Occasional PapersPublished on Mar 16, 2024
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चीन की ‘त्रिकोणीय युद्ध’ की रणनीति: भारत-चीन सीमा, आर्कटिक एवं अंटार्कटिका पर असर का आकलन!

  • Kartik Bommakanti

    चीन की तीन ‘थ्री वारफेयर’ स्ट्रैटेजी (TWS) यानी तीन युद्ध की रणनीति को जनता की राय अर्थात लोक-मत, मनोवैज्ञानिक और क़ानूनी युद्ध के तौर पर समझा जाता है. चीन की इस रणनीति को देखा जाए तो दुनियाभर में पर्याप्त तवज्जो मिली है, लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि चीन की इस रणनीति के जितने भी विश्लेषण किए गए हैं, उनमें से ज़्यादातर में ताइवान पर चीन के दावे और दक्षिण चीन सागर एवं पूर्वी चीन सागर में उसके समुद्री दावों पर ही ध्यान केंद्रित किया गया है. यह सामयिक पेपर लद्दाख में भारत के विरुद्ध चीन की इस थ्री वारफेयर रणनीति का विस्तृत विश्लेषण किया गया है, साथ ही आर्कटिक एवं अंटार्कटिका में भी चीन द्वारा इसी तरह की रणनीति अपनाए जाने का गहराई से मूल्यांकन किया गया है. इस सामयिक पेपर में चीन द्वारा उन भौगोलिक क्षेत्रों में भी अपनी TWS रणनीत के इस्तेमाल पर चर्चा की गई है, जिन क्षेत्रों पर पहले कभी ध्यान नहीं दिया गया, यानी जिन्हें नज़रंदाज़ किया गया था. इस चर्चा का मकसद ऐसे क्षेत्रों को लेकर नीति निर्माताओं की समझबूझ को बढ़ाना है, उसे व्यापक बनाना है.

Attribution:

कार्तिक बोम्माकांति, “चीन की ‘त्रिकोणीय युद्ध’ की रणनीति: भारत-चीन सीमा, आर्कटिक एवं अंटार्कटिका पर असर का आकलन!” ओआरएफ़ सामयिक पेपर नंबर 426, फरवरी 2024, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन.

प्रस्तावना

चीन की 'तीन युद्धों' की रणनीति (TWS) न केवल भारत के विरुद्ध, बल्कि दूसरे क्षेत्रों में भी उसकी सैन्य रणनीति के लिए बहुत अहम है. चीन की यह रणनीति कहीं न कहीं बहुत कारगर है और संभावित रूप से न केवल उन देशों के ख़िलाफ़ उसकी स्थिति को मज़बूत करेगी, जिनसे उसका सीमा विवाद है, बल्कि विश्व के उन क्षेत्रों में भी कारगर सिद्ध होगी, जहां उसका भूमि से जुड़ा कोई विवाद नहीं है. उदाहरण के तौर पर बीजिंग की और से आर्कटिक और अंटार्कटिका जैसे क्षेत्रों में तेज़ी के साथ संसाधन हथियाए जा रहे हैं, जबकि देखा जाए तो ये ऐसे इलाक़े हैं, जहां चीन का कुछ भी लेनादेना नहीं है.

 

TWS चीन की व्यापक रणनीति का हिस्सा है, जो उसकी बगैर किसी ख़र्च के, बिना किसी विशेष प्रयास के कार्यकुशलता के साथ आगे बढ़ने के इच्छा पर आधारित है. चीन ने अप्रैल-मई 2020 में पूर्वी लद्दाख में जिन क्षेत्रों पर कब्ज़ा किया था, उनमें से कम से कम दो प्रमुख क्षेत्रों को खाली करने से लगातार इनकार करता रहा है,[A] जो यह दिखाता है कि किस प्रकार से चीन ने अपने हित में तीन युद्ध की रणनीति का फायदा उठाया है. जैसे-जैसे चीन की ताक़त बढ़ रही है, उसके लिए लद्दाख और अर्कटिक एवं अंटार्कटिका जैसे ध्रुवीय क्षेत्रों में अपनी गतिविधियों को संचालित करना आसान होता जा रहा है. ज़ाहिर है कि ताक़त बढ़ने के साथ ही महाशक्तियों की इच्छाएं बढती जाती हैं, उनके लक्ष्य बदल जाते हैं और वे अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए नए-नए अवसरों की तलाश में रहती हैं. [1] चीन की पारंपरिक रणनीति कम से कम प्रयासों के ज़रिए अधिक से अधिक फायदा उठाने की रही है और थ्री वारफेयर स्ट्रैटेजी इसी परंपरा के मुताबिक़ है, यानी वह बेहद सधे हुए तरीक़े से, धैर्य के साथ अपने मंसूबों को आगे बढ़ा रहा है, ताकि उसे विरोधियों के कम से कम प्रतिरोध का सामना करना पड़े और वो अपने मकसद को बिना किसी हो-हल्ले के सफलतापूर्व हासिल कर सके. जिस प्रकार से दिनों-दिन चीन की ताक़त में इज़ाफा हो रहा है, उसने चीन को अपने मंसूबों को क़ामयाब करने के लिए और अधिक सक्षम एवं सशक्त बना दिया है.

 चीन ने अप्रैल-मई 2020 में पूर्वी लद्दाख में जिन क्षेत्रों पर कब्ज़ा किया था, उनमें से कम से कम दो प्रमुख क्षेत्रों को खाली करने से लगातार इनकार करता रहा है,  जो यह दिखाता है कि किस प्रकार से चीन ने अपने हित में तीन युद्ध की रणनीति का फायदा उठाया है. 

अगर चीन की तीन युद्ध रणनीति की उत्पत्ति की बात की जाए, तो सैद्धांतिक रूप से इसकी जड़ें सदियों पहले चीन के सैन्य जनरल रहे सन त्ज़ू द्वारा प्रस्तुत किए गए सिद्धांतों में दिखाई देती हैं. सन त्ज़ू ने सदियों पहले कहा था कि "एक कुशल नेता बिना किसी लड़ाई के दुश्मन की सेना पर अपना अधिकार स्थापित कर लेता है" [2], साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि "सभी युद्ध छल, प्रपंच और चालाकी से जीते जाते हैं." [3] देखा जाए तो चीन की थ्री वारफेयर स्ट्रैटेजी कहीं न कहीं इसी का अनुकरण करती है और बग़ैर अधिक प्रयासों के युद्ध में जीत की गारंटी देती है. चीन की यह रणनीति किसी ऑपरेशन या मिशन को आगे बढ़ाने से पहले अपने हित में सूचनाओं को फैलाने या कहें कि दुष्प्रचार के ज़रिए माहौल को अपने पक्ष में करने में अहम भूमिका निभाती है.[4] चीन की आधुनिक TWS परिकल्पना के बारे में 1999 में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) के दो शोधकर्ताओं द्वारा प्रकाशित क़िताब अनरिस्ट्रिक्टेड वारफेयर के माध्यम से भलीभांति समझा जा सकता है.[B], [5], [6] वर्ष 2002 आते-आते चीनी सेना, अर्थात पीएलए काफ़ी विकसित हो गई थी, यानी हर तरह से आधुनिक हो गई थी और इसी के मद्देनज़र चीन की तीन युद्ध रणनीति का भी विस्तार किया गया और क़ानूनी, मनोवैज्ञानिक एवं मीडिया युद्धों के माध्यम से अपनी जीत सुनिश्चित करने की कोशिश की गई.[7]

 

जिस प्रकार से चीन की हरकतें हैं और विभिन्न देशों के साथ उसका बर्ताव है, अगर उसे गहराई से देखें, तो साफ प्रतीत होता है कि धूर्तता, कपट और चालाकी, साथ ही किसी भी तरह से खुद को आगे रखना उसकी TWS का मुख्य मकसद है. चीन की इन्हीं हरकतों की वजह से अमेरिका ने आर्कटिक इलाक़े में उसके अतिक्रमण को रोकने के लिए आनन-फानन में क़दम उठाए हैं. इसी के तहत अमेरिकी सेना ने आर्कटिक से निकट स्थित अलास्का में अलग-अलग तरह के अभियानों को संचालित करने के लिए सैनिकों को तैनात किया है. ज़ाहिर है कि वहां सैनिकों की तैनाती आर्कटिक में क्षेत्रीय और सैन्य मौज़ूदगी के रूस व चीन की कोशिशों का सामना करने के अमेरिका के महत्वपूर्ण प्रयासों का ही एक हिस्सा है. आर्कटिक की तरह ही अंटार्कटिका भी महाशक्तियों की रणनीतिक होड़ का एक अन्य संभावित क्षेत्र बन गया है. जिस तरह से लद्दाख और भारत-चीन सीमा पर चीन ने अपने मंसूबों को अंज़ाम दिया है, उससे साफ पता चलता है कि अंटार्कटिका इलाक़े में चीन के क्या इरादे हैं. किसी भी जगह अपना प्रभुत्व जमाने के लिए चीन की रणनीति सलामी स्लाइजिंग की होती है, यानी फूट डालो और कब्ज़ा करो की होती है, अर्थात चीन छोटे-छोटे क्षेत्रों में अतिक्रमण करके दूसरे की ज़मीन पर हावी होना चाहता है और अंटार्कटिका में भी वह ऐसा ही कर रहा है.[C] उल्लेखनीय है कि वर्तमान हालातों में यह मुद्दा ख़ास तौर पर प्रासंगिक है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि चीन द्वारा पड़ोसी देशों से ख़तरों का हवाला देते हुए हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपने समुद्री विस्तार और नौसेना की मौज़ूदगी को ज़ायज ठहराया जाता है और इस पूरी क़वायद में अक्सर चीन द्वारा किए जा रहे सैन्य ताक़त के उपयोग को नज़रंदाज़ कर दिया जाता है. चीन की इस रणनीतिक चालबाज़ी के लिहाज़ से देखा जाए तो अंटार्कटिका उसके लिए बेहद मुफ़ीद जगह है. ऐसा इसलिए, क्योंकि यह उसकी छोटे-छोटे क्षेत्रों में अतिक्रमण करके बड़े हिस्से पर अपना कब्ज़ा जमाने और अपनी सेनाओं की वहां तैनाती की रणनीति के अनुरूप सटीक जगह है. सबसे बड़ी बात यह है कि चीन को अंटार्कटिका क्षेत्र में अपनी इन हरकतों का ज़्यादा विरोध होने की भी कोई चिंता नहीं है.

 

चीन की ओर से समुद्र में अपनी मौज़ूदगी और स्थिति को मज़बूत करने के लिए तमाम प्रयास किए गए हैं, बावज़ूद इसके दक्षिण चीन सागर (SCS) में मौज़ूद चीनी कृत्रिम द्वीपों पर हमलों की आशंका बनी हुई है. ख़ास तौर पर इन कृत्रिम द्वीपों पर विरोधी देशों की नौसेना के हमलों, उनमें भी अमेरिकी नेवी के हमलों की प्रबल आशंका बनी हुई है.[8] समुद्र पर अपने दबदबे को मज़बूत करने के साथ ही, जिस प्रकार से चीन द्वारा दक्षिण चीन सागर और पूर्वी चीन सागर से होकर गुजरने वाले जहाजों की आवाजाही को नियंत्रित करने की कोशिश की जा रही है, उससे एक नई चुनौती खड़ी हो गई है. इस सबके अलावा बीजिंग की ओर से इन समुद्री इलाक़ों को एंटी-एक्सेस/एरिया नहीं मानने की रणनीति अपनाई गई है, इससे भी हालात और पेचीदा हो गए हैं. दरअसल, चीन की इस रणनीति का उद्देश्य अमेरिका और सहयोगी देशों की नौसेनाओं को अपने समुद्री तटों के पास नहीं फटकने देना है और ऐसा करके वह पूरे इलाक़े में समुद्री नियंत्रण हासिल करना है.[9] इन्हीं सब वजहों से दिनों-दिन मज़बूत होती जा रही चीनी नौसेना और विभिन्न समुद्री क्षेत्रों पर उसकी ओर से किए जा रहे समुद्री दावे वैश्विक चिंता का कारण बन रहे हैं.

 

इस पेपर में विस्तार से विश्लेषण किया गया है कि लद्दाख में ज़मीन कब्ज़ाने के लिए चीन द्वारा अपनी इस तीन युद्ध की रणनीति का किस प्रकार से इस्तेमाल किया गया है. इसके अतिरिक्त इस पेपर में इस बात की भी पड़ताल की गई है कि आर्कटिक और अंटार्कटिका में चीन द्वारा TWS का किस प्रकार से उपयोग किया जा रहा है. ज़ाहिर है कि चीन के इन संभावित प्रयासों को लेकर अमेरिका की सेना सतर्क है और उसने इसका मुक़ाबला करने के लिए कमर कस ली है. चीन की TWS सलामी स्लाइसिंग यानी छोटे-छोटे अतिक्रमणों के ज़रिए बड़े भू-भाग पर कब्ज़ा करने की रणनीति के सहारे आगे बढ़ती है, जिससे उसे अपन लक्ष्य हासिल करने में आसानी होती है. कहने का मतलब यह है कि इस रणनीति में युद्ध किए बगैर विवादास्पद इलाक़े में कब्ज़ा करने के लिए सैन्य ताक़त का इस्तेमाल करना, साथ ही हमला करने वाले देश में ऐसा वातावरण तैयार करना शामिल है, जिसमें दूसरा देश प्रतिक्रिया देने की हालत में ही नहीं रहे और इस प्रकार से बिना ज़्यादा हलचल मचाए एकतरफा सफलता हासिल करना शामिल है.[10] यही वजह है कि चीन द्वारा अपनी इस रणनीति को बार-बार अमल में लाया जाता है और निसंदेह तौर पर इसके नतीज़े उसके पक्ष में ही होते हैं. इस प्रकार से देखा जाए तो, चीन की तीन युद्ध रणनीति का असर बहुत व्यापक है और लद्दाख व भारत-चीन सीमा में चीनी दख़ल को लेकर भारत को जो अनुभव मिला है, इस चीनी रणनीति का प्रभाव उससे भी बहुत ज़्यादा है.

 

जानिए, क्या है चीन की ‘थ्री वारफेयर’ रणनीति

सैन्य नज़रिए से देखा जाए तो चीन की थ्री वारफेयर स्ट्रैटेजी का मुख्य मकसद विरोधी के इलाक़े में सूचना युद्ध छेड़ना है, यानी सूचनाओं पर अपनी पकड़ स्थापित करना है और अपने हित में दुष्प्रचार को फैलाना है, ताकि नतीज़ों को अपने मुताबिक़ निर्धारित किया जा सके.[11] उल्लेखनीय है कि सूचना युद्ध की प्राथमिकता अपने पक्ष में माहौल बनाकर लाभ हासिल करना होता है.[12] बुनियादी तौर पर TWS चीन की प्रचीन संस्कृति की ही देन है, जिसमें छल-कपट, धोखेबाज़ी और किसी कार्य को कुशलता के साथ करने को प्राथमिकता में रखा जाता है. जबकि मौज़ूदा दौर की बात की जाए, तो चीन ने अमेरिका द्वारा पहले खाड़ी युद्ध (1991) के दौरान चलाए गए सैन्य अभियान और कोसोवो के विरुद्ध उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन के नेतृत्व वाले अमेरिकी सैन्य अभियान (1999) से जो कुछ सीखा है, उसे भी उसने अपनी TWS रणनीति में समाहित किया है.[13] किसी भी सैन्य अभियान या सैन्य मिशन में सूचना युद्ध एक शुरुआती क़दम होता है और ख़ास तौर पर बेहद प्रभावशाली भी होता है, क्योंकि इसमें दुश्मन देश पर सीधे तौर पर हमला नहीं किया जाता है और उसके सैन्य ठिकानों को निशाना नहीं बनाया जाता है.[14] इसके बजाए, चीन की तीन युद्ध रणनीति में मनोवैज्ञानिक युद्ध, मीडिया या जनमत युद्ध और क़ानूनी युद्ध शामिल हैं. इसलिए, चीन की इस तीन युद्ध रणनीति का पारंपरिक युद्ध से कोई लेनादेना नहीं है, बल्कि इसका मकसद चीन की कूटनीतिक पहलों की मदद करना है और दुश्मन देशों की निर्णय लेने की प्रक्रिया को प्रभावित करना है, अर्थात उन्हें कोई फैसला लेने में लाचार बनाना है.[15]

 मनोवैज्ञानिक युद्ध के मूल में जो सबसे बड़ी बात निहित होती है, वो है कम से कम प्रयासों के माध्यम से अधिक से अधिक सफलता हासिल करना.  जहां तक लोक-मत युद्ध या कहा जाए की जनता के राय-विचार को प्रभावित करने वाले युद्ध की बात है, तो यह पूरी तरह से संचार प्रक्रिया पर आधारित होता है, यानी इसे मीडिया के माध्यम से लड़ा जाता है.

मनोवैज्ञानिक युद्ध में दुश्मन देश या उसके इलाक़ों ऐसे तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं, जिनसे दुश्मन की समझबूझ, भावनात्मक नज़रिया, इच्छाशक्ति और उसका बर्ताव प्रभावित होता है.[16] ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि दुश्मन मन से टूट जाए और किसी विपरीत परिस्थिति में कड़ी प्रतिक्रिया न जता सके. मनोवैज्ञानिक युद्ध के मूल में जो सबसे बड़ी बात निहित होती है, वो है कम से कम प्रयासों के माध्यम से अधिक से अधिक सफलता हासिल करना.[17] जहां तक लोक-मत युद्ध या कहा जाए की जनता के राय-विचार को प्रभावित करने वाले युद्ध की बात है, तो यह पूरी तरह से संचार प्रक्रिया पर आधारित होता है, यानी इसे मीडिया के माध्यम से लड़ा जाता है. जब दो देशों के बीच संघर्ष या टकराव के हालात बनते हैं, तो अमूमन दोनों तरफ से सूचनाओं को प्रसारित करने के लिए टीवी, रेडियो, प्रिंट और इंटरनेट जैसे विभिन्न मीडिया माध्यमों का इस्तेमाल किया जाता है. मीडिया के इन सभी माध्यमों से सूचना का संचार एक सोची-समझी रणनीति के ज़रिए किया जाता है, जिसमें "ख़ास जानकारी या सूचना को योजनाबद्ध तरीक़े से किसी विशेष मकसद की पूर्ति के लिए फैलाया जाता है.[18] इतना ही नहीं, सूचना युद्ध की इस रणनीति में एक तरफ किसी देश द्वारा अपने नागरिकों और सेना की वैचारिक एकता को सुनिश्चित किया जाता है, साथ ही जनता की राय में एकरूपता लाने की कोशिश की जाती है, वहीं दुश्मन देश के लोगों के राय-विचार एवं एकजुटता को तोड़ने की कोशिश की जाती है.[19] अगर क़ानूनी युद्ध की बात की जाए, तो यह भी काफ़ी अहम होता है, क्योंकि जब दो देशों के बीच ज़मीन कब्ज़ाने को लेकर संघर्ष होता है, तो उन्हें तमाम घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों का भी सामना करना होता है. ऐसे में अगर किसी देश द्वारा अपने विरोधी देश की गैरक़ानूनी हरकतों को दुनिया के सामने लाया जाता है, तो कहीं न कहीं यह क़ानूनी तौर पर उस देश के लिए फायदेमंद साबित होता है. इसके अतिरिक्त, क़ानूनी युद्ध की रणनीति में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय समझौतों या संधियों की अपने पक्ष में व्याख्या करना भी शामिल होता है, क्योंकि यह आक्रमणकारी देश को लाभ की स्थिति में लाने का काम करता है.[20] चीन का अपना अलगाव-विरोधी क़ानून है,[D] जो उसे मज़बूत स्थिति में लाने का काम करता है और उसे दुश्मन देशों के विरुद्ध दबाव बनाने एवं सैन्य कार्रवाई की छूट देने का काम करता है.[21] अंतर्राष्ट्रीय विवादों की स्थिति में, या फिर ऐसे मामलों में जहां किसी देश की संप्रभुता को लेकर टकराव होता है, तो चीन द्वारा अपने पेचीदा और अनुचित क़ानूनों का सहारा लिया जाता है.[22]

 

चीन की तीन युद्ध रणनीति यानी TWS के तीनों सिद्धांत एक दूसरे के पूरक हैं, साथ ही एक दूसरे को सशक्त भी करते हैं.[23] चीन की इस रणनीति में देखा जाए तो मित्र देशों के साथ कपटपूर्ण व्यवहार उसकी कूटनीति का अहम हिस्सा है और अगर ऐसा नहीं किया जाता है, तो फिर चीन की तीन युद्ध रणनीति बेअसर हो जाएगी. उदाहरण के तौर पर चीन द्वारा मनोवैज्ञानिक युद्ध लोगों की राय बदलने यानी जनमत युद्ध की मदद करता है, क्योंकि इसमें आमजन के राय-विचार को प्रभावित करने के लिए विशेष प्रकार की जानकारी का प्रचार-प्रसार किया जाता है, या फिर कहा जा सकता है कि सुनियोजित तरीक़े से दुष्प्रचार किया जाता है. चीन द्वारा ऐसा सिर्फ घरेलू स्तर पर ही नहीं किया जाता है, बल्कि प्रतिद्वंद्वी देश में भी यही युक्ति अपनाई जाती है और इसका उद्देश्य अपने विशेष लक्ष्यों को पाना होता है.[24] ज़ाहिर है कि अपने इरादों की सफलता के लिए दुश्मन देश के नागरिकों के विचारों को प्रभावित करना, उनके जोश को ठंडा करना ज़रूरी होता है.[25] ऐसा इसलिए आवश्यक होता है, ताकि दुश्मन देश की जनता को यह भरोसा दिलाया जा सके कि चीन जो भी दावे कर रहा है, वो जायज हैं और क़ानूनी तौर पर भी सही हैं, इसलिए उसकी बात मानी जानी चाहिए. एक और बात यह भी है कि चीन की TWS का हर सिद्धांत अपने आप में बेहद कारगर है. विशेष हालातों में तीन युद्ध रणनीति में से एक रणनीति भी मनचाही सफलता दिलाने में सक्षम है. यह अलग बात है कि चीन की इस रणनीति के तीनों सिद्धांतों को एक-दूसरे का पूरक माना जाता है.[26] इनमें से पब्लिक ओपिनियन को प्रभावित करने की युक्ति और क़ानूनी युद्ध रणनीतिक लिहाज़ से बेहद प्रभावशाली होते हैं, वहीं मनोवैज्ञानिक युद्ध सैन्य अभियानों का संचालन करने के दौरान सामरिक लिहाज़ से बेहद असरकारक होता है.[27] इस प्रकार, से देखा जाए तो चीन की तीन युद्ध रणनीति प्रत्यक्ष तौर पर तो दुश्मन देश के विरुद्ध युद्ध प्रतीत नहीं होती है, लेकिन कहीं न कहीं यह युद्ध का ही एक तरीक़ा है. [28]

 

लद्दाख में चीन की तीन युद्धरणनीति

 

साइबर या डिजिटल माध्यम चीन और भारत के बीच सैन्य विवाद में किस प्रकार से अपनी अहम भूमिका निभा सकते हैं, चीन की हरकतों से इसके बारे में पहले भी पता चल चुका है. अप्रैल-मई 2020 में चीनी सेना ने भारतीय इलाक़ों में कब्ज़े की कोशिश की थी, इससे पहले जब भारत सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्ज़ा देने वाले आर्टिकल 370 को रद्द किया गया था, तब चीन द्वारा नई दिल्ली के इस निर्णय के ख़िलाफ़ आधिकारिक तौर पर और सार्वजनिक तौर पर हल्की-फुल्की नाराज़गी जताई गई थी, साथ ही चीन के इंटरनेट मीडिया प्लेटफॉर्मों पर भी इसको लेकर थोड़ी-बहुत नाराज़गी दिखाई दी थी.[29] यहां तक कि भारत के गृह मंत्री के अक्साई चिन को भारत हिस्सा बताने वाले बयान को लेकर भी चीन की ओर से कोई कड़ी प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दी. आर्टिकल 370 को रद्द किए जाने के बाद चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा आयोजित दूसरे अनौपचारिक शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए अक्टूबर 2019 में भारत का दौरा किया था. पहला अनौपचारिख शिखर सम्मेलन वर्ष 2018 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग द्वारा आयोजित किया गया था. हालांकि, यह हो सकता है कि शी और मोदी के बीच जो अनौपचारिक बातचीत आयोजित की गई, उसमें शी जिनपिंग ने अपने असली मकसद को बाहर नहीं आने दिया. उसके बाद जब चीन ने भारतीय क्षेत्रों में घुसपैठ की कोशिश की तो हो सकता है कि COVID-19 महामारी के प्रकोप के चलते भारतीय सेना की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया नहीं जताई गई हो, लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि इस दौरान इंटरनेट मीडिया और डिजिटल माध्यमों के ज़रिए चीन द्वारा भ्रामक प्रचार किया गया.[30]

 

चीन के विचारों और नज़रिए के बारे में पता लगाने के लिए टेलीविजन और रेडियो के अलावा इंटरनेट एक महत्वपूर्ण स्रोत है. इतना ही नहीं इंटरनेट ही शायद वो खुला माध्यम है, जिससे भारतीय विश्लेषक, ख़ास तौर पर सरकार से बाहर के विश्लेषक चीन को लेकर जानकारी जुटा सकते हैं और यह पता लगा सकते हैं कि भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर किस हद तक तनाव व्याप्त है और क्या घटनाक्रम चल रहा है.[31] सरकार के भीतर के लोग भी अपने विश्लेषण के लिए इसी ओपन-सोर्स यानी इंटरनेट और गुप्त खुफ़िया जानकारी पर भरोसा करते हैं. हालांकि, ऐसा लगता है कि भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियां लद्दाख में चीनी सैन्य कार्रवाई के इरादों के बारे में इंटरनेट माध्यमों से पता लगाने में गच्चा खा गईं और नतीज़तन चीनी सेनाओं ने पूर्वी लद्दाख में भारतीय क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया.[32] वास्तविकता यह है कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने प्रधानमंत्री मोदी को तीसरे अनौपचारिक शिखर सम्मेलन के लिए भी आमंत्रित किया था और पीएम मोदी ने इस आमंत्रण को स्वीकार भी कर लिया था, इससे ज़ाहिर होता है कि चीन की ओर से भारत के प्रति कोई असंतोष या नाराज़गी नहीं जताई गई.[33] चीनी सेना की तरफ से पूर्वी लद्दाख में की गई कार्रवाई से पहले के महीनों में जब नई दिल्ली द्वारा जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने का फैसला लिया गया था, तब चीनी विदेश मंत्रालय ने औपचारिक रूप से सिर्फ़ इसकी आलोचना की थी, इसके अलावा उस दौरान चीन के भीतर इस प्रकार के कोई संकेत नहीं दिखाई दिए थे कि वो लद्दाख में इस तरह की हरकत करने वाला है. ज़ाहिर है कि अगर लद्दाख में चीन की ओर से दिखाई गई आक्रमकता के लिए भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर में धारा-370 हटाने के फैसले को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है, तो यह उचित नहीं होगा और कहीं न कहीं ऐसा करना चीन के असल इरादों की अनदेखी करना होगा.[34]

 

भारत के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन के मुताबिक़ पूर्वी लद्दाख के इलाक़ों में कब्ज़ा करने की नीयत से की गई चीनी सैन्य कार्रवाई के पीछे जम्मू-कश्मीर के दर्ज़े में बदलाव करने और अनुच्छेद 370 हटाने के मोदी सरकार के निर्णय को ज़िम्मेदार ठहराना सर्वथा अनुचित होगा और सच्चाई से आंख चुराने जैसा होगा.[35] ज़ाहिर है कि वर्ष 2019 में जब चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ममल्लापुरम में अनौपचारिक वार्ता में शामिल होने के लिए भारत आए थे, तब न तो उन्होंने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्ज़े को समाप्त करने के भारत सरकार के फैसले पर कोई आपत्ति या चिंता जताई थी और न ही चीन सरकार या फिर वहां की आधिकारिक मीडिया की ओर से वार्ता के दौरान इस मामले को उठाए जाने का कोई संकेत दिया गया था. मतलब, इससे साफ हो जाता है कि पूर्वी लद्दाख में चीन की तरफ से की गई आक्रामक कार्रवाई के लिए अन्य बातें भी ज़िम्मेदार थीं.[36]

 

पूर्वी लद्दाख में चीनी आक्रामता से पहले के उसके बर्ताव को कपट, प्रपंच और दुष्प्रचार के तौर पर देखा जा सकता है और देखना भी चाहिए. ज़ाहिर है कि यह धोखेबाज़ी और दुष्प्रचार चीन के सूचना युद्ध और सैन्य रणनीति का ही हिस्सा है. कहा जा सकता है कि जिस प्रकार से जम्मू-कश्मीर के दर्ज़े को लेकर भारत सरकार द्वारा क़दम उठाया गया, उसके ख़िलाफ़ चीन की ओर से कोई कड़ी प्रतिक्रिया नहीं जताई गई, वो कहीं न कहीं उसके दुष्प्रचार अभियान या कहा जाए कि भ्रम की स्थिति पैदा करने की रणनीति का ही हिस्सा था. वर्ष 2019 में राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने दूसरी अनौपचारिक समिट के लिए पीएम मोदी के बुलावे को स्वीकार करके अपनी इस रणनीति को पुख्त़ा करने का काम किया, क्योंकि इससे यह ज़ाहिर हुआ कि जम्मू-कश्मीर पर भारत सरकार के फैसले से चीन को कोई फर्क नहीं पड़ा और कूटनितिक रिश्ते पहले जैसे बने हुए हैं. उल्लेखनीय है कि ऐसा करके चीन द्वारा अपनी सेना की ओर से पूर्वी लद्दाख में अतिक्रमण करने के लिए सैन्य कार्रवाई करने के अपने इरादों को कुशलता के साथ छिपा लिया गया. लद्दाख में चीनी आक्रामकता की वजह से यथास्थिति का जो उल्लंघन हुआ, उस पर चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता हुआ चुनयिंग ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए इस बात को सिरे से ख़ारिज कर दिया कि चीन की हरकतों की वजह से युद्ध जैसे हालात पैदा हो गए हैं.[37] चीनी प्रवक्ता ने आगे यह भी कहा कि बीजिंग ने किसी दूसरे देश के इलाक़े पर कोई कब्ज़ा नहीं किया है और न ही चीनी सेना ने एलएसी को पार किया है. इसके अलावा, उन्होंने इस हालात के लिए नई दिल्ली और बीजिंग के बीच गलतफ़हमी को ज़िम्मेदार ठहराया.[38] बीजिंग के मुताबिक उसकी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी यानी पीएलए की सूचना के प्रसार की रणनीति में दुष्प्रचार और भ्रम फैलाना सबसे प्रमुख बातें हैं, जो उसकी TWS अर्थात तीन युद्ध रणनीति के तीनों सिद्धांतों को एक साथ लाने का कम करती हैं और उन्हें प्रभावशाली बनाती हैं.[39]

 

ऐसे में वर्ष 2019 में शी जिनपिंग और मोदी के बीच हुई अनौपचारिक समिट को जम्मू-कश्मीर के दर्ज़े में बदलाव के बावज़ूद भारत-चीन के रिश्तों में "स्थिरता" को प्रदर्शित करने की उसकी कूटनीति के रूप में समझा जाना चाहिए. अपनी इस कूटनीति के साथ ही चीन ने डिजिटल माध्यमों के ज़रिए चालाकी से अपने देश में इस प्रकार की ख़बरें फैलाई, जिनसे भारत के राजनेताओं और इंटेलीजेंस एजेंसियों को भी वास्तविकता का पता नहीं चल पाया. इसी का नतीज़ा यह हुआ कि एलएसी के पास अपने वार्षिक युद्ध अभ्यास को भारत के इलाक़ों में आक्रमकता में बदल पाया और सबसे बड़ी बात कि उसने अपनी रणनीति को इतनी चालाकी से आगे बढ़ाया कि उसे दूसरे पक्ष से किसी कड़े प्रतिरोध का सामना भी नहीं करना पड़ा. कुल मिलाकर अपनी कूटनीति और डिजिटल माध्यमों से भ्रम फैलाने की रणनीति के साथ ही भारत से लगी सीमा यानी एलएसी पर क़ानूनी अस्पष्टता का फायदा उठाकर चीन सामरिक लिहाज़ से अहम भारतीय इलाक़ों में अतिक्रमण करने में क़ामयाब हो पाया. देखा जाए तो इस प्रकार से चीन ने भारत के ख़िलाफ़ अपनी तीन युद्ध रणनीति को प्रभावी तरीक़े से लागू किया. जैसा कि एक विशेषज्ञ के मुताबिक़ "जनता की राय को प्रभावित करने के लिए दुष्प्रचार का इस्तेमाल 'पश्चिम में हमला करने के लिए पूर्व में अपनी हरकतों से भ्रमित करने' की चीन की रणनीति को सशक्त कर सकता है".[40] उल्लेखनीय है कि चीन ने अपने पश्चिमी किनारे पर स्थित लद्दाख में भारत के विरुद्ध आक्रमकता का छलावा किया, जबकि उसका मुख्य मकसद पूर्व में स्थित ताइवान पर ज़बरदस्ती कब्ज़ा करना या विलय करना था. पड़ोसी देशों के सीमा से सटे क्षेत्रों पर बीजिंग लगातार अपने दावे करता रहा है और इसी के अंतर्गत उसने भारत-चीन सीमा के पूर्वी क्षेत्र पर भी अपना दावा प्रस्तुत किया है. इस क्षेत्र में तवांग ट्रैक्ट (या चीन जिसे दक्षिणी तिब्बत कहता है) शामिल है, जिसमें पूरा अरुणाचल प्रदेश आता है.[41] ज़ाहिर है कि यह क्षेत्र भारत से सटी चीन की पश्चिम सीमा पर नहीं है. पश्चिमी सीमा में लद्दाख और अक्साई चिन शामिल हैं. चीन की सेना ने जिस प्रकार से पूर्व की अधिक सुरक्षित सीमा के बजाए पश्चिमी सीमा यानी लद्दाख से लगी सीमा पर सैन्य कार्रवाई की है, उसने न सिर्फ़ लोगों की राय को प्रभावित करने में चीनी सरकार की मदद की, बल्कि धोखेबाज़ी और कपटपूर्ण व्यवहार में दुष्प्रचार और भ्रामक सूचनाओं के प्रसार से महत्व को भी स्थापित किया है.

 

भारत की आपत्ति के बावज़ूद चीन अपनी TWS रणनीति पर क़ायम रहेगा और इसी प्रकार से पूर्ण सैन्य कार्रवाई के बजाए छिटपुट हरकतें करता रहेगा, साथ ही भारी हथियारों का उपयोग नहीं करेगा और इस प्रकार से अपने उद्देश्य को हासिल करने में जुटा रहेगा. हालांकि, भारत को चीन से सतर्क रहने की ज़रूरत है, ख़ास तौर पर जिस प्रकार से चीन अपनी तीन युद्ध रणनीति के ज़रिए सलामी स्लाइसिंग करता है, उससे चौकन्ना रहना होगा और किसी बड़े सैन्य आक्रमण की संभावनाओं को लेकर भी सतर्क रहना होगा.[42] मौज़ूदा दौर में TWS बीजिंग के लिए सबसे कुशल रणनीति है, क्योंकि इसमें बहुत कम प्रयास करने पड़ते हैं और कम ख़र्च करना पड़ता है, जबकि इसका दीर्घकालिक लाभ बहुत ज़्यादा होता है. TWS के अंतर्गत लोगों की राय को प्रभावित करने वाली रणनीति ने डिजिटल माध्यम के ज़रिए लद्दाख में प्रमुख क्षेत्रों पर कब्ज़ा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. लद्दाख में जिस प्रकार से चीन ने घुसपैठ की है, वो इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि किस प्रकार धोखेबाज़ी, छल-कपट और षड़यंत्र रचकर किसी इलाक़े को कब्ज़ाने के लिए तीन युद्ध रणनीति को अमल में लाया जाता है. लेकिन चीन की यह तीन युद्ध की रणनीति केवल लद्दाख तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह आर्कटिक तक फैली हुई है, जहां के इलाक़ों पर चीन ने लद्दाख की तरह तो नहीं, लेकिन उसके समान ही अपने तमाम दावे किए हैं.

‘थ्री वॉरफेयर्स’ रणनीति के ज़रिये आर्कटिक पर चीन का दावा

आर्कटिक में अपने दावों को लेकर चीन ने दोतरफा नज़रिया अपनाया है. चीन खुद को न सिर्फ़ आर्कटिक का हितधारक मानता है, बल्कि खुद को एक "ध्रुवीय महाशक्ति" भी समझता है.[43] बीजिंग की आर्कटिक रणनीति के केंद्र में उसकी यही सोच है. इसीलिए, चीन समुद्री इलाक़ों, साइबरस्पेस और अंतरिक्ष के साथ-साथ ध्रुवीय इलाक़ों को जंग के नए क्षेत्र के रूप में देखता है.[44] चीन आधिकारिक तौर पर खुद को भौगोलिक दृष्टिकोण से एक ऐसा देश मानता है, जो आर्कटिक के नज़दीक है.[45] आर्कटिक को लेकर अपने मंसूबों को ज़ाहिर किए बगैर चीन दांवपेंच में जुटा हुआ है, क्योंकि वो नहीं चाहता है कि दूसरे आर्कटिक देश उसकी हरकतों से वाक़िफ़ हों और उन्हें नाराज़गी जताने का मौका मिले. चीन आर्कटिक क्षेत्र में मौज़ूद खनिज संसाधनों पर कब्ज़ा करना चाहता है, साथ ही रणनीतिक लिहाज़ से अहम इस इलाक़े में अपनी सैन्य मौज़ूदगी स्थापित करना चाहता है. ज़ाहिर है कि आर्कटिक में रूस और अमेरिका भी प्रमुख किरदार हैं.[E] यद्यपि, सार्वजनिक तौर पर चीन यह जताना चाहता है कि उसका आर्कटिक से कुछ ख़ास लेनादेना नहीं है, यानी उसकी भूमिका सीमित है.[46] वर्ष 2013 में चीन ने आर्कटिक काउंसिल में पर्यवेक्षक का दर्ज़ा हासिल किया था [F] और इसमें नॉर्वे [47] व स्वीडन ने चीन का खुलकर समर्थन किया था. यह संयोग की बात है कि ये दोनों देश बीजिंग के निशाने पर थे और वह इन पर प्रतिबंध लगाना चाहता था.[48] सार्वजनिक और आधिकारिक तौर पर देखा जाए तो आर्कटिक को लेकर चीन की सोच और उद्देश्य सकारात्मक हैं. अर्थात चीन आर्कटिक में पर्यावरण की सुरक्षा, संसाधनों का बेहतर उपयोग, स्थानीय आबादी के जीवन स्तर में सुधार और आर्कटिक में नए शिपिंग मार्गों की स्थापना करना चाहता है. चीन के मुताबिक़ इससे आर्कटिक क्षेत्र की आर्थिक प्रगति होगी, साथ ही सामाजिक विकास को भी गति मिलेगी.[49] इस सबके बावज़ूद आर्कटिक में उपलब्ध संसाधनों के एक दावेदार के रूप में और भौगोलिक दृष्टि से वहां के एक भागीदार के रूप में बीजिंग वहां जो कुछ भी कर रहा है, उससे साफ प्रतीत होता है कि यह सब उसकी सोची-समझी रणनीति का ही हिस्सा है.

 भारत के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन के मुताबिक़ पूर्वी लद्दाख के इलाक़ों में कब्ज़ा करने की नीयत से की गई चीनी सैन्य कार्रवाई के पीछे जम्मू-कश्मीर के दर्ज़े में बदलाव करने और अनुच्छेद 370 हटाने के मोदी सरकार के निर्णय को ज़िम्मेदार ठहराना सर्वथा अनुचित होगा और सच्चाई से आंख चुराने जैसा होगा.

चीन ने सार्वजनिक तौर पर आर्कटिक को लेकर जो इरादे ज़ाहिर किए हैं और वह आर्कटिक में जो कुछ कर रहा है, उसके बीच ज़मीन-आसमान का अंतर है. उदाहरण के तौर पर चीन ने आर्कटिक नीति के हिस्से के रूप में वर्ष 2018 में एक श्वेत पत्र जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि "जो देश आर्कटिक क्षेत्र के बाहर के हैं उनकी आर्कटिक में क्षेत्रीय संप्रभुता नहीं है"[50], जबकि चीन खुद आर्कटिक को वैश्विक कॉमन्स का हिस्सा मानता है, अर्थात एक ऐसा क्षेत्र मानता है जिस पर किसी देश का प्रभुत्व नहीं है. इसके साथ ही चीन का यह भी कहना है कि बाहरी देशों को आर्कटिक परिषद के सदस्यों द्वारा निर्धारित की गई स्पष्ट रणनीतिक रूपरेखा के अंतर्गत कार्य करने की अनुमति मिलनी चाहिए.[51] जहां तक चीन के भीतर इस मुद्दे पर चल रहे विचार-विमर्श की बात की जाए, तो तमाम चीनी विशेषज्ञ मानते हैं कि चीन के लिए आर्कटिक और अंटार्कटिका भविष्य की रणनीतिक होड़ और सैन्य संघर्ष के क्षेत्र हैं. इतना ही नहीं वे इसे ध्रुवीय क्षेत्रों में चीन को अपनी मौज़ूदगी दर्ज़ करने की कोशिश बताते हैं.[52] पूरा ध्रुवीय क्षेत्र, ख़ास तौर पर आर्कटिक बुरी तरह से क़ानूनी लड़ाइयों में उलझा हुआ है, ज़ाहिर है कि बीजिंग अपने छल और कपट से क़ानूनी दांवपेंच का इस्तेमाल करेगा. उल्लेखनीय है कि अपने हित के लिए क़ानूनी हथकंडों का उपयोग करना चीन की TWS का एक प्रमुख सिद्धांत है. इस रणनीति के अंतर्गत चीन अपने किसी अभियान की सफलता के लिए क़ानूनी हथकंडों की मदद लेगा और इसके पीछे हर हाल में अपनी राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने के संकल्प की दुहाई देगा.[53] अर्थात चीन सैन्य अभियानों पर आधारित क़ानूनी युद्ध को आगे बढ़ाने की कोशिश करेगा और इसके लिए क़ानून के बुनियादी सिद्धांतों का पालन करने की बात करेगा. कुल मिलाकर अपने हित साधने और अपने क़ानूनों का पालन करने की आड़ में चीन चीज़ों को अपने हिसाब से बदलना चाहता है.[54] चीन की यह कोशिश कहीं न कहीं एक "क़ानूनी टकराव" को सामने लाती है और जिसका मकसद परिस्थितियों को अपने अनुकूल करना है.[55] चीन की ओर से जब इस रणनीति को साउथ चाइना सी यानी दक्षिण चीन सागर के मामले में अमल में लाया गया था, तो उसके द्वारा अंतर्राष्ट्रीय क़ानून का अपने पक्ष में बेहद कपटपूर्ण तरीक़े से बखान किया गया था. जब इस मामले में अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता की जा रही थी, तब दक्षिण चीन सागर को लेकर फिलीपींस के दावों का चीन ने ज़बरदस्त तरीक़े से विरोध किया था.

 

हालांकि, वर्ष 2016 में हेग ट्रिब्यूनल ने दक्षिण चीन सागर के बीच मौज़ूद स्प्रैटली आईलैंड्स के मामले में फिलीपींस के पक्ष में फैसला सुनाया, जिन्हें द्वीपों के बजाय समुद्र के बीच उभरी हुई चट्टानों के रूप में देखा जाता है.[56] यद्यपि, चीन ने मिसचीफ रीफ की तरह ज़मीन की खुदाई कर इन द्वीपों को सैन्य उपयोग की हवाई पट्टियों और बंदरगाहों में बदल दिया था.[57] इस वजह से भी बीजिंग ने हेग में पर्मानेंट कोर्ट ऑफ आर्बीट्रेशन यानी स्थाई मध्यस्थता न्यायालय के अंतर्गत सुनवाई का विरोध किया.[58] चीन के मना करने के बावज़ूद आर्कटिक में भी ऐसे हालात पैदा हो सकते हैं. यह ज़रूर है कि भौगोलिक दृष्टि से आर्कटिक और दक्षिण चीन सागर के मामले एक जैसे नहीं है, लेकिन चीन द्वारा जिस प्रकार से छल-कपट का सहारा लिया जा रहा है, उससे दक्षिण चीन सागर की तुलना में आर्कटिक में चीन के दावे और उसके द्वारा की जा रही ज़बरदस्ती के नतीज़े और ज़्यादा घातक सिद्ध हो सकते हैं.[59] इसके अलावा, उत्तरी ध्रुव में पर्यावरणीय परिस्थितियां एवं चीन का आर्कटिक परिषद का मुख्य सदस्य नहीं होना भी चीन के मंसूबों के ख़िलाफ़ जाता है. इतना ही नहीं, यह बातें स्पष्ट करती हैं कि चीन निकट भविष्य में आर्कटिक क्षेत्र में एक मज़बूत व्यापारिक और सैन्य मौज़ूदगी दर्ज़ नहीं करा पाएगा, हालांकि इसे अंसभव भी नहीं कहा जा सकता है.[60] निसंदेह तौर पर अगर चीन को लगता है कि अपने हितों को सुनिश्चित करने में बाधा आ रही है, तो फिर वह आर्कटिक में अपने दावों को ज़ोरदार तरीक़े से दुनिया के सामने रखेगा. आर्कटिक में चीन ने पर्यावरणीय मुद्दों पर चिंता जताते हुए अपनी तरफ से सहयोग की बात कही है और इसकी आड़ में बीजिंग ने आर्कटिक में अपने असल इरादों और लक्ष्यों को छिपाने की कोशिश की है.[61]

 

आर्कटिक में विभिन्न प्रकार की रिसर्च को संचालित करने वाले चीन के वैज्ञानिक उसके भू-रणनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए बेहद अहम हैं.[62] 1990 के दशक के अंत से ही चीन कई अभियानों के ज़रिए आर्कटिक में अपनी गतिविधियां संचालित करता रहा है. चीन ने वर्ष 2004 में स्वालबार्ड आईलैंड पर अपना पहला रिसर्च बेस येलो रिवर स्टेशन स्थापित किया था.[63] चीन का इस द्वीप पर एक और अनुसंधान केंद्र भी है. इन दोनों ही रिसर्च केंद्रों पर मैरीन इकोलॉजी से लेकर एटमॉस्फरिक फिजिक्स यानी वायुमंडलीय भौतिकी से जुड़ी रिसर्च होती है.[64] स्वीडन में चीन का तीसरा रिसर्च सेंटर भी है, लेकिन चीनी सेना यानी पीएलए से संबंध होने के संदेह के चलते यह केंद्र विवादों में घिरा हुआ है.[65]

 पड़ोसी देशों के सीमा से सटे क्षेत्रों पर बीजिंग लगातार अपने दावे करता रहा है और इसी के अंतर्गत उसने भारत-चीन सीमा के पूर्वी क्षेत्र पर भी अपना दावा प्रस्तुत किया है. इस क्षेत्र में तवांग ट्रैक्ट (या चीन जिसे दक्षिणी तिब्बत कहता है) शामिल है, जिसमें पूरा अरुणाचल प्रदेश आता है

आर्कटिक काउंसिल के प्रमुख सदस्य देश आर्कटिक क्षेत्र में चीन की बढ़ती मौज़ूदगी के ख़िलाफ़ हैं और इसका विरोध कर रहे हैं, बावज़ूद इसके बीजिंग वहां मज़बूती से टिका हुआ है.[66] आर्कटिक में चीन देखा जाए तो रूस का जूनियर पार्टनर है, लेकिन अपने प्रयासों के बल वह आर्कटिक से 1,800 किलोमीटर दूर होने के बावज़ूद, खुद को आर्कटिक के नज़दीकी राष्ट्र के रूप में परिभाषित करने और स्थापित करने में सफल रहा है.[67] जहां तक आर्कटिक में सैन्य मौज़ूदगी और सैन्य ताक़त बनने की बात है, तो बीजिंग भले ही तत्काल नहीं ऐसा नहीं कर पाए, लेकिन आने वाले दिनों में वह मास्को की तरह वहां अहम भूमिका निभाएगा. ताज़ा वाक़यों पर गौर करें तो पता चलता है कि चीन अलास्का के पास अलेउतियन आईलैंड्स के पास रूस के साथ साझा नौसैनिक अभ्यास कर रहा है.[68] इसकी वजह से अमेरिकी नौसेना को गाइडेड मिसाइल्स को नष्ट करने में सक्षम चार जहाजों के बेड़े को वहां भेजना पड़ा है,[69] ताकि चीन-रूस साझा नौसैनिक अभ्यास पर नज़र रखी जा सके. चीनी सैन्य विश्लेषक फू कियानशाओ के मुताबिक़ "अमेरिकियों को अब इसकी आदत डाल लेनी चाहिए."[70] उनके कहने का मतलब यही है कि अलास्का के नज़दीक अब चीनी नौसेना की मौज़ूदगी इसी तरह से बनी रहेगी, फिर चाहे वो कम हो या ज़्यादा.

 

हालांकि, अलास्का में चीन और रूस का यह ताज़ा नौसैनिक अभ्यास कोई अचरज वाली बात नहीं है. सितंबर 2015 की शुरुआत में जब से पीएलए नेवी ने आर्कटिक में पहली बार अपने पांच जहाजों की तैनाती की थी,[71] तब से चीनी नौसेना द्वारा वहां लगातार अपनी उपस्थिति बढ़ाई गई है, जो वहां उसकी बढ़ती नौसैनिक ताक़त को प्रदर्शित करती है. अगस्त 2023 में चीनी नौसेना ने रूस के साथ मिलकर आर्कटिक के पास समुद्र में साझा गश्त की थी. इससे साफ पता चलता है कि वहां चीन की नौसैनिक गतिविधियां लगातार बढ़ रही हैं और आने वाले महीनों व वर्षों में इस तरह की गतिविधियों में बढ़ोतरी होने की संभावना है.

 

रूस आर्कटिक काउंसिल का एक प्रमुख सदस्य है और वर्तमान संप्रभु दावों को एकीकृत करना चाहता है, साथ ही इस रीजन तक किसी भी देश की पहुंच को नियंत्रित करना चाहता है. सभी आर्कटिक देशों में से रूस ही ऐसा राष्ट्र है, जिसकी आर्कटिक से जुड़ी तटरेखा सबसे लंबी है. रूस की तरफ से आर्कटिक परिषद में पर्यवेक्षक का दर्ज़ा पाने की बीजिंग की कोशिशों का शुरुआत में कड़ा विरोध किया गया था.[72] बावज़ूद इसके वर्तमान में रूस आर्कटिक में चीन को पैर जमाने में खुलकर मदद कर रहा है. उल्लेखनीय है कि टेक्नोलॉजी एवं निवेश के मामले में, ख़ास तौर पर युक्रेन युद्ध के बाद से, रूस की चीन पर बढ़ती निर्भरता ने मास्को को ऐसा करने के लिए बाध्य किया है.[73] अमेरिकी सेना के मुताबिक़ अमेरिका के प्रमुख विरोधी देशों यानी रूस और चीन ने आर्कटिक क्षेत्र को लेकर अपनी विशेष रणनीतियां बनाई हैं, जिनका ख़ास भू-राजनीतिक मकसद है और जो कहीं न कहीं अमेरिका के हितों के ख़िलाफ़ हैं. चीन अपनी सैन्य, आर्थिक और वैज्ञानिक प्रगति के लिए आर्कटिक क्षेत्र में मौज़ूद संसाधनों एवं समुद्री रास्तों पर पहुंच सुनिश्चित करना चाहता है.[74] अभी हाल ही में भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा था कि "रूस एशिया की ओर देख रहा है".[75] आर्कटिक की रूस के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में लगभग 20 प्रतिशत, उसके निर्यात में 22 प्रतिशत और कुल निवेश में 10 प्रतिशत हिस्सेदारी है, जो कि जयशंकर के बयान की पुष्टि करता है.[76] यूक्रेन युद्ध के बाद से रूस का आर्थिक भविष्य एशियाई बाज़ारों पर निर्भर हो गया है, ख़ास तौर पर रूस की चीन पर निर्भरता बहुत अधिक हो गई है. ज़ाहिर है कि आर्कटिक में अपनी सैन्य उपस्थित को सुनिश्चित करने के लिए मास्को एक हिसाब से बीजिंग का प्रवेश द्वार बन गया है.

 रूस आर्कटिक काउंसिल का एक प्रमुख सदस्य है और वर्तमान संप्रभु दावों को एकीकृत करना चाहता है, साथ ही इस रीजन तक किसी भी देश की पहुंच को नियंत्रित करना चाहता है. सभी आर्कटिक देशों में से रूस ही ऐसा राष्ट्र है, जिसकी आर्कटिक से जुड़ी तटरेखा सबसे लंबी है. 

उल्लेखनीय है कि वर्तमान हालातों में आर्कटिक में बीजिंग की बढ़ती उपस्थिति को लेकर चुप्पी साधने और उसे स्वीकार करने के अतिरिक्त मास्को के पास और कोई चारा भी नहीं है. वास्तविकता में मास्को ऐसा नहीं चाहता है, लेकिन यूक्रेन युद्ध के बाद जिस प्रकार से रूस को व्यापार, फाइनेंस और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में पश्चिम के प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा है और जिस तरह से अमेरिका की अगुवाई में यूक्रेन की सैन्य सहायता की जा रही है, ऐसे में इस नुक़सान की भरपाई करने के लिए चीन का समर्थन के अलावा रूस के पास कोई विकल्प भी नहीं बचा है. दरअसल, आर्कटिक में चीन के साथ गठजोड़ करना रूस के लिए एक मज़बूरी भी है, क्योंकि अमेरिका इन दोनों देशों का ही प्रमुख विरोधी है.[77] इसी प्रकार से भारत और चीन के बीच छिड़े सीमा विवाद एवं लद्दाख संकट को लेकर भी रूस असमंजस की स्थिति में है, क्योंकि उसे दोनों देशों के साथ अपने रिश्तों में संतुलन बनाए रखने में परेशानी हो रही है. चीन का रूस के साथ गठजोड़ उसकी TWS रणनीति में फिट बैठता है, क्योंकि यह अधिक से अधिक लाभ के लिए समान विचारधारा वाले देशों को अपनी कूटनीतिक क़वायद में शामिल करने के अनुरूप है. यही वजह है कि चीन की आर्किटक तक पहुंच सुनिश्चित करने में रूस मददगार बन रहा है और इस तरह से चीन की तीन युद्ध रणनीति के मुताबिक़ कार्य कर रहा है.[78] यमल लिक्विड नेचुरल गैस प्रोजेक्ट के ज़रिए भी चीन और रूस का आर्कटिक गठजोड़ सामने आया है. यह परियोजना चीन के राष्ट्रीय पेट्रोलियम निगम और रूस की ऊर्जा कंपनी नोवाटेक के बीच एक संयुक्त उद्यम है. रूस के लिए यमल का यह प्रोजेक्ट ख़ास मायने रखता है, क्योंकि रूस इसके माध्यम से ऑस्ट्रेलिया, क़तर और अमेरिका को आईना दिखाना चाहता है और यह बताना चाहता है कि वो अपनी महत्वपूर्ण ऊर्जा परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिए पश्चिमी देशों पर निर्भर नहीं है और उसके पास अन्य विकल्प भी मौज़ूद हैं.[79] सच्चाई यह है कि इस नेचुरल गैस प्रोजेक्ट के लिए 60 प्रतिशत पैसा चीन से आता है.[80] इसके बदले में बीजिंग को यूरोप के लिए वैकल्पिक समुद्री मार्ग मिला है. दरअसल, रूसी समुद्री तट से लगा नॉर्दर्न सी रूट यानी उत्तरी समुद्री मार्ग (NSR) यूरोपीय निर्यात स्थलों के लिए चीन को एक वैकल्पिक व्यवसायिक समुद्री रास्ता उपलब्ध कराता है. चीन के लिए यह उत्तरी समुद्री मार्ग बेहद फायदेमंद है, क्योंकि चीन को मलक्का जलडमरूमध्य, हिंद महासागर और स्वेज़ नहर के माध्यम से अपने समुद्री और व्यावसायिक जहाजों के आवागमन में व्यापक स्तर पर नौसैनिक एवं रणनीतिक दिक़्क़तें पेश आती हैं. (मानचित्र 1 देखें).

मानचित 1: उत्तरी समुद्री मार्ग

 

 

स्रोत: विटली यरमाकोव और एना यरमाकोवा, "एनर्जी ब्रिज के रूप में उत्तरी समुद्री मार्ग".[81]

 

जलवायु परिस्थितियों एवं दुर्गम इलाक़े के लिहाज़ से देखा जाए तो लद्दाख और आर्कटिक के क्षेत्रों में तमाम समानताएं हैं. यह समानताएं बताती हैं कि अमेरिकी सेना की इन क्षेत्रों में इतनी दिलचस्पी क्यों है. दरअसल, अमेरिका इन क्षेत्रों में चीन और रूस के गठजोड़ पर लगाम लगाना चाहता है, साथ ही इन इलाक़ों में चीनी सेना को अपने ठिकाने बनाने से रोकना चाहता है. सैन्य लिहाज़ से देखें तो चीन और रूस के प्रगाढ़ होते रिश्तों का असर भारत पर भी पड़ा है. हिमालयी क्षेत्र में किसी सैन्य कार्रवाई की स्थिति में नई दिल्ली की क्षमताएं सीमित हैं. भारतीय सेनाओं के मनोबल में कोई कमी नहीं है, लेकिन अगर युद्ध की स्थिति में हथियारों की कमी होती है, तो भारत हथियारों की आपूर्ति के लिए रूस पर विशेष रूप से निर्भर है. मास्को जिस प्रकार से वर्तमान में बीजिंग के एहसान तले दबा हुआ है, उससे यह निश्चित है कि किसी युद्ध की परिस्थिति में भारत को रूसी हथियारों की आपूर्ति में रुकावट आने की संभावना है, क्योंकि भारत को सैन्य सहायाता देने पर चीन ज़रूर रूस पर दबाव डालेगा और सहायता रोकने को कहेगा.

 

जहां तक अमेरिका की बात है, तो उसे भारत की तरह हथियारों की आपूर्ति की कोई चिंता नहीं है, लेकिन उसकी चुनौती यह है कि उसे आर्कटिक क्षेत्र में चीन और रूस दोनों का ही मुक़ाबला करना पड़ रहा है. उल्लेखनीय है कि चीन दोनों ध्रुवों को यानी आर्कटिक और अंटार्कटिका को ऐसे इलाक़ों के तौर पर देखता हैं, जो न तो संप्रभु हैं, यानी जिनका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है[82] और जहां पर किसी भी देश का शासन भी नहीं चलता है. इसके साथ ही चीन इन दोनों क्षेत्रों को संसाधनों का दोहन करने के लिए मुनासिब मानता है.[83] इसके अतिरिक्त चीन आर्कटिक को सैन्य लिहाज़ से अपने लिए एक फायदेमंद जगह मानता है. इतना ही नहीं, चीन जब इन इलाक़ों में रूस जैसी ताक़तों के साथ कूटनीतिक गलबहियां करता है, तो विरोधियों की ओर से उसके ख़िलाफ़ किसी कार्रवाई की संभावना भी कम हो जाती है.[84] कुल मिलाकर जिस प्रकार से चीन के इरादों को पूरा करने में रूस की तरफ से मौन सहमति दी जा रही है, उसने अमेरिका और भारत के समक्ष संकट खड़ा करने का काम किया है.

 

बीजिंग के लिए आर्कटिक वहां के संसाधनों का दोहन करने की एक जगह है, इसके अलावा व्यावसायिक जहाजों की आवाजाही के लिए एवं यूरोप तक पहुंचने के लिए एक नया समुद्री मार्ग है. चीन की पीएलए नौसेना के रियर एडमिरल यिन झुओ के मुताबिक़ आर्कटिक के गहरे समुद्री क्षेत्र में महत्वपूर्ण संसाधनों के मद्देनज़र भविष्य में यह रणनीतिक लिहाज़ से जहाजों के आवागमन का एक अहम समुद्री मार्ग बनेगा.[85] लेकिन आर्कटिक को लेकर चीनी महत्वाकांक्षाओं का यह सिर्फ़ एक पहलू है, सच्चाई यह है कि चीन आर्कटिक के समुद्र में अपनी युद्ध क्षमता स्थापित करने की भी तैयार कर रहा है.[86] चीन के लिए अपने हितों को पूरा करने हेतु आर्कटिक बेहद अहम है और यही वजह है कि वह इस क्षेत्र को अन्य देशों के हवाले नहीं छोड़ सकता है.[87]

 

जलवायु परिवर्तन की वजह से पर्यावरण में हुए बदलाव कहीं न कहीं चीन जैसी महाशक्तियों के लिए रणनीतिक अवसर लेकर आए हैं. आर्कटिक का क्षेत्र गर्म हो रहा है और इसके वैश्विक औसत से तीन गुना अधिक तेज़ी से गर्म होने का अनुमान है. ज़ाहिर है कि इसने वहां नए और छोटे व्यावसायिक शिपिंग मार्गों को बनाने का काम किया है.[88] कहने का मतलब यह है कि ग्लोबल वार्मिंग ने आर्कटिक रीजन को समुद्री जहाजों की अवाजाही के लिए सुगम बना दिया है. चीन के शोधकर्ताओं के मुताबिक़ जब आर्कटिक का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस या उससे कम रहेगा, तब उत्तरी समुद्री मार्ग से जहाजों का आवागमन आसान हो जाएगा. इतना ही नहीं, इन शोधकर्ताओं के अनुसार जब आर्कटिक का तापमान 3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा तो जहाजों की आवाजाही और भी ज़्यादा सुगम हो जाएगी.[89] हालांकि, आर्कटिक के समुद्र मार्गों से जहाजों की आवाजाही में बढ़ोतरी का यह मतलब नहीं है कि यह स्वेज़ नहर या मलक्का जलडमरूमध्य जैसे दूसरे व्यस्त शिपिंग मार्गों की जगह ले लेगा. हालांकि, आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2011 के बाद से आर्कटिक के ज़रिए ले जाए जाने वाले माल की मात्रा में लगातार बढ़ोतरी हुई है. (चित्र 1 देखें) बस वर्ष 2021 की तुलना में 2022 में कार्गो की मात्रा में मामूली कमी देखी गई थी. उत्तरी समुद्री मार्ग न केवल एक नया वैकल्पिक समुद्री मार्ग है, बल्कि इससे आवाजाही में समय भी कम लगता है. इसके अलावा चीन की सैन्य उपस्थिति के लिहाज़ से भी यह समुद्री मार्ग बेहद महत्वपूर्ण बन गया है.

 

 

चित्र 1: उत्तरी समुद्री मार्ग से ट्रांजिट किए जाने वाले कार्गो की मात्रा

 

 

स्रोत: NSR 2022 पर समुद्री जहाजों का ट्रैफिक, नॉर्दर्न सी रूट इन्फॉर्मेशन ऑफिस [90]

 

चीन ने ऐसी फैसिलिटीज़ स्थापित की हैं, जिनका दोहरा उपयोग किया जा सकता है, यानी जिनका सैन्य और नागरिक दोनों आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. उल्लेखनीय है कि चीन के लिए सैन्य-नागरिक उपयोग वाली ऐसी सुविधाएं विकसित करना आम है.[91] नागरिक-सैन्य एकीकरण के तहत नागरिक सुविधाओं का उपयोग सैन्य गतिविधियों के लिए किया जाता है, वहीं सैन्य सुविधाओं का इस्तेमाल नागरिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए किया जाता है. चीन द्वारा ओसीनोग्राफिक सर्वे कराए गए हैं और एकॉस्टिक मॉडलिंग अयोजित की गई, जो यह दिखाता है कि चीन दक्षिण चीन सागर में सक्रिय है और कोशिश कर रहा है कि उसकी नौसेना स्वच्छंद रूप से अपना काम कर सके.[92] समुद्र में लड़े जाने वाली जंगों के लिए ओसीनोग्राफिक सर्वे यानी समुद्र विज्ञान संबंधी सर्वेक्षण बेहत अहम हैं.

 

चीन के विशेषज्ञों ने आर्कटिक क्षेत्र में रूसी समुद्री तट पर कई ऐसे बंदरगाहों की भी पहचान की है, जहां चीन अपने अड्डे बना सकता है. उदाहरण के तौर पर चीन में डिफेंस इंडस्ट्री की एक बड़ी कंपनी चाइना पॉली ग्रुप ने मरमंस्क में एक कोयला टर्मिनल में 300 मिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश किया है, साथ ही आर्कान्गेल्स्क में एक डीप वाटर पोर्ट अर्थात गहरे पानी के बंदरगाह को विकसित करने के लिए समझौता किया है.[93] यही वजह है कि बीजिंग ने नागरिक गतिविधियों की आड़ में अपनी सैन्य गतिविधियों को संचालित किया है और ऐसा करना जारी रखे हुए है. रूस द्वारा यूक्रेन पर हमला किए जाने के बाद से आर्कटिक काउंसिल के सभी प्रमुख सदस्य देशों ने रूस से दूरी बना ली है, लेकिन चीन मज़बूती के उसके साथ खड़ा है. चीन ने साफ तौर पर कहा है कि अगर रूस को आर्कटिक काउंसिल की सदस्यता से बेदख़ल किया जाता है, या फिर उसकी भागीदारी में रुकावट डाली जाती है, तो वह आर्कटिक परिषद को मान्यता नहीं देगा.[94] आर्कटिक काउंसिल में पश्चिमी सदस्य देशों और रूस के बीच बढ़ते मनमुटाव ने कहीं न कहीं चीन के लिए अवसर बनाने का काम किया है और इस मौक़े का फायदा उठाते हुए बीजिंग आर्कटिक में अपने सैन्य ठिकाने बनाने में जुट गया है.

 चीन और रूस के पारस्परिक हितों के एकीकरण ने भू-राजनीतिक होड़ को बढ़ाने का काम किया है. अमेरिकी सैन्य एवं रणनीतिक मूल्यांकन में भी यह बात निकलकर सामने आई है.  चीन और रूस के गठजोड़ की वजह से आर्कटिक क्षेत्र में तेज़ी से हालात बदल रहे हैं और इन बदलते हालातों ने अमेरिकी सेनाओं पर जवाबी कार्रवाई का दबाव भी बढ़ा दिया है. 

चीन और रूस के पारस्परिक हितों के एकीकरण ने भू-राजनीतिक होड़ को बढ़ाने का काम किया है. अमेरिकी सैन्य एवं रणनीतिक मूल्यांकन में भी यह बात निकलकर सामने आई है.[95] चीन और रूस के गठजोड़ की वजह से आर्कटिक क्षेत्र में तेज़ी से हालात बदल रहे हैं और इन बदलते हालातों ने अमेरिकी सेनाओं पर जवाबी कार्रवाई का दबाव भी बढ़ा दिया है. सबसे पहले तो आर्कटिक इलाक़े में बसावट नहीं है, यानी यहां रहने वालों की संख्या बहुत कम है.[96] अर्थात आर्कटिक में भी लद्दाख और भारत-चीन सीमा से सटे दूसरे क्षेत्रों की भांति ज़्यादा आबादी नहीं है. दूसरा, क्षेत्र में सरकारी नुमाइंदों की मौज़ूदगी और सरकारी तंत्र की उपस्थिति नाम मात्र की है.[97] तीसरा, आर्कटिक क्षेत्र का आर्थिक ढांचा और सैन्य इंफ्रास्ट्रक्चर बहुत मज़बूत नहीं है.[98] ये सारी परिस्थितियां कहीं न कहीं चीन के लिए फायदेमंद हैं, क्योंकि इससे उसे दूसरे क्षेत्रों के मुक़ाबले आर्कटिक में "ज़मीनी हक़ीकत" को बदलने का मौक़ा मिलता है.[99] भूमि क्षेत्र पर दावे के लिहाज़ से देखा जाए, तो कनाडा आर्कटिक काउंसिल का दूसरा सबसे अहम सदस्य देश है. हालांकि, ओटावा के पास चीन की व्यावसायिक और सैन्य गतिविधियों के समक्ष अपने दावों की सुरक्षा के लिए कोई सैन्य ताक़त नहीं है.[100] इसी वजह से अमेरिकी सेना को अलास्का में 11वें एयरबोर्न डिवीज़न को दोबारा से सक्रिय करने के लिए बाध्य होना पड़ा है.[101]

 

अमेरिकी सेना ने आर्कटिक में अपनी सैन्य दुर्बलताओं के बारे में जो भी आकलन किया है, देखा जाए तो वो पूर्व में भारत द्वारा चीनी सेना से मिले अनुभवों से प्रेरित है. उल्लेखनीय है कि वर्ष 2020 में लद्दाख में भारत को पीएलए की ओर से बहुत बुरा अनुभव हुआ था. हालांकि, अभी आर्कटिक में बीजिंग सैन्य तौर पर इतना अधिक सशक्त नहीं हो पाया है और फिलहाल धीरे-धीरे अपनी ताक़त बढ़ा रहा है. इस सबके बीच अंटार्कटिका में भी कुछ इसी तरह के हालात पैदा हो रहे हैं. यानी अंटार्कटिका में भी चीन अपना दबदबा क़ायम करने में जुटा है और अपनी तीन युद्ध रणनीति के ज़रिए अपने हितों को साधने में लगा है.

चीन की ‘तीन युद्ध’ रणनीति और अंटार्कटिका

अंटार्कटिका महाद्वीप दक्षिणी ध्रुव पर स्थित है और इसका पूरा इलाक़ा स्थाई रूप से बर्फ़ की चादर से ढका हुआ है. इसके साथ ही अंटार्कटिका फिलहाल एक ऐसा महाद्वीप भी है, जिसके प्राकृतिक संसाधान फिलहाल दुनिया से महफूज हैं, यानी इनका अभी दोहन नहीं हो सका है.[102] यही वजह है कि अंटार्कटिका में चीन के पास अपनी सलामी स्लाइजिंग रणनीति को अमली जामा पहनाने, अर्थात वहां छोटे-छोटे हिस्सों पर अपना कब्ज़ा जमाकर बाद में एक बड़े क्षेत्र को हथियाने का पूरा मौक़ा है. जहां तक अंटार्कटिक संधि की बात है, तो इसके 12 मूल हस्ताक्षरकर्ताओं में से सात देश संधि के अनुसार इस क्षेत्र के प्रमुख दावेदार हैं. इन सात देशों में अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, चिली, न्यूज़ीलैंड, फ्रांस, नॉर्वे और यूके शामिल हैं. लेकिन यह सातों सदस्य देश अंटार्कटिका ट्रीटी की शर्तों के अनुसार संप्रभुता के सवाल का समाधान कभी नहीं कर पाए हैं.[103] ऐसे में अंटार्कटिक संधि के अन्य हस्ताक्षरकर्ताओं जैसे कि अमेरिका, रूस, चीन और भारत आदि जैसे प्रमुख देशों के सामने इस क्षेत्र की संप्रभुता को लेकर संदेह और भ्रम की स्थित बनी हुई है.[104]

 

वर्तमान में अंटार्कटिक संधि में 44 सदस्य देश हैं, जिन्हें एक हिसाब से सलाहकार का दर्ज़ा मिला हुआ है और यह इन देशों को बैठकों में हिस्सा लेने की इज़ाजत देता है.[105] इस संधि के अनुच्छेद IX.2 के अंतर्गत यह सलाहकार देश तभी तक बैठकों में शामिल हो सकते हैं, जब तक वे यह साबित कर सकें कि वे "अंटार्कटिका में अपनी तरफ से रिसर्च से जुड़ी गतिविधियां संचालित कर रहे हैं".[106] सच्चाई यह है कि 29 सलाहकार देशों में से केवल 17 देश ही संधि के इस प्रवाधान पर खरे उतरते हैं.[107] इस सबके बावज़ूद अंटार्कटिका की संप्रभुता का सवाल वहीं का वहीं खड़ा हुआ है. इन हालातों ने चीन के दोनों हाथों में लड्डू थमा दिए हैं और उसके लिए अंटार्कटिका में अपनी उपस्थिति को बढ़ाने का मौक़ा उपलब्ध करा दिया है.

 

PLA नौसेना के रियर एडमिरल यिन झुओ ने एक दशक पहले कहा था कि चूंकि चीन की आबादी दुनिया की कुल जनसख्या के पांचवें हिस्से के बराबर है, इसलिए इस हिसाब से चीन का आर्कटिक और अंटार्कटिका में उपलब्ध संसाधनों के पांचवें हिस्से पर हक़ है.[108] जिस प्रकार से चीन की आबादी है, उसको देखते हुए ऐसा लगता है कि चीन अंटार्कटिका में अपनी व्यापक हिस्सेदारी चाहता है और दूसरे देशों के लिए वहां कोई जगह नहीं छोड़ना चाहता है.[109] शी ने जुलाई 2013 में पोलित ब्यूरो की बैठक में ध्रुवीय इलाक़ों की व्यापक पड़ताल की ज़रूरत पर बल दिया था, साथ ही समुद्री और ध्रुवीय संसाधनों का फायदा उठाने की बात कही थी.[110] यद्यपि, अभी तक वैज्ञानिक तौर पर यह सुनिश्चित नहीं हो पाया है कि अंटार्कटिका में प्रचुर मात्रा में खनिज संपदा है भी या नहीं.[111] बावज़ूद इसके चीन की इस क्षेत्र पर नज़र है और वह अपनी महत्वाकांक्षाओं और हितों को आगे बढ़ाने के लिए शायद वहां क़ानूनी दांवपेंच का इस्तेमाल करेगा, जिस प्रकार से वह दुनिया के अन्य क्षेत्रों में करता आया है.[112] अगर अंटार्कटिका में चीन के दावों की बात करें, तो संसाधनों का दोहन अहम ज़रूर है, लेकिन यह चीन की दिलचस्पी की असल वजह नहीं है. चीन अंटार्कटिका में प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा करने के साथ ही वहां अपनी सैन्य मौज़ूदगी स्थापित करना चाहता है और चीन के दावों को इसी नज़रिए से देखना होगा. चीन अब वैज्ञानिक तौर पर रिसर्च करने की आड़ में वहां ज़रूरी अनुसंधान स्टेशनों और बुनियादी ढांचे का निर्माण करना चाहता है.[113] चीन अपनी तीन युद्ध रणनीति के अंतर्गत अपने फायदे के लिए अधिक से अधिक लाभ हासिल करने की कोशिश करता है, फिर चाहे उसे इसके लिए क़ानूनी हथकंडों का इस्तेमाल ही क्यों न करना पड़े. इसके अतिरिक्त, स्टेट ओसीनिक एडमिस्ट्रेशन द्वारा प्रस्तुत किए गए श्वेत पत्र के मुताबिक़ अंटार्कटिका "वैश्विक पर्यावरण और संसाधनों के लिहाज़ से एक नई जगह है, जो मानव विकास की प्रक्रिया के लिए बेहद अहम है".[114] श्वेत पत्र ने शी जिनपिंग की स्थिति को भी दोहराया कि चीन "इस बात को समझेगा और संसाधनों की रक्षा करेगा और सोच-समझ कर उपयोग करेगा".[115]

 

आर्कटिक या फिर दक्षिण चीन सागर के उलट अंटार्कटिका एक महाद्वीप है और ज़मीनी इलाक़ा है. एक महाद्वीप होने के नाते अंटार्कटिका चीन की सलामी स्लाइजिंग रणनीत के लिए बेहद संवेदनशील है, यानी यहां चीन छोटे-छोटे हिस्सों पर अपनी दावेदारी जताकर अपने व्यापक हितों को हासिल करने की कोशिश कर सकता है, जैसा कि उसने अप्रैल-मई 2020 में पूर्वी लद्दाख के किया था. अंटार्कटिका एक ऐसा इलाक़ा है जहां बहुत अधिक आबादी नहीं है. इसी कारण से चीन यहां अपनी तीन युद्ध रणनीति का इस्तेमाल करके अपनी विस्तारवादी नीति को अमल में ला सकता है. इसीलिए, आर्कटिक के मुक़ाबले अंटार्कटिका में चीनी मंसूबों को क़ामयाबी मिलना आसान है. ज़ाहिर है कि समुद्री क्षेत्र की तुलना में ज़मीनी इलाक़ों में चीन अपनी रणनीति को आसानी से परवान चढ़ा सकता है और अंटार्कटिका महाद्वीप इस लिहाज़ से चीन के लिए एकदम मुफ़ीद जगह है. इसकी वजह यह है कि अंटार्कटिका में अपनी हरकतों को अंजाम देते समय उसे विरोध का सामना करने की उम्मीद बहुत कम है. इसके अलावा चीन यहां पर अपनी तीन युद्ध रणनीति के मुताबिक़ बहुत कम प्रयासों और ख़र्च में अधिक से अधिक लाभ पाने की स्थिति में है. वर्ष 1983 में अंटार्कटिक संधि में शामिल होने के बाद से ही चीन वहां पर अपने हितों को साधने में जुट गया था. ज़ाहिर है कि अंटार्कटिक संधि के सदस्य, जिन्हें सलाहकार का दर्ज़ा प्राप्त है, वे बैठकों और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में हिस्सा ले सकते हैं (तालिका 1 देखें).

 

तालिका 1: अंटार्कटिक संधि के पक्षकार

 

Country

Entry Into Force

Consultative Status

Environment Protocol

Argentina

23 June 1961

23 June 1961

14 January 1998

Australia

23 June 1961

23 June 1961

14 January 1998

Belgium

23 June 1961

23 June 1961

14 January 1998

Brazil

16 May 1975

27 September 1983

14 January 1998

Bulgaria

11 September 1978

5 June 1998

21 May 1998

Chile

23 June 1961

23 June 1961

14 January 1998

China

8 June 1983

7 October 1985

14 January 1998

Chechia

1 January 1993 (n)

1 April 2014

24 September 2004

Ecuador

15 September 1987

19 November 1990

14 January 1998

Finland

15 May 1984

20 October 1989

14 January 1998

France

23 June 1961

23 June 1961

14 January 1998

Germany

5 February 1979 (n)

3 March 1981

14 January 1998

India

19 August 1983

12 September 1983

14 January 1998

Italy

18 March 1981

5 October 1987

14 January 1998

Japan

23 June 1961

23 June 1961

14 January 1998

South Korea

28 November 1986

9 October 1989

14 January 1998

Netherlands

30 March 1967 (n)

19 November 1990

14 January 1998

New Zealand

23 June 1961

23 June 1961

14 January 1998

Norway

23 June 1961

23 June 1961

14 January 1998

Peru

10 April 1981

9 October 1989

14 January 1998

Poland

23 June 1961

29 July 1977

14 January 1998

Russia

23 June 1961

23 June 1961

14 January 1998

South Africa

23 June 1961

23 June 1961

14 January 1998

Spain

31 March 1982

21 September 1988

14 January 1998

Sweden

24 April 1984

24 September 1988

14 January 1998

Ukraine

28 October 1992

4 June 2004

24 June 2001

UK

23 June 1961

23 June 1961

14 June 1998

US

23 June 1961

23 June 1961

14 January 1998

Uruguay

11 January 1980

7 October 1985

15 January 1998

 

स्रोत : अंटार्कटिक संधि[116]

 

चीन हालांकि अंटार्कटिक ट्रीटी पर हस्ताक्षर करने वाले देशों में शामिल है, बावज़ूद इसके चीन अंटार्कटिका महाद्वीप पर अपनी मौज़ूदगी को बढ़ाने में निरंतर जुटा हुआ है. अंटार्कटिक संधि में शामिल होने के बाद चीन ने ऑस्ट्रेलिया के साथ गठबंधन किया है. ऑस्ट्रेलिया अंटार्कटिका के 42 प्रतिशत इलाक़े पर अपना दावा जताता है.[117] यानी कि कैनबरा अंटार्कटिका महाद्वीप के ज़्यादातर क्षेत्र का सबसे प्रमुख दावेदार है. अंटार्कटिका को लेकर कैनबरा के दावों का संधि में शामिल दूसरे किसी भी देश ने खुलकर विरोध नहीं किया है, लेकिन अगर रूस, अमेरिका, चीन और भारत जैसे इस संधि में शामिल बड़े देश भविष्य में ऑस्ट्रेलिया के संप्रभु दावों को नहीं मानते हैं, तो तमाम तरह की चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं, ख़ास तौर पर वहां के संसाधनों पर कब्ज़े को लेकर पेचीदा हालात पैदा हो सकते हैं.[118] इसके अलावा, अगर कोई ताक़तवर हितधारक देश अंटार्कटिका में सैन्य कार्रवाई के लिए आगे बढ़ता है, तो ज़ाहिर तौर पर ऑस्ट्रेलिया, महाद्वीप पर अपने क्षेत्रीय हितों की सैन्य तरीक़े से रक्षा नहीं कर सकता है.[119] अंटार्कटिका में जितने भी ताक़तवर देशों के हित हैं, उनमें से चीन ऐसा है, जो तेज़ी के साथ महाद्वीप पर अपना दावा जता रहा है. कई वर्षों से चीन वहां पर अपने चार रिसर्च सेंटर चला रहा है, जिनमें से तीन ऑस्ट्रेलियाई दावे वाले इलाक़े में स्थित हैं.[G],[120],[121] इतना ही नहीं चीन द्वारा अपने पांचवें रिसर्च स्टेशन का भी निर्माण किया जा रहा है. इस अनुसंधान केंद्र के निर्माण की आधारशिला वर्ष 2018 में रॉस द्वीप में रखी गई थी, जो ऐसा क्षेत्र है, जहां बड़ी संख्या में जीव-जंतुओं का निवास है. हालांकि, अंटार्कटिका में तमाम देशों द्वारा जो अनुसंधान केंद्र स्थापित किए गए हैं, उनके ज़रिए वैज्ञानिक जानकारी एकत्र करने के साथ-साथ ख़ुफ़िया जानकारी भी एकत्र की जा रही हैं, लेकिन जिस प्रकार से चीन द्वारा नागरिक अनुसंधान की आड़ में निगरानी गतिविधियों को व्यापक स्तर पर बढ़ाया गया है, उसने सामरिक दृष्टि के चुनौती पेश की है.[122]

 

अंटार्कटिका में जिस प्रकार से चीन की मौज़ूदगी बढ़ रही है, वह पांचवे रिसर्च स्टेशन की स्थापना के बाद जो और बढ़ जाएगी. चीन की बढ़ती उपस्थिति चिंता का सबब बनती जा रही है. उल्लेखनीय है इस तरह से आने वाले दिनों में साउदर्न हेमिस्फियर यानी दक्षिणी गोलार्ध का बड़ा हिस्सा चीन की निगरानी के तहत आ सकता है.(मानचित्र 2 देखें).[123] बीजिंग ने एक वेधशाला भी स्थापित की है, जो ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में सिग्नल इंटेलिजेंस (SIGINT) यानी ख़ुफ़िया सिग्नलों पर नज़र रखेगी और उन्हें एकत्र करेगी. साथ ही यह चीनी वेधशाला ऑस्ट्रेलिया के नव-निर्मित अर्नहेम स्पेस सेंटर से रॉकेट लॉन्च की टेलीमेट्री जानकारी की निगरानी करेगी.[124] चीन ने अपनी गतिविधियों से अंटार्कटिक संधि में शामिल कई देशों की परेशानी को पहले ही बढ़ा दिया है, ऐसे में आने वाले दिनों उसकी हरकतों से किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि अंटार्कटिका के रॉस सागर में प्रचुर मात्रा में तेल और प्राकृतिक गैस मौज़ूद है.[125] चीन द्वारा अंटार्कटिका में जो पांचवा रिसर्च स्टेशन स्थापित किया जा रहा है, ज़ाहिर तौर पर उसका इस्तेमाल वैज्ञानिक अनुसंधान करने और एक वेधशाला के रूप में किया जाएगा. चीन का यह रिसर्च स्टेशन मुख्य रूप से एक सैटेलाइट ग्राउंड स्टेशन का कार्य करेगा.[126] चीन का यह रिसर्च स्टेशन अंटार्कटिका में अमेरिका के सबसे प्रमुख रिसर्च स्टेशन मैकमुर्डो के पास स्थित है. हालांकि, इस वजह से अमेरिका द्वारा भी चीन की गतिविधियों पर नज़र रखी जा सकती है, लेकिन चीन का नया रिसर्च सेंटर चीनी उपग्रहों की मदद से पनडुब्बियों को बेहतर तरीके से ट्रैक करने की सुविधा भी प्रदान करेगा.[127] चीन द्वारा अंटार्कटिका में वैज्ञानिक अनुसंधान के तमाम दावे किए जा रहे हैं, लेकिन लगता है कि उसकी सबसे अधिक दिलचस्पी अंटार्कटिका में अपनी व्यापक मौज़ूदगी स्थापित करने में है.[128] अंटार्कटिका के जिन इलाक़ों में प्राकृतिक संसाधनों का पता चला है या फिर यह समझा जाता है कि प्राकृतिक संसाधन मौज़ूद हैं, उन्हीं क्षेत्रों में चीन द्वारा नागरिक अनुसंधान में निवेश करने और महाद्वीप पर सैन्य ठिकाने बनाने की प्रबल संभावना है.[129] इसके अतिरिक्त, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने जानबूझ कर नहीं तो अनजाने में ही सही, अंटार्कटिका में चीन को पैर जमाने में काफ़ी मदद की है. अंटार्कटिका में जिस प्रकार से चीन ने ऑस्ट्रेलिया की सहायता ली है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि उसने अपनी TWS रणनीति के अंतर्गत सहयोगी देश का फायदा उठाया है और बेहद चालाकी से अपने हितों को साधने के लिए उसका इस्तेमाल किया है. चीन द्वारा अंटार्कटिका में जो रिसर्च स्टेशन स्थापित किए गए हैं, वो न केवल वहां उसकी मौज़ूदगी को सशक्त करने का काम करेंगे, बल्कि वहां क्षेत्रीय दावे करने और संप्रभुता का दावा करने में भी उसके पक्ष को मज़बूत करेंगे.

 

मानचित्र 2: अंटार्कटिका में चीन का नया स्टेशन (निर्माणाधीन)

 स्रोत: CSIS [130]

 अंटार्कटिक संधि में प्रावधान किया गया है कि कोई भी सदस्य देश महाद्वीप पर शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए वैज्ञानिक अनुसंधान हेतु सैन्य कर्मियों या उपकरणों को तैनात कर सकता है, लेकिन इसमें सैन्य ठिकानों की स्थापना को लेकर साफ तौर पर मना किया गया है.[131] संधि में शामिल सदस्य देशों को एक-दूसरे को अपनी गतिविधियों के बारे में सूचित करने और दूसरे देशों द्वारा अपने क्रिया-कलापों के निरीक्षण की अनुमति देने लिए एक समुचित जांच व्यवस्था की भी ज़रूरत होती है.[132] इतना ही नहीं जिस प्रकार से अंटार्कटिका में वैज्ञानिक अनुसंधान किया जा रहा है, साथ ही संसाधनों का दोहन किया जा रहा है, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि इसकी आड़ में महाद्वीप में तेज़ी से सैन्य ठिकाने स्थापित किए जा सकते हैं, जिस तरह से चीन द्वारा दक्षिण चीन सागर में किया गया है. ज़ाहिर है कि एससीएस में प्राकृतिक संसाधनों का अकूत भंडार मौजूद है.[133] गौरतलब है कि चीन वर्ष 2048 तक अंटार्कटिका में खनन और ड्रिलिंग नहीं करने पर सहमत हो गया है,[134] अगर किसी वजह से चीन अपने इस वादे से पीछे हटता है, तो फिर वहां खनन और ड्रिलिंग पहले भी शुरू हो सकती है. ऐसा इसलिए, क्योंकि चीन अपनी बात पर क़ायम नहीं रहता है, जैसे कि चीन ने ताइवान पर अपने संभावित कब्ज़े के समय को वर्ष 2027 कर दिया है.[135] कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अगर अंटार्कटिक संधि में शामिल अन्य देशों द्वारा आपत्ति जताई जाती है, तो यह न केवल चीन को अपनी ओर से ढुलमुल दावे करने के लिए मज़बूर करेगा, बल्कि अंटार्कटिका में अपने हितों को साधने के लिए उसे अपनी कोशिशों को ज़ोरदार तरीक़े से आगे बढ़ाने के लिए भी उकसाएगा.

 

निष्कर्ष

गौर करने वाली बात यह है कि चीन की तीन युद्ध रणनीति इस प्रकार से बनाई गई है, जिसमें कम से कम कोशिशों और ख़र्च में अधिक से अधिक फायदा सुनिश्चित किया जाता है. समुद्र की तुलना में ज़मीन पर अपने मंसूबों को अंज़ाम तक पहुंचा बेहद आसान होता है. इस लिहाज़ से देखें तो लद्दाख में चीन को जो कुछ हासिल हुआ, उससे यह पता चल सकता है कि उसे अंटार्कटिका और आर्कटिक में क्या कुछ हासिल होने वाला है. अमेरिकी सेना की तैयारी से भी इसका स्पष्ट संकेत मिलता है. चीन द्वारा पूर्वी लद्दाख में भारतीय क्षेत्रों में अतिक्रमण के लिए TWS रणनीति को भले ही सफलता से अमल में लाया गया हो, लेकिन गलवान में जिस प्रकार से भारतीय सैनिकों से झड़प के दौरान चीन को मुंह की खानी पड़ी, उसने यह साबित कर दिया है कि बगैर लड़ाई के सिर्फ़ छल-कपट और धोखेबाज़ी से जीत हासिल करने की भी एक सीमा होती है, यानी हर बार यह छल-कपट और दुष्प्रचार की रणनीति सफल नहीं होती है. यही वजह है कि दिसंबर 2022 में यांग्त्से में जब भारत और चीन के सैनिकों के बीच झड़प हुई, तो इसमें दोनों पक्षों के जवानों को गंभीर चोटें ज़रूर आईं, बावज़ूद इसके दोनों ही तरफ से घातक हथियारों का उपयोग नहीं हुआ. आख़िरकार जंग में दोनों तरफ से न केवल हथियारों का जमकर इस्तेमाल किया जाता है, बल्कि इसमें दो विरोधी सेनाओं के बीच वास्तविकता में लड़ाई लड़ी जाती है और इसमें सेनाएं बाक़ायदा अपनी हिस्सेदारी निभाती हैं.[136] इसलिए, पूर्वी लद्दाख में भले ही चीन ने कुछ भी किया हो, लेकिन चीन के तीन युद्ध रणनीति के अंतर्गत आने वाली भ्रम, दुष्प्रचार और छल-कपट जैसी चालबाज़ियां कभी भी वास्तविक सैन्य संघर्ष की जगह नहीं ले सकती हैं, यानी जंग वास्तव में जंग ही होती है.

 चीन के विरोधी देश, जैसे कि भारत, जो कि हाल ही में चीन को पछाड़ कर विश्व का सर्वाधिक आबादी वाला देश बन गया है, उसके पास भी अपनी जनसंख्या के मुताबिक़ वैश्विक संसाधनों में हिस्सेदारी हासिल करने का हक़ है. इसमें बस दिक़्क़त यह है कि आर्कटिक और अंटार्कटिका के संसाधनों पर अपना दावा जताने के लिए चीन के पास बड़ा सैन्य बल है, जबकि भारत के पास वैसी सैन्य ताक़त नहीं है. 

एक सवाल यह खड़ा हुआ है कि किया क्या चीन सलामी स्लाइसिंग और छल-कपट, धोखेबाज़ी जैसी रणनीतियों के ज़रिए अपने हितों को सुरक्षित करने या फिर दुश्मन के इलाक़ों में कब्ज़ा करने की हद जानता है. क्योंकि भारत अब चीन की इन हरकतों से अच्छी तरह से वाक़िफ़ हो चुका है, इसीलिए भारत न केवल चौकन्ना है, बल्कि उसने चीन से लगी सीमा पर सैन्य तैनाती को भी बढ़ा दिया है. चीन द्वारा अपनी तीन युद्ध रणनीति को पहले से ही लद्दाख और चीन-भारत सीमा के अलावा अन्य जगहों पर लागू किया जा रहा है. चीन के लिए आर्कटिक और अंटार्कटिका अपनी TWS रणनीति को आजमाने के नए क्षेत्र हैं, जहां चीनी नेताओं को लगता है कि कम से कम प्रयासों में अधिक से अधिक फायदा हासिल किया जा सकता है. यानी कि चीन के रणनीतिक प्रबंधकों को लगता है कि अपनी इस युक्ति के ज़रिए वे इन क्षेत्रों में अपने हितों को सुरक्षित कर सकेंगे. लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि ज़मीन पर लड़ी जाने वाली लड़ाई, या फिर ज़मीनी ताक़त का अभी भी कोई मुक़ाबला नहीं है और यह बेहद अहम भी है.

 

पूर्वी लद्दाख में चीन ने जो कर लिया, सो कर लिया, लेकिन अब अगर बीजिंग को चीन-भारत सीमा से सटे किसी इलाक़े में अतिक्रमण करना है, तो ऐसा करना उसके लिए सहज नहीं होगा, बल्कि इसके लिए चीन को अपनी सैन्य ताक़त झोंकने की ज़रूरत पड़ेगी. हालांकि, यह भी सच है कि चीन द्वारा इस तरह के क़दम उठाने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है. इसका तात्पर्य यह है कि भारत को और अधिक सतर्क रहना चाहिए और चीन की ओर से किसी बड़े हमले के लिए तैयार रहना चाहिए. चीन की परिवर्तनशील और ढुलमुल आधिकारिक स्थिति का एक और मतलब यह भी है कि एक विशाल आबादी वाले देश के रूप में चीन अपनी जनसंख्या के अनुपात में दुनिया के संसाधनों में हिस्सेदारी का हक़दार है. इस तर्क के हिसाब से देखा जाए, तो चीन के विरोधी देश, जैसे कि भारत, जो कि हाल ही में चीन को पछाड़ कर विश्व का सर्वाधिक आबादी वाला देश बन गया है, उसके पास भी अपनी जनसंख्या के मुताबिक़ वैश्विक संसाधनों में हिस्सेदारी हासिल करने का हक़ है. इसमें बस दिक़्क़त यह है कि आर्कटिक और अंटार्कटिका के संसाधनों पर अपना दावा जताने के लिए चीन के पास बड़ा सैन्य बल है, जबकि भारत के पास वैसी सैन्य ताक़त नहीं है. एक और बात यह है कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग के शासन में चीनी सरकार पहले की तुलना में आज ज़्यादा जोख़िम लेने के लिए तैयार है. भारत से सटी चीन की सीमाओं और अर्कटिक एवं अंटार्कटिका में चीन जो कर रहा है, उसमें यह दिखाई भी दे रहा है. संसाधनों की दृष्टि से देखा जाए, तो पीएलए नौसेना दुनिया की सबसे बड़ी नौसेना है, जिसके पास युद्धपोतों का विशाल बेड़ा है, जो कि अंटार्कटिका में चीन की मौज़ूदगी न सिर्फ स्थापित कर सकता है, बल्कि उसे लंबे वक़्त तक बरक़रार भी रख सकता है. अपनी इसी ताक़त के बल पर चीन ने अंटार्कटिका में रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण और संसाधन से युक्त इलाक़ों में बढ़त हासिल कर ली है. चीन की इस सफलता की वजह से क्वॉड देशों (भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान) के लिए अपने संसाधनों और तकनीक़ी क्षमताओं का एकीकरण आवश्यक हो गया है.

 

चीन ने अपनी तीन युद्ध रणनीत के बल पर कम लागत और कम कोशिश करके अधिकतम लाभ प्राप्त किया है. भारत को ध्रुवीय क्षेत्रों, ख़ास तौर पर अंटार्कटिका में चीन के बड़े और अस्थिर दावों का सामना करने के लिए क्वॉड देशों के साथ मिलकर एक समन्वित कूटनीतिक एवं सैन्य रणनीति बनानी चाहिए. ज़ाहिर है कि ऑस्ट्रेलिया अंटार्कटिका महाद्वीप के 40 प्रतिशत से अधिक हिस्से का दावेदार है, लेकिन वो खुद अपने क्षेत्रों की सुरक्षा करने की हालत में नहीं है. इसलिए, क्वॉड देशों को एक साथ आने की ज़रूरत होगी, ऐसा करने पर ही वे चीन को अंटार्कटिक में अपने क्षेत्रों पर दावे करने से रोक सकते हैं.

 

क्वॉड देशों की ओर से जो भी आधिकारिक स्टेटमेंट जारी किए गए हैं, उनमें से एक में भी ध्रुवीय क्षेत्रों का उल्लेख नहीं किया गया है.[137] इसलिए, यह ज़रूरी है कि कम से कम अंटार्कटिका में चीन की बढ़ती वैज्ञानिक और सैन्य मौज़ूदगी का किस प्रकार से सामना किया जाए, इस मुद्दे पर क्वॉड के भागीदार देशों के बीच सभी स्तरों पर विचार-विमर्श शुरू होना चाहिए. इतना ही नहीं, क्वॉड की बैठकों के बाद, जब आधिकारिक बयान जारी किया जाए, तो उसमें इस बात का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए कि अंटार्कटिका में चीनी दख़ल से निपटने के लिए समूह द्वारा क्या-क्या उपाय किए गए हैं. निसंदेह तौर पर अंटार्कटिका ही वो क्षेत्र है, जिसको लेकर क्वॉड देशों के बीच सबसे अधिक पारस्परिक सहयोग हो सकता है. इसके अतिरिक्त, भौगोलिक कारकों के साथ-साथ, जिस प्रकार से चीन ने अंटार्कटिका में अपना दबदबा क़ायम किया है, उससे भी यही लगता है कि महाद्वीप में चीन की गतिविधियों पर नज़र रखने और उसे नियंत्रित करने के लिए क्वॉड देशों को एक साथ मिलकर क़दम उठाने चाहिए. सभी क्वॉड देशों के रिसर्च सेंटर अंटार्कटिका में स्थापित हैं. इसलिए, अंटार्कटिका में SIGINT यानी सिग्नल इंटेलीजेंस को साझा करने के लिए मिलकर काम करना क्वॉड देशों की प्राथमिकता में होना चाहिए. इसके लिए क्वॉड के देशों को, ख़ास तौर पर भारत (जो अंटार्कटिका में मैत्री और भारती रिसर्च स्टेशनों का संचालन करता है) को अंटार्कटिका में अपनी ताक़त व क्षमताओं को बढ़ाने की ज़रूरत होगी.

Endnotes:

 

[A] देपसांग बुल्गे और डेमचोक.

[B] लेखकों ने स्पष्ट रूप से कहा है कि क़ानून को हथियार की तरह इस्तेमाल करना होगा.

[C] 'सलामी स्लाइसिंग' एक ऐसी रणनीति होती है, जिसमें बार-बार मज़बूती के साथ दबाव डाला जाता है, जिसमें दुश्मन देश के छोटे-छोटे इलाक़ों में कब्ज़ा करना शामिल होता है. इसके चलती दूसरा देश अपनी तरफ से कड़ा प्रतिरोध दर्ज़ नहीं करा पाता है.

[D] ताइवान के अलगाव को रोकने के लिए वर्ष 2004 में हू जिंताओ शासन के दौरान क़ानून पारित किया गया था.

[E] आर्कटिक परिषद में आठ सदस्य हैं: नॉर्वे, कनाडा, स्वीडन, फिनलैंड, रूस, अमेरिका, डेनमार्क और आइसलैंड.

[F] आर्कटिक काउंसिल पर्यवेक्षक का दर्ज़ा गैर-आर्कटिक देशों के लिए खुला हुआ है. ये देश हैं: फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, नीदरलैंड, चीन, पोलैंड, भारत, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, स्पेन, स्विट्जरलैंड और यूके.

[G] चार रिसर्च स्टेशन - ग्रेट वॉल, जिसे वर्ष 1985 में किंग जॉर्ज द्वीप पर स्थापित किया गया था; झोंगशान, जिसे वर्ष 1989 में लार्सेमैन हिल पर स्थापित किया गया था; कुनलुन, जिसे वर्ष 2009 में Dome A पर स्थापित किया गया था, जो कि मध्य पूर्व अंटार्कटिका के निकट है; और ताइशान, जिसे वर्ष 2014 में प्रिंसेस आईलैंड पर स्थापित किया गया.

[1] Robert J. Art, “The United States and the Rise of China: Implications for the Long Haul”, Political Science Quarterly, Vol. 125, No.3 (Fall 2010), p. 361.

[2] Sun Tzu, The Art of War, (London: Hodder and Stoughton, 2017), Kindle Edition.

 

[3] Tzu, The Art of War.

 

[4] Tzu, The Art of War.

 

[5] Qiao Liang and Wang Xiangsui, Unrestricted Warfare, (Beijing: PLA Literature and Arts Publishing House, 1999).

 

[6] Lynn Kuok, “China’s Legal Diplomacy”, Survival, Vol. 65, no. 6, December 2023-January 2024, p. 160.

 

[7] Kuok, “China’s Legal Diplomacy”, Survival, Vol. 65, no. 6, (December 2023-January 2024), 160.

 

[8] This was well highlighted by one American strategic expert to this author.

 

[9] James Goldrick and Sudarshan Shrikhande, “Sea denial is not enough: An Australian and Indian perspective”, theinterpreter, The Lowy Institute, March 10, 2021, https://www.lowyinstitute.org/the-interpreter/sea-denial-not-enough-australian-indian-perspective

 

[10] Dan Altman, “By Fait Accompli, Not Coercion: How States Wrest Territory from their Adversaries”, International Studies Quarterly, 61 (2017), 882.

 

[11] Vinod Anand, “Chinese Concepts and Capabilities of Information Warfare”, Strategic Analysis, Vol. 30, No. 4, (2006), 781-97.

 

[12] James Mulvenon and Richard H. Yang, The Peoples Liberation Army in the Information Age, (Santa Monica: RAND Corporation, 1999), 177.

 

[13] Sangkuk Lee, “China’s ‘Three Warfares’: Origins, Applications and Organisations”, Journal of Strategic Studies, Vol. 37, No. 2, 2014, pp. 198-221.

 

[14] This is a well made point by one Indian analyst, Abhijit Singh, “China’s ‘Three Warfares’ and India”, Journal of Defence Studies, vol. 7, No. 4, October-December (2013), 27-46.

 

[15] John Lee and Lavina Lee, ‘Win Without Fighting’: The Chinese Communist Party’s Political and Institutional Warfare Against the West”, Hudson Institute, May, 2022, p. 18, https://s3.amazonaws.com/media.hudson.org/Lee_Win%20Without%20Fighting.pdf

 

[16] “The three methods of public opinion warfare, psychological warfare, and legal warfare accelerate the victory of the war”, Xinhuanet, March 8, 2005, http://news.sina.com.cn/o/2005-03-08/10245297499s.shtml

 

[17] Zhang Aiping cited in Paul H. B. Godwin, “Changing Concepts of Doctrine, Strategy and Operations in the Chinese People’s Liberation Army 1978-1987,” The China Quarterly 112 (December 1987): 576.

 

[18] “The three methods of public opinion warfare, psychological warfare, and legal warfare accelerate the victory of the war”.

 

[19] Science of Military Strategy, (Beijing: National Defence University Press), 2020, p. 240,  Elsa Kania, “The PLA’s Strategic Thinking of the Three Warfares”, Center for International Maritime Security, August 25, 2016, https://cimsec.org/plas-latest-strategic-thinking-three-warfares/

 

[20] Kania, “The PLA’s Strategic Thinking of the Three Warfares”.

 

[21] Kuok, Kuok, “China’s Legal Diplomacy”, p. 160.

 

 

[22] Kania, “The PLA’s Strategic Thinking of the Three Warfares”.

 

[23] Elsa Kania, “The PLA’s Latest Strategic Thinking on the Three Warfares”, China Brief, Volume 16, Issue:13, The Jamestown Foundation, 22 August, 2022, https://jamestown.org/program/the-plas-latest-strategic-thinking-on-the-three-warfares/

 

[24] “The three methods of public opinion warfare, psychological warfare, and legal warfare accelerate the victory of the war”.

 

[25] “The three methods of public opinion warfare, psychological warfare, and legal warfare accelerate the victory of the war”.

 

[26] “The three methods of public opinion warfare, psychological warfare, and legal warfare accelerate the victory of the war”.

 

[27] “The three methods of public opinion warfare, psychological warfare, and legal warfare accelerate the victory of the war”.

[28] “The three methods of public opinion warfare, psychological warfare, and legal warfare accelerate the victory of the war”.

 

[29] For China’s objection over the shift J&K’s statehood to Union Territory Status (UT), see “India’s decision to make Ladakh UT unacceptable, says China”, Hindustan Times, 7 August, 2019. For Shah’s statement in parliament see “PoK, Aksai Chin part of Kashmir, says Amit Shah in Lok Sabha”, The Hindu, 6 August, 2019, https://www.thehindu.com/news/national/pok-aksai-chin-part-of-kashmir-says-amit-shah-in-lok-sabha/article61587371.ece

 

[30] Jon R. Lindsay, Information Technology & Military Power, (Ithaca: Cornell University Press, 2020), p. 240.

 

[31] Antara Ghosal Singh, “Analysing the current Chinese discourse on India”, Observer Research Foundation, New Delhi, 10 January, 2023, https://www.orfonline.org/expert-speak/analysing-the-current-chinese-discourse-on-india/

 

[32] There is no publicly available evidence of Indian intelligence intercepting communications between the Xi-led leadership and the PLA’s Western Military Command (WTC).

 

[33] “Modi accepts Xi’s invitation for third informal summit in China”, India Today, October 12, 2019, https://www.indiatoday.in/india/story/modi-accepts-xi-jinping-invitation-third-informal-summit-china-1608717-2019-10-12

 

[34] See for instance specifically the American expert on South Asia Ashley J. Tellis’ comments on Amit Shah’s statement and the Administrative changes brought about in J&K were responsible for Chinese military action in Eastern Ladakh in discussion with Srinath Raghavan, “Assessing the Sino-Indian Border Confrontation”, Interpreting India, Carnegie Endowment for International Peace, June 17, 2020, https://interpreting-india.simplecast.com/episodes/assessing-the-sino-indian-border-confrontation

 

 

[35] Shivshankar Menon, “Are India-China relations crisis-prone?”, Seminar, No. 737, 2021, https://india-seminar.com/2021/737/737_shivshankar_menon.htm

 

 

[36] Menon, “Are India-China relations crisis-prone?”.

 

 

[37] “China never provoked any war, never occupied an inch of other country, says Bejing”, ThePrint, 1 September, 2020, https://theprint.in/diplomacy/china-never-provoked-any-war-never-occupied-an-inch-of-other-country-says-beijing/493510/

 

[38] Cited in “China never provoked any war, never occupied an inch of other country, says Bejing”, ThePrint, 1 September, 2020, https://theprint.in/diplomacy/china-never-provoked-any-war-never-occupied-an-inch-of-other-country-says-beijing/493510/

 

[39] Kania, “The PLA’s Latest Strategic Thinking on the Three Warfares”.

 

[40] Cited in Kania, “The PLA’s Latest Strategic Thinking on the Three Warfares”. Surprise is integral in war. In ancient China one of the key stratagems followed was “Make a sound in the East, then strike in the West”, which can be found in Peter Taylor, The Thirty-six Strategems: A Modern Interpretation of A Strategy, (Oxford: Infinite Ideas Limited, 2013), 31-32.

 

[41] See for instance an expert on the Sino-Indian boundary dispute Srinath Raghavan, “Assessing the Sino-Indian Border Confrontation”, Interpreting India, Carnegie Endowment for International Peace, 17 June, 2020, https://interpreting-india.simplecast.com/episodes/assessing-the-sino-indian-border-confrontation

 

[42] A Chinese offensive on a massive scale is still possible. India’s leadership misjudged Chinese motivations that led to the 1962 war as is clearly explicated in Srinath Raghavan, War and Peace in Modern India, (New Delhi: Orient Blackswan Pvt. Ltd., 2009).

 

[43] Anne Marie Brady, China as a Polar Great Power, (Cambridge: Cambridge University Press, 2017), 3.

 

[44] Science of Military Strategy, (Beijing: National Defence University Press, 2020), 142-162.

 

[45] “China’s Arctic Policy”, State Council Information Office of the People’s Republic of China, Xinhua News Agency, January 26, 2018, https://www.gov.cn/zhengce/2018-01/26/content_5260891.htm

 

[46] Rush Doshi, Alexis Dale-Huang, and Gaoqi Zhang, “Northern Expedition: China’s Arctic Activities and Ambitions”, Brookings Institution, Washington D.C., April, 2021, https://www.brookings.edu/wp-content/uploads/2021/04/FP_20210412_china_arctic.pdf

 

[47] “China supportive to China’s bid for permanent observer to Arctic Council”, ChinaDaily, January 22, 2013, https://www.chinadaily.com.cn/world/2013-01/22/content_16151497.htm

 

[48] Doshi et al., “Northern Expedition: China’s Arctic Activities and Ambitions”.

 

[49] “China’s Arctic Policy”, Ministry of Foreign Affairs of the People’s Republic of China, Beijing January 26, 2018, https://www.fmprc.gov.cn/mfa_eng/wjdt_665385/wjzcs/201801/t20180126_679659.html

 

[50] “China’s Arctic Policy”. See also a critique of those who seek to conflate Beijing’s territorial claims in the South China Sea with its approach to the Arctic, Marc Lanteigne, “The Arctic is not the South China Sea”, South China Morning Post, May 25, 2021, https://www.scmp.com/week-asia/opinion/article/3134261/arctic-not-south-china-sea

 

[51] Elizabeth Buchanan, “China’s Hybrid Arctic Strategy”, per Concordiam, September 8, 2021,  https://perconcordiam.com/chinas-hybrid-arctic-strategy/

 

 

[52] Doshi et al., “Northern Expedition: China’s Arctic Activities and Ambitions”.

 

 

[53] See Elsa Kania, “Thinking of the Three Warfares”, Center for International Maritime Security, August 25, 2016, https://cimsec.org/plas-latest-strategic-thinking-three-warfares/

 

[54] Kania, “Thinking of the Three Warfares”.

 

 

[55] Kania, “Thinking of the Three Warfares”.

 

[56] In the Matter of the South China Sea Arbitration before An Arbitral Tribunal Constituted Under Annex VII to the 1982 United Nations Convention On the Law of the Sea between The Republic of the Philippines Award, The Hague, 12 July, 2016, p. 472, https://pcacases.com/web/sendAttach/2086

 

[57] Euan Graham, “The Hague Tribunal’s South China Sea Ruling: Empty Provocation or Slow-Burning Influence?”, Council of Councils, Washington D.C., August 18, 2016, https://www.cfr.org/councilofcouncils/global-memos/hague-tribunals-south-china-sea-ruling-empty-provocation-or-slow-burning-influence

 

[58] Kania, “Thinking of the Three Warfares”. The South Sea Arbitration (The Republic of Philippines v. The People’s Republic of China, Permanent Court of Arbitration, January 22, 2013, https://pca-cpa.org/en/cases/7/

 

[59] Elizabeth Buchanan and Bec Strating, “Why the Arctic is Not the ‘Next’ South China Sea”, War on the Rocks, November 20, 2020, https://warontherocks.com/2020/11/why-the-arctic-is-not-the-next-south-china-sea/

 

[60] Buchanan and Strating, “Why the Arctic is Not the ‘Next’ South China Sea”.

 

[61] Buchanan, “China’s Hybrid Arctic Strategy”.

 

[62] Matthew P. Funaiole et al., “Frozen Frontiers: China’s Great Power Ambitions in the Polar Regions”, Center for Strategic and International Studies (CSIS), Washington D.C., April 18, 2023, https://features.csis.org/hiddenreach/china-polar-research-facility/#:~:text=China%20has%20two%20permanent%20research,marine%20ecology%20to%20atmospheric%20physics

 

[63] Swee Lean Collin Koh, “China’s strategic interest in the Arctic goes beyond economics”, DefenseNews, May 12, 2020, https://www.defensenews.com/opinion/commentary/2020/05/11/chinas-strategic-interest-in-the-arctic-goes-beyond-economics/

 

[64] Funaiole et al., “Frozen Frontiers: China’s Great Power Ambitions in the Polar Regions”.

 

[65] Funaiole et al., “Frozen Frontiers: China’s Great Power Ambitions in the Polar Regions”.

 

[66] Funaiole et al., “Frozen Frontiers: China’s Great Power Ambitions in the Polar Regions”.

 

[67] Stephanie Pezard, “The New Geopolitics of the Arctic: Russia’s and China’s Evolving and Role”, Testimony presented before the Standing Committee on Foreign Affairs and International Development of the Canadian House of Commons, Ottawa, p. 6,  https://www.rand.org/pubs/testimonies/CT500.html

 

[68] Paul D. Shinkman, “China Signals Recent Patrols Near Alaska Are Only the Beginning”, U.S.News and World Report, August 8, 2023, https://www.usnews.com/news/world-report/articles/2023-08-08/china-signals-recent-patrols-near-alaska-are-only-the-beginning?rec-type=blueshift

 

[69] Michael R. Gordon and Nancy A. Youssef, “Russia and China Sent Large Naval Patrol Near Alaska”,  The Wall Street Journal, August 6, 2023, https://www.wsj.com/articles/russia-and-china-sent-large-naval-patrol-near-alaska-127de28b

 

[70] Cited in “China Signals Recent Patrols Near Alaska Are Only the Beginning”.

 

[71] Anne-Marie Brady, China As A Polar Great Power, (New Delhi: Cambridge University Press, 2017).

 

[72] Yun Sun, “The Northern Sea Route: The Myth of Sino-Russian Cooperation”, Stimson Center, Washington D.C., December 5, 2018, http://stimson.org/wp-content/files/file-attachments/Stimson%20-%20The%20Northern%20Sea%20Route%20-%20The%20Myth%20of%20Sino-Russian%20Cooperation.pdf

 

[73] Funaiole et al., “Frozen Frontiers: China’s Great Power Ambitions in the Polar Regions”.

 

[74] United States Army: Regaining Arctic Dominance, Chief of Staff Paper #3, Headquarters, Department of the Army, January 19, 2021, p. 16

 

[75] “Russia is looking at Asia and for India it could mean…”: MEA during FTA talks”, Mint, April 17, 2023, https://www.livemint.com/news/world/russia-is-looking-at-asia-and-for-india-it-could-mean-mea-jaishankar-during-fta-talks-11681727211086.html

 

[76] Heather A. Conley et al., “America’s Arctic Moment: Great Power Competition in the Arctic to 2050”, Center for Strategic and International Studies, Washington D.C. March 2020, 10, https://csis-website-prod.s3.amazonaws.com/s3fs-public/publication/Conley_ArcticMoment_layout_WEB%20FINAL.pdf

 

[77] Shaheer Ahmad and Mohammad Ali Zafar, Russia’s Reimagined Arctic in the Age of Geopolitical Competition”, Journal of Indo-Pacific Affairs, March 9, 2022, https://www.airuniversity.af.edu/JIPA/Display/Article/2959221/russias-reimagined-arctic-in-the-age-of-geopolitical-competition/#sdendnote23sym

 

[78] See this interesting analysis by Michael Handel, “Corbett, Clausewitz and Sun Tzu”, Naval War College Review, Vol. 53, No. 4, Autumn (2000), 106-124.

 

[79] Nadezhda Filimonova and Svetlana Krivokhizh, “China’s Stakes in the Russian Arctic”, thediplomat, January 18, 2018, https://thediplomat.com/2018/01/chinas-stakes-in-the-russian-arctic/

 

[80] Funaiole et al., “Frozen Frontiers: China’s Great Power Ambitions in the Polar Regions”.

 

[81] Vitaly Yermakov and Ana Yermakov, “Northern Sea Route as Energy Bridge”, in Arctic Fever: Political, Economic and Environmental Aspects”, ed. Anastasia Lichacheva, (Singapore: Palgrave MacMillan, 2022), pp. 473-496.

 

[82] Anne-Marie Brady, “China’s undeclared foreign policy at the poles”, theinterpreter, The Lowy Institute, May 30, 2017, https://www.lowyinstitute.org/the-interpreter/china-s-undeclared-foreign-policy-poles

 

[83] Doshi et al., “Northern Expedition: China’s Arctic Activities and Ambitions”.

 

[84] This aligns well with Chinese strategic thought epitomized by Sun Tzu, but also Western thought as shown in Michael Handel, “Corbett, Clausewitz and Sun Tzu”, p. 111

 

[85] “Yin Zhuo: US maritime hegemony threatens China’s security”, China Net and Netease, March 8, 2010, http://www.china.com.cn/fangtan/zhuanti/2010lianghui/2010-03/08/content_19556085.htm

 

[86] Science of Military Strategy, 142-162.

 

[87] “Yin Zhuo: US maritime hegemony threatens China’s security”.

 

[88] Barry Gardiner, “As the ice melts, a perilous Russian threat is emerging in the Arctic”, The Guardian, June 13, 2023, https://www.theguardian.com/commentisfree/2023/jun/13/arctic-russia-nato-putin-climate

 

[89] Jinlei Chen, et al., “Projected Changes in sea ice and the navigability of the Arctic passages under global warming of 2 ℃ and 3 ℃”, Anthropocene, Volume 40, December 2022.

 

[90] “Shipping traffic at the NSR in 2022”, Northern Sea Route Information Office, Nord University, June 9, 2022, https://arctic-lio.com/nsr-2022-short-report/

 

[91] Funaiole et al., “Frozen Frontiers: China’s Great Power Ambitions in the Polar Regions”.

 

[92] Funaiole et al., “Frozen Frontiers: China’s Great Power Ambitions in the Polar Regions”.

 

[93] Thomas Nilsen, “New mega-port in Arkhangelsk with Chinese investments”, thebarentobserver, October 21, 2016, https://thebarentsobserver.com/en/industry-and-energy/2016/10/new-mega-port-arkhangelsk-chinese-investments

 

[94] Funaiole et al., “Frozen Frontiers: China’s Great Power Ambitions in the Polar Regions”.

 

[95] Andrea Kendall-Taylor and David O. Shullman, “China and Russia’s Dangerous Convergence: How to Counter an Emerging Partnership”, Foreign Affairs, May 3, 2021.

 

[96] Regaining Arctic Dominance: The U.S. Army in the Arctic, Headquarters, Department of the Army, January 19, 2021, p. 26.

 

[97] Regaining Arctic Dominance: The U.S. Army in the Arctic.

 

[98] Regaining Arctic Dominance: The U.S. Army in the Arctic.

 

[99] Regaining Arctic Dominance: The U.S. Army in the Arctic.

 

[100] Joe Varner, “Canada’s Arctic Problem”, Modern War Institute at Westpoint, February 2, 2021, https://mwi.westpoint.edu/canadas-arctic-problem/

 

[101] Carla Babb, “Army Resurrects WWII – Era Airborne Division in Alaska”, voanews, June 6, 2022, https://www.voanews.com/a/army-resurrects-wwii-era-airborne-division-in-alaska-/6606224.html

 

[102] Lily Kuo, “Why China just built this lantern- shaped research base in Antarctica”, Quartz, February 10, 2014, https://qz.com/175325/why-china-just-built-this-lantern-shaped-research-base-in-antarctica

 

[103] Brady, China As A Polar Great Power, p. 24.

 

[104] Brady, China As A Polar Great Power, p. 24.

 

[105] “Parties”, Secretariat of the Antarctic Treaty, https://www.ats.aq/devAS/Parties?lang=e.

 

[106] “The Antarctic Treaty”, p. 25, https://documents.ats.aq/keydocs/vol_1/vol1_2_AT_Antarctic_Treaty_e.pdf

 

[107] “Parties”, Secretariat of the Antarctic Treaty.

 

[108] “Yin Zhuo: “US maritime hegemony threatens China’s security”.

 

[109] “Yin Zhuo: “US maritime hegemony threatens China’s security”.

 

[110] Cited in Nicola Davidson, “China eyes Antarctica’s resource bounty”, China Dialogue, November 19, 2013, https://chinadialogue.net/en/business/6517-china-eyes-antarctica-s-resource-bounty/

 

[111] Brady, China As A Polar Great Power, p. 11.

 

[112] Kania, “Thinking of the Three Warfares”.

 

 

[113] Brady, China As A Polar Great Power, p. 26.

 

[114] Cited in Nengye Liu, “What Does China’s Fifth Research Station Mean for Antarctic Governance?”, TheDiplomat, June 28, 2018, https://thediplomat.com/2018/06/what-does-chinas-fifth-research-station-mean-for-antarctic-governance/

 

[115] Cited Liu, “What Does China’s Fifth Research Station Mean for Antarctic Governance?”.

 

[116] “Parties”, The Antarctica Treaty, https://www.ats.aq/devAS/Parties?lang=e

 

[117] Alice Slevison, “Considering China’s strategic interests in Antarctica”, The Strategist, Australian Strategic Policy Institute, February 5, 2016, https://www.aspistrategist.org.au/considering-chinas-strategic-interests-in-antarctica/

 

[118] Anthony Bergin and Marcus Haward, “Frozen Assets: Securing Australia’s Antarctic Future”, Australian Strategic Policy Institute, Canberra, 2007, p. 6.

 

[119] Bergin and Haward, “Frozen Assets: Securing Australia’s Antarctic Future”.

 

[120] Slevison, “Considering China’s strategic interests in Antarctica”.

 

[121] Liu, “What Does China’s Fifth Research Station Mean for Antarctic Governance?”.

 

[122] Henry Belot, “Australia would be ‘naïve’ to think China’s new Antarctic station not for surveillance, analyst says”, The Guardian, April 19, 2023, https://www.theguardian.com/australia-news/2023/apr/19/australia-would-be-naive-to-think-chinas-new-antarctic-station-not-for-surveillance-analyst-says

 

[123] Belot, “Australia would be ‘naïve’ to think China’s new Antarctic station not for surveillance, analyst says”.

 

[124] Belot, “Australia would be ‘naïve’ to think China’s new Antarctic station not for surveillance, analyst says”.

 

[125] Kuo, “Why China just built this lantern- shaped research base in Antarctica”.

 

[126] Ian Bremmer, “China’s Ambitious Plans in Antarctica have Raised New Suspicions”, Time, April 28, 2023, https://time.com/6274924/china-antarctica-south-pole-us-tension/

 

[127] Belot, “Australia would be ‘naïve’ to think China’s new Antarctic station not for surveillance, analyst says”.

 

[128] Anne-Marie Brady, China as a Polar Great Power, (Washington D.C: Cambridge University Press, 2017), p. 164.

 

[129] Anne-Marie Brady, “China’s Rise in Antarctic Rise?” Asian Survey, Vol. 50, No. 4, July-August, 2010, p.776

 

[130] Funaiole et al., “Frozen Frontiers: China’s Great Power Ambitions in the Polar Regions”, Center for Strategic and International Studies, Washington D.C., April 19, 2023,https://features.csis.org/hiddenreach/china-polar-research-facility/

 

[131] “Peaceful use and inspections”, Secretariat of the Antarctic Treaty, https://www.ats.aq/e/peaceful.html

 

[132] “Peaceful use and Inspections”.

 

[133] See the entire International Court of Justice assessment and verdict on China’s maritime territorial claims against the Philippines. In the Matter of the South China Sea Arbitration before An Arbitral Tribunal Constituted Under Annex VII to the 1982 United Nations Convention On the Law of the Sea between The Republic of the Philippines Award, pp. 471-476.

 

[134] Kuo, “Why China just built this lantern- shaped research base in Antarctica”.

 

[135] Robert Delaney, “Xi Jinping has yet to decide whether to order Taiwan unification by 2027: top US military adviser”, South China Morning Post, July 1, 2023, https://www.scmp.com/news/china/article/3226202/xi-jinping-has-yet-decide-whether-order-taiwan-unification-2027-top-us-military-adviser

 

[136] Michael Howard and Peter Paret, trans and edited, On War, (Princeton: Princeton University Press, 1989), pp. 94-95.

 

[137] See all the Quad joint statements over the last three years. “Joint Statement of Quad Leaders”, The White House, Washington D.C., September 24, 2021, https://www.whitehouse.gov/briefing-room/statements-releases/2021/09/24/joint-statement-from-quad-leaders/, “Quad Joint Leaders’ Statement”, The White House, Washington D.C., May 24, 2022, https://www.whitehouse.gov/briefing-room/statements-releases/2022/05/24/quad-joint-leaders-statement/, “Quad Leaders Joint Statement”, Prime Minister of Australia, Canberra, May 20. 2023, https://www.pm.gov.au/media/quad-leaders-joint-statement

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Kartik Bommakanti

Kartik Bommakanti

Kartik Bommakanti is a Senior Fellow with the Strategic Studies Programme. Kartik specialises in space military issues and his research is primarily centred on the ...

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