Author : Harsh V. Pant

Originally Published द टेलीग्राफ Published on Dec 16, 2024 Commentaries 0 Hours ago

एक ओर सीरिया में मची उथल-पुथल, हमें मध्य पूर्व में संभावित रूप से बदलते शक्ति संतुलन को लेकर आगाह करती है, वहीं दूसरी तरफ दक्षिण कोरिया में तेज़ी से बदलते हालात और राजनीतिक उठा-पटक लोकतांत्रिक संस्थाओं की कमज़ोरी के साथ ही उनकी खूबियों को सामने लाती है.

दुनिया में अराजकता का दौर!

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पूरी दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अशांति और अव्यवस्था का माहौल विभिन्न रूपों में सामने आता रहता है. वैश्विक स्तर पर अराजकता से भरे इस वातावरण में कई बार इतनी तेज़ी से बदलाव होता है कि तमाम क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थान व संगठन बिगड़ते हालातों को काबू करने में खुद को बेबस महसूस करने लगते हैं. दुनिया में फिलहाल कुछ अर्से से जो उथल-पुथल मची हुई है, उनमें विश्व के बड़े देश और प्रभावशाली संगठन सिर्फ़ बयानबाज़ी और आलोचना ही कर पा रहे हैं, इसके अलावा उनके बस में कुछ दिखता भी नहीं है. मौज़ूदा परिस्थितियों में अगर अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की बात की जाए, तो इनमें आदिम युग की झलक दिखाई देती है, यानी आज हर कोई केवल अपने बारे में सोच रहा है और एक हिसाब से अराजकता के हालात पैदा हो गए हैं. यानी इस प्रकार के हालात बन गए हैं, जहां हर देश अपने हिसाब से अपनी मंजिल तय कर रहा है.

 लोगों की इच्छा सर्वोपरि रखने की बातें की जा रही हैं. इस सबके बीच आने वाले दिनों में सीरिया में किस तरह की सरकार गठित होगी, उसका शासन कैसा होगा और नागरिकों के साथ उसका क्या बर्ताव होगा, इन सभी को लेकर फिलहाल असमंजस्य क़ायम है.

सीरिया की ही बात करें, तो वहां क़रीब आधी सदी से असद परिवार का शासन था और इस दौरान वहां की तानाशाह सरकार ने नागरिकों पर क्रूरता की सारी हदें पार कर दी थीं. लेकिन एक पखवाड़े के भीतर ही सीरिया में हालात इतनी तेज़ी से बदले कि राष्ट्रपति बशर अल-असद को देश छोड़कर भागना पड़ा. सीरिया के नागरिकों ने वर्ष 2011 में पहली बार असद शासन के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद की थी, लेकिन तब ईरान और रूस की मदद से असद अपनी सत्ता बचाने में सफल रहे थे. तब ऐसा लगने लगा था कि वे मिडिल ईस्ट के एक शक्तिशाली नेता बन चुके हैं, लेकिन यह सब ज़्यादा दिन तक नहीं चल पाया. समय के साथ-साथ अमेरिका और इजराइल ने अपनी नीतियों और क़दमों से बशर अल-असद का जीना मुहाल कर दिया. जहां एक तरफ इजराइल ने ईरान और उसके सहयोगियों को निशाना बनाकर असद की राह में तमाम मुश्किलें खड़ी कीं, वहीं दूसरी तरफ अमेरिका ने रूस-यूक्रेन युद्ध में यूक्रेन का पुरज़ोर समर्थन करके ऐसा किया. हालांकि, इजराइल और अमेरिका दोनों के लिए असद के शासन वाला सीरिया अपने क्षेत्रीय रणनीतिक हितों को पूरा करने से अधिक और कुछ मायने नहीं रखता था.

 

सीरिया में यह हक़ीक़त है कि विद्रोही समूहों ने असद शासन को समाप्त कर दिया है और देश से क्रूर तानाशाही को उखाड़ फेंकने की ख़ुशी लाज़िमी है. लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि सीरिया में अब आगे क्या होगा, यानी भविष्य को लेकर कहीं न कहीं चिंता और डर का माहौल बना हुआ है. असद को सत्ता से खदेड़ने वाले विद्रोही ज़ोरशोर से अब यह कह रहे हैं कि वे जिहादी नहीं हैं, बल्कि इस्लामिक राष्ट्रवादी हैं और उन्होंने इसी रूप में असद शासन के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी है. लेकिन सवाल यह है कि क्या वे वास्तव में इस्लामिक राष्ट्रवादी हैं. अगर सीरिया की सत्ता पर काबिज इन विद्रोहियों के अतीत पर नज़र डालें, तो कुछ और ही हक़ीक़त सामने आती है. जैसे कि विद्रोही समूह हयात तहरीर अल-शाम (HTS) को संयुक्त राष्ट्र ने एक आतंकवादी संगठन घोषित किया है. इतना ही नहीं, अमेरिका ने HTS के सर्वोच्च नेता अबु मोहम्मद अल-जोलानी पर 1 करोड़ डॉलर का इनाम रखा है. जोलानी द्वारा हाल के दिनों में दुनिया के सामने अपना उदारवादी और लचीला रुख दिखाया जा रहा है, साथ ही संस्थाओं का सम्मान व लोगों की इच्छा सर्वोपरि रखने की बातें की जा रही हैं. इस सबके बीच आने वाले दिनों में सीरिया में किस तरह की सरकार गठित होगी, उसका शासन कैसा होगा और नागरिकों के साथ उसका क्या बर्ताव होगा, इन सभी को लेकर फिलहाल असमंजस्य क़ायम है.

सीरिया के लिए बेहतर भविष्य निर्माण का अवसर

अमेरिका के निवर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन ने सीरिया में असद शासन के अंत को “लंबे वक़्त से मुश्किल हालात में गुजर-बसर कर रहे सीरियाई नागरिकों के लिए बेहतर भविष्य निर्माण करने का एक ऐतिहासिक अवसर” बताया है. वहीं अमेरिकी रक्षा मंत्री ने चेतावनी दी है कि आईएसआईएस सीरिया में असद शासन के पतन के बाद सत्ता में हुए खालीपन का फायदा उठाने की कोशिश कर सकता है. मिडिल ईस्ट में अमेरिकी रुख के लिहाज़ से देखें, तो सीरिया में असद की सत्ता का खात्मा होने के बाद पहले से ही तमाम परेशानियों में घिरे मध्य पूर्व की हालत और भी बदतर हो गई है. हालांकि, ज़रूरत के समय असद शासन की मदद करने में नाक़ाम रहे रूस की हालत पर अमेरिका ख़ुश ज़रूर हो सकता है. क़रीब एक दशक पहले, जब सीरिया में विद्रोहियों ने सिर उठाया था, तब रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने सीरिया में प्रत्यक्ष दख़ल देते हुए युद्ध लड़ रही असद की सेना की मदद की थी और ईरान से हाथ मिलाते हुए अपनी वायु सेना और भाड़े के सैनिकों को वहां भेजा था. रूस के इस क़दम से जहां असद की सरकार ने अपने खोए हुए इलाक़ों पर फिर से कब्ज़ा कर लिया था, वहीं इससे क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर पुतिन का दबदबा भी बढ़ा था. सीरिया से असद के पांव उखड़ जाने के बाद यूक्रेन के ख़िलाफ़ पुतिन के रवैये में और ज़्यादा सख़्ती दिखाई दे सकती है, क्योंकि मौज़ूदा हालातों में पुतिन किसी और मोर्चे पर खुद के कमज़ोर होने का ख़तरा नहीं उठा सकते हैं.

 एक ओर सीरिया में मची उथल-पुथल, हमें मध्य पूर्व में संभावित रूप से बदलते शक्ति संतुलन को लेकर आगाह करती है, वहीं दूसरी तरफ दक्षिण कोरिया में तेज़ी से बदलते हालात और राजनीतिक उठा-पटक लोकतांत्रिक संस्थाओं की कमज़ोरी के साथ ही उनकी खूबियों को सामने लाती है.

एक ओर सीरिया में मची उथल-पुथल, हमें मध्य पूर्व में संभावित रूप से बदलते शक्ति संतुलन को लेकर आगाह करती है, वहीं दूसरी तरफ दक्षिण कोरिया में तेज़ी से बदलते हालात और राजनीतिक उठा-पटक लोकतांत्रिक संस्थाओं की कमज़ोरी के साथ ही उनकी खूबियों को सामने लाती है.

 

ज़ाहिर है कि दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति यून सुक योल ने देश में मार्शल लॉ लगाने का ऐलान किया था. इसकी घोषणा करते हुए उन्होंने कहा था कि वे संसद में “राष्ट्र विरोधी ताक़तों” को कुचलने और उत्तर कोरिया की तरफ पैदा होने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए ऐसा कर रहे हैं. लेकिन सच्चाई यह थी कि राष्ट्रपति योल का यह निर्णय बाहरी ख़तरों से नहीं बल्कि अपनी घरेलू राजनीतिक परेशानियों से प्रेरित था. दरअसल, राष्ट्र की प्रथम महिला यानी राष्ट्रपति यून सुक योल की पत्नी के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद देश में उनकी लोकप्रियता काफ़ी कम हो गई थी और वे इन्हीं परिस्थितियों को बदलने की कोशिश में जुटे थे. दक्षिण कोरिया के लोग मार्शल लॉ को एक हिसाब से भूल चुके थे. वर्ष 1987 में संसदीय लोकतंत्र बनने के बाद दक्षिण कोरिया में कभी मार्शल लॉ नहीं लगाया गया था. राष्ट्रपति योल के इस फैसले के ख़िलाफ़ देशभर में कड़ी प्रतिक्रिया हुई और विपक्ष दलों ने ही नहीं, बल्कि योल की अपनी पार्टी के नेताओं ने भी इसका खुलकर विरोध किया. देश की आम जनता ने भी योल के फैसले का ज़बरदस्त विरोध किया और सड़क पर उतर आई. इस सबके कारण उन्हें छह घंटे के भीतर ही अपने निर्णय को वापस लेना पड़ा.

ज़ाहिर है कि सीरिया में असद के पतन के बाद वहां के नागरिक फिलहाल जश्न में डूबे हुए हैं, लेकिन अब वहां सबसे बड़ी चुनौती ऐसी सरकार और ऐसे तंत्र के निर्माण करने की होगी, जो आम लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने में सक्षम हो.

 वैश्विक अव्यवस्था के बीच नियति निर्धारण ज़रूरी 

सीरिया की सत्ता से बशर अल-असद का जाना और यून सुक योल का मार्शल लॉ लगाने के निर्णय को वापस लेना, ये दोनों घटनाएं दर्शाती हैं कि प्रभावी संस्थागत माध्यमों के ज़रिए आम लोगों की ताक़त को एकजुट करना और उसे दिशा देना कितना कारगर होता है. ज़ाहिर है कि सीरिया में असद के पतन के बाद वहां के नागरिक फिलहाल जश्न में डूबे हुए हैं, लेकिन अब वहां सबसे बड़ी चुनौती ऐसी सरकार और ऐसे तंत्र के निर्माण करने की होगी, जो आम लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने में सक्षम हो. गौरतलब है कि हाल ही में राष्ट्रपति यून सुक योल द्वारा मार्शल लॉ थोपने के बाद जब दक्षिण कोरिया खुद को एक लोकतंत्र के रूप में सशक्त कर रहा था, तब वैश्विक व्यवस्था उसे मज़बूती प्रदान करने एवं लचीली संस्थाएं निर्मित करने में उसकी मदद कर सकती थी. इसी प्रकार से आज सीरिया राजनीतिक अराजकता के दौर से गुजर रहा है और वहां के लोगों को एक वैश्विक व्यवस्था या कहा जाए कि वैश्विक अव्यवस्था के बीच अपनी नियति निर्धारित करने की अत्यधिक ज़रूरत है. ज़ाहिर है कि सीरिया में जो अफरा तफरी का माहौल बना हुआ है, उसमें वहां के लोगों के पास न तो कोई प्रतिमान स्थापित करने का वक़्त है और न ही संस्थाओं के निर्माण के लिए ही कोई समय बचा है.


यह लेख The Telegraph में प्रकाशित हो चुका है.

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Harsh V. Pant

Harsh V. Pant

Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...

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