सभ्यताओं के बारे में अगर कुछ कहा जा सकता है तो वह यह है कि वे ऊंचे- नीचे रास्तों से होकर गुजरती हैं. इनमें से कुछ अपनी विरासतें बना पाती हैं तो कुछ दूसरी विरासतों को खो भी देती हैं.
सभ्यताओं के बारे में शी जिनपिंग की सोच ठीक है. कई पदों पर विराजमान चीन के इस मुख्य़ नेता ने एक भाषण में – जिसे संभवतः उनके अब तक के सभी भाषणों में सबसे ज़्यादा वैश्विक संवाद के रूप में देखा जा सकता है और उनके 17 जनवरी 2017 के वैश्वीकरण भाषण से भी ज्य़ादा बाहरी दृष्टि वाला वक्तव्य माना जा सकता है – जिसने वैश्विक घटनाओं की समझ के बारे में ऐसी परिपक्वता का परिचय दिया है जो अंतरराष्ट्रीय मामलों के विद्वानों को बौना साबित कर दे, जिसकी गहरी संवेदना से दलाई लामा की करुणा होड़ करे और ऐसा इतिहास बोध झलके जो वर्तमान कथ्यों से बिसराया जा चुका हो.
संक्षेप में अगर कहें तो 15 मई, 2019 के साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट में प्रकाशित समाचार के अनुसार उन्होंने जो कहा वह यहां दिया जा रहा है:
‘अगर किसी को लगता है कि उसकी अपनी जाति और सभ्यता श्रेष्ठतर है और वह दूसरी सभ्यताओं को अपने हिसाब से ढालने या प्रतिस्थापित करने पर आमादा है, तो यह मूर्ख़तापूर्ण विचार है और ऐसा कृत्य विनाशकारी होगा.’
हमें बराबरी और दूसरों के सम्मान की रक्षा करते हुए अभिमान और पूर्वाग्रह का त्याग करना चाहिए और अपनी और दूसरी सभ्यताओं के बीच के अंतरों के बारे में अपनी जानकारी बढ़ाते हुए सभ्यताओं के सह-अस्तित्व तथा उनके बीच सामंजस्यपूर्ण संवाद को प्रोत्साहित करना चाहिए. सभी देशों को राज्य, समय और सभ्यताओं की सीमा से आगे बढ़ कर पारस्परिक लेनदेन करना चाहिए और सोने से भी ज्य़ादा मूल्यवान अपने कालखंड की शांति के संरक्षण के लिए साथ मिल कर काम करना चाहिए.
सामंजस्य, परस्परवाद की शक्तिशाली अवधारणा और राष्ट्रों की प्रभुसत्ता में प्रेरणादायी गहरे विश्वास का प्रदर्शन करते इन महान विचारों के खिलाफ़ भला कौन तर्क कर सकता है? सिवाय एक व्यक्ति और एक संस्था – शी जिनपिंग और उनके नेतृत्व वाली चीनी कम्युनिस्ट पार्टी – के? शी के नेतृत्व में चीन का विश्वास है कि उसे पूरी दुनिया की व्यवस्था के नियमों को बदल कर ऐसे नियम लागू करने की ज़रूरत है जिनका पालन पूरा विश्व करे – सिवाय चीन के.
सभ्यताओं के प्रति इस सम्मानपूर्ण अभिव्यक्ति का एक संदर्भ है. अमेरिका की ओर से व्यापार-युद्ध के पक्ष पर दबाव पड़ रहा है और भ्रष्टाचार, ऋण-जाल तथा उलटी प्रतिक्रियाओं के कारण शी की महत्वाकांक्षी बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) को नकारने वालों की संख्य़ा लगातार बढ़ रही है जबकि चीन का यह सर्वोच्च नेता पूरी दुनिया का ध्यान अपने देश के संरक्षणवादी रवैये से हटाना चाहता है. इसके अलावा, केंद्रीय सैन्य आयोग के अध्यक्ष के रूप में दक्षिणी चीन सागर में फिलीपींस, वियतनाम, ब्रुनेई, ताइवान और मलेशिया के इर्द-गिर्द सैन्य शक्ति बढ़ाते हुए पूरे क्षेत्र पर ताकत के बूते नियंत्रण पाने की कोशिश करते हुए भी वह चीन की छवि में ऐसा फेरबदल करना चाहते हैं मानो वह संस्कृतियों और दूसरे राष्ट्रों का सम्मान करता हो.
चीन के राष्ट्रपति के रूप में उनकी प्रसिद्धि का सबसे बड़ा कारण पाकिस्तान में आतंकवाद को समर्थन देना रहा है. इस महीने की शुरुआत में सुरक्षा परिषद में अमेरिका, ब्रिटेन, और फ्रांस के दबाव के परिणामस्वरूप अवमानित होकर पीछे हटने को मजबूर होने के बाद समझौते की गुंजाइश भी खत्म हो गई और संयुक्त राष्ट्र ने मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित कर दिया. अंतिम बात यह कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की पोलितब्यूरो स्थायी समिति में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले शी की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही है कि- संभवतः दुनिया के सबसे शांत राष्ट्र भूटान के क्षेत्र पर कब्ज़ा करने की कोशिश में असफल होने पर हारे हुए व्यक्ति की तरह से बुरा-भला बोलते हुए उन्होने डोकलाम से सेना को वापस बुला लिया. राष्ट्रवादी सुधारक समझे जाने वाले शी की आक्रामक विदेश नीति के चलते जापान से ताइवान तक इसके पड़ोसी भय और उसके प्रति घृणा का भाव रखते हैं. चीन के सबसे करीबी मैत्री-संबंध उत्तर कोरिया और पाकिस्तान जैसे असफल देशों से हैं जिनके वह साथ इसलिए करीब से जुड़ा है कि उन्हें जापान, अमेरिका और भारत के खिलाफ़ अपने प्रतिनिधियों के रूप में आगे कर सके.
राष्ट्रवादी सुधारक समझे जाने वाले शी की आक्रामक विदेश नीति के चलते जापान से ताइवान तक इसके पड़ोसी भय और उसके प्रति घृणा का भाव रखते हैं. चीन के सबसे करीबी मैत्री-संबंध उत्तर कोरिया और पाकिस्तान जैसे असफल देशों से हैं जिनके वह साथ इसलिए करीब से जुड़ा है कि उन्हें जापान, अमेरिका और भारत के खिलाफ़ अपने प्रतिनिधियों के रूप में आगे कर सके.
यही वजह है कि जब वैश्विक महाशक्ति अमेरिका अंतर्मुखी होते हुए बराबरी का जवाब देने की मुद्रा में है और उन नीतियों पर सवाल उठा रहा है जिनके कारण चीन की आर्थिक उन्नति संभव हुई, उस समय सभ्यताओं के प्रति सम्मान की ओर शी के झुकाव को राजनीतिक उच्चता के प्रदर्शन अथवा विदेश नीति संबंधी मौकापरस्ती से कुछ आगे की बात समझा जाना चाहिए. जब शी कहते हैं कि चीन सभी के लिए लाभपूर्ण स्थिति पैदा करने के उद्देश्य से बहिर्मुखी रुख अपना रहा है तो उसका वास्तविक अर्थ होता है कि चीन दोहरी जीत चाहता है. सभ्यताओं के संबंध में शी के कथ्य को कुछ विश्वसनीय तभी माना जा सकता था जब शी का उभार उसी सामंजस्य के अनुरूप रहा होता जिसकी वह बात कर रहे हैं, जब चीन का उभार दूसरे देशों में भय पैदा करने के बजाय उसके प्रति सम्मान के भाव के साथ हुआ होता या जब चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने शी पर ऐसा नियंत्रण रखा होता कि चीन की उन्नति दूसरों के मन में असहज अवमानना का भाव पैदा करने के बजाय अनुकरणीय बन सकी होती.
यही वजह है कि जब वैश्विक महाशक्ति अमेरिका अंतर्मुखी होते हुए बराबरी का जवाब देने की मुद्रा में है और उन नीतियों पर सवाल उठा रहा है जिनके कारण चीन की आर्थिक उन्नति संभव हुई उस समय सभ्यताओं के प्रति सम्मान की ओर शी के झुकाव को राजनीतिक उच्चता के प्रदर्शन अथवा विदेश नीति संबंधी मौकापरस्ती से कुछ आगे की बात समझा जाना चाहिए.
चीन के भीतर झांकने भर से पूरी दुनिया जान सकती है कि इस देश ने कितने बड़े पैमाने पर सभ्यताओं का ध्वंस किया है. संयुक्त राष्ट्र संघ की असफलता का प्रतीक बनी अंतरराष्ट्रीय त्रासदी के रूप में जनवरी 1950 में तिब्बत पर आक्रमण करने और उस पर कब्जा कर लेने के बाद चीन ने तिब्बत के सभी बौद्ध धर्मस्थलों को बंद कर दिया और क्षेत्र में चीनी कानून और रीति-रिवाज़ लाद दिए. तिब्बती परम्पराओं में विश्वास रखने वालों का कहना है कि नया दलाई लामा कोई भारतीय होगा. लेकिन शी ऐसा नहीं मानते. एक सम्पूर्ण राष्ट्र पर क्रूर आधिपत्य लादने वाला चीन ही तय करेगा कि 15वां दलाई लामा कौन होगा. इसके अतिरिक्त, नए दलाई लामा को न केवल चीनी कानूनों और नियमों का पालन करना होगा बल्कि उन्हें चीनी धार्मिक अनुष्ठानों और ऐतिहासिक परंपराओं का भी पालन करना होगा. उल्लेख़नीय है कि तिब्बती सभ्यता के संरक्षण के लिए तिब्बती समाज को भारत आना पड़ा था.
क सम्पूर्ण राष्ट्र पर क्रूर आधिपत्य लादने वाला चीन ही तय करेगा कि 15वां दलाई लामा कौन होगा. इसके अतिरिक्त, नए दलाई लामा को न केवल चीनी कानूनों और नियमों का पालन करना होगा बल्कि उन्हें चीनी धार्मिक अनुष्ठानों और ऐतिहासिक परंपराओं का भी पालन करना होगा. उल्लेख़नीय है कि तिब्बती सभ्यता के संरक्षण के लिए तिब्बती समाज को भारत आना पड़ा था.
इसी तरह चीन की पश्चिमी सीमा पर बसे एक करोड़ से भी अधिक उइघुर मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों का दमन चल रहा है. चीनी अधिकारी इन मुसलमानों का डीएनए और बायोमीट्रिक नमूना इकट्ठा करते हैं. ऐसे लोग जिनके रिश्तेदार चीन की निगाह में संवेदनशील 26 देशों में से किसी में भी हैं, उनको चिह्नित किया गया है और ऐसे लगभग 10 लाख लोगों को हिरासत में रखा गया है. उन्हें मजबूर किया जाता है कि वे अपने धर्म की आलोचना करें या उसका त्याग कर दें. विडंबना यह है कि उइघुर मुसलमानों का यह इलाका इस्लाम के आधार पर बने देश पाकिस्तान से लगती सीमा पर स्थित है फिर भी वह धर्म पर इस आक्रमण को वैध मानता है, क्योंकि चीन उसे आर्थिक मदद देने के साथ भारत का विरोध करने में प्रभावी मदद देता है. विडंबनाएं यहीं समाप्त नहीं होतीं : चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से वैचारिक साम्य रखने वाली भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां भी चुन-चुन कर इन अपराधों पर पर्दा डालती रहती हैं.
सभ्यताओं के सम्मान के बारे में शी द्वारा व्यक्त विचारों की असली सच्चाई यही है.
सभ्यताओं के बारे में अगर कुछ कहा जा सकता है तो वह यह है कि वे ऊंचे-नीचे रास्तों से होकर गुजरती हैं. इनमें से कुछ अपनी विरासतें बना पाती हैं तो कुछ दूसरी विरासतों को खो भी देती हैं.
कुछ कहने से पहले शी, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और चीन को इस बात पर फैसला करना होगा और उस पर अमल करना होगा कि वे असल में क्या चाहते हैं. यदि वे सभ्यताओं के सम्मान की बात करते हैं तो उन्हें पहले यह सम्मान देना होगा. यदि वे खुले बाजार की बात करते हैं तो उन्हें अपना बाजार भी खोलना होगा. अगर वे अन्य देशों के मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति के पक्षधर होना चाहते हैं तो उन्हें भारत के खिलाफ पाकिस्तान के साथ नजदीकी खत्म करनी होगी और ताइवान तथा दक्षिण चीन सागर के दूसरे देशों को धमकाना बंद करना होगा. इसके उलट, यदि सभ्यताओं के बारे में उनका 21वीं सदी का दृष्टिकोण छोटे राष्ट्रों को डराने-धमकाने और उनके संप्रभु अधिकारों को छीनने वाला ही है तो बेहतर होगा कि वह साफ-साफ बात करे और भव्य वैश्विक कथ्य का निर्माण करने वाले सुंदर, चमकदार लेकिन अर्थहीन शब्दों का सहारा लेने की दिखावेबाजी बंद करे.
सभ्यताओं के बारे में अगर कुछ कहा जा सकता है तो वह यह है कि वे ऊंचे-नीचे रास्तों से होकर गुजरती हैं. इनमें से कुछ अपनी विरासतें बना पाती हैं तो कुछ दूसरी विरासतों को खो भी देती हैं. कुछ सभ्यताएं लोकतंत्र जैसी अनुकरणीय धाराओं का निर्माण करती हैं तो कुछ दूसरी सभ्यताएं मानवाधिकारों के उल्लंघन को छिपाने के लिए ‘स्थिरता’ जैसे शब्दों की आड़ लेती हैं. इस समय यह तय कर पाना मुश्किल है कि शी कैसी विरासत छोड़ना चाहते हैं – वह असली धारा जिसके अंतर्गत वह दुनिया के सभी देशों पर राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक तौर पर हावी होने की कामना करते हुए ऐसे काल्पनिक विदेश नीति कथ्य का निर्माण करना चाहते हैं जिस पर दुनिया अविश्वास के साथ हंसे; या, फिर वास्तव में इससे अलग, अपने कहे शब्दों के मुताबिक आचरण करते हुए दिखने और पुष्टि किए जाने लायक क्रियाकलापों के माध्यम से ऐसी दिशा में बढ़ना चाहते हैं जो चीन को वह सम्मान दिला सके जिसकी उसे अपने ‘अपमान की सदी’ के बाद से तलाश है.
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