Author : Kabir Taneja

Published on Jun 06, 2023 Updated 0 Hours ago
अरब लीग शिखर सम्मेलन: सीरिया और यूक्रेन की मेज़बानी के ज़रिये दिखा सऊदी अरब का दबदबा!

लाल सागर के तट पर स्थित जेद्दा शहर में सऊदी अरब ने अरब लीग शिखर सम्मेलन की मेज़बानी की. ये एक वास्तविक भू-राजनीतिक घटना थी. फिर चाहे इसे क्षेत्रीय नज़रिए से देखें या अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण से. पिछले कुछ वर्षों के दिखावटी सम्मेलनों की तुलना में इस बार अरब लीग की बैठक काफ़ी अलग थी. इस सम्मेलन के दौरान ये साफ़ दिखा कि सऊदी अरब की भविष्य की विदेश नीति को लेकर युवराज मुहम्मद बिन सलमान (MbS) का नज़रिया क्या है. मतलब ये कि वो सभी के साथ सहयोग और संवाद के लिए तैयार हैं, मगर किसी के साथ मातहत बनने वाला गठबंधन नहीं करेंगे.

इस सम्मेलन की सबसे ख़ास बात, मुश्किलों में घिरे दो शख़्सियतों की भागीदारी थी. पहला, सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद का शिरकत करना. सीरिया, अरब लीग के संस्थापक सदस्यों में से एक था. लेकिन, 2011 में जब असद की सरकार ने अपने देश में अरब स्प्रिंग विरोध प्रदर्शनों को बहुत सख़्ती से कुचलना शुरू किया था, तो सीरिया को अरब लीग से बाहर कर दिया गया था. दूसरा, यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदीमीर ज़ेलेंस्की का अप्रत्याशित रूप से सम्मेलन में शामिल होना. ज़ेलेंस्की, G7 की बैठक के लिए जापान के हिरोशिमा जाते हुए रास्ते में अरब लीग की बैठक में शामिल हुए थे.

सप्ताहांत में हुए शिखर सम्मेलन ने जेद्दा को पश्चिमी देशों की दिलचस्पी का केंद्र बना दिया. क्योंकि ये देश पिछले एक साल से अरब देशों पर रूस की आलोचना करने का दबाव बना रहे हैं; इसके साथ साथ रूस और चीन जैसे देशों ने भी अरब लीग के सम्मेलन में दिलचस्पी दिखाई. क्योंकि, पिछले एक दशक में बशर अल असद की हुकूमत बचाए रखने में रूस ने काफ़ी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है और इस वजह से मध्य पूर्व में रूस को अपना अहम प्रभाव बनाए रखने में सहायता मिली. एक ही शिखर सम्मेलन में ज़ेलेंस्की और असद को साथ बुलाना ऊपरी तौर पर भले आसान दिख रहा हो, मगर ये काम इतना सहज था नहीं. क्योंकि, इससे पहले असद ने यूक्रेन पर हमला करने के लिए रूस की तारीफ़ करते हुए, इसेइतिहास की ग़लती ठीक करनाकहके जायज़ भी ठहराया था.

सीरिया की वापसी

अगर सियासत में एक हफ़्ते का समय बहुत लंबा होता है, तो एक दशक तो अनंतकाल ही है. इतने समय में तो नीतियों में बुनियादी बदलाव हो जाते हैं. बशर अल-असद के लिए अरब लीग में वापसी, सीरिया के प्रति सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और अन्य देशों के नज़रिए में महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत है. जब अरब क्रांति अपने शिखर पर थी, तो मध्य पूर्व के बहुत से देश चाहते थे कि असद का गिरोह सत्ता से बेदख़ल हो जाए और उनकी जगह कोई ऐसा हुकूमत में जाए, जो अरब देशों को ज़्यादा आसानी से पच सके. इन कोशिशों के पीछे जातीय कारण भी थे और सामरिक भी थे. चूंकि सीरिया की आबादी में सुन्नियों का बहुमत है और वो पिछले एक दशक से अरब देशों और ईरान के संघर्ष का अखाड़ा बना हुआ है. अरब क्रांति और उसके नतीजे में तथाकथित इस्लामिक स्टेट (ISIS या अरबी में दाएश) को जन्म दिया, जिसने सीरिया और इराक़, दोनों देशों में भारी तबाही मचाई.

मुख्यधारा और अरब लीग में असद की वापसी आज की हक़ीक़तों की तरफ़ इशारा करती है. बशर अल-असद ने रूस और ईरान की मदद से बेहद मुश्किल चुनौतियों से पार पाया है. हालांकि, अभी भी असद पर अपनी अवाम के ऊपर ही हिंसा करने के आरोप लगे हुए हैं. अगर सीरिया की आबादी, उसके आकार और उस पर तुर्की, रूस और ईरान के प्रभाव के साथ साथ ख़ुद सीरिया के क्षेत्रीय प्रभाव को देखें, तो बशर अल-असद के साथ रिश्ते सामान्य करना काफ़ी महत्वपूर्ण हो जाता है. उदाहरण के लिए तुर्की में हाल में हुए चुनाव के दौरान मतदाताओं के विकल्पों पर सीरिया से आए शरणार्थियों की बड़ी भूमिका रही थी.

अन्य देशों के अलावा संयुक्त अरब अमीरात जैसे मुल्कों ने हाल के महीनों में सीरिया के साथ एक बार फिर से नियमित कूटनीतिक संपर्क बढ़ाने तेज़ कर दिए थे. फ़रवरी में आए भूकंप ने सीरिया और तुर्की, दोनों देशों ने तबाही मचाई थी. भूकंप ने क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय शक्तियों को सीरिया पर लगे प्रतिबंधों और सियासी तौर पर अलग थलग करने में ढील देने का एक नया अवसर प्रदान किया, जिससे उसे सहायता भेजी जा सके. भारत समेत कई देशों ने इस मौक़े का फ़ायदा उठाया और आपदा राहत का काम सीरिया को दोबारा सामान्य बनाने के प्रयास में तब्दील हो गया. संक्षेप में कहें, तो असद हुकूमत पर बर्बरता के चाहे जितने आरोप लगे हो, मौजूदा व्यावहारिक राजनीति ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर उनकी वापसी सुनिश्चित कर दी. सऊदी अरब और ईरान के बीच चीन की मदद से हुए समझौते जैसी पहल से भी इसमें मदद मिली. सीरिया के पड़ोसी इराक़ को लंबे समय से इस बात का डर रहा है कि कहीं वो सऊदी अरब, अमेरिका, इज़राइल और ईरान के छद्म युद्ध का अखाड़ा बन जाए, ख़ास तौर से तब और जब ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर तनाव बना हुआ है. ख़ुद को सीरिया जैसी तबाही का सामना करने से बचा लेने में इराक़ की कामयाबी, निश्चित रूप से इस बात पर टिकी है कि उसके पड़ोसी सीरिया में भी स्थिरता हो. फिर चाहे वो यथास्थिति बनाए रखने वाली एक स्तर पर स्वीकार्य स्थिति ही क्यों हो.

बशर अल असद ने अपनी हुकूमत के बेहद मुश्किल हालात में होने के बावजूद सीरिया से सुरक्षित निकल जाने का विकल्प नहीं चुना और वो चुनौतियों के सामने डटकर खड़े रहे. इससे ईरान और रूस दोनों ने उनको मदद बढ़ा दी थी. इससे जहां ईरान को अपने छद्म युद्ध के मोहरों को सीरिया में तैनात करने का मौक़ा मिल गया. वहीं, रूस को सीरिया के लतकिया सूबे में एक मज़बूत और स्थायी सैन्य मौजूदगी का अवसर मिल गया, जिससे रूस को भूमध्य सागर तक पहुंच जैसी अहम सामरिक सुविधा प्राप्त हो गई.

यूक्रेन वाला तुरुप के पत्ते का दांव

जेद्दा में जो एक और बड़ी कामयाबी दिखी, वो थी यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की की शिखर सम्मेलन में भागीदारी. इस एक दांव ने मुहम्मद बिन सलमान और उनके नेतृत्व को एक ऐसी केंद्रीय और मज़बूत कूटनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया, जिसमें अलग अलग हितों की मेज़बानी की क्षमता है. इनमें सबसे बड़ा हित तो ख़ुद सऊदी अरब का है.

अरब लीग में ज़ेलेंस्की के भाग लेने से इस सम्मेलन को काफ़ी वज़न मिल गया. क्योंकि आम तौर पर अरब लीग के सम्मेलन क्षेत्रीय मामलों से जुड़े रहते हैं, जिनके बहुत सीमित अंतरराष्ट्रीय आयाम होते हैं. और वैसे तो सऊदी अरब, वैश्विक तेल उत्पादन और उससे जुड़े होने के कारण तेल की वैश्विक क़ीमतों को प्रभावित करने के लिए ओपेक प्लस (OPEC+) पहल के तहत रूस के साथ नज़दीकी से मिलकर काम करता आया है. लेकिन, यूक्रेन के राष्ट्रपति की मेज़बानी से प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान को अपने देश को एक ऐसी शक्ति के रूप में स्थापित करने का मौक़ा मिल गया, जो अंतरराष्ट्रीय क़ानून, नियमों, संप्रभुता और कूटनीति को ज़िम्मेदारी से मानने और पूरी जवाबदेही से इस दिशा में बढ़ रहा है. मोटे तौर पर इसका मतलब ये है कि खुलकर रूस का विरोध किए बग़ैर ही सऊदी अरब ने ख़ुद को इस संघर्ष के विरोधी मोर्चे में खड़ा कर लिया और इसके साथ साथ सऊदी अरब ने अपने आपको ऐसे देश के तौर पर पेश किया, जो सामरिक स्वायत्तता का पालन करता है. ईरान के साथ संबंध सामान्य करने और यमन में युद्ध ख़त्म करने के सऊदी अरब के प्रयास इसी बात को आगे बढ़ाने के लिए हैं

यूक्रेन के राष्ट्रपति की मेज़बानी करना, सऊदी अरब के लिए एक तरह से भूल सुधारने जैसा था. क्योंकि, उनके बारे में लगातार ये कहा जा रहा था कि वो रूस और चीन के ज़्यादा क़रीब जा रहे हैं. इसी दौरान प्रिंस सलमान और अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन के बीच तनाव के चलते सऊदी अरब और अमेरिका के रिश्ते भी सर्द पड़ रहे थे. वैसे इसमें कोई हैरानी वाली बात नहीं थी. क्योंकि युवराज सलमान को रिपब्लिकन पार्टी के नेताओं से अपने रिश्तों और डोनाल्ड ट्रंप के शासनकाल के दौरान काफ़ी फ़ायदा मिला था. जबकि, बाइडेन ने तो राष्ट्रपति चुनाव के अपने अभियान के दौरान सऊदी अरब को झिड़का था. वैसे तो पिछले कुछ महीनों के दौरान, अमेरिका ने इस दरार को पाटने की कोशिश की है. लेकिन, ऐसा लग रहा है कि मुहम्मद बिन सलमान, सऊदी अरब की विदेश नीति में पूरी तरह बदलाव लाने में ज़्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं.

क्षेत्रीय आयाम

वैसे तो अरब लीग के शिखर सम्मेलन में ज़्यादा ध्यान सीरिया की वापसी और ज़ेलेंस्की के दौरे पर रहा. लेकिन, इस दौरान लीग के सदस्य देशों के बीच कुछ क्षेत्रीय मसलों की अनदेखी कर पाना मुश्किल था. संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और उसके नेता, राष्ट्रपति शेख़ मुहम्मद बिन ज़ायद (MbZ), जिन्हें इस क्षेत्र का सबसे ताक़तवर शख़्स कहा जाता है. उन्हें धीरे धीरे ही सही मग़र यक़ीनी तौर पर ये एहसास हो रहा है कि आने वाले समय में उन्हें क्षेत्र पर प्रभाव के मामले में प्रिंस सलमान (MbS) से चुनौती मिलने वाली है. इस बात को दोनों देशों के बीच बढ़ते आर्थिक मुक़ाबले से भी बल मिलता है. आज सऊदी अरब अपने दरवाज़े बाक़ी दुनिया के लिए खोल रहा है, निवेश को आकर्षित कर रहा है, और दुबई और अबु धाबी जैसे शहरों के क्षेत्र कीआर्थिक राजधानीहोने के ताज को चुनौती दे रहा है. इन हालात में अरब लीग के सम्मेलन से UAE के राष्ट्रपति शेख़ मुहम्मद बिन ज़ायद की ग़ैरमौजूदगी उल्लेखनीय रूप से दर्ज की गई. शेख़ ज़ायद ने ख़ुद शिरकत करने के बजाय, शेख़ मंसूर बिन ज़ायद अल नाहयान के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल, अरब लीग के सम्मेलन में भेजा था. शेख़ मंसूर, UAE  के उप-राष्ट्रपति हैं और राष्ट्रपति के दरबार में मंत्री भी हैं.

अपनी ताक़त बढ़ाने की ख़्वाहिश रखने वाली एक और क्षेत्रीय ताक़त क़तर ने भी असद को न्योता देने के सऊदी अरब के फ़ैसले से अलग राय जताई. क़तर ख़ुद 2021 में सऊदी अरब और UAE द्वारा अपने ऊपर लगाई गई साढ़े तीन साल लंबी आर्थिक नाकेबंदी से बाहर आया है. इन देशों के बीच तनाव तब पैदा हुआ, जब क़तर ने क्षेत्रीय राजनीति पर अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू कर दिया. प्राकृतिक गैस के विशाल भंडारों के चलते क़तर के पास पैसे भी ख़ूब थे. इसके अलावा वो पूरे क्षेत्र में इस्लामिक समूहों और उनकी सैद्धांतिक धुरी, जैसे कि मुस्लिम ब्रदरहुड को भी समर्थन किया करता था. दोनों, प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान और राष्ट्रपति मुहम्मद बिन ज़ायद को ये लगता था कि क़तर जैसा मामूली सा देश अपनी औक़ात से ज़्यादा उछल रहा है और पूरे मध्य पूर्व के समीकरणों को प्रभावित कर रहा है.

ख़बरों के मुताबिक़, अरब लीग सम्मेलन में बशर अल-असद की भागीदारी के प्रति विरोध जताने के लिए क़तर के अमीर शेख़ तमीम बिन हमाद अल-थानी, असद के भाषण से पहले ही उठकर चले गए थे. चूंकि, क़तर ने खुलकर असद विरोधी प्रदर्शनों का समर्थन किया था. इसलिए उसने अन्य देशों के साथ मिलकर सीरिया को अरब लीग में शामिल करने के प्रति विरोध जता. इससे, अरब देशों की अंदर ही अदंर चल रही आपसी होड़ ही उजागर होती है, और पता चलता है कि अभी भी उनके बीच कई क्षेत्रीय मसलों पर असहमतियां बनी हुई हैं. शायद विद्वान सैम्युअल रमानी ने इस बात को जनवरी 2021 में प्रकाशित अपने लेख में बेहतरीन शब्दों में पेश किया था, जब उन्होंने लिखा था कि, ‘क़तर की नाकेबंदी तो ख़त्म हो गई, मगर खाड़ी देशों के बीच संकट बना हुआ है.’

निष्कर्ष

इसके बावजूद शिखर सम्मेलन अपने नए और बड़े लक्ष्य प्राप्त करने में मोटे तौर पर कामयाब ही रहा. अब ये देखना बाक़ी है कि सीरिया के साथ संबंध सामान्य बनाने की प्रक्रिया आगे कैसे बढ़ती है, क्योंकि अमेरिका ऐसी गतिविधियों के सख़्त ख़िलाफ़ है. फिर भी, इस क्षेत्र के बहुत से देशों की आकांक्षाएं, उन अनसुलझे ऐतिहासिक मुद्दों से आगे बढ़कर देख रही हैं, जिन्होंने उन्हें दशकों तक संघर्ष के दलदल में फंसाए रखा है. ईरान जैसे मसले अभी भी चिंता का मुख्य विषय बने हुए हैं. लेकिन कोशिश इस बात की हो रही हैं कि इस क्षेत्र की आर्थिक स्थिति में नई जान डाली जाए, ख़ास तौर से सऊदी अरब, किसी नए संघर्ष में ख़ुद को फंसाने से बचाते हुए, ख़ुद को तेल पर निर्भरता के बाद के दौर के लिए तैयार करने पर काफ़ी ध्यान दे रहा है.

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