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इस पर्यावरण दिवस पर भागीदारों को ज़मीन के पुनसंरक्षण, सूखे के प्रति लचीलापन लाने और रेगिस्तान को फैलने से रोकने के प्रयास तेज़ करने होंगे.
यह लेख निबंध श्रृंखला ‘ये दुनिया का अंत नहीं है: विश्व पर्यावरण दिवस 2024’ का एक हिस्सा है.
इंसान की सेहत में पर्यावरण के कारक बहुत अहम भूमिका निभाते हैं. इनका अर्थव्यवस्था और समाज पर सीधा और अप्रत्यक्ष, दोनों तरह से असर होता है. मिसाल के तौर पर भारत में 1987 और 2002 में पड़े भयंकर सूखों ने बहुत व्यापक क्षेत्रों पर असर डाला था और इनकी वजह से पानी की क़िल्लत और फ़सलों की तबाही हुई थी, जिसके चलते बड़े पैमाने पर कुपोषण और बीमारियों का बोझ फैल गया था. इसी तरह 1930 और 1940 के दशक में दि डस्ट बाउल की वजह से सूखों और लगातार चलने वाले धूल भरे तूफ़ानों ने अमेरिका को तबाह कर दिया था. इसे बढ़ाने में ज़मीन का ख़राब रख-रखाव का भी योगदान रहा थे. इससे सांस की बीमारियां, ख़सरों के मरीज़ और मौत की दर बढ़ गए थे.
जब ज़मीन का क्षरण हो जाता है और इकोसिस्टम में बाधाएं पड़ती हैं, तो प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाता है, जिसका असर अन्य क्षेत्रों पर भी पड़ता है. तब इंसानों और जानवरों के बीच नज़दीकी बढ़ती है और जानवरों में होने वाली बीमारियां फैलने लगती हैं.
1994 में सूरत में फैली प्लेग की महामारी का ताल्लुक़, कचरे के ख़राब प्रबंधन और पर्यावरण के क्षरण से था. इससे इकोसिस्टम, स्वास्थ्य और बीमारियों के बीच बेहद महत्वपूर्ण आपसी संबंध का पता चलता है. जब ज़मीन का क्षरण हो जाता है और इकोसिस्टम में बाधाएं पड़ती हैं, तो प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाता है, जिसका असर अन्य क्षेत्रों पर भी पड़ता है (चित्र 1). तब इंसानों और जानवरों के बीच नज़दीकी बढ़ती है और जानवरों में होने वाली बीमारियां फैलने लगती हैं. जंगलों की कटाई, जीव जंतुओं के निवास स्थान में कमी और कृषि के विस्तार से भी जंगली जीव इंसानों के ज़्यादा नज़दीक आ जाते हैं, जिससे उनको होने वाली बीमारियां इंसानों में भी फैलने लगती हैं. इसके अतिरिक्त रेगिस्तान फैलने और सूखे से खाद्य और पानी की असुरक्षा बढ़ जाती है. फिर इसकी वजह से कुपोषण बढ़ता है और बीमारियों से लड़ने की क्षमता कम होती है, जिससे इंसान बीमारियों से लड़ने में और भी कमज़ोर हो जाते हैं. ज़मीन को बहाल करने और सूखे के प्रति लचीलापन निर्मित करने से सेहत के इन जोख़िमों को कम किया जा सकता है और स्वस्थ पर्यावरण का निर्माण भी किया जा सकता है.
चित्र 1: दुनिया भर में जानवरों से इंसानों में बीमारी फैलने का बढ़ता ख़तरा
Source: https://www.nature.com/articles/d41586-022-01312-y
5 जून को मनाया जाने वाला विश्व पर्यावरण दिवस, ज़मीन के संरक्षण, सूखे के प्रति लचीलापन लाने और रेगिस्तान बढ़ने से रोकने जैसी उन प्रमुख चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित करने का अवसर है, जो बहुत तरह से जनता की सेहत से जुड़े हुए हैं. वन हेल्थ फ्रेमवर्क, जो इंसानों, जानवरों और इकोसिस्टम की सेहत को मिलाकर एकीकृत व्यवस्था के तौर पर देखता है, वो इन जटिल मसलों को समझने और इनसे निपटने का एक उपयोगी नज़रिया उपलब्ध कराता है.
भूमि की बहाली, जिसमें ख़राब हो चुकी भूमि को फिर से संरक्षित करके उचित तरीक़ों से जैव विविधता, ज़मीन की उर्वरता और पानी रुकने की क्षमता में सुधार लाया जाता है, और फिर वो सूखे और रेगिस्तान फैलने के प्रभावों को कम करने में काफ़ी अहम योगदान देती है. भूमि की बहाली की कामयाब परियोजनाओं में अक्सर दोबारा जंगल लगाना, खेती के टिकाऊ तौर तरीक़े अपनाना और पानी के क़ुदरती संसाधनों को दोबारा ज़िंदा करना शामिल होता है. भारत के सूखाग्रस्त इलाकों में की गई पहलें, जैसे कि कुछ स्वयंसेवी संगठनों की अगुवाई में किए गए प्रयासों ने दिखाया है कि पानी को जमा करने के पारंपरिक तौर तरीक़े जैसे कि जोहड़ (पानी रोकने के लिए बनाए गए मिट्टी के छोटे छोटे बांध) से ज़मीन में नई जान डाली जा सकती है और स्थानीय समुदायों की सहायता की जा सकती है. ऐसी कोशिशों ने नदियों की तलहटी को फिर से जीवित किया है और भू-गर्भ जल के स्तर को सुधारकर, बंज़र ज़मीनों को उर्वर क्षेत्रों में तब्दील कर दिया है.
अध्ययनों ने दिखाया है कि जंगली जीवों की रिहाइश के प्राकृतिक इलाक़ों को दोबारा बहाल करने से जंगली जीवों और इंसान की आबादी के बीच संपर्क कम होता है और इससे जंगली जीवों की बीमारियां इंसानों तक पहुंचने का डर भी कम हो जाता है.
ज़मीन को फिर से उसकी पूर्व की अवस्था में ले जाने का जन स्वास्थ्य पर सीधा असर पड़ता है. स्वस्थ इकोसिस्टम, ऐसे प्राकृतिक माहौल को बनाए रखकर संक्रामक बीमारियों को फैलने से रोकते हैं, जहां इंसानों और जंगली जीवों की आबादी में संतुलन होता है. जब इकोसिस्टम में ख़लल पड़ता है, तो बीमारी फैलाने वाले जीव आसानी से जानवरों से इंसानों तक पहुंच जाते हैं. ये बात ख़ास तौर से उन इलाक़ों में होती देखी गई है, जहां सूखा पड़ने और रेगिस्तानीकरण की आशंका अधिक होती है. ज़मीन के पुनर्संरक्षण में निवेश करके, ऐसे स्वस्थ माहौल बनाए जा सकते हैं, जो बीमारियां फैलने के लिए कम मुफ़ीद होते हैं. भारतीय थल सेना की इको टास्कफोर्स ने उत्तराखंड में फिर से जंगल बहाल करने की परियोजनाओं को अपनी ज़िम्मेदारी में लिया है. इन परियोजनाओं से न केवल स्थानीय स्तर पर जैव विविधता बढ़ी है, बल्कि इंसानों और जंगली जीवों के बीच टकराव भी कम हुआ है, जिससे पर्यावरण की स्थिरता और जनता की सेहत बेहतर करने में योगदान मिला है. अध्ययनों ने दिखाया है कि जंगली जीवों की रिहाइश के प्राकृतिक इलाक़ों को दोबारा बहाल करने से जंगली जीवों और इंसान की आबादी के बीच संपर्क कम होता है और इससे जंगली जीवों की बीमारियां इंसानों तक पहुंचने का डर भी कम हो जाता है.
भूमि पुनर्स्थापना की परियोजनाओं में अक्सर स्थानीय समुदायों को शामिल किया जाता है. इससे कृषि उत्पादकता बढ़ने और जलवायु परिवर्तन के प्रति बढ़े हुए लचीलेपन का फ़ायदा स्थानीय लोगों को मिलना सुनिश्चित हो पाता है. समुदायों पर केंद्रित नज़रिए से टिकाऊ विकास को मज़बूती मिलती है और पर्यावरण के संरक्षण को लेकर जनता के बीच जागरूकता और आपस में सहयोग भी बढ़ता है. इस तरह से ज़मीन की बहाली, पारिस्थितिकी की सेहत और इंसानों की भलाई के बीच पुल का काम करती है. इससे ज़मीन के टिकाऊ प्रबंधन के बहुआयामी लाभ भी रेखांकित होते हैं.
पूरी दुनिया के उदाहरण, जैसे कि चीन के लोएस पठार में तेज़ी से भूमि संरक्षण और अफ्रीका में ग्रेट ग्रीन वॉल की पहल की कामयाबी दिखाती है कि ज़मीन के पुनर्संरक्षण से तुरंत ठोस फ़ायदे मिल सकते हैं, इनमें सेहत के लाभ भी शामिल हैं. इन परियोजनाओं से पानी की उपलब्धता बढ़ी है, हरियाली में इज़ाफ़ा हुआ है और लागू किए जाने के कुछ समय बाद ही स्थानीय जैव विविधता की वापसी हुई है. इससे ज़मीन के संरक्षण के प्रयासों के त्वरित प्रभाव और असरदार होने पर भी मुहर लगती है. दोबारा संरक्षित की गई ज़मीनें, पानी और हवा की गुणवत्ता में सुधार लाकर जनता की सेहत बेहतर बनाती हैं. इनसे खाद्य सुरक्षा और पोषण को बढ़ावा मिलता है, मानसिक सेहत बेहतर करने में मदद मिलती है, शहरी इलाक़ों में गर्मी कम होती है, और प्राकृतिक आपदाओं का कुप्रभाव भी कम होता है.
जलवायु लगातार के बदले स्वरूप को देखते हुए खेती की उत्पादकता और जन स्वास्थ्य को टिकाऊ बनाने में सूखे के प्रति लचीलापन लाने की भूमिका अहम हो जाती है. खेती के पारंपरिक तरीक़ों को जब नई-नई तकनीकों के साथ इस्तेमाल किया जाता है, तो पानी के इस्तेमाल में कुशलता और फसलों में लचीलापन आता है. उदाहरण के लिए, वो फसलें जिन पर सूखे का असर नहीं होता और सिंचाई के उन्नत तरीक़े किसानों को पानी की कमी होने पर भी फसल की उपज बनाए रखने में मददगार साबित हो सकते हैं. इन तरीकों से खाद्य की आपूर्ति और पोषण सुरक्षित होते हैं और इसके साथ साथ सूखे से जुड़े आर्थिक और सामाजिक दबाव भी कम हो जाते हैं.
सूखे के सेहत पर पड़ने वाले प्रभाव खाने और पानी की असुरक्षा के दायरे से कहीं अधिक होते हैं. लंबे समय तक सूखे की स्थिति रहने से कुपोषण, धूल के तूफ़ानों की वजह से सांस की समस्याएं और आर्थिक चुनौतियों की वजह से मानसिक स्वास्थ्य के मसले भी खड़े होते हैं.
सूखे के प्रति लचीलेपन के प्रयासों में नदियों, झीलों और जल क्षेत्रों जैसे पानी के प्राकृतिक स्रोतों को बहाल करना और उन्हें सुरक्षित बनाना भी शामलि होता है. ये इकोसिस्टम पानी का चक्र बनाए रखने और जैव विविधता लाने में मददगार होते हैं. पानी के संसाधनों को दोबारा ज़िंदा करने में पानी ठहरने वाले इलाक़ों में दोबारा पेड़ लगाना, प्रदूषण को रोकना और टकराव थामने के लिए बफ़र ज़ोन बनाना भी शामिल है. ऐसी पहलों से सूखे के दौरान पानी की उपलब्धता सुनिश्चित होती है, जिसका लाभ इंसानों के साथ साथ जंगली जीवों को भी होता है.
सूखे के सेहत पर पड़ने वाले प्रभाव खाने और पानी की असुरक्षा के दायरे से कहीं अधिक होते हैं. लंबे समय तक सूखे की स्थिति रहने से कुपोषण, धूल के तूफ़ानों की वजह से सांस की समस्याएं और आर्थिक चुनौतियों की वजह से मानसिक स्वास्थ्य के मसले भी खड़े होते हैं. सूखे के प्रति लचीलेपन को बढ़ावा देकर स्वास्थ्य के इन जोखिमों को कम किया जा सकता है और अधिक लचीले समुदायों का निर्माण किया जा सकता है. हमारे लिए एक ऐसा व्यापक नज़रिया अपनाना ज़रूरी है, जो पर्यावरण के प्रबंधन को जनस्वास्थ्य की रणनीतियों के साथ जोड़ता हो. इससे सूखे के प्रति लचीलापन लाने के प्रयासों का, पानी की क़िल्लत से जुड़े व्यापक दुष्प्रभावों से निपटने में सक्षम होना सुनिश्चित किया जा सकता है.
रेग़िस्तान का फैलना एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें उपजाऊ ज़मीन रेग़िस्तान में तब्दील हो जाती है. ये जलवायु परिवर्तन की वजह से बढ़ रहा एक और ख़तरा है. इससे उर्वर ज़मीन का नुक़सान होता है, जैव विविधता कम हो जाती है और स्थानीय अर्थव्यवस्थाएं भी बाधित हो जाती हैं. रेग़िस्तान फैलने से रोकने के लिए इसकी रोकथाम, इसे कम करने और बहाल करने की मिली जुली रणनीति अपनाने की ज़रूरत होती है और इसके लिए दोबारा वन लगाने, ज़मीन के टिकाऊ प्रबंधन के तौर तरीक़े अपनाने और सूखे से लड़ सकने वाले पेड़ पौधे लगाना शामिल है, जो रेग़िस्तान को फैलने से न सिर्फ़ रोकते हैं, बल्कि इसकी गति को भी उलट देते हैं.
रेग़िस्तान फैलने से रोकने पर जनता की सेहत का सीधा लाभ मिलता है. ख़राब हो चुकी ज़मीनों पर धूल भरे तूफ़ान आने का डर अधिक होता है, जिससे सांस की तकलीफ़ हो सकती है और बीमारियां फैलाने वाले जीव भी तेज़ी से फैलते हैं. इसके अलावा, उपजाऊ ज़मीन कम होने से खाने की कमी और कुपोषण हो जाता है, जो रोगों से लड़ने की क्षमता पर असर डालता है. मिट्टी को स्थिर करके और हरियाली को बहाल करके हम हवा की गुणवत्ता सुधार सकते हैं, खाद्य सुरक्षा बढ़ा सकते हैं और प्रभावित समुदायों के रहने के लिए स्वस्थ माहौल निर्मित कर सकते हैं. रेग़िस्तान फैलने के बहुआयामी दुष्प्रभावों के प्रति लचीलापन निर्मित करने के लिहाज़ से ये कोशिशें बहुत अहम हैं.
पर्यावरण को टिकाऊ बनाने और जनता की सेहत सुरक्षित रखने के लिए ये कोशिशें बेहद महत्वपूर्ण हैं. ‘वन हेल्थ’ का तरीक़ा आपस में जुड़ी हुई इन चुनौतियों को समझने और इनसे निपटने की एक व्यापक रूप-रेखा मुहैया कराता है, और पर्यावरण एवं स्वास्थ्य की रणनीतियों को एकजुट करके हम सबके लिए अधिक लचीला और टिकाऊ भविष्य निर्मित कर सकते हैं.
रेग़िस्तान फैलने से रोकने के ख़िलाफ़ लड़ाई में वैश्विक सहयोग और जानकारी साझा करना बेहद महत्वपूर्ण है. जो देश एक जैसी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, वो एक दूसरे के अनुभवों से सीख सकते हैं और अपने यहां की ज़रूरतों के मुताबिक़ समाधान लागू कर सकते हैं. संयुक्त राष्ट्र की रेग़िस्तान फैलने से रोकने की संधि (UNCCD) जैसी अंतरराष्ट्रीय रूप-रेखाएं आपसी तालमेल और सहयोग के लिए महत्वपूर्ण मंच मुहैया कराते हैं. एक साथ मिलकर काम करते हुए सभी देश रेग़िस्तान फैलने से रोकने के लिए प्रभावी रणनीतियां विकसित करके उन्हें अधिक असरदार तरीक़े से लागू कर सकते हैं, इससे इन कोशिशों का अधिक तालमेल वाला और व्यापक होना सुनिश्चित किया जा सकता है.
इस विश्व पर्यावरण दिवस पर सरकारें, निजी क्षेत्र और समुदायों जैसे तमाम भागीदारों को ज़मीन के पुनर्संरक्षण की कोशिशों को तेज़ करने की ज़रूरतों को स्वीकार करके ज़रूरी क़दम उठाने चाहिए. इसके साथ साथ उन्हें सूखे के प्रति लचीलेपन में सुधार लाना और रेग़िस्तान को फैलने से रोकना होगा. पर्यावरण को टिकाऊ बनाने और जनता की सेहत सुरक्षित रखने के लिए ये कोशिशें बेहद महत्वपूर्ण हैं. ‘वन हेल्थ’ का तरीक़ा आपस में जुड़ी हुई इन चुनौतियों को समझने और इनसे निपटने की एक व्यापक रूप-रेखा मुहैया कराता है, और पर्यावरण एवं स्वास्थ्य की रणनीतियों को एकजुट करके हम सबके लिए अधिक लचीला और टिकाऊ भविष्य निर्मित कर सकते हैं. आपसी तालमेल के प्रयासों और तमाम सेक्टरों और विषयों में नए नए समाधानों के माध्यम से हम अपनी धरती को सुरक्षित बना सकते हैं, और दुनिया भर के समुदायों की सेहत और भलाई में सुधार ला सकते हैं.
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Oommen C. Kurian is Senior Fellow and Head of Health Initiative at ORF. He studies Indias health sector reforms within the broad context of the ...
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