Published on Nov 26, 2020 Updated 0 Hours ago

ऐसी शिक्षा देने पर ज़ोर होना चाहिए, जिससे केवल नौकरी तलाशने वाले युवा ही न तैयार हों, बल्कि नौकरी का सृजन करने वाले छात्रों का भी निर्माण किया जा सके. इसके लिए उद्यमिता को बढ़ावा देने के सघन प्रयास लगातार जारी रखने पड़ेंगे.

युवा और कोविड-19: एक बेहतर भविष्य का निर्माण

नए कोरोना वायरस ने भारत में भारी तबाही मचाई है. हमारे सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के पूर्वानुमान नकारात्मक वृद्धि दर की ओर चले गए हैं. देश पर बेरोज़गारी की भयंकर मार पड़ रही है. ग़रीबी उन्मूलन की दिशा में हुई प्रगति के उलटी गति पकड़ने का डर है. हालांकि, इस महामारी के बुरे प्रभाव सबसे अधिक युवाओं (15-29 वर्ष) पर पड़ते दिख रहे हैं. वो एक साथ तिहरी चुनौती का सामना कर रहे हैं. भयंकर बेरोज़गारी और शिक्षा में खलल के साथ साथ उन्हें असफल होती शिक्षा व्यवस्था की मार भी झेलनी पड़ रही है.

सरकार की कोशिश ये होनी चाहिए कि वो युवाओं को न केवल मौजूदा आर्थिक संकट से निजात पाने में मदद करे, बल्कि ये प्रयास भी करे कि इस समय भारत जिस आबादी के संकट से दो-चार है, उससे भी बच सके.

भारत के युवाओं पर महामारी के तुलनात्मक रूप से अधिक बुरे असर से निपटने के लिए ज़रूरत इस बात की है कि सरकार, युवाओं को राहत देने के लिए ख़ास उनके लिए प्रयास करे. सरकार की कोशिश ये होनी चाहिए कि वो युवाओं को न केवल मौजूदा आर्थिक संकट से निजात पाने में मदद करे, बल्कि ये प्रयास भी करे कि इस समय भारत जिस आबादी के संकट से दो-चार है, उससे भी बच सके.

भयंकर बेरोज़गारी

इस महामारी से पहले से ही युवाओं के बीच लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट लगातार बड़ी तेज़ी से घट रहा था. वर्ष 2004-05 में जहां ये 56.4 प्रतिशत था, तो 2018-19 में युवाओं का लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट घट कर केवल 38.1 प्रतिशत ही रह गया था. इससे भी चिंताजनक बात तो NLET के आंकड़े थे. NLET यानी नॉट इन लेबर फोर्स, एजुकेशन ऐंड ट्रेनिंग के तहत उन लोगों की संख्या का आकलन किया जाता है, जो न तो कोई काम कर रहे हैं, न ही काम की तलाश में हैं, और न ही वो किसी तरह की शिक्षा या प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं

पूर्व के वित्तीय और आर्थिक संकटों ने हालात और ख़राब कर दिए हैं. इसका नतीजा ये हुआ है कि आज देश के युवा आर्थिक रूप से बेहद कमज़ोर हैं और तमाम आर्थिक चुनौतियों के दौरान युवाओं के बीच ही बेरोज़गारी की दर सबसे अधिक हो जाती है. कोविड-19 की महामारी भी इसका अपवाद नहीं है.

भारत में ऐसे युवाओं की संख्या दस करोड़ से अधिक  है.  और ये आंकड़ा तब है जबकि सरकार ने देश के बेकार बैठे युवाओं को नए हुनर सिखाने, उनके बीच उद्यमिता को बढ़ावा देने और रोज़गार सृजन के लिए कई प्रयास किए हैं. पूर्व के वित्तीय और आर्थिक संकटों ने हालात और ख़राब कर दिए हैं. इसका नतीजा ये हुआ है कि आज देश के युवा आर्थिक रूप से बेहद कमज़ोर हैं और तमाम आर्थिक चुनौतियों के दौरान युवाओं के बीच ही बेरोज़गारी की दर सबसे अधिक हो जाती है. कोविड-19 की महामारी भी इसका अपवाद नहीं है.

सबूत ये इशारा करते हैं कि युवाओं के बीच बेरोज़गारी की दर कारोबारी चक्र के प्रति अधिक संवेदनशील है. महामारी के कारण उत्पन्न हुई मौजूदा आर्थिक परिस्थितियां भी इससे अलग नहीं हैं. आर्थिक संकट के दौरान युवाओं को ही अक्सर नौकरी से निकाले जाने की आशंका अधिक होती है. इसकी वजह उनके अंदर हुनर और अनुभव की कमी होती है. भारत में ठेके पर काम करने की संस्कृति का बोझ भी युवाओं पर ही अधिक पड़ा है. उनके मुक़ाबले अधिक उम्र के कामगारों को अभी स्थायी नौकरी मिलने की संभावना अधिक होती है.

इबोला संकट से मिले सबूत हमें बताते हैं कि महामारी के कारण लड़कियों और युवतियों पर पढ़ाई छोड़ने का दबाव, लड़कों की तुलना में अधिक पड़ा था. महामारी के संकट से घरों की आमदनी घट जाती है और आर्थिक चुनौतियां बढ़ जाती हैं, तो युवा लड़के और लड़कियां, ख़ास तौर से ग्रामीण क्षेत्र में तो पढ़ाई छोड़ कर अपने अपने परिवारों की मदद के लिए काम करने लगते हैं.

कॉन्ट्रैक्ट पर काम मिलने के कारण, युवाओं के रोज़गार की स्थिति बहुत नाज़ुक हो जाती है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, कोविड-19 की महामारी से पहले से ही युवाओं के दरमियान बेरोज़गार रहने की दर तीन गुना अधिक पायी गई थी, और कोरोना वायरस की महामारी ने हालात और बिगाड़ने का ही काम किया है. एशियाई विकास बैंक (ADB) द्वारा किए गए एक और अध्ययन के मुताबिक़, कोविड-19 की महामारी के कारण, अकेले भारत में ही 41 लाख युवाओं की नौकरियां चली गईं.

शिक्षा में व्यवधान

इस महामारी के कारण पूरी दुनिया में 73 प्रतिशत युवाओं की पढ़ाई में बाधा आई है. भारत में चूंकि शिक्षा की उपलब्धता के मामले में अलग अलग समुदायों के बीच भयंकर असमानता है, तो यहां पर युवाओं की शिक्षा में सबसे अधिक ख़लल पड़ता दिखा है. महामारी के कारण पढ़ाई में बाधा पड़ने का सबसे बुरा प्रभाव युवा महिलाओं पर पड़ा है. इसकी बड़ी वजह यही है कि उन्हें घर में अधिक काम करना पड़ रहा है और इसके बदले में उन्हें पैसे भी नहीं मिलते. इबोला संकट से मिले सबूत हमें बताते हैं कि महामारी के कारण लड़कियों और युवतियों पर पढ़ाई छोड़ने का दबाव, लड़कों की तुलना में अधिक पड़ा था. महामारी के संकट से घरों की आमदनी घट जाती है और आर्थिक चुनौतियां बढ़ जाती हैं, तो युवा लड़के और लड़कियां, ख़ास तौर से ग्रामीण क्षेत्र में तो पढ़ाई छोड़ कर अपने अपने परिवारों की मदद के लिए काम करने लगते हैं.

इसके अलावा, महामारी के दौरान शिक्षा में बाधा पड़ने की एक और बड़ी वजह डिजिटल संसाधनों की उपलब्धता में भारी असमानता है. स्मार्टफ़ोन रखने के मामले में भारत में बहुत अधिक असमानता देखने को मिलती है. यही स्थिति इंटरनेट की सुविधा के मामले में भी है. इसी वजह से भारत के बहुत से छात्रों को अपनी शिक्षा में लंबी अवधि के लिए व्यवधान पड़ने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. हालांकि, कुछ इलाक़ों में स्कूल खोले गए हैं, फिर भी छात्रों की भीड़ न जुटे इसके लिए अभी ऑनलाइन शिक्षा को ही अधिक बढ़ावा दिया जा रहा है. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) की प्रोफ़ेसर आर. सी कुहड़ कमेटी ने हाल ही में जो रिपोर्ट दी है, उससे इस बात पर रौशनी पड़ती है कि भारत के वर्तमान डिजिटल मूलभूत ढांचे में बड़े अंतर के कारण देश को शिक्षा के ऑनलाइन माध्यम को अपनाने में मुश्किलें पेश आई हैं.

डिजिटल भेदभाव, घर में बिना वेतन के काम करने का बढ़ा बोझ और परिवारों की आमदनी घटने की चुनौती से तुरंत निपटने के संकट ने युवाओं की पढ़ाई में बड़े पैमाने पर बाधा डालने का काम किया है. इससे आगे चलकर असमानता और बढ़ने का डर है. इससे मानव पूंजी के विकास में कमी और बेरोज़गारी और बढ़ने की आशंका है.

असफल होती शिक्षा व्यवस्था

युवाओं के बीच बेरोज़गारी और शिक्षा की बेहद चिंताजनक स्थिति को और बिगाड़ने में देश के तमाम संस्थागत, अलग अलग शिक्षा बोर्ड और अलग अलग राज्यों की अलग शिक्षा व्यवस्था ने भी बड़ा योगदान दिया है. क्योंकि हर राज्य की शिक्षा व्यवस्था इस महामारी के संकट से अपने अपने तरीक़े से निपट रही है, जिसका असर आने वाले समय में ग्रेजुएशन करने वाले छात्र-छात्राओं पर पड़ रहा है.

इम्तिहान कराने में देरी से अंतिम वर्ष के छात्रों की भर्ती में भी देरी हो रही है. इससे युवाओं के बीच अनिश्चितता और निराशा का अंधेरा छाया हुआ है. इसके कारण बहुत से युवाओं के हाथ से नौकरी के अवसर पूरी तरह से निकल जा रहे हैं. ये बात कम अवधि के लिए तो तकलीफ़देह है ही, पर इसका असर लंबी अवधि में भी रोज़गार और वेतन पर पड़ने वाला है. 

इम्तिहान कराने में देरी से अंतिम वर्ष के छात्रों की भर्ती में भी देरी हो रही है. इससे युवाओं के बीच अनिश्चितता और निराशा का अंधेरा छाया हुआ है. इसके कारण बहुत से युवाओं के हाथ से नौकरी के अवसर पूरी तरह से निकल जा रहे हैं. ये बात कम अवधि के लिए तो तकलीफ़देह है ही, पर इसका असर लंबी अवधि में भी रोज़गार और वेतन पर पड़ने वाला है. वजह ये है कि नौकरी और वेतन केवल शिक्षा और कौशल पर ही आधारित नहीं हैं, बल्कि इनका सीधा संबंध पहले के रोज़गार से भी पाया जाता है. दो नौकरियों के बीच की अवधि में अगर कोई बेरोज़गार रहा है, तो उससे नौकरी और वेतन की पूरी विकास दर के नीचे जाने का ख़तरा होता है.

युवाओं के सामने तिहरी चुनौती

इसी कारण से आज भारत के युवा तिहरी चुनौती का सामना कर रहे हैं. उन्हें नौकरी के बाज़ार के ख़राब हालात के कारण बेरोज़गारी से जूझना पड़ रहा है, तो शिक्षा व्यवस्था में व्यवधान से पढ़ाई छोड़ने का दबाव भी बढ़ गया है और डिजिटल फ़ासले के कारण आने वाली मुश्किलें भी देश के युवा झेल रहे हैं. परीक्षा में लगातार देर के चलते, उन्हें न तो डिग्रियां मिल पा रही हैं और न ही वो नौकरी की तलाश के लिए स्वतंत्र हो पा रहे हैं.

अब भारत के हाथ से समय निकलता जा रहा है और देश बड़ी तेज़ी से बुज़ुर्गों का राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर हो रहा है. ऐसे में त्वरित क़दम उठाए जाने की आवश्यकता है जिससे कि देश अपनी सबसे बड़ी पूंजी-यानी देश के युवाओं को बोझ बनने से रोक सके.

कोविड-19 की महामारी ने न केवल देश के आर्थिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डाला है, बल्कि उसे अपने युवाओं की शक्ति का लाभ ले पाने से भी वंचित कर दिया है. अब भारत के हाथ से समय निकलता जा रहा है और देश बड़ी तेज़ी से बुज़ुर्गों का राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर हो रहा है. ऐसे में त्वरित क़दम उठाए जाने की आवश्यकता है जिससे कि देश अपनी सबसे बड़ी पूंजी-यानी देश के युवाओं को बोझ बनने से रोक सके. अगर हम बेरोज़गारी, घटिया नौकरी और लगातार ख़ाली बैठे युवाओं (NELT) के मौजूदा पथ पर चलते रहे, तो युवा पूंजी देश पर बोझ बन जाएगी.

बेहतर भविष्य का निर्माण

पिछले एक दशक में जिन सेक्टरों में सबसे अधिक रोज़गार सृजन होता देखा गया है, वो हैं- मैन्यूफैक्चरिंग, कंस्ट्रक्शन, ट्रेड, होटल और ट्रांसपोर्ट. इस महामारी के कारण, अर्थव्यवस्था के इन्हीं सेक्टर्स पर सबसे बुरा प्रभाव देखने को मिला है. इन सेक्टरों में नई जान डालने के लिए भारी मात्रा में सरकारी निवेश और ख़ास तौर से युवा आबादी को मदद करने का लक्ष्य बनाकर सघन प्रयास करने की ज़रूरत है. युवाओं को भयंकर बेरोज़गारी की मार से बचाने के लिए, शहरी रोज़गार गारंटी योजना, जिसका प्रस्ताव ज्यां द्रेज़ ने दिया था, वो लाने की ज़रूरत है. इसमें युवाओं को रोज़गार देने पर अधिक ज़ोर देने के लिए सम्मानजनक कार्य की व्यवस्था करनी बेहद आवश्यक है.

इसके अलावा इस बात के लिए भी विशेष कोशिशें करनी होंगी, जिससे सतत शिक्षा में कम से कम बाधा पड़े और युवाओं के अलग अलग समुदायों के बीच डिजिटल संसाधनों की उपलब्धता के अंतर को कम किया जा सके. भारत सरकार के नेशनल सैम्पल सर्वे ऑफ़िस द्वारा हाल ही में किए गए एक सर्वे के अनुसार, आज देश के एक चौथाई से भी कम घरों में इंटरनेट की सेवा उपलब्ध है.

युवाओं को भयंकर बेरोज़गारी की मार से बचाने के लिए, शहरी रोज़गार गारंटी योजना, जिसका प्रस्ताव ज्यां द्रेज़ ने दिया था, वो लाने की ज़रूरत है. इसमें युवाओं को रोज़गार देने पर अधिक ज़ोर देने के लिए सम्मानजनक कार्य की व्यवस्था करनी बेहद आवश्यक है.

इंटरनेट वाले ऐसे घरों की संख्या तो दस प्रतिशत से भी कम है, जहां छात्र रहते हैं. सभी राज्यों ने तो नहीं, लेकिन कई राज्यों की सरकारों ने ऐसे क़दम उठाए हैं, जिससे छात्रों के पढ़ाई बीच में छोड़ने की समस्या को कम से कम किया जा सके. इसके लिए एक बड़े और व्यापक दृष्टिकोण की ज़रूरत है. साथ ही साथ इस मामले में केंद्र सरकार को दख़ल देने की आवश्यकता है, इन चुनौतियों से निपटने की हर राज्य की अपनी अलग क्षमता होती है. ऐसे में पूरे देश में केंद्र द्वारा संचालित एक समान प्रयास के अभाव से युवाओं के बीच क्षेत्रीय स्तर पर असमानता विकसित होने लगेगी.

इसके अतिरिक्त, ऐसी शिक्षा देने पर ज़ोर होना चाहिए, जिससे केवल नौकरी तलाशने वाले युवा ही न तैयार हों, बल्कि नौकरी का सृजन करने वाले छात्रों का भी निर्माण किया जा सके. इसके लिए उद्यमिता को बढ़ावा देने के सघन प्रयास लगातार जारी रखने पड़ेंगे. औद्योगिक समुदाय और सरकार के मिले जुले प्रयास से एक अच्छी तरह काम करने वाले हुनर की मांग और आपूर्ति वाली व्यवस्था का निर्माण करने की कोशिश जारी रहनी चाहिए.

निष्कर्ष

विश्व आर्थिक परिदृश्य (अक्टूबर 2020) की रिपोर्ट के मुताबिक़, कोविड-19 की महामारी, मध्यम अवधि में भारत को गहरे ज़ख़्म और धीमी विकास दर देकर जाएगी, क्योंकि श्रम के बाज़ार को बेहतर होने में काफ़ी समय लग जाता है. अनिश्चितता और बैलेंस शीट की समस्या के कारण निवेश कम हो जाता है और शिक्षा में कमी आने से मानवीय पूंजी का भी अभाव उत्पन्न हो जाता है. ऐसे माहौल में भारत अपने युवाओं की अपेक्षाओं को तोड़ने का जोख़िम नहीं ले सकता है. भारत पहले ही अपने डेमोग्राफिक डिविडेंड का अधिकतम लाभ उठाने के लिए काफ़ी समय गंवा चुका है और अब रोज़गार सृजन के लिए त्वरित क़दम उठाने की आवश्यकता है. शिक्षा और रोज़गार के क्षेत्र की कमियां दूर करने के लिए उचित प्रयासों और व्यवस्था बेहतर बनाने के लिए असरदार उपाय न करने से भारत आबादी के संकट की ओर बढ़ चलेगा. फिर वो पूर्वी एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था के बराबर की तरक़्क़ी का स्तर हासिल नहीं कर पाएगा. पूर्वी एशिया के इन ‘टाइगर देशों’ ने आर्थिक प्रगति का जो मुकाम हासिल किया है, वो अपने युवाओं के कारण ही किया है.


मनन ठक्कर ORF में रिसर्च इंटर्न हैं.

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