-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
भारत में नीतिगत स्तर पर मोटर चालित परिवहन को तरज़ीह देने के पीछे सोच ये है कि इससे अवसरों तक पहुंच और कुल मिलाकर विकास को बढ़ावा मिलेगा.
ये लेख, कॉम्प्रिहेंसिव एनर्जी मॉनिटर: इंडिया ऐंड दि वर्ल्ड सीरीज़ का एक भाग है
वैसे तो भारत में मोटर चालित परिवहन ज़्यादातर ‘दो पहिया’ वाला है. मगर परिवहन अपने आप में ही ‘दो पैरों वाला’ है, क्योंकि अभी भी परिवहन का प्रमुख तरीक़ा ‘पैदल चलना’ ही है. सितंबर 2023 में कुल रजिस्टर्ड 35.2 करोड़ गाड़ियों में से लगभग 73 प्रतिशत, दोपहिया वाहन हैं. अगर दोपहिया और तिपहिया वाहनों को अलग कर दें, तो 2023 में भारत में हर एक हज़ार लोगों पर 58 गाड़ियां हैं. वैसे तो ये 2012 की तुलना में चार गुना बढ़ोतरी है. लेकिन, बहुत से विकसित देशों की तुलना में ये अब भी बहुत कम है, जहां ये अनुपात 800 का है. एक मोटे अनुमान के मुताबिक़ भारत की लगभग आधी आबादी पैदल या फिर साइकिल से काम पर जाती है. ये लोग सड़कों पर तमाम तरह के जोखिमों का सामना करते हैं. इसकी एक वजह तो ये है कि भारत की सड़कें वाहनों पर केंद्रित हैं, और दूसरी वजह ये भी है कि भारत में गाड़ी चलाने का चलन पैदल और साइकिल से चलने वालों के विरोध वाला है. भारत में नीतिगत स्तर पर मोटरगाड़ी से आवाजाही (यहां तक कि इलेक्ट्रिक गाड़ियां) को इसलिए अहमियत दी जाती है, क्योंकि ये माना जाता है कि प्रति व्यक्ति मोटरगाड़ी की उपलब्धता बढ़ने से निश्चित रूप से अवसरों और कुल मिलाकर विकास में वृद्धि होगी.
भारत में नीतिगत स्तर पर मोटरगाड़ी से आवाजाही को इसलिए अहमियत दी जाती है, क्योंकि ये माना जाता है कि प्रति व्यक्ति मोटरगाड़ी की उपलब्धता बढ़ने से निश्चित रूप से अवसरों और कुल मिलाकर विकास में वृद्धि होगी.
परिवहन या आवाजाही आम तौर पर यात्री और माल ढोने का ज़रिया हैं. लेकिन, अक्सर सार्वजनिक नीति में आवाजाही को अपने आप में एक मक़सद या फिर पहुंच का एक विकल्प माना जाता है. मिसाल के तौर पर विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति परिवहन की खपत को भारत के विकास की एक अहम समस्या के तौर पर देखा जाता है (ठीक उसी तरह जैसे कि विकास की अन्य वस्तुएं मसलन ऊर्जा). इस चुनौती से निपटने के लिए नीतिगत क़दमों के तौर पर सड़कें, कई लेन वाले हाईवे , शहरी और राष्ट्रीय रेल नेटवर्क, हवाई अड्डे और बंदरगाहों का निर्माण किया जाता है, ताकि मोटर वाहन पर आधारित आवाजाही के संसाधनों की उपलब्धता बढ़ाई जा सके. इसके अलावा, सीधी और अप्रत्यक्ष सब्सिडी के ज़रिए सरकारी नीति भी निजी वाहनों का मालिकाना हक़ बढ़ाने को प्रोत्साहन देती है. जबकि ये बात सबको पता है कि निजी मोटर गाड़ियां का चलन अपनी असली क़ीमत यानी ऊर्जा की क़ीमतों, प्रदूषण और जाम जैसी दिक़्क़तों के ज़रिए वसूल करता है.
चूंकि ये बात भी सच है कि लोगों को आवाजाही की कोई ज़रूरत होती नहीं है. बल्कि उन्हें पहुंच के उस स्तर की आवश्यकता होती है, जिससे वो उन गतिविधियों में भाग ले सकें, जो आपस में स्थान की दृष्टि से जुड़ी हुई नहीं होतीं. जैसे कि नौकरियां, ख़रीदारी और स्कूल जाना. भारत में निजी मोटरवाहन से आवाजाही में विकास की दर ये बताती है कि अवसरों तक पहुंच मांग और आपूर्ति में अंतर है. जैसे किसी एक जगह की तुलना में दूसरे स्थान पर नौकरी की उपलब्धता में अंतर, और इसके अलावा सार्वजनिक परिवहन के साधन भी अपर्याप्त रूप से उपलब्ध होते हैं.
शहरी क्षेत्रों में आवाजाही आम तौर पर श्रम बाज़ार की उपलब्धता में स्थान के असंतुलन की समस्याओं का समाधान होती है, जो रोज़गार के अवसरों के बरक्स श्रम के असमान वितरण के रूप में दिखाई देती है. अप्रवास की तरह बाहरी इलाक़ों की तरफ़ आवाजाही भी उपलब्ध रोज़गार और कामगारों के आवास के बीच स्थान के अंतर को पाटने का ज़रिया होती है. अप्रवास के उलट, ये उन इलाक़ों में निजी और सामुदायिक निवेश का लाभ उठाने का माध्यम भी होती है, जहां ‘विकास’ का अभाव होता है. पिछले दो दशकों में भारत के बड़े शहरों के आस–पास विकसित हुए उपनगरीय इलाक़े इस बात की गवाही देते हैं. इन उप–नगरीय इलाक़ों से बाहर के इलाक़ों की आवाजाही बची खुची संपत्ति की उपलब्धता पर बहुत अधिक निर्भर होते हैं, जो किसी शहर के अहम कारोबारी इलाक़ों तक काम के लिए आने–जाने के बोझ की तुलना में बहुत कम क़ीमत पर उपलब्ध होते हैं.
कामगारों के रोज़ के सफ़र से किसी बड़े शहर के अविकसित इलाक़ों को अधिक समृद्ध कारोबारी स्थानों से जोड़ते हैं, और इस तरह अधिक विकसित इलाक़ों की समृद्धि एक बड़ा हिस्सा उन उप-नगरीय स्थानों की ओर स्थानांतरित करते हैं
वैसे तो दूरगामी संतुलन में बाहर को आवाजाही बहुत कम होती है. लेकिन, ये इस बात के अनुरूप नहीं है कि बाहरी इलाक़ों की तरफ़ आना–जाना केवल फ़ौरी हितों वाला अस्थायी चलन होता है. ये नौकरी के अवसरों में स्थान के अंतर को पाटने का एक अहम ज़रिया बना रहेगा और जैसे जैसे आर्थिक बदलाव रफ़्तार पकड़ रहे हैं,और रोज़मर्रा की आवाजाही का दायरा बढ़ रहा है, वैसे वैसे इस आवाजाही की महत्ता भी बढ़ती जाएगी. बाहरी इलाक़ों की तरफ़ आवाजाही ने समुचित स्थान पर रोज़गार की अनुपलब्धता की समस्या का समाधान, आवाजाही का बोझ श्रमिक पर डालकर निकाला है. ऐसे कामगारों के रोज़ के सफ़र से किसी बड़े शहर के अविकसित इलाक़ों को अधिक समृद्ध कारोबारी स्थानों से जोड़ते हैं, और इस तरह अधिक विकसित इलाक़ों की समृद्धि एक बड़ा हिस्सा उन उप-नगरीय स्थानों की ओर स्थानांतरित करते हैं, जहां अभी कुछ दिनों पहले तक या तो खेती होती थी या वो अनुपजाऊ इलाक़े थे.
उपनगरीय इलाक़ों का विकास, यानी बड़े शहरों के इर्द–गिर्द छोटे उपनगरों का विकास असल में सरकार द्वारा स्थान के स्तर पर संस्थागत योजना के अभाव के कारण बाज़ार द्वारा हालात को अपने हाथ में लेने से होता है. स्थान संबंधी योजना से मोटर वाहनों से आवाजाही घटाने में जो संभावित योगदान होता है, और फिर इससे पर्यावरण पर जो प्रभाव पड़ता है, वो बात बहुत से ज़मीनी अध्ययनों से साबित हो चुकी है. ये अध्ययन इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत में अंतर का एक तिहाई हिस्सा तो, ज़मीन के इस्तेमाल का नतीजा होता है.
औद्योगिक देशों के आंकड़ों पर आधारित अध्ययनों ने ये बात साबित की है कि ज़मीन के इस्तेमाल का तरीक़ा ही प्रति व्यक्ति द्वारा आने–जाने में तय की जाने वाली दूरी में 27 प्रतिशत के अंतर की वजह होता है. हालांकि, परिवहन की दूरी में प्रति व्यक्ति अंतर की आधी वजह तो सामाजिक आर्थिक कारण होते हैं. शहरों के बाहरी हिस्सों में ज़मीन के सघन विकास जैसे कि घनी आबादी, रोज़गार और आवास का उच्च स्तरीय संतुलन और पास–पास स्थित मूलभूत ढांचे जैसी ख़ूबियां होने पर देखा गया है कि इससे लोगों की सुविधाओं और सेवाओं तक पहुंच बढ़ती है और इनसे मोटर गाड़ियों से किए जाने वाले सफर के समय और दूरी की आवश्यकता भी कम होती है. नीदरलैंड्स में आवासीय सर्वेक्षण के आंकड़ों के आधार पर किए गए एक अध्ययन में पाया गया था कि शहरों का घनत्व का आवाजाही (यानी सफर की दूरी और उसके साधन) और इस तरह कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन के बीच सीधा संबंध होता है. इस स्टडी में पाया गया था कि ज़्यादा घनी आबादी (प्रति हेक्टेयर 25 से ज़्यादा मकानों) वाले इलाक़ों में रहने वाले कामगार आम तौर पर कम घनी बस्तियों में रहने वाले श्रमिकों की तुलना में 11.9 किलोमीटर कम सफर करते हैं. ज़्यादा घनी आबादी वाले इलाक़ों में रहने वाले कामगार आम तौर पर कार को छोड़कर दूसरे माध्यमों, और ख़ास तौर से सार्वजनिक परिवहन (मेट्रो और ट्राम) से सफर करते हैं. इसी वजह से घनी आबादी वाले इलाक़ों में प्रति यात्री कार्बन डाई ऑक्साइड का अनुमानित उत्सर्जन कम पाया गया था. जब कोई कामगार कम से अधिक घनी आबादी वाले स्तर की ओर प्रवास करता है, तो प्रति यात्री CO2 का उत्सर्जन लगभग 47 फ़ीसद घट जाता है. प्रति हेक्टेयर 10 व्यक्तियों की आबादी बढ़ने से आवाजाही में 0.764 मिनट का ख़र्च कम हो जाता है.
एक अध्ययन में पेट्रोलियम की खपत और पूरी दुनिया में बड़े शहरों के इर्द-गिर्द घनी आबादी का आकलन करने वाली एक स्टडी में दोनों के बीच स्पष्ट नकारात्मक संबंध पाया था: जैसे ही आबादी और सुविधाओं की सघनता बढ़ती है, ईंधन की खपत नाटकीय रूप से कम होती जाती है.
एक अध्ययन में पेट्रोलियम की खपत और पूरी दुनिया में बड़े शहरों के इर्द-गिर्द घनी आबादी का आकलन करने वाली एक स्टडी में दोनों के बीच स्पष्ट नकारात्मक संबंध पाया था: जैसे ही आबादी और सुविधाओं की सघनता बढ़ती है, ईंधन की खपत नाटकीय रूप से कम होती जाती है. ऑस्ट्रेलिया की तुलना में अमेरिकी शहरों में खपत की दर दोगुनी और यूरोपीय देशों की तुलना में चार गुना अधिक पायी गयी थी. जिन शहरों में साधन सबसे ज़्यादा पास–पास थे, वहां कार का इस्तेमाल सबसे कम और सार्वजनिक परिवहन की सुविधाओं का उच्च स्तर पाया गया था. इस अध्ययन से जो स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है, वो ये है कि शहरों के बेहिसाब विस्तार को नियंत्रित किया जाए और सार्वजनिक परिवहन व्यवस्थाओं में निवेश किया जाए.
जहां तक बात विकासशील देशों की है तो, अक्सर ये माना जाता है कि ज़मीन के इस्तेमाल के तरीक़े का असर आवाजाही के चलन पर पड़ता है. हालांकि, इस मामले में अनुभवों पर आधारित रिसर्च का अभाव है. एशिया के विशाल शहरों जैसे कि नई दिल्ली, मुंबई, शंघाई, कुआला लम्पुर, जकार्ता और मनीला में शहर के बाहरी हिस्सों में बड़े पैमाने पर उप–नगरीय विस्तार होते देखा गया है. जिसकी वजह से शहर के बीचो–बीच ट्रैफिक जाम और लोगों को लंबी दूरी का सफर करते देखा जा रहा है. एशिया के विशाल शहरों में लंबी दूरी के सफर की मांग और कार के ज़्यादा इस्तेमाल के पीछे मुहल्लों के स्तर पर ज़मीन के नए तरह के विकास को वजह पाया गया है. मतलब ये कि ऐसा विकास जो पैदल या फिर साइकिल से चलने के लिए मुफ़ीद नहीं है. ये विकास 1990 के दशक से होना शुरू हुआ है.
वैसे तो सघन शहरों की परिकल्पना बहुत प्रभावी रही है. लेकिन, वैचारिक और तकनीकी आधार पर इसकी काफ़ी आलोचना भी की जाती रही है. वैचारिक रूप से सरकार के हस्तक्षेप के भरोसे रहने पर कई अध्ययनों में सवाल उठाए गए है. इन अध्ययनों में मोटे तौर पर ये तर्क दिया जाता है कि ये मसले बाज़ार उसी तरह ख़ुद हल करेगा, जैसे कि ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में हुआ, जहां हाल के वर्षों में आवाजाही की दूरी और वक़्त में गिरावट आई है, क्योंकि रोज़गार के मौक़ों का विकेंद्रीकरण हुआ है और इस तरह काम करने के लिए उप–नगरों से उप–नगरों के बीच आना–जाना बढ़ा है और जहां यातायात में विकास की प्रमुख वजह गैर कामकाजी सफर रहा है. इसके पीछे मुख्य तर्क ये है कि बाज़ार के दबाव के ज़रिए विकसित हुए ‘बहुकेंद्रीय शहर’ परिवहन में ऊर्जा की खपत और प्रदूषण की समस्या से निपटने का सबसे अच्छा विकल्प हैं. आशंका इस बात की जताई जाती है कि आबादी को दूर दूर बसाने की वकालत करने से अपने आप ही वो भविष्यवाणी सही साबित होगी और भविष्य के शहरी स्वरूपों का विकास करेगी, जो अपने आप में अकुशल और सामाजिक असमानता वाले होंगे. सार्वजनिक परिवहन में भारी मात्रा में निवेश के फ़ायदों को लेकर भी आशंकाएं जताई जाती रही हैं.
पिछले कई वर्षों से भूगोलविद् इन मानवीय और रोज़गार संबंधी आवाजाही की प्रकृति पर प्रश्न उठाते रहे हैं. कुछ लोगों का तर्क है कि विकास लगातार हो रहे उप–नगरीकरण का नतीजा है, जो कई बार अनियमित होता है. जैसे कि विकास में ग्रीन बेल्ट से बाधा आती है. कुछ अन्य विद्वानों का तर्क है कि असल प्रक्रिया ‘उल्टे शहरीकरण’ की रही है. ये सोच रखने वालों का कहना है कि विकास असल में मौजूदा शहरी क्षेत्रों के आस-पास के इलाक़ों की बनिस्बत बेहद कम शहरी इलाक़ों पर केंद्रित रहा है. इसीलिए, कंपनियां और आम परिवार सोच समझकर छोटे क़स्बों की ओर जा रहे हैं, जो शहरीकरण के ठीक उलट है.
मोटर चालित परिवहन अपनी असली क़ीमत का बोझ दूसरे पर डालने की क़ीमत पर विकसित होता है, जैसे कि ऊर्जा की क़ीमतें, (ध्वनि और हवा का) प्रदूषण और जाम की समस्या. मोटरगाड़ी के परिवहन को लगभग मुफ़्त में सार्वजनिक स्थान की उपलब्धता के रूप में काफ़ी सब्सिडी मिलती है. भारत में निजी मोटर गाड़ियों को सार्वजनिक स्थानों, यहां तक कि पैदल चलने वालों के लिए सड़कों के किनारे बनी जगहों पर भी खड़ा किया जाता है और इसकी क़ीमत भी गाड़ी मालिकों को न के बराबर चुकानी पड़ती है. ये बात उन इलाक़ों के लिए भी सही है जहां ज़मीन की क़ीमत दुनिया के सबसे महंगे इलाक़ों के बराबर है. रिक्शा, साइकिल, पैदल चलने वालों और मोटर गाड़ी से चलने वालों को बराबरी का मौक़ा देने के लिए पार्किंग शुल्क में बढ़ोतरी से लेकर ज़मीन की क़ीमत जैसे सूचकांक का इस्तेमाल होना चाहिए, और इसमें गाड़ी खड़ी करने में इस्तेमाल होने वाली जगह का भी ख़याल रखा जाना चाहिए. इसमें जाम लगने पर शुल्क की व्यवस्था (इलेक्ट्रिक गाड़ियों की चार्जिंग से ग्रिड पर पड़ने वाले असर), प्रदूषण और दूसरे प्रभावों की क़ीमत वसूलने का प्रावधान भी होना चाहिए.
आवाजाही के रूमानीकरण की जगह अब इलेक्ट्रिक गाड़ियों से आवाजाही को बढ़ावा देना ले रही है. अब बेहतर नतीजों के लिए आवाजाही पर गहराई से विचार करने की ज़रूरत है.
आवाजाही के रूमानीकरण की जगह अब इलेक्ट्रिक गाड़ियों से आवाजाही को बढ़ावा देना ले रही है. अब बेहतर नतीजों के लिए आवाजाही पर गहराई से विचार करने की ज़रूरत है. परिवहन व्यवस्था के व्यवहार के नज़रिए से ऐसी ‘मोबिलिटी के विकास’ की ज़रूरत नहीं है, अगर मोबिलिटी को उसके मक़सद के हिसाब से परिभाषित किया जाए. मक़सद पर आधारित आवाजाही को इस बात से आंकें कि कोई व्यक्ति हर दिन किस ख़ास काम से कहां और कितना सफर करता है, तो उपयोग आधारित आवाजाही में वृद्धि होगी. दूसरा, आने–जाने के लिए चुनाव की आज़ादी तब नहीं बढ़ती जब आवाजाही के साधनों का विकल्प बढ़ता है. चुनाव की आज़ादी अर्थशास्त्र का मसला है. जो लोग किसी ख़ास तरह के परिवहन का ख़र्च नहीं उठा सकते हैं, उनके पास आने–जाने का विकल्प चुनने की आज़ादी नहीं होती.
तीसरा, किसी भी परिवहन व्यवस्था में गति में वृद्धि से समय बचे, ऐसा ज़रूरी नहीं है. ऐसा क्यों है इसे समझने के लिए हम ‘हर बार के सफर’ को उसकी शुरुआत और मंज़िल के स्तर पर समझना होगा. इतिहास ने दिखाया है कि परिवहन की गति में बढ़ोत्तरी या तो इसकी शुरुआत के ठिकाने (जैसे कि रिहाइश) या फिर मंज़िल (जैसे कि काम की जगह) पर आधारित होती है, जिसमें आने–जाने में लगने वाला समय बराबर ही रहता है. दूसरे शब्दों में परिवहन की गति में बढ़ोत्तरी से मकान और दफ़्तर के ठिकाने बदलते हैं, न कि सफर का समय. दूसरे विश्व युद्ध के बाद के दशक में औद्योगिक देशों में पैदल चालकों की तुलना में मोटर वाहनों से चलने वालों को बढ़त की वजह उसकी गति का एक ऐसे माहौल में परिचालन होता था, जो मोटे तौर पर पैदल चालक के लिए तैयार किया गया था. 1970 का दशक आते आते, पैदल चलने वालों पर मोटर से चलने वालों की तुलनात्मक बढ़त मोटरगाड़ियों के लिए विकसित किए गए इलाक़ों की दूरी पर निर्भर हो गई. उस माहौल में मोटरगाड़ी से चलने का पूरा फ़ायदा कम हो गया, क्योंकि मोटर से चलने वालों की आवाजाही की क्षमता के हिसाब से औद्योगिक गतिविधियों की दूरी बढ़ गई.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...
Read More +Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...
Read More +Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...
Read More +