game-changers-in-local-governments/article65804634.ece.

 

[43] Nirmala Buch, “Women’s Experience in New Panchayats: The Emerging Leadership of Rural Women,” Centre for Women’s Development Studies, Occasional Paper No. 35. 2000.

 

[44] Pareena G. Lawrence and Kavita Chakravarty, Life Histories of Women Panchayat Sarpanches from Haryana, India: From the Margins to the Center, Cambridge Scholars Publishing, 2017.

 

[45] Maninder Dabas, “8 Women Sarpanch Who Are Leading by Examples And Turning The Fortunes Of Indian Villages,” India Times, August 22, 2023, https://www.indiatimes.com/news/india/meet-these-eight-women-sanpanches-who-defied-patriarchy-and-are-doing-great-work-for-their-villages-344199.html.

 

[46] Nisha Velappan Nair, and John S. Moolakkattu, “Gender-Responsive Budgeting: The Case of a Rural Local Body in Kerala,” SAGE Open, 8, no. 1, January 2018, https://doi.org/10.1177/2158244017751572.

 

[47] B. Aravind Kumar. “Women Need Greater Say in Panchayats,” The Hindu, June 24, 2022, https://www.thehindu.com/news/national/tamil-nadu/women-need-greater-say-inpanchayats/article65532803.ece.

 

[48] “Study on EWRs in Panchayati Raj Institutions,” Ministry of Panchayati Raj, Government of India, 2008, https://accountabilityindia.in/sites/default/files/document-library/330_1260856798.pdf.

 

[49] Nirmala Buch, “Women’s Experience in New Panchayats: The Emerging Leadership of Rural Women.” Centre for Women’s Development Studieshttps://www.cwds.ac.in/wp-content/uploads/2016/09/WomensExperiencePanchayats.pdf.

 

[50] “Study on EWRs in Panchayati Raj Institutions,” Ministry of Panchayati Raj, Government of India, 2008.

 

[51] Nirmala Buch, “Women’s Experience in New Panchayats: The Emerging Leadership of Rural Women,” Centre for Women’s Development Studies, Occasional Paper No. 35. 2000.

 

[52] Neetu Singh, “A Gram Pradhan Has Several Responsibilities. How Can a Woman Be Expected to Handle It?” Gaon Connection, March 14, 2020, https://en.gaonconnection.com/the-curious-case-of-female-gram-pradhan-and-their-male-representatives-who-are-their-husbands-sons-or-fathers-in-laws-yes-its-quite-common/

 

[53] “Study on the Impact of Women GP Adhyakshas on Delivery of Services and Democratic Process”, Centre for Budget and Policy Studies, July 2015, https://cbps.in/wp-content/uploads/EWR_Final.pdf.

 

[54] “Women’s Reservation Bill: The Issues to Consider,” The Wire, September 20, 2023. https://thewire.in/government/womens-reservation-bill-the-issues-to-consider.

 

[55] Siddhartha Mukerji, “Social Roots of Local Politics: Women Contestants in the Panchayat Elections of Uttar Pradesh,” Indian Journal of Gender Studies, Volume 28, Issue 1, 2015.

 

[56] Chanpreet Khurana, “Women Panchayat Leaders Find Their Voice,” The Mint, September 21, 2015,  https://www.livemint.com/Leisure/XIVFC4NFGZHmaNWeKOYqnM/Women-panchayat-leaders-find-their-voice.html

 

[57] Lori Beaman, Esther Duflo, Rohini Pande, and Petia Topalova, “Political Reservation and Substantive Representation: Evidence from Indian Village Councils,” India Policy Forum, 2010–11,  https://www.ncaer.org/wp-content/uploads/2022/09/4_Lori-Beaman_Esther-Duflo_Rohini-Pande_Petia-Topalova.pdf.

 

[58] Raghabendra Chattopadhyay and Esther Duflo, “Women as Policy Makers: Evidence from a Randomized Policy Experiment in India,” Econometrica , Sep., 2004, Vol. 72, No. 5, pp. 1409-1443.

 

[59] “Sakshamaa Briefing Paper - Women Political Leaders in Rural Bihar: Striving for Change Amidst Socio- Cultural Restrictions,” Centre for Catalyzing Change, 2021, https://www.c3india.org/uploads/news/Briefing_Paper_EWR_Survey_22032021.pdf.

 

[60] “Decentralisation – The Path to Inclusive Governance?” Accountability Initiative, January 2010, https://accountabilityindia.in/sites/default/files/policy-brief/panchayatbrief1.pdf.

 

[61] Madhu Joshi and Devaki Singh, “77% women in Panchayati Raj Institutions believe they can’t change things easily on ground,” The Print, 24 April, 2021, https://theprint.in/opinion/77-women-in-panchayati-raj-institutions-believe-they-cant-change-things-easily-on-ground/644680/.

 

[62] Vidhatri Rao. “‘Sarpanch Pati’: The Small Steps, and Giant Leaps of Women’s Reservation,” The Indian Express, August 11, 2022. https://indianexpress.com/article/political-pulse/sarpanch-pati-madhya-pradesh-women-representatives-oath-reservation-8084346/.

 

[63] Madhu Joshi, and Devaki Singh, “77% Women in Panchayati Raj Institutions Believe They Can’t Change Things Easily on Ground,” The Print, April 24, 2021. https://theprint.in/opinion/77-women-in-panchayati-raj-institutions-believe-they-cant-change-things-easily-on-ground/644680/.

 

[64] “Training Programme Launched for Elected Women Representatives,” The Times of India, April 17, 2017, https://m.timesofindia.com/good-governance/centre/training-programme-launched-for-elected-women-representatives/amp_articleshow/58224613.cms.

 

[65] “A Case Study on Women Leadership in Panchayati Raj Institutions (PRI) at the Gram Panchayat Level,” NIRDPRhttp://nirdpr.org.in/nird_docs/casestudies/cord/cord1.pdf.

 

[66] Nandini Prasad, “Training needs to women in Panchayats: An Overview,” UNESCO House, 1998.

 

[67] Anjani Datla, “Women as Leaders: Lessons from Political Quotas in India,” John F. Kennedy School of Government (HKS), Harvard University, January 2012, http://users.nber.org/~rdehejia/!@$devo/Lecture%2009%20Gender/gender%20and%20politics/HKS763-PDF-ENG2.pdf.

 

[68] Lakshmi Iyer, Anandi Mani, Prachi Mishra, and Petia Topalova. “The Power of Political Voice: Women’s Political Representation and Crime in India,” American Economic Journal: Applied Economics 4, no. 4 (October 1, 2012): 165–93. https://doi.org/10.1257/app.4.4.165.

 

[69] Centre for Catalyzing Change, “Sakshamaa Briefing Paper - Women Political Leaders in Rural Bihar: Striving for Change Amidst Socio- Cultural Restrictions,” C3 India, 2021, https://www.c3india.org/uploads/news/Briefing_Paper_EWR_Survey_22032021.pdf

 

[70] Nupur Tiwari, “Rethinking the Rotation Term of Reservation in Panchayats”, Economic and Political Weekly,  January 31, 2009, https://www.epw.in/journal/2009/05/commentary/rethinking-rotation-term-reservation-panchayats.html

 

[71] Nupur Tiwari, “Rethinking the Rotation Term of Reservation in Panchayats,” Economic and Political Weekly, Vol. 44, No. 5, January 31, 2009, pp. 23-25

 

[72] Rajeshwari Deshpande, “How Gendered was Women’s Participation Women in Election 2004?” Economic and Political Weekly, 39(51): 5431–6, 2004.

 

[73] Carole Spary, “Women Candidates and Party Nomination Trends in India–Evidence From the 2009 General Election,” Commonwealth & Comparative Politics 52(1):109–138, 2014; Wendy Singer, ’A Constituency Suitable For Ladies’: And Other Social Histories of Indian Elections, Oxford University Press, 2007

 

[74] “Where Are the Women in Indian Politics?,” EPW Engage, ISSN (Online) – 2349-8846, May 3, 2019

 

[75] Nupur Tiwari, “Rethinking the Rotation Term of Reservation in Panchayats”

 

[76] Neeta Hardikar, “What women need to succeed in panchayat elections,” IDR Online, December 5, 2023, https://idronline.org/article/gender/what-women-need-to-succeed-in-panchayat-elections/

 

[77] Vidhatri Rao. “‘Sarpanch Pati’: The Small Steps, and Giant Leaps of Women’s Reservation,” The Indian Express, August 11, 2022, https://indianexpress.com/article/political-pulse/sarpanch-pati-madhya-pradesh-women-representatives-oath-reservation-8084346/.

 

[78] “Sakshamaa Briefing Paper - Women Political Leaders in Rural Bihar: Striving for Change Amidst Socio- Cultural Restrictions,” C3India., 2021, https://www.c3india.org/uploads/news/Briefing_Paper_EWR_Survey_22032021.pdf.

 

[79] “Study on EWRs in Panchayati Raj Institutions,” Ministry of Panchayati Raj, Government of India, 2008

 

[80] Lakshmi Iyer and Anandi Mani, “The Road Not Taken: Gender Gaps along Paths to Political Power,” Ideas For India, May 21, 2019, https://www.ideasforindia.in/topics/social-identity/the-road-not-taken-gender-gaps-along-paths-to-political-power.html.

 

[81] Akshay Atmaram Tarfe, “Women, Unemployed, Rural Poor Lagging Due to Digital Divide: Oxfam India Report,” Oxfam India, 2022, https://www.oxfamindia.org/press-release/women-unemployed-rural-poor-lagging-due-digital-divide-oxfam-india-report.

 

[82] Centre for Catalyzing Change, “Sakshamaa Briefing Paper - Women Political Leaders in Rural Bihar: Striving for Change Amidst Socio- Cultural Restrictions.” C3India, 2021, https://www.c3india.org/uploads/news/Briefing_Paper_EWR_Survey_22032021.pdf.

 

[83] Neeta Hardikar, “What Women Need to Succeed in Panchayat Elections,” India Development Review, December 5, 2023, https://idronline.org/article/gender/what-women-need-to-succeed-in-panchayat-elections/.

 

[84] Dhananjay Mahapatra, “2-child norm valid even if 3rd given for adoption: SC,” The

Times of India, October 25, 2018, http://timesofindia.indiatimes.com/articleshow/66355638.cms?from=mdr&utm_source=contentofinterest&utm_medium=text&utm_campaign=cppst

 

[85] Tanushree Gupta, Susobhan Maiti, Meenakshi Y, and Anindita Jana, “Gender Gap in Internet Literacy in India: A State-Level Analysis, ” Research Square, April 26, 2023, https://assets.researchsquare.com/files/rs-2846253/v1/7cffcd82-6a7d-4bf8-b6a8-3b87159b8410.pdf?c=1682488847.

 

[86] Legal Correspondent, “Govt. Can’t Punish Us for Lack of Education: Women on Haryana New Poll Law,” The Hindu, October 8, 2015, https://www.thehindu.com/news/national/women-candidates-hit-back-at-haryanas-new-poll-law-on-education-qualification/article7735734.ece.

 

[87] Nandini Prasad, “Training needs of women in Panchayats: An Overview,” UNESCO, 1998

 

[88] Sushmita Mukherjee, “Empowering Women in India through Self-Help Groups,” Global Communities, April 2022, https://globalcommunities.org/blog/empowering-women-in-india-through-self-help-groups/.

 

[89] Soledad Artiz Prillaman, “Strength in Numbers: How Women’s Groups Close India’s Political Gender Gap,” American Journal of Political Science 67, no. 2 (September 14, 2021): 390–410. https://doi.org/10.1111/ajps.12651.

 

[90] “Women’s Leadership in Panchayati Raj Institutions: An analysis of six states (Haryana, Himachal Pradesh, Kerala, Maharashtra, Odisha, Uttar Pradesh),” PRIA, November 1999,

https://pria.org/knowledge_resource/1533206139_Women%E2%80%99s%20Leadership%20in%20Panchayati%20Raj%20Institutions.pdf

 

[91] “Strengthening Women’s Leadership”, Parivartanhttp://www.parivartan.org.in/Programs/Women%20Leadership.html.

 

[92] Nupur Tiwari, “Rethinking the Rotation Term of Reservation in Panchayats”.

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Authors

Sunaina Kumar

Sunaina Kumar

Sunaina Kumar is a Senior Fellow at ORF and Executive Director at Think20 India Secretariat. At ORF, she works with the Centre for New Economic ...

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Ambar Kumar Ghosh

Ambar Kumar Ghosh

Ambar Kumar Ghosh is an Associate Fellow under the Political Reforms and Governance Initiative at ORF Kolkata. His primary areas of research interest include studying ...

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