Author : Harsh V. Pant

Originally Published प्रभात खबर Published on Jun 21, 2023 Commentaries 0 Hours ago
ब्लिंकेन के कूटनीतिक प्रयास: चीन-अमेरिका संबंधों में सकारात्मक बदलाव का आसार

अमेरिका और चीन के संबंध पिछले काफी सालों से खराब चल रहे हैं. खास तौर पर जब से पू्र्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका ने चीन के खिलाफ व्यापार युद्ध छेड़ा था. ट्रंप ने चीन को अपने चुनाव अभियान में एक बड़ा मुद्दा बनाया था. उन्होंने चीन को एक आर्थिक और रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी के तौर पर पेश किया था. उसके बाद रिपब्लिकन और डेमोक्रेट, दोनों दलों में सहमति बन गयी कि आने वाले वर्षों में अमेरिका के लिए सबसे बड़ा खतरा चीन होगा.

चीन को लेकर अमेरिका के रवैये में बदलाव

अमेरिका इससे पहले चीन को एक सामरिक खतरा तो मानता था मगर आर्थिक दृष्टि से वह चीन को एक अवसर के तौर पर देखता था. उसमें बदलाव आया और अमेरिका आर्थिक तौर पर भी चीन को चुनौती की तरह देखने लगा. चीन को लेकर अमेरिका के रवैये में यह बदलाव आगे भी जारी रहा. जो बाइडेन ने अपने चुनाव अभियान में चीन के खिलाफ ट्रंप से भी ज्यादा आक्रामकता से हमला किया. बाइडेन के सत्ता में आने के बाद जब अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति और अन्य रक्षा नीतियां आयीं, उन सबमें चीन को एक रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी के तौर पर पेश किया गया.

अमेरिका इससे पहले चीन को एक सामरिक खतरा तो मानता था मगर आर्थिक दृष्टि से वह चीन को एक अवसर के तौर पर देखता था. उसमें बदलाव आया और अमेरिका आर्थिक तौर पर भी चीन को चुनौती की तरह देखने लगा.

अभी यूक्रेन युद्ध की वजह से रूस, अमेरिका के लिये एक परेशानी का कारण बना हुआ है. इसके बावजूद रणनीतिकार अमेरिका के लिए रूस को एक अल्पकालिक चुनौती के तौर पर देखते हैं, क्योंकि रूस उस तरह से आर्थिक चुनौती नहीं बन सकता है जिस तरह से चीन बन सकता है. बाइडेन प्रशासन ने चीन को लेकर आक्रामकता जारी रखी और एशिया-प्रशांत में सहयोग को बढ़ावा दिया, चीन के खिलाफ आर्थिक और तकनीकी प्रतिबंध लगाये गये. इन सबके बीच चीन का रुख भी बहुत आक्रामक हो गया था. ताइवान को लेकर भी अमेरिका और चीन के बीच तनाव बढ़ा. नैन्सी पेलोसी की ताइवान यात्रा के समय से गरमाया यह मुद्दा अभी तक ठंडा नहीं पड़ा है. यानी, अमेरिका ने कई मुद्दों को लेकर चीन को घेरने की कोशिश की और चीन ने भी पलटवार किया.

ब्लिंकन का चीनी दौरा

इस प्रकार दो बड़ी शक्तियों के बीच पैदा हुआ तनाव अभी भी बरकरार है. अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन इस साल फरवरी में भी चीन की यात्रा पर जाने वाले थे, मगर एक जासूसी गुब्बारे के मुद्दे पर यात्रा टाल दी गयी. ब्लिंकन ने चार महीने बाद अब चीन का दौरा किया है. यह कदम इस बात की एक कोशिश है कि दोनों देशों के संबंधों में स्थिरता आये ताकि प्रतियोगिता संघर्ष की ओर ना बढ़े. ब्लिंकन ने दौरे के बाद अपने बयान में दोनों देशों के बीच बातचीत जारी रहने और संवाद का रास्ता खुला रखने की बात की है. उन्होंने अपने दौरे में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से भी मुलाकात की. शी ने इसके बाद जो बयान जारी किया है वह अमेरिका से ज्यादा सकारात्मक है. दरअसल, शी चाहते हैं कि अमेरिका के साथ उनके संबंध सुधरें क्योंकि चीन की आर्थिक स्थिति खराब है और अमेरिका अपने सहयोगियों को चीन के खिलाफ लामबंद करने में सफल हुआ है.

जहां तक भारत का प्रश्न है, तो चीन-अमेरिका संबंधों पर भारत की करीबी नजर रहती है. मगर, भारत-अमेरिका के संबंध अभी काफी मजबूत हुए हैं, और चीन के साथ तनाव ने इसे और मजबूती दी है. चीन जिस तरह भारत, अमेरिका और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में आक्रामक हुआ उसके बाद अमेरिका और भारत के संबंधों को और गति मिली. लेकिन, इस वक्त भारत और अमेरिका के संबंध अपने-आप में भी काफी दृढ़ हैं. भारत और अमेरिका के बीच शीतयुद्ध के बाद के दशकों में निकटता आयी, लेकिन दोनों के बीच एक अविश्वास की स्थिति बनी हुई थी. उस अविश्वास को समाप्त करने के लिए भारत और अमेरिका दोनों ही देशों की सरकारों ने प्रयास किये हैं. जॉर्ज डब्ल्यू बुश, बराक ओबामा, डोनाल्ड ट्रंप और अभी जो बाइडेन- अमेरिका के पिछले चारों राष्ट्रपति अलग-अलग पार्टियों और अलग विचारधाराओं के हैं.

ब्लिंकन ने चार महीने बाद अब चीन का दौरा किया है. यह कदम इस बात की एक कोशिश है कि दोनों देशों के संबंधों में स्थिरता आये ताकि प्रतियोगिता संघर्ष की ओर ना बढ़े.

इधर भारत में भी अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह या नरेंद्र मोदी- ये भी अलग पार्टियों और अलग विचारधाराओं के नेता रहे हैं. पर इसके बावजूद, दोनों देशों में जो भी सरकारें रहीं उनमें अमेरिका के साथ संबंध बढ़ाने की नीति को लेकर कोई संदेह की स्थिति नहीं रही. अभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका दौरे में रक्षा और तकनीक से जुड़े मुद्दों की काफी चर्चा हो रही है. बताया जा रहा है कि इन क्षेत्रों में दोनों देशों के बीच बड़े समझौते हो सकते हैं. मगर, ये मुद्दे एक वक्त में बड़े संवेदनशील मुद्दे हुआ करते थे जिसे लेकर दोनों देशों के बीच मतभेद की स्थिति रहती थी.

भारत को हमेशा लगता था कि अमेरिका उसके साथ अच्छी तकनीक साझा नहीं करना चाहता और रक्षा उत्पादों के विकास में तकनीक साझा कर सहयोग नहीं करना चाहता. मगर आज भारत आज अमेरिका को उन सारे मुद्दों पर यह समझाने में सफल रहा है कि यदि दोनों देशों के बीच सहयोग होता है तो केवल भारत को ही नहीं, बल्कि अमेरिका को भी लाभ होगा. उम्मीद यह है कि इस बदलाव के ठोस परिणाम प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा में भी दिखेंगे और आने वाले समय में भी नजर आयेंगे. भारत और अमेरिका के संबंध आज केवल द्विपक्षीय नहीं हैं, दोनों देश कई वैश्विक मंचों पर भी साथ दिखाई दे रहे हैं. भारत और अमेरिका की इस वैश्विक पहचान पर चीन भी कड़ी नजर रखता है.

चीन जिस तरह भारत पर दबाव बनाने की कोशिश करता रहा है, भारत ने अमेरिका के साथ अपने संबंधों को प्रगाढ़ कर उसकी काट निकाल ली है. ऐसे में चीन को भी सामरिक दृष्टि से यह सोचना पड़ रहा है कि वह क्या चाहता है.

चीन के मन में यह डर बना हुआ है कि यदि भारत-अमेरिका की करीबी बनी रही, तो सामरिक तौर पर चीन के लिए चुनौती खड़ी हो सकती है. उसे इस बात की चिंता होगी कि भारत और अमेरिका के बीच आपस में रक्षा साझेदारी होगी और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भी दोनों देश साथ काम कर सकते हैं, जिससे चीन की परेशानी बढ़ सकती है. चीन जिस तरह भारत पर दबाव बनाने की कोशिश करता रहा है, भारत ने अमेरिका के साथ अपने संबंधों को प्रगाढ़ कर उसकी काट निकाल ली है. ऐसे में चीन को भी सामरिक दृष्टि से यह सोचना पड़ रहा है कि वह क्या चाहता है. इसी का परिणाम है कि वह अमेरिका के साथ अपने संबंधों में सुधार की कोशिश कर रहा है. उसे पता है कि यदि ऐसा नहीं होने पर उसकी परेशानी बढ़ सकती है, क्योंकि अभी अमेरिका ऐसी स्थिति में है कि वह जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया जैसे सहयोगी देशों व भारत जैसे करीबी देशों के साथ मिलकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा का ऐसा ढांचा तैयार कर सकता है जो चीन के लिए परेशानी का सबब बन सकता है.


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