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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए दक्षिण अफ्रीका की यात्रा पर जाएंगे. दक्षिण अफ्रीका ब्रिक्स का मौजूदा अध्यक्ष है. इस बार ब्रिक्स का सम्मेलन कई कारणों से ख़ास होगा. एक तो रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन दक्षिण अफ्रीका में नहीं होंगे. वे वर्चुअली इस सम्मेलन को अटेंड करेंगे. कई दिनों से काफी अटकलें लगाई जा रही थी कि वे आएंगे या नहीं आएंगे. इस पर दक्षिण अफ्रीका में भी बहस चली.
दक्षिण अफ्रीका इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट को साइन किए हुए है. आईसीसी से यूक्रेन वॉर को लेकर पुतिन के खिलाफ वारंट जारी है. इसलिए ये दक्षिण अफ्रीका के लिए दुविधा वाली बात थी. इसलिए ये लगता है कि इसी वजह से दोनों तरफ से ये समझौता किया गया होगा कि आप वर्चुअली अटेंड करें.
दूसरा विषय जो काफी चर्चा में बना हुआ है कि क्या इस बार ब्रिक्स के विस्तार को लेकर कोई सहमति बन पाएगी. इसको लेकर पिछली बार मुद्दा उठा था. इसको लेकर ब्रिक्स के अंदर कई मत है. इसको कैसे आगे ले जाया जाएगा, कौन-कौन से देश इसमें आ सकते हैं..किन सिद्धांतों को लेकर ब्रिक्स का एक्सपैंशन होगा..ये सारे मुद्दे इस बार के सम्मेलन में छाए रहेंगे.
मुझे लगता है कि तीसरा जो मुद्दा है वो भारत के परस्पेक्टिव से महत्वपूर्ण रहा है. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग दोनों वहां होंगे. इस समय भारत का चीन के साथ संबंध काफी परेशानी भरा है. किस किस्म की वार्ता की संभावना बनती है, क्या कोई पॉजिटिव मूवमेंट देखा जा सकता है..इन सब पहलुओं पर भी नज़र रही है.
यूक्रेन से युद्ध शुरू होने के बाद रूस की जो स्थिति बनी है, उसमें उसे चीन के एक जूनियर पार्टनर के तौर पर देखा जा रहा है. दोनों ही देश एक-दूसरे के करीब आ रहे हैं. उनकी विदेश नीति में पश्चिमी विरोध बहुत ज्यादा है.
ब्रिक्स के विस्तार को लेकर थोड़ा टेंशन तो चल रहा है. इस समय रूस और चीन की जो विदेश नीति है, वो मुख्य रूप से एंटी वेस्ट है. दोनों ही देशों की पश्चिमी देशों, ख़ासकर अमेरिका, के साथ तनातनी बनी हुई है. रूस और चीन एक-दूसरे के बहुत ही करीब आते जा रहे हैं.
ब्रिक्स जहां शुरू हुआ था, उसमें भारत जैसे देश के लिए ये आशा थी कि अगर चीन जैसा प्रभावशाली देश उसके अंदर है तो ये भारतीय हितों के लिए अच्छा होगा. ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका को भी आशा होगी कि ब्रिक्स के अंदर चीन को कैसे बैलेंस कर पाएंगे. ब्रिक्स का जो सिद्धांत है वो कन्सेन्शूअल बेस्ड है. सर्वसम्मति से फैसला होता है. चीन को जो विस्तारवादी और आक्रामक रवैया रहता है, उसको कंट्रोल किया जा सकता है ब्रिक्स के जरिए, ऐसी आशा भारत के साथ ही ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका की भी रही होगी.
यूक्रेन से युद्ध शुरू होने के बाद रूस की जो स्थिति बनी है, उसमें उसे चीन के एक जूनियर पार्टनर के तौर पर देखा जा रहा है. दोनों ही देश एक-दूसरे के करीब आ रहे हैं. उनकी विदेश नीति में पश्चिमी विरोध बहुत ज्यादा है.
भारत का ओरिएंटेशन दूसरा है. दक्षिण अफ्रीका भी पश्चिमी देशों के साथ अपना संबंध बरकरार रखना चाहता है. वो नहीं चाहेगा कि ब्रिक्स के प्लेटफॉर्म को एक एंटी वेस्टर्न प्लेटफॉर्म के तौर पर देखा जाए. मुझे लगता है कि इस समय ब्रिक्स के अंदर जो एक असंतुलन है, वो पिछले कुछ वक्त से मिल रहा है और इस बार के सम्मेलन में भी देखने को मिल सकता है. ख़ासकर ब्रिक्स का विस्तार किया जाए या नहीं किया जाए, इसको लेकर असंतुलन दिख रहा है.
चीन चाहता है कि ब्रिक्स का विस्तार होना चाहिए. उसने एक सूची भी डाली है, जिनको इस समूह के अंदर लाया जा सकता है. भारत ये नहीं कह रहा है कि विस्तार न हो. भारत ये कह रहा है कि विस्तार हो तो किन सिद्धांतों के ऊपर हो, पहले उसे परिभाषित कीजिए.
जब ब्रिक्स की शुरुआत हुई थी, तो ये माना गया था कि ये दुनिया की बढ़ती हुई.. उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं हैं और इन अर्थव्यवस्थाओं को वैश्विक संस्थानों …ख़ासकर वित्तीय संस्थानों …में ज्यादा प्रतिनिधित्व और महत्व मिलना चाहिए.
अगर हम शुरू का ब्रिक्स का एजेंडा देखें तो वो ज्यादा इसी पर था कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के ऊपर पश्चिमी देशों की जो मोनोपॉली है, कैसे उसको तोड़ा जा सके. अब ब्रिक्स के अंदर दूसरी समस्या आ गई है. चीन काफी प्रभावशाली हो गया. रूस और चीन के संबंध इतने अच्छे हो गए हैं कि दोनों देश ब्रिक्स को एंटी वेस्टर्न मंच दिखाने की कोशिश जरूर करेंगे. भारत और बाकी देश ब्राजील, साउथ अफ्रीका चाहेंगे कि ब्रिक्स को इस तरह से प्रोजेक्ट नहीं किया जाए.
ये कंसेंशुअल बेस्ड मंच है. ये सोचिए कि 5 देश किसी मसले पर सहमत नहीं हो पा रहे हैं, तो वो मुद्दा आगे नहीं बढ़ता है. अगर आप उसका एक्सपैंशन कर देंगे, उसमें 7-8-10 और जोड़ देंगे और उसे कंसेंशुअल बेस्ड ही रखेंगे तो इसकी संभावना और ज्यादा प्रबल हो जाती है कि मंच प्रभावी तरीके से काम नहीं कर पाए.
सवाल यही है कि जब विस्तार करेंगे तो कौन सा देश अंदर आएंगे. क्या वही देश आएंगे, जो एंटी वेस्टर्न हैं. इस मुद्दे पर इस बार के सम्मेलन में व्यापक चर्चा होगी और कुछ सिद्धांत तय होने की संभावना बनती नजर आ रही है. जब तक वो सिद्धांत तय नहीं होंगे, मुझे नहीं लगता है कि भारत और ब्राजील एकतरफा एक्सपैंशन के ऊपर राजी होंगे. वो अपने आप में ब्रिक्स की दुखती रग बन सकता है.
ब्रिक्स को लेकर कई देशों की रुचि है. ब्रिक्स एक ऐसा प्लेटफार्म है, जहां उभरती हुई शक्तियां हैं. किस तरह का ग्लोबल इकोनॉमी ऑर्डर होना चाहिए, उसमें सिर्फ पश्चिमी देशों की ही पॉलिसी न चले, जो देश आर्थिक तौर पर उभर रहे हैं, उनकी आवाज ज्यादा सामने आए, ब्रिक्स ने उन संभावनाओं को उजागर किया है. इसके चलते काफी देश हैं चाहे अर्जेंटीना हो, ईरान हो, या फिर सऊदी अरब हो, वो चाहते हैं कि इसका हिस्सा बने.
अगर आप किसी भी प्लेटफॉर्म को बड़ा कर देते हैं, तो उसकी दक्षता कम हो जाती है. ये कंसेंशुअल बेस्ड मंच है. ये सोचिए कि 5 देश किसी मसले पर सहमत नहीं हो पा रहे हैं, तो वो मुद्दा आगे नहीं बढ़ता है. अगर आप उसका एक्सपैंशन कर देंगे, उसमें 7-8-10 और जोड़ देंगे और उसे कंसेंशुअल बेस्ड ही रखेंगे तो इसकी संभावना और ज्यादा प्रबल हो जाती है कि मंच प्रभावी तरीके से काम नहीं कर पाए. जितना ज्यादा सदस्यता होती है, कभी-कभी प्रभाव पर नकारात्मक असर पड़ता है.
इन सब बातों को ध्यान में रखकर ही ब्रिक्स के देशों को विस्तार के मसले पर आगे बढ़ना चाहिए. पॉलिटिकल एजेंडा अपनी जगह, लेकिन जिस मंशा से इसे खड़ा किया गया था, उसको ध्यान में रखते हुए विस्तार के सिद्धांत को तय किया जाता है तो ज्यादा सही होगा. धीरे-धीरे एक्सपैंशन किया जाए और फिर ये देखा जाए कि मंच कितना प्रभावी रह पाता है.
ब्रिक्स में अभी 5 देश हैं और उनके अंदर परेशानियां बढ़ रही हैं. भारत और चीन के बीच विवाद है. रूस और चीन समूह को एंटी वेस्टर्न पहचान देना चाहते हैं, भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका ऐसा नहीं चाहते हैं. 5 ही देश है, फिर भी अंदर से विस्तार से जुड़े कुछ मुद्दों को लेकर मतभेद बने हुए हैं.जब तक वे मतभेद सुलझ नहीं जाते मुझे लगता है कि तब तक ब्रिक्स का विस्तार करना सही नीति नहीं होगी.
भारत का बिल्कुल स्पष्ट नजरिया होना चाहिए कि ब्रिक्स का जो मैंडेट था कि उभरती अर्थव्यवस्थाओं की आवाज दुनिया के सामने ज्यादा पहुंचे और वैश्विक वित्तीय संस्थानों में ज्यादा प्रतिनिधित्व मिले, उस पर ही ब्रिक्स अड़ा रहे. अगर ब्रिक्स अपने आप को पॉलिटिकल और एंटी वेस्टर्न ओरिएंटेशन देगा, उसमें भारत को तो बिल्कुल रुचि नहीं होगी.
पॉलिटिकल और एंटी वेस्टर्न ओरिएंटेशन से भारत को काफी दिक्कतें भी आएंगी. भारत का पश्चिमी देशों के साथ द्विपक्षीय संबंध बहुत अच्छे चल रहे हैं. सामरिक और डेवलपमेंट पार्टनर के तौर पर पश्चिमी देश भारत के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं और यूक्रेन संकट के बावजूद पश्चिमी देशों के साथ हमारे संबंध खराब नहीं हुए हैं.
भारत का स्पष्टता के साथ सारी बातें रखनी पड़ेगी. चीन ब्रिक्स को एक पॉलिटिकल ओरिएंटेशन देना चाह रहा है, उसका विरोध करना पड़ेगा. पहले भारत सोचता था कि रूस के साथ मिलकर ये काम कर देगा, लेकिन अब रूस, चीन के सामने थोड़ा सा कमजोर पड़ता जा रहा है. ऐसे में भारत को ब्राजील और साउथ अफ्रीका के साथ मिलकर इस बात को आगे रखना पड़ेगा कि रूस -चीन ब्रिक्स को अमेरिका और यूरोप के खिलाफ के पॉलिटिकल मंच न बना दे. जब तक विस्तार के सिद्धांत तय नहीं हो जाते हैं, भारत को किसी भी तरह के विस्तार पर हामी नहीं भरना चाहिए.
ये लखे एबीपी न्यूज़ में प्रकाशित हो चुका है.
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Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...
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