Author : Kabir Taneja

Published on Jul 20, 2021 Updated 0 Hours ago

अफ़ग़ानिस्तान के सुदूर उत्तरी प्रांत बदख्शां के वाख़ान गलियारे में काफ़ी लंबे अरसे से चीन की दिलचस्पी बनी हुई है.

दुनिया में आतंकवाद: आतंकवादियों के ख़िलाफ़ चीन का रुख़ अमेरिका से कितना अलग?

दिसंबर 2020 में अफ़ग़ानिस्तान में चीन के कथित जासूसों को हिरासत में ले लिया गया था. बताया जाता है कि ये जासूस तालिबान समर्थित हक़्क़ानी नेटवर्क के संपर्क में थे. इस प्रकरण से चीन की आतंकवाद-विरोधी कार्रवाइयों और नीतियों की झलक मिली. आमतौर पर चीन के संदर्भ में इस तरह के खुलासे बेहद विरले ही होते हैं. अफ़ग़ानिस्तान के सुदूर उत्तरी प्रांत बदख्शां के वाख़ान गलियारे में काफ़ी लंबे अरसे से चीन की दिलचस्पी बनी हुई है. वैसे तो ये गलियारा भौगोलिक तौर पर ज़मीन का एक पतला सा हिस्सा है लेकिन यहीं पर ताजिकिस्तान, पाकिस्तान और चीन की सीमाएं आपस में मिलती हैं. दरअसल चीन की अल्पसंख्यक वीगर मुस्लिम आबादी में उग्रवादी गतिविधियों का प्रसार इसी इलाक़े से होता है. लिहाजा चीन इस इलाक़े में अपना सिक्का जमाकर वीगरों और उनमें पनप रही उग्रवादी भावनाओं पर काबू पाना चाहता है. कुछ अरसा पहले ऐसी ख़बरें भी आई थीं कि चीन यहां अपना फ़ौजी ठिकाना जमाने पर विचार कर रहा है. हालांकि, वाख़ान से सिर्फ़ 12 किमी दूर ताजिकिस्तान में पहले से ही चीन का सैन्य अड्डा मौजूद है. इतना ही नहीं आधिकारिक और पर्दे के पीछे, दोनों ही तरीकों से तालिबान के साथ चीन का संपर्क बरकरार है.

आतंकवाद का मुक़ाबला करने को लेकर चीनी रुख़ के साथ कुछ बुनियादी समस्याएं हैं. इसकी बड़ी वजह यही है कि चीन ने नॉन-स्टेट एक्टर द्वारा चीनी समाज और राजनीति के सामने प्रस्तुत ख़तरों, हिंसा और उनके प्रभावों और प्रकारों को शायद ही कभी स्पष्ट तरीके से परिभाषित किया है. आतंकवाद के ख़तरों को लेकर चीन का दृष्टिकोण साफ़ नहीं है. स्वतंत्र रूप से इसकी तस्दीक करने का कोई ज़रिया भी नहीं है. ऐसे में आतंकवाद से निपटने को लेकर चीन की सोच धुंधली बनी हुई है. 

आतंकवाद के ख़तरों को लेकर चीन का दृष्टिकोण साफ़ नहीं है. स्वतंत्र रूप से इसकी तस्दीक करने का कोई ज़रिया भी नहीं है. ऐसे में आतंकवाद से निपटने को लेकर चीन की सोच धुंधली बनी हुई है. 

हालांकि, इसका ये मतलब नहीं है कि चीन आतंकवाद को लेकर चिंतित नहीं है या फिर आतंकवाद के ख़िलाफ़ अपनी या अपने हितों की रक्षा के लिए उसने क़दम नहीं उठाए हैं. चीन ने ज़बरदस्त आर्थिक तरक्की की है. आर्थिक और राजनीतिक हैसियत के मामले में अब वो अमेरिका को टक्कर दे रहा है. उसके विशाल बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) प्रोजेक्ट से ये बात ज़ाहिर भी होती है. ऐसे में आतंकवाद के प्रति चीन का नज़रिया उसकी भौगोलिक सरहदों तक ही सीमित रहने वाला नहीं है. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने हितों की रक्षा के लिए चीन का दृष्टिकोण लगातार विस्तारवादी होता चला गया है.

वीगर मुसलमानों के ख़िलाफ़ माहौल

चीन ने साल 2014 से वीगरों और उनसे जुड़े संगठनों के ख़िलाफ़ आक्रामक कार्रवाई चालू कर दी थी. उस साल मार्च में कुनमिंग में चाकूबाज़ी की बड़ी घटना हुई थी. उसके बाद मई में उरुमकी में कार बम धमाका हुआ था, जिसमें दर्ज़नों लोग मारे गए थे. इससे पहले अक्टूबर 2013 में बीजिंग के थियानमेन चौक पर कार बम हमला हुआ था. तुर्किस्तान इस्लामिक पार्टी (जिसे अन्य नामों के साथ-साथ पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामिक पार्टी या ईटीआईएम के नाम से भी जाना जाता है) ने “जिहादी कार्रवाई” बताकर इस वारदात की ज़िम्मेदारी ली थी. हालांकि, सार्वजनिक तौर पर चीन ने ईटीआईएम के दावे को मानने से इनकार किया था. चीन का कहना था कि भले ही कार बम धमाका जानबूझकर किया गया, लेकिन उसका आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं था. हालांकि, यकीनन इसी घटना ने वीगरों के ख़िलाफ़ चीनी कार्रवाई की बुनियाद डाली थी. इसके बाद चीन ने शिनजियांग प्रांत की नस्ली बनावट को बदलने का फ़ैसला किया. एमी एच. लियु और केविन पीटर्स जैसे कुछ विद्वानों ने इसे शिनजियांग को चीन की मुख्य भूमि और वहां के बहुसंख्यक “हान समुदाय के रंग में रंगने” की कोशिश बताया है. 

वीगर मुस्लिमों के मुद्दे पर चीन जिस तरह से आगे बढ़ा है उससे इन बातों के उदाहरण मिलते हैं. चीन ने अपने अशांत प्रांत शिनजियांग में तथाकथित “सुधार कैंप” चालू किए हैं. इनमें वीगरों को बंदी बनाकर उन्हें चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के फ़रमानों के हिसाब से प्रशिक्षित किया जाता है. ज़ाहिर तौर पर उन्हें इस्लामी तालीम और तौर-तरीक़ों से दूर ले जाने की कोशिशें की जाती हैं. इसी कड़ी में चीन ने कई मस्जिदों और मजहबी इमारतों को नष्ट कर दिया है. वीगरों के ख़िलाफ़ अपनी इन नीतियों का विस्तार करते हुए चीन ने अपनी सरहदों के बाहर भी इस समुदाय से जुड़े लोगों को अपना निशाना बनाया है. हालांकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन की इन करतूतों की आलोचनाएं भी होती रही हैं.

चीन ने अपने अशांत प्रांत शिनजियांग में तथाकथित “सुधार कैंप” चालू किए हैं. इनमें वीगरों को बंदी बनाकर उन्हें चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के फ़रमानों के हिसाब से प्रशिक्षित किया जाता है. ज़ाहिर तौर पर उन्हें इस्लामी तालीम और तौर-तरीक़ों से दूर ले जाने की कोशिशें की जाती हैं. 

बहरहाल वीगर लोगों की दुर्दशा के मामले को अंतरराष्ट्रीय बिरादरी ने चीन के सामने एक आवाज़ से नहीं उठाया है. इस मुद्दे पर छिटपुट आवाज़ें ही सुनाई दी हैं. कनाडा और नीदरलैंड्स जैसे कुछ पश्चिमी देशों ने वीगरों के साथ चीन द्वारा किए जा रहे बर्ताव को नरसंहार की संज्ञा दी है. नवंबर 2020 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईटीआईएम को आतंकी संगठनों से जुड़ी अमेरिकी सूची से बाहर कर दिया था. वीगर संगठनों ने इस क़दम की प्रशंसा की थी. हालांकि, चीन ने अमेरिका के इस फ़ैसले को अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के प्रति उसका “दोहरा मापदंड” बताया था. यहां ये बात ग़ौरतलब है कि 2018 में अमेरिका ने तालिबान के ख़िलाफ़ जंगी कार्रवाई में वीगर लड़ाकों को निशाना बनाते हुए हवाई हमले तक किए थे

वीगरों के ख़िलाफ़ लड़ाई को चीन ने आतंकवाद के मोर्चे पर अपनी सबसे बड़ी चुनौती माना है. उसने अपनी राजसत्ता और तमाम हथकंडों का इस्तेमाल कर अपनी सरज़मीं और सीमा पार विदेशों तक वीगरों के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ रखी है. ईटीआईएम कोई नया गुट नहीं है. 2002 में ही अल-क़ायदा जैसे संगठनों से साठगांठ के चलते इसे संयुक्त राष्ट्र की आतंकी सूची में डाल दिया गया था. हाल के वर्षों की बात करें तो 2017 में इटीआईएम के लड़ाकों को तथाकथित इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस या जिसे अरबी में दायेश कहते हैं) के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते देखा गया था. इटीआईएम ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान अपने प्रचार अभियानों में शिनजियांग प्रांत में मारे गए सैकड़ों वीगरों से जुड़ी घटनाओं को प्रमुखता से शामिल किया है.

अलक़ायदा, आईएसआई और ईटीआईएम की तिकड़ी

ईटीआईएम के ख़िलाफ़ चीनी अभियान गुपचुप ढंग से चलता रहा है. इसमें चीन को उन मुट्ठीभर देशों का साथ मिला है जिन्हें वो सचमुच अपना साझीदार मानता है. इस तरह से चीन का आतंक-विरोधी अभियान कई बार भू-राजनीतिक दायरों तक पहुंचता रहा है. 2013 में तुर्किस्तान इस्लामिक पार्टी (टीआईपी) ने एक वीडियो जारी किया था. उसमें एक कैंप के भीतर छोटे बच्चों को हथियारों का प्रशिक्षण लेते दिखाया गया था. वीडियो से ऐसा लग रहा था मानो वो चीन के क़रीबी दोस्त पाकिस्तान की सरज़मीं में फ़िल्माया किया गया हो. हालांकि, कुछ तस्वीरें अफ़ग़ान सीमा के भीतर की भी लग रही थीं. बहरहाल चीन सिर्फ़ शिनजियांग के अंदर की गतिविधियों के चलते ही ईटीआईएम पर नज़र नहीं रख रहा बल्कि उसने तो मध्य एशिया और दक्षिण एशिया तक में उसकी आतंकी हरकतों को रेखांकित किया है. इन कोशिशों के ज़रिए चीन ईटीआईएम के ख़िलाफ़ राष्ट्रों के एक व्यापक समूह की गोलबंदी करने की ताक में है. हालांकि ईटीआईएम के ढांचे और नीचे से ऊपर तक के नेतृत्व के बारे में ठोस जानकारियों का अभाव है. ये संगठन और इसके अलग-अलग गुट जब-तब अपना नाम और रंग-रूप बदलते रहते हैं. 

तालिबान ने पिछले दो सालों में अफ़ग़ानिस्तान के भीतर अनेक फ़ौजी कामयाबियां हासिल की हैं. इतना ही नहीं उसने अपना राजनीतिक वजूद भी ऊंचा कर लिया है

बहरहाल अल-क़ायदा और आईएसआईएस जैसे अंतरराष्ट्रीय जिहादी संगठनों के साथ ईटीआईएम की नज़दीकी ग़ौर करने लायक है. आतंकवाद से लोहा ले रहे तमाम किरदारों (चीन समेत) में इस मसले पर एक राय होने की ज़रूरत है. यहां एक बात दिलचस्प और काबिल-ए-ग़ौर है. भले ही ईटीआईएम के साथ अल-क़ायदा की साठगांठ की बात जगज़ाहिर हो लेकिन अल-क़ायदा ने वैचारिक तौर पर कभी भी वीगर मुसलमानों के साथ चीन की बदसलूकियों को लेकर आक्रामक रुख़ नहीं दिखाया है. इस बात को समझने के लिए ये जानना ज़रूरी है कि सऊदी अरब (जहां दो सबसे पवित्र मस्जिदें स्थित हैं) समेत इस्लामिक दुनिया के एक बहुत बड़े हिस्से ने शिनजियांग में चीन की कार्रवाइयों का बचाव किया है. वैसे तो इन दोनों बातों में कोई सीधा पारस्परिक संबंध नहीं है, लेकिन वीगरों के ख़िलाफ़ चीन के बर्ताव पर इस्लामिक दुनिया का ठंडा रुख़ किसी से छिपा नहीं है. 

यहां ये बात भी दिलचस्प है कि इस्लामिक संगठनों ने अक्सर चीन और अमेरिका को अपने हिसाब से आमने-सामने खड़ा किया है. मिसाल के तौर पर शोधकर्ता इलियट स्टीवर्ट ने ध्यान दिलाया है कि 2014 में अपना दायरा बढ़ाने और अपने प्रचार अभियान को कामयाब बनाने के लिए आईएसआईएस ने अपने लड़ाकों के बीच वीगर मुसलमानों से जुड़ा वीडियो साझा किया था. उस समय आएसआईएस का सरगना रहे अबु बकर अल-बग़दादी ने “पूर्वी तुर्किस्तान (शिनजियांग)” को एक ऐसा इलाक़ा बताया था जहां मुसलमानों के अधिकार जबरन छीने जा रहे थे. दिलचस्प तौर पर आज आईएसआईएस ने चीन और शिनजियांग का ज़िक्र तक करना बंद कर दिया है. स्टीवर्ट ने इसे आईएसआईएस का रणनीतिक खेल बताया है. इसके तहत आईएसआईएस चीन को “अपने सबसे बड़े दुश्मन (यानी अमेरिका) का सबसे बड़ा दुश्मन” मानता है. यकीनन इससे बीजिंग के लिए भी आईएसआईएस तक अपनी पहुंच बनाने का रास्ता खुलता है. 

भले ही ईटीआईएम के साथ अल-क़ायदा की साठगांठ की बात जगज़ाहिर हो लेकिन अल-क़ायदा ने वैचारिक तौर पर कभी भी वीगर मुसलमानों के साथ चीन की बदसलूकियों को लेकर आक्रामक रुख़ नहीं दिखाया है.

तालिबान के साथ भी चीन ने ऐसा ही किया है. इससे न केवल इन आतंकी-जिहादी संगठनों में वीगर मुसलमानों की हिस्सेदारी और पनाह लेने पर रोक लग गई है, बल्कि उनके लक्ष्यों, अफ़सानों और प्रचार अभियानों से भी शिनजियांग का मुद्दा ग़ायब हो गया है. तालिबान ने पिछले दो सालों में अफ़ग़ानिस्तान के भीतर अनेक फ़ौजी कामयाबियां हासिल की हैं. इतना ही नहीं उसने अपना राजनीतिक वजूद भी ऊंचा कर लिया है. अमेरिका की थकी-हारी फ़ौज वापस लौट चुकी है. इन तमाम वजहों से तालिबान को जैसे एक जायज़ शक्ल मिल गई है. इन तमाम हालातों में दूसरे जिहादी संगठनों के मन में भी ऐसा ही दर्जा हासिल करने की हसरत जगेगी. इन इलाक़ों में अपनी जगह और रसूख़ तलाश रहे दूसरे भूराजनीतिक किरदारों में भी इन हसरतों को हवा देने की प्रवृति बढ़ेगी.

साल के शुरुआत में व्हाइट हाउस में हुए सत्ता परिवर्तन का चीन के प्रति अमेरिकी नीति पर कोई ख़ास असर पड़ने की संभावना नहीं है. आसार ऐसे ही हैं कि राष्ट्रपति जो बाइडेन भी अपने पूर्ववर्ती ट्रंप प्रशासन द्वारा अपनाई गई चीन के प्रति कठोर नीतियों के रास्ते पर ही आगे बढ़ेंगे. सीआईए के नए प्रमुख विलियम बर्न्स ने कहा है कि चीन के रूप में सामने खड़े एक “ताक़तवर और एकाधिकारवादी प्रतिद्वंदी” को पीछे धकेलना सीआईए प्रमुख के तौर पर उनके कार्यकाल का सबसे बड़ा लक्ष्य होगा. हक़ीक़त यही है अमेरिका आज कई अन्य देशों के सहयोग से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के ख़िलाफ़ एक नई सुरक्षा व्यवस्था के निर्माण की अगुवाई कर रहा है. दूसरी ओर अल-क़ायदा और आईएसआईएस के रूप में बीजिंग के सामने आतंकवाद की वही चुनौतियां खड़ी हैं जो बाक़ी दुनिया के सामने हैं. इसके बावजूद मोटे तौर पर चीन की आतंकवाद-विरोधी नीति निकट भविष्य में बाक़ी दुनिया से बिल्कुल अलग रहने वाली है.   

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