Published on Oct 30, 2023 Updated 27 Days ago

केंद्र और राज्यों की विधायिकाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण ऐतिहासिक है, क्योंकि ये भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की सख़्त ज़रूरत पूरी करने का रास्ता खोलता है. 

महिला आरक्षण का क़ानून: महिलाओं की व्यापक सियासी भागीदारी की ज़रूरत

हाल ही में भारत की संसद, एक ऐतिहासिक लम्हे की गवाह बनी, जब इसके दोनों सदनों ने लगभग आम सहमति से बहुप्रतीक्षित महिला आरक्षण विधेयक को पारित कर दिया. ये बिल सितंबर में संसद के विशेष सत्र के दौरान तमाम राजनीतिक दलों के समर्थन के साथ पारित किया गया. सबसे अहम बात तो ये रही कि संसद में इस विधेयक पर चर्चा की अगुवाई देश की महिला नेताओं ने की. राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद महिला आरक्षण विधेयक एक क़ानून बन गया, जिसका नाम ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम 2023’ है.

नारी शक्ति वंदन अधिनियम, 106वां संविधान संशोधन क़ानून है. इसमें लोकसभा, राज्यों की विधानसभाओं और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधानसभा की एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित किए जाने का प्रावधान है.

नारी शक्ति वंदन अधिनियम, 106वां संविधान संशोधन क़ानून है. इसमें लोकसभा, राज्यों की विधानसभाओं और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधानसभा की एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित किए जाने का प्रावधान है. इस आरक्षण के दायरे में लोकसभा और विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों (SCs) और जनजातियों (STs) के लिए आरक्षित सीटें भी आएंगी. ये क़ानून तब लागू होगा, जब जनगणना हो जाएगी और उसके बाद चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन का काम पूरा हो जाएगा, तब महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें आवंटित की जाएंगी. शुरुआत में महिलाओं के लिए ये आरक्षण 15 साल के लिए लागू होगा. लेकिन, संसद से विधेयक पारित करके इसे आगे भी बढ़ाया जा सकेगा. इसके अलावा, संसद से पारित क़ानून के मुताबिक़, हर परिसीमन के बाद महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें बदलती रहेंगी.

ऐतिहासिक विवरण

आज़ादी के बाद संविधान निर्माण के दौरान, संविधान सभा ने अनुसूचित जातियों (SCs) और जनजातियों (STs) के लिए तो सीटें आरक्षित की थीं. लेकिन उस वक़्त, चुनावी राजनीति में महिलाओं के लिए आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं की गई थी. 1992 में भारतीय संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के ज़रिए स्थानीय निकायों यानी नगर निकायों और पंचायतों में कम से कम एक तिहाई सीटें आरक्षित की गई थीं. उसके बाद से संसद और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण लागू करने की ज़रूरत महसूस की जा रही थी. पिछले तीन दशकों के दौरान इस पर काफ़ी बहस होती रही थी. इससे पहले भी इस मामले में क़ानून पारित करने की कोशिशें की गई थीं.

वैसे तो विधायिकाओं में महिला सदस्यों की संख्या में समय के साथ साथ काफ़ी इज़ाफ़ा हुआ है. लेकिन, संसद में महिलाओं की संख्या क़रीब 15 प्रतिशत और राज्यों की विधानसभाओं में 10 फ़ीसद से ज़्यादा नहीं बढ़ सकी है. पिछले कई बरसों के दौरान हुए अध्ययनों में राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय विधायिकाओं में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने की ज़रूरत पर बल दिया गया. मिसाल के तौर पर नेशनल पॉलिसी फॉर एम्पावरमेंट ऑफ विमेन (2001) और, भारत में महिलाओं की स्थिति पर रिपोर्ट (2015) में संसद और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने की ज़रूरत बताई गई थी. संसद से महिलाओं के लिए आरक्षण लागू करने का बिल पारित कराने की कोशिशें, 1996, 1998, 1999 और 2008 में की गई थीं. 2010 में राज्यसभा ने लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने का बिल पारित कर दिया था. लेकिन, इस विधेयक को लोकसभा की मंज़ूरी नहीं मिल सकी थी. 

पिछले कई बरसों के दौरान हुए अध्ययनों में राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय विधायिकाओं में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने की ज़रूरत पर बल दिया गया.

इसीलिए, पिछले कुछ वर्षों के दौरान देश के विधायी ढांचे में महिलाओं की अधिक भागीदारी सुनिश्चित करने की लोकतांत्रिक ज़रूरत को समझने के लिए राजनीतिक जागरूकता बढ़ाने और पार्टियों के बीच आम सहमति बनाने की लंबी प्रक्रिया चलती रही. अब जबकि महिला आरक्षण विधेयक को संसद के दोनों सदनों से पारित कर दिया गया है, तो ये बिल्कुल उचित समय है जब हम भारत की लोकतांत्रिक परिचर्चाओं में इस क़ानून की अहमियत पर एक नज़र डाल लें.

महिला आरक्षण क़ानून की अहमियत पर एक नज़र

हाल ही में पारित क़ानून का मक़सद लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या बढ़ाकर 181 करना और राज्यों की विधानसभाओं में उनकी तादाद बढ़ाकर 2000 करना है. ये लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं की नुमाइंदगी में अब तक का सबसे उल्लेखनीय इज़ाफ़ा होगा. इससे चुनावी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी और राष्ट्रीय से लेकर राज्य स्तर तक महिला नेता बड़ी तादाद में भारत की विधायी प्रक्रिया का हिस्सा बनेंगी.

इतिहास इस तथ्य का गवाह रहा है कि समाज का पितृसत्तात्मक ढांचा चुनावी राजनीति में महिलाओ की अधिक भागीदारी में बाधा बनता रहा है. ये ताना-बाना कई बार हिंसक उथल-पुथल भरा भी हो जाता है. अब चूंकि नए क़ानून से चुनावी मैदान और विधायिकाओं में महिलाओं की अधिक तादाद सुनिश्चित की जा सकेगी, तो सियासत में महिला राजनीतिज्ञों के लिए मुफ़ीद माहौल बन सकेगा. अध्ययनों से भी ये पता चला है कि ‘पुरुषों की तुलना में महिला क़ानून निर्माता, समाज की ज़रूरतों के प्रति अधिक जवाबदेह, संवेदनशील, ईमानदार और सहयोग की भावना रखने वाली होती हैं. महिला सांसद और विधायक, स्वास्थ्य शिक्षा, कल्याण, पर्यावरण और सामाजिक न्याय से जुड़े मसलों को प्राथमिकता देने के प्रति झुकाव रखती हैं. ये सारे मुद्दे मानवीय विकास को आगे बढ़ाने में काफ़ी अहमियत रखते हैं.’ इसीलिए, महिला क़ानून निर्माताओं की अधिक संख्या में मौजूदगी से भारत में विधायी परिचर्चा में सुधार आने की उम्मीद की जा सकती है.

ये भी देखा गया है कि संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के लागू होने के बाद से पिछले तीन दशकों के दौरान, स्थानीय प्रशासन के शहरी और स्थानीय निकायों में महिलाओं की भागीदारी में काफ़ी सुधार आया है. स्थानीय स्तर पर सीटें आरक्षित होने से ज़मीनी स्तर पर महिलाओं के सशक्तिकरण में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हुआ है. जैसा कि एक ताज़ा रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में स्थानीय निकायों की लगभग 44 प्रतिशत सीटों पर महिलाएं क़ाबिज़ हैं. ये एक महत्वपूर्ण रिकॉर्ड है और इससे दुनिया में स्थानीय स्तर पर महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण में भारत, फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी और जापान जैसे उन्नत देशों को पछाड़कर दुनिया के सर्वश्रेष्ठ देशों की क़तार में खड़ा हो जाता है. भारत में स्थानीय निकायों में महिलाओं की ये भागीदारी, वैश्विक औसत 34.3 प्रतिशत से भी अधिक है.

स्थानीय राजनीति में महिलाओं की लगातार बढ़ती भागीदारी और आरक्षण की वजह से महिला नेताओं की हस्ती में वृद्धि से राष्ट्रीय और राज्य स्तर की राजनीति में महिलाओं की अधिक भागीदारी का ब्लूप्रिंट, नारी शक्ति वंदन अधिनियम क़ानून लागू होने से पहले से ही तैयार है.

वैसे तो महिलाओं को पुरुष नेताओं द्वारा कठपुतली की तरह इस्तेमाल किए जाने को लेकर भी व्यापक आशंकाएं जताई गई हैं. लेकिन, हाल के अध्ययन बताते हैं कि नेतृत्व के कौशल के प्रशिक्षण कार्यक्रमों के साथ साथ सार्वजनिक जीवन में भागीदारी से, भारत के स्थानीय राजनीतिक परिदृश्य में बहुत सी कुशल और सक्षण महिला नेताओं को उभरने का मौक़ा मिला है. स्थानीय राजनीति में महिलाओं की लगातार बढ़ती भागीदारी और आरक्षण की वजह से महिला नेताओं की हस्ती में वृद्धि से राष्ट्रीय और राज्य स्तर की राजनीति में महिलाओं की अधिक भागीदारी का ब्लूप्रिंट, नारी शक्ति वंदन अधिनियम क़ानून लागू होने से पहले से ही तैयार है.

राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय विधायिकाओं में महिलाओं के आरक्षण का क़ानून ऐतिहासिक है, क्योंकि इससे भारत की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की बहुप्रतीक्षित और लंबे समय से अपेक्षित ज़रूरत पूरी करने का रास्ता खुल गया है. राष्ट्रीय और राज्य स्तर की विधायिकाओं में महिलाओं की बढ़ी हुई हिस्सेदारी से न केवल विधायी परिचर्चाओं में महिलाओं की आवाज़ बुलंद होगी, बल्कि इससे भारत के संसदीय लोकतंत्र के ढांचे के भीतर सत्ता के तमाम संस्थानों तक महिला नेताओं की पहुंच बढ़ने के अवसर भी निकलेंगे.

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