Published on Oct 12, 2020 Commentaries 0 Hours ago

सहिष्णुता ने एक शब्द के तौर पर और एक परिकल्पना के तौर पर भी एक ऐसी वस्तु बन गई है, जिसने पिछले कुछ वर्षों में खाड़ी देशों में अपना बड़ा बाज़ार विकसित कर लिया है. ये वही क्षेत्र है, जिसकी इस बात के लिए अक्सर आलोचना की जाती रही है कि ये सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक तौर पर बड़ा कट्टर रहा है. ये बात इस क्षेत्र के क़ानूनों में भी साफ़ झलकती है.

पैग़म्बर इब्राहिम के वंशजों की कुनबे में वापसी: खाड़ी देशों में बढ़ती सहिष्णुता

जब 31 अगस्त को इज़राइल की एयरलाइन एल अल की एक फ्लाइट, तेल अवीव से उड़ान भर कर संयुक्त अरब अमीरात के अबू धाबी शहर के हवाई अड्डे पर उतरी, तो इस फ्लाइट ने एक नया इतिहास क़ायम कर दिया. इस ऐतिहासिक उड़ान के यात्रियों में, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के दामाद जेयर्ड कुशनर, अमेरिका और इज़राइल के दिग्गज अधिकारी और कारोबारी नेता विमान में शामिल थे. इनमें से कुछ प्रतिष्ठित यात्रियों ने एक बैग की तस्वीर ट्वीट की, जिसमें लिखा हुआ था, ‘द अब्राहम एकॉर्ड्स’ यानी इब्राहिम समझौते. ये वो त्रिपक्षीय समझौता है, जिसका एलान 13 अगस्त को अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने किया था. इस समझौते पर इज़राइल, संयुक्त अरब अमीरात और अमेरिका ने दस्तख़त किए थे. विमान में बैग्स पर इसी ऐतिहासिक समझौते का नाम उकेरा हुआ था. और ये नाम कई मायनों में प्रतीकात्मक है. असल में पैग़म्बर इब्राहिम या अब्राहम को इस्लाम में अहम दर्ज़ा हासिल है. ईसाई और यहूदी धर्म के अनुयायी भी इब्राहिम या अब्राहम को अपने पैग़म्बरों का पूर्वज मानते हैं. अपने इस समझौते को अब्राहम समझौता कहकर इन देशों ने ये संकेत देने की कोशिश की है कि अब वो सब मिलकर उस ऐतिहासिक ख़ूंरेंजी के दौर से बाहर आने की कोशिश कर रहे हैं, जो हम सदियों से अब्राहम के वंशज माने जाने वाले ईसाईयों, मुसलमानों और यहूदी धर्म के मानने वालों के बीच देखते आए हैं. भले ही दिखावे के लिए सही, मगर ये देश अब्राहम समझौते से ये माहौल बनाना चाहते हैं कि वो अब धार्मिक संघर्ष से सहिष्णुता के दौर की ओर बढ़ना चाह रहे हैं.

इस समझौते को अब्राहम समझौता कहकर इन देशों ने ये संकेत देने की कोशिश की है कि अब वो सब मिलकर उस ऐतिहासिक ख़ूंरेंजी के दौर से बाहर आने की कोशिश कर रहे हैं, जो हम सदियों से अब्राहम के वंशज माने जाने वाले ईसाईयों, मुसलमानों और यहूदी धर्म के मानने वालों के बीच देखते आए हैं.

एक शब्द के तौर पर हो या फिर परिकल्पना के रूप में, सहिष्णुता आज एक ऐसी वस्तु बन गई है, जिसने पिछले कुछ वर्षों में खाड़ी देशों में अपना बड़ा बाज़ार विकसित कर लिया है. ये वही क्षेत्र है, जिसकी इस बात के लिए अक्सर आलोचना की जाती रही है कि ये सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक तौर पर बड़ा कट्टर रहा है. ये बात इस क्षेत्र के क़ानूनों में भी साफ़ झलकती है. खाड़ी देशों और उनमें भी ख़ासतौर से सऊदी अरब ने पिछले कई वर्षों के दौरान अपने नियम क़ायदों और क़ानूनों के ज़रिए दुनिया में कट्टरपंथी इस्लाम का गढ़ होने की छवि बनाई है. जहां पर अराजकता, निर्मम सज़ाएं, असहिष्णुता और महिला अधिकारों का मुख़ालफ़त का बोलबाला है. लेकिन, अब इस बात के स्पष्ट संकेत मिलने लगे हैं कि इस क्षेत्र में बदलाव की बयार बह रही है. और ये बदलाव दो अलग अलग रास्तों से इस क्षेत्र में दस्तक दे रहा है. पहला तो ये कि तमाम धर्मों के अनुयायियों के बीच सौहार्द को बड़ी सक्रियता से बढ़ावा देने की कोशिश की जा रही है. और इसके अलावा इस्लाम में हर तरह की उग्रपंथी या कट्टरवादी विचारधारा का कड़ाई से विरोध किया जा रहा है. उदाहरण के लिए हाल ही में सऊदी अरब के इस्लामिक मामलों के मंत्रालय ने एक फ़रमान जारी किया है. इसके तहत राजधानी रियाद की मस्जिदों को आदेश दिया गया है कि वो लाउड स्पीकर पर धार्मिक तक़रीरें या ख़ुत्बे न प्रसारित करें. मस्जिदों को ये भी कहा गया है कि वो अपने यहां के लाउड स्पीकर की आवाज़ें भी कम करके रखें.

वर्ष 2017 में शेख़ नाहयान बिन मुबारक अल नाहयान को संयुक्त अरब अमीरात (UAE) का पहला सहिष्णुता मंत्री बनाए जाने की घोषणा की गई थी. उनके नेतृत्व में संयुक्त अरब अमीरात ने राष्ट्रीय सहिष्णुता कार्यक्रम चलाने की शुरुआत की थी. अगले कुछ वर्षों के दौरान संयुक्त अरब अमीरात ने कैथोलिक ईसाइयों के सबसे बड़े धर्म गुरू पोप की मेज़बानी वर्ष 2019 में की. इसके बाद ही संयुक्त अरब अमीरात में पहले हिंदू मंदिर के निर्माण का एलान भी किया गया. और जो सबसे महत्वपूर्ण बात हुई, वो ये कि पहली बार यहूदियों के पूजा स्थल सिनेगॉग को भी बनाने का एलान किया गया. ये संयुक्त अरब अमीरात में बन रहे ‘हाउस ऑफ़ अब्राहम’ का हिस्सा होगा. अबू धाबी शहर में बन रहा हाउस ऑफ़ अब्राहम एक बहुधर्मी पूजा स्थल है. जिसमें एक चर्च, एक सिनेगॉग और एक मस्जिद, तीनों एक ही परिसर में बनायी जा रही हैं. यही नहीं, संयुक्त अरब अमीरात ने अन्य धर्मों के प्रति उदारता दिखाते हुए उन्हें अपने सांस्कृतिक समूह गठित करने और अपने सामुदायिक केंद्र बनाने की इजाज़त दे दी.

प्रिंस मोहम्मद बिन ज़ाहेद अल नाहयान के नेतृत्व में संयुक्त अरब अमीरात के इस धार्मिक सहिष्णुता अभियान की कामयाबी को देखते हुए, सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस और सऊदी सल्तनत के उत्तराधिकारी मोहम्मद बिन सलमान ने भी अपने रूढ़िवादी देश में आ रहे बदलावों का प्रचार करना शुरू किया है. संयुक्त अरब अमीरात में आ रहे बदलावों से सबक़ लेते हुए, सऊदी अरब ने भी, सावधानी के साथ ही सही मगर कुछ सुधारवादी क़दम उठाए हैं. जैसे कि, वर्ष 2017 में सऊदी अरब में महिलाओं को कार ड्राइव करने की इजाज़त दे दी गई. जबकि सऊदी अरब में बेहद ताक़तवर रूढ़िवादी तबक़े ने इसका कड़ा विरोध किया था. पिछले कुछ वर्षों के दौरान, सऊदी अरब में म्यूज़िक कॉन्सर्ट और फिल्मों का चलन भी शुरू हुआ है. इसके अलावा हाल ही में सऊदी बादशाह ने फ़रमान जारी करते हुए दस महिलाओं की प्रशासन के उच्च पदों पर नियुक्ति की है. जो मक्का और मदीना की पवित्र मस्जिदों का प्रशासनिक काम-काज देखेंगी.

कोविड-19 की महामारी के दौरान सऊदी अरब जैसे रूढ़िवादी देश में बदलाव के संकेत साफ़ तौर पर दिखने लगे. ख़ासतौर से धर्म के मामलों में बेहद कट्टर रुख़ में भी बदलाव आता दिखाई दे रहा है. जून महीने में ही सऊदी अरब ने हर साल होने वाले हज को रद्द कर दिया. जबकि, ये क़दम उठाने में दुनिया भर के मुसलमानों के नाराज़ हो जाने का डर था. इससे मुसलमानों के ‘सुपर स्प्रेडर’ बन जाने की छवि भी नहीं बन सकी और सऊदी अरब को कोरोना वायरस का प्रकोप थामने में भी काफ़ी मदद मिली. सऊदी अरब के पड़ोसी, संयुक्त अरब अमीरात ने भी अपने बड़े शहरों जैसे कि, दुबई और अबू धाबी में तमाम तरह की पाबंदियां लगा कर कोरोना वायरस का प्रकोप थामने में सफलता प्राप्त की. कोविड-19 का संक्रमण रोकने के लिए संयुक्त अरब अमीरात ने मस्जिदों, दरगाहों और मदरसों को बंद करने में कोई मुरव्वत नहीं की

ये मध्य पूर्व के देशों की सोच में आए एक बड़े बदलाव के संकेत हैं. ज़ाहिर है ये परिवर्तन रातों-रात तो आया नहीं है. लगभग दो दशक पहले अल क़ायदा ने अमेरिका पर 9/11 के भयानक आतंकी हमले किए थे. ये बदलाव उसके बाद से ही आने शुरू हुए.

ये मध्य पूर्व के देशों की सोच में आए एक बड़े बदलाव के संकेत हैं. ज़ाहिर है ये परिवर्तन रातों-रात तो आया नहीं है. लगभग दो दशक पहले अल क़ायदा ने अमेरिका पर 9/11 के भयानक आतंकी हमले किए थे. ये बदलाव उसके बाद से ही आने शुरू हुए. ये बात संयुक्त अरब अमीरात पर ख़ासतौर से लागू होती है. इस हमले के लिए विमान अगवा करने वालों में से तीन अपहर्ता संयुक्त अरब अमीरात की समृद्ध सोसाइटी से ताल्लुक़ रखते थे. और इस घटना ने मानो अमीरात की हुक़ूमत को सोते से जगा दिया. इसके बाद से ही संयुक्त अरब अमीरात ने बड़ी सावधानी से इस्लामिक कट्टरपंथ से निपटने के प्रयास करने शुरू किए. इसके लिए वो सिर्फ़ अपनी सीमाओं के भीतर क़दम उठाने तक सीमित नहीं रहे, बल्कि पूरे मध्य पूर्व में ऐसी कोशिशों को बढ़ावा दिया. ये एक ऐसा अभियान था जिसके लिए बड़े राजनीतिक साहस और चतुराई की ज़रूरत थी.

इस्लामिक कट्टरपंथ और राजनीतिक इस्लाम के ख़िलाफ़ संयुक्त अरब अमीरात द्वारा अपने देश के भीतर उठाए जा रहे क़दम इतने आसान भी नहीं थे. क्योंकि, इस देश की सात में से कम से कम दो अमीरात ऐसी हैं, जो इन मसलों पर नरम रवैया रखती हैं. इससे भी ज़्यादा अहम बात ये है कि दुबई जैसा शहर आर्थिक हब इसीलिए बन सका क्योंकि वहां पर वित्तीय लेन-देन बिना किसी सवाल जवाब के मुक्त रूप से होने दिया जाता है. इनमें सिर्फ़ कारोबारी ही नहीं, अलग अलग समूहों द्वारा किए जाने वाला धार्मिक और राजनीतिक लेन-देन भी शामिल है. लेकिन, अबू धाबी ने कट्टरपंथी विचारों की रोकथाम के लिए अपने मज़बूत इरादों का परिचय दिया है. और अब इसके नतीजे दिखने भी लगे हैं. जब ‘अरब स्प्रिंग’ के जनवादी आंदोलन के बाद मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड जैसा संगठन मज़बूत होकर उभरा, तो संयुक्त अरब अमीरात ने मिस्र के हज़ारों मौलवियों को बिल्कुल ख़ामोशी से उनके देश वापस भेज दिया. ये वो लोग थे जिनका ताल्लुक़ मुस्लिम ब्रदरहुड से था. यही नहीं, संयुक्त अरब अमीरात ने मुस्लिम ब्रदरहुड से संबंध रखने वाले अपने यहां के अल इस्लाह ग्रुप पर प्रतिबंध लगा दिया और मुस्लिम ब्रदरहुड को एक आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया.

इससे भी एक क़दम आगे जाते हुए, संयुक्त अरब अमीरात ने हर शुक्रवार को होने वाले धार्मिक ख़ुतबों पर सरकारी नियंत्रण स्थापित कर लिया है. अब पूरे देश में ये ख़ुतबे एक तय मानक के अनुसार ही होते हैं. इससे संयुक्त अरब अमीरात की सरकार ने कट्टरपंथी मुल्लाओं के ऐसे उग्रवादी और रुढ़िवादी विचारों का प्रचार प्रसार कर पाने की क्षमता भी ख़त्म कर दी है, जिनसे राजनीतिक उथल-पुथल मचने का डर हो. बल्कि, मुस्लिम ब्रदरहुड के जन्मस्थान मिस्र में भी सरकार ने ऐसे ही क़दम उठाए हैं. संयुक्त अरब अमीरात ने अपने यहां हिदाया और सवाब जैसे केंद्र भी खोले हैं. हिदाया में कट्टरपंथ और हिंसक उग्रवाद से मुक़ाबला करने के लिए रणनीति बनाई जाती है. वहीं, सवाब, अमेरिका और संयुक्त अरब अमीरात का एक साझा कार्यक्रम है. इसकी मदद से इंटरनेट की दुनिया में कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ अभियान चलाया जाता है. यहां ये बात ध्यान देने लायक़ है कि भारत में जब भी इस्लामिक कट्टरपंथ को रोकने की बात होती है, तो कभी भी राजनीतिक इस्लाम की गतिविधियों को सीमित करने की बात नहीं होती. जबकि, आतंकवाद निरोध कार्यक्रमों की सफलता के लिए इस्लाम के राजनीतिक प्रचार प्रसार पर क़ाबू पाना बेहद ज़रूरी है.

यहां ये बात ध्यान देने लायक़ है कि भारत में जब भी इस्लामिक कट्टरपंथ को रोकने की बात होती है, तो कभी भी राजनीतिक इस्लाम की गतिविधियों को सीमित करने की बात नहीं होती. जबकि, आतंकवाद निरोध कार्यक्रमों की सफलता के लिए इस्लाम के राजनीतिक प्रचार प्रसार पर क़ाबू पाना बेहद ज़रूरी है.

ज़ाहिर है, इतने बड़े पैमाने पर सामाजिक पुनर्गठन के कार्यक्रम को लागू करने की राह में चुनौतियां भी उठ रही हैं. और जैसे ही अबू धाबी में इज़राइ का दूतावास खुलेगा, वैसे ही ये चुनौतियां और मज़बूत होकर सामने आएंगी. एक बड़ी चुनौती ये है कि इस क्षेत्र के क़तर और तुर्की जैसे बड़े खिलाड़ी राजनीतिक (सुन्नी) इस्लाम के नए अगुवा और संरक्षक बनने के लिए तैयार हैं. दोनों ने मुस्लिम ब्रदरहुड के उन नेताओं को अपने यहां पनाह देने का काम किया है, जिन्हें मिस्र, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब से निष्कासित किया गया है. क़तर ने तो कट्टर इस्लामिक नेताओं जैसे कि हमास के पूर्व नेता ख़ालिद अल मशाल और भड़काऊ बयानबाज़ी के लिए मशहूर मिस्र के मौलवी यूसुफ़ अल-क़रादवी को अपने यहां पनाह दी है. सच तो ये है कि खाड़ी सहयोग परिषद में सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और क़तर के बीच मतभेद की बड़ी वजह ही यही है कि क़तर तमाम इस्लामिक संगठनों को समर्थन दे रहा है. और क़तर ने अपने अल जज़ीरा के अरबी संस्करण वाले चैनल पर कट्टरपंथी एजेंडा चलाने की इजाज़त दे रखी है.

भारत के क़रीबी इलाक़ों में आ रहे ये क्रांतिकारी बदलाव बेहद महत्वपूर्ण हैं. और ख़ुद भारत के लिए भी इनकी बड़ी अहमियत है. पिछली लगभग आधी सदी से सऊदी अरब के वहाबी कट्टरपंथी धार्मिक नेता ही रुढ़िवादी इस्लामिक विचारधारा के प्रमुख स्रोत थे. जिनकी सोच बेहद पुरातनपंथी है. और अब जबकि, उसकी जगह अधिक सहिष्णु और प्रगतिशील दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया जा रहा है, तो इसका प्रभाव पूरे दक्षिण एशिया में आबाद मुस्लिम समुदाय पर देखने को मिलेगा. खाड़ी के संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश द्वारा प्रोत्साहित किए जा रही इस सहिष्णुता की नीति की कामयाबी में भारत का भी बहुत कुछ दांव पर लगा है. ख़ासतौर से तब और, जब ख़ुद भारत को अपने यहां बढ़ती हुई असहिष्णुता का सामना करना पड़ रहा है.

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