Published on Aug 17, 2021 Updated 0 Hours ago

ऐतिहासिक उदाहरणों और जमीनी मौजूदा सच्चाई पूरी तरह से इस बात की ओर इशारा करती हैं कि अफ़ग़ान सेना कमजोर होने के साथ साथ तालिबान आतंकवादियों के विस्तार को रोकने में अक्षम है, जो  युद्धग्रस्त मुल्क को और संकट में धकेल रहा है.

क्या अफ़ग़ान की फ़ौज कभी भी इतनी मज़बूत थी कि वो ‘अफ़ग़ानिस्तान’ की रक्षा कर सके?

अमेरिकी ख़ुफ़िया रिपोर्ट में कहा गया था कि अफ़ग़ानिस्तान सरकार पर तालिबान का कब्ज़ा छह महीने से भी कम समय में हो जाएगा, इसके बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने काबुल में जनता द्वारा चुने गए नुमाइंदों पर भरोसा जताया और उनसे पिछले महीने मुलाकात भी की थी. बाइडेन प्रशासन ने भी लगातार इस बात पर जोर दिया कि अफ़ग़ान नेशनल डिफेंस एंड सिक्युरिटी फोर्सेस (एएनडीएसएफ) तालिबान आतंकवादियों के हमले का मुंहतोड़ जवाब देंगे.

लेकिन 1 मई के बाद से तालिबान ने 120 ज़िलों को अपने कब्ज़े में ले लिया  है,  और अब तो अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का राज कायम हो चुका है. काबुल पर तालिबान ने अपना झंडा फहरा दिया है और काबुल में भारी हलचल है. अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति समेत सरकार के कई बड़े अधिकारी देश से पलायन कर चुके हैं  सेना की कई चौकियों पर बिना जंग लड़े अफ़ग़ान सेना ने तालिबान के सामने सरेंडर कर दिया और सेना के जवान पड़ोसी मुल्क तज़ाक़िस्तान में पलायन करने लगे. इसने सेना की क्षमता को लेकर चिंता बढ़ा दी कि वो कैसे साल 2020 के समझौते के बावजूद तालिबान के विस्तार को रोक पाएंगे. हैरानी तो इस बात को लेकर भी है कि तालिबान ने हथियारों से लैस कंटेनर जिसमें 900 बंदूक, 30 कम वजन वाले वाहन और 20 सेना के पिकअप ट्रक शामिल थे उन्हें कब्ज़ा लिया, जो कोई नई बात नहीं है. यह पूरी तरह से साबित हो चुका है कि अफ़ग़ान सेना में कई कमियां हैं जो उन्हें अप्रभावी बनाती हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति के नेतृत्व  में पश्चिमी मुल्कों की सेना अफ़ग़ानिस्तान से पहले वापसी नहीं कर पाई इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि अफ़ग़ानिस्तान में सुरक्षा के हालात बेहद चिंताजनक थे और अफ़ग़ानिस्तान की सरकारी सेना बढ़ते आतंकवाद से लोहा लेने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी. यही वजह है कि इस सच्चाई के बावजूद कि अफ़ग़ान सेना तालिबान जैसे हिंसक और सत्ता लोलुप आतंकवादियों के ख़िलाफ़ बेहद अप्रभावी है,अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी समेत नाटो मुल्कों की सेना की वापसी से गंभीर संकट खड़ा हो गया.

अमेरिकी राष्ट्रपति के नेतृत्व  में पश्चिमी मुल्कों की सेना अफ़ग़ानिस्तान से पहले वापसी नहीं कर पाई इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि अफ़ग़ानिस्तान में सुरक्षा के हालात बेहद चिंताजनक थे और अफ़ग़ानिस्तान की सरकारी सेना बढ़ते आतंकवाद से लोहा लेने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी.

करीब दो दशक से अमेरिका और नाटो मुल्कों ने अफ़ग़ानिस्तान की सेना, पुलिस और वायुसेना को ट्रेनिंग और हथियार मुहैया कराए. यहां तक कि अरबों रूपए ख़र्च कर अफ़ग़ान सेना को इस लायक बनाया कि वो अपनी देश की सुरक्षा कर सके. अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के मुताबिक अक्टूबर 2001 से सितंबर2019 तक अफ़ग़ानिस्तान में कुल सैन्य खर्च बढ़कर 778 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया. इसके अलावा अमेरिकी रक्षा मंत्रालय और दूसरी सरकारी एजेंसियों ने करीब 44 बिलियन अमेरिकी डॉलर पुनर्निमाण संबंधी परियोजनाओं में ख़र्च किया जिससे कुल ख़र्च 822 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया. और अगर इस ख़र्च में पाकिस्तान ( जिसके एयर बेस का इस्तेमाल अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में ऑपरेशन को अंजाम देने के लिए करता रहा ) में किए गए ख़र्च को भी जोड़ दिया जाए तो कुल ख़र्च 975 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक जा पहुंचता है. सैन्य संबंधी कुल ख़र्च में से करीब 88 बिलियन अमेरिकी डॉलर की राशि सिर्फ अफ़ग़ानिस्तान की सेना के ट्रेनिंग पर ख़र्च की गई.

फ़ौज से जुड़े ग़लत आंकड़े

बीते 20 सालों में सेना पर ज़बर्दस्त ख़र्च के चलते और जिन ज़िलों पर पहले तालिबान का कब्ज़ा हो चुका था उसे वापस छुड़ा लेने के चलते, अमेरिका  वहां के नागरिकों को यह भरोसा दिलाता रहा कि वो अपनी जंग की रणनीति को मजबूत करने में अब तक कामयाब रहा है, जिसका आख़िरी मकसद अफ़ग़ानिस्तान की सेना को हर तरह की परिस्थिति से लोहा लेने के लिए तैयार करना था. लेकिन साल 2019 में वाशिंगटन पोस्ट ने जो सरकारी गोपनीय इंटरव्यू हासिल किए उससे जमीनी सच्चाई बिल्कुल अलग दिखती थी. इस इंटरव्यू में अमेरिकी, नाटो और अफ़ग़ानिस्तान के अधिकारियों के बयान शामिल थे, जिससे यह पता चलता था कि अफ़ग़ानिस्तान की सेना बेहद नाकाबिल, भ्रष्ट अधिकारियों, कमजोर ट्रेनिंग, बिना किसी प्रेरणा के और विश्वासघातियों से भरी हुई थी.

इस इंटरव्यू से यह भी ख़ुलासा हुआ कि दस्तावेजों के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान सुरक्षा बल में 3 लाख 52 हज़ार जवान और पुलिस अधिकारी थे. लेकिन सरकार इसमें से महज 2 लाख 54 हज़ार जवानों को ही सेना के अलग अलग पदों पर काम करने की बात को साबित कर पाई. दरअसल सेना के जवानों की संख्या में इतनी बढ़ोतरी इसलिए हुई क्योंकि भ्रष्ट अफ़ग़ान कमांडरों ने अमेरिकी नागरिकों के टैक्स के पैसे से दिए जाने वाले  वेतन से अपनी जेब भरने के लिए सिर्फ़ कागजों पर फर्जी भर्ती शुरू कर दिया था. इन इंटरव्यू में यह भी खुलासा किया गया कि अफ़ग़ानिस्तान की सेना अनुशासन के मामले में बेहद ख़राब थी, जवानों को अफीम और गांजे की लत थी. यहां तक कि दुश्मन के इलाके में भी गश्त के दौरान सेना के जवान नशा किया करते थे. इतना ही नहीं आदतन वो अमेरिका से भेजे गए सामान लूटा करते थे ताकि वो  निजी चेकप्वाइंट्स बना सकें और मुसाफिरों से पैसे ऐंठ सकें. सेना के जवानों की ऐसी हालत थी कि वो आपस में गोलीबारी के साथ साथ नागरिकों को भी मारने से नहीं चूकते थे ( साल 2010 तक 72 घटनाएं ).

अफ़ग़ानिस्तान की सेना अनुशासन के मामले में बेहद ख़राब थी, जवानों को अफीम और गांजे की लत थी. यहां तक कि दुश्मन के इलाके में भी गश्त के दौरान सेना के जवान नशा किया करते थे. इतना ही नहीं आदतन वो अमेरिका से भेजे गए सामान लूटा करते थे ताकि वो  निजी चेकप्वाइंट्स बना सकें और मुसाफिरों से पैसे ऐंठ सकें.

अफ़ग़ानिस्तान की सेना के अप्रभावी होने की एक बड़ी वजह साल दर साल अमेरिका की दोषक्षमता का बढ़ना भी था. यह हैरान करने वाला था कि अमेरिका के द्वारा इतनी राशि ख़र्च करने के बावजूद अफ़ग़ानी सैनिकों को महीनों तक वेतन नहीं मिलता था, उन्हें निम्म स्तर की स्वास्थ्य सेवाओं से संतोष करना पड़ता था तो कभी कभी ऑपरेशन के बाद भी कोई स्वास्थ्य सेवा नहीं मिला करती थी जिससे मोर्चा लेने या जंग की स्थिति में अफ़ग़ानिस्तान के ज़्यादातर सैनिकों की मौत हो जाया करती थी. सेना के जवानों को महीनों तक छुट्टियां नहीं मिला करती थी जिससे उनमें भारी असंतोष पैदा हुआ. इन वजहों का ही नतीजा था कि सेना के कई जवानों ने अफ़ग़ानिस्तान सेना को छोड़ दिया और साल 2015 में अफ़ग़ानिस्तान सरकार को करीब 1 लाख 70 हजार सैनिकों को बदलना पड़ा. इसके अलावा कई विशेषज्ञ इसी वक्त इराक पर अमेरिकी हमले को भी अफ़ग़ानिस्तान की सेना की कमजोरी का कारण मानते हैं. क्योंकि इससे अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका का ध्यान हट गया. इनका मानना है कि साल 2002 से लेकर 2006 तक जब तालिबान कमजोर और अव्यवस्थित था तब अमेरिका अगर अफ़ग़ानिस्तान की सेना को मजबूत करने के प्रयासों में तेजी लाता तो इसका नतीजा कुछ अलग होता. लेकिन तब अमेरिका अपने सर्वश्रेष्ठ लोगों और संसाधनों को इराक के लिए इस्तेमाल करने में लगा था. डगलस ल्यूट ( जिन्हें साल 2007 से 2013 तक अफ़ग़ानिस्तान के लिए व्हाइट हाउस का ‘जार’ कहा जाता था ) के मुताबिक तब 90 फ़ीसदी अमेरिका का ध्यान इराक पर था और सिर्फ 10 फ़ीसदी ध्यान अफ़ग़ानिस्तान पर केंद्रित था जो इस बात का गवाह है कि अपने बुनियादी वर्षों से ही अफ़ग़ानिस्तान की सेना कमजोर रही.

हाल के दिनों में जंग के मैदान में अफ़ग़ानिस्तान की सेना का तालिबान के ख़िलाफ़ बिना लोहा लिए सरेंडर करने की जो बातें सामने आ आईं वह उनके गिरे हुए मनोबल की ओर इशारा करती हैं जिसे लेकर पहले तालिबान के कब्ज़े की गंभीर चुनौती के ख़िलाफ़ खड़े होने का दावा किया जाता था. इतना ही नहीं, सच्चाई तो यह भी है कि सरकार द्वारा स्थानीय लड़ाकों को भर्ती कर तालिबान के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने के फैसले से भी यह साफ हो जाता है कि अफ़ग़ान सेना नाकाम थी. मौजूदा समय में अफ़ग़ानिस्तान की सेना को शक्तिशाली अमेरिकी और नाटो की सेना के साथ मिलकर जंग लड़ने की आदत हो गई है क्योंकि साल 2001 से ही नाटो और अमेरिकी फौज ने इनका जबर्दस्त समर्थन किया है. जब कभी विदेशी फौज के समर्थन को हटाया गया इसका दुष्परिणाम अफ़ग़ानिस्तान की सेना को भुगतना पड़ा है. साल 2014 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का यह घोषणा करना कि अब अमेरिकी सेना के जवान सीधी लड़ाई में सामने नहीं आएंगे, इसके बाद साल 2001 के बाद पहली बार साल 2015 में अफ़ग़ानिस्तान की सेना ने दुश्मनों से सीधा मोर्चा लिया था. इसके बाद अफ़ग़ानिस्तान सेना की मौत का आंकड़ा 26 फ़ीसदी बढ़ गया जिसमें करीब 15,800 सैनिक या तो गंभीर रूप से घायल हो गए या फिर जंग के मैदान में उनकी मौत हो गई ( हर 10 सैनिकों में से 1 ). यह आंकड़ा इस बात को साबित करता है कि अमेरिका के समर्थन के बिना अफ़ग़ानिस्तान की सेना का कोई वजूद नहीं है. इसके अलावा पश्चिमी देशों की सेना की मौजूदगी के बावजूद 64,100 से ज़्यादा अफ़ग़ान पुलिस और सेना के जवानों ने अक्टूबर 2001 से अब तक अपनी जान गंवायी जबकि इस दौरान 2300 अमेरिकी सेना के जवानों की मौत हुई. अब जबकि विदेशी सेना अफ़ग़ानिस्तान की जमीन को छोड़ गईं तो अफ़ग़ान सेना के जवान डरे सहमे थे, अपनी जिंदगी को लेकर चिंतित थे ,जिससे उनका हौसला टूट गया और नतीजा सामने है.

साल 2001 के बाद पहली बार साल 2015 में अफ़ग़ानिस्तान की सेना ने दुश्मनों से सीधा मोर्चा लिया था. इसके बाद अफ़ग़ानिस्तान सेना की मौत का आंकड़ा 26 फ़ीसदी बढ़ गया जिसमें करीब 15,800 सैनिक या तो गंभीर रूप से घायल हो गए या फिर जंग के मैदान में उनकी मौत हो गई

रणनीति का अभाव

निश्चित तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन से पहले दोनों ही अमेरिकी राष्ट्रपति- बराक ओबामा और डोनाल्ड ट्रंप ने अफ़ग़ानिस्तान से सेना की वापसी को लेकर गहन विचार विमर्श किया. लेकिन ओबामा शासन के दौरान उनकी सोच से भी ज़्यादा अमेरिकी सैनिक अफ़ग़ानिस्तान की जमीन पर पहुंच गए क्योंकि तब सितंबर 2015 में तालिबान ने प्रमुख प्रांतीय राजधानी कुंदुज पर कब्ज़ा कर लिया था और देश भर में वो तेजी से आगे बढ़ रहे थे. यही वजह थी कि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी फौज की संख्या को 9800 से घटाकर 5500 करने की ओबामा की योजना नाकाम रही बल्कि इसके अगले साल ही उन्होंने 8400 और सैनिकों को वहां भेजा ( 6000 अतिरिक्त नाटो सैनिकों और सहयोगी देश की सेना के अलावा ). हालांकि कई लोगों ने इसे अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी फ़ौज को वापस करने की रणनीति के अभाव में लिया गया फैसला बताया. लेकिन ओबामा द्वारा यह फैसला लेने की एक वजह ये भी थी क्योंकि अमेरिकी समर्थन और ट्रेनिंग के बावजूद अफ़ग़ान सेना का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक था. इसी प्रकार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने साल 2016 में अपने चुनावी अभियान में अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी जंग ख़त्म करने का वादा किया था लेकिन साल 2017 में उन्होंने बुझे मन से अचानक ही अमेरिकी सैनिकों की वापसी का निर्देश दे दिया, लेकिन तब अपने सहयोगियों की सलाह पर उन्होंने अपना फैसला वापस ले लिया था क्योंकि तब अफ़ग़ानिस्तान में जमीनी हालात काफी चिंताजनक बताए गए थे.

अफ़ग़ानिस्तान को लेकर ट्रंप के मुकाबले बाइडेन ने जो दृष्टिकोण अपनाया वह इसके ठीक उलट है. क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के नेतृत्व में तेजी से अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी हुई. इस फैसले में इस बात को नजरअंदाज किया गया कि तालिबान लगातार हिंसक हो रहा है और अमेरिका राजनीतिक स्थिरता को लेकर जारी किसी तरह की वार्ता में हिस्सा नहीं ले रहा है. यही वजह है कि तालिबान मजबूत होता गया और अब उसका कब्ज़ा काबुल तक हो गया है. आश्चर्य की बात ये थी कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन को तब भी भरोसा था कि 75 हज़ार तालिबानी अफ़ग़ानिस्तान की 3 लाख की सेना के आगे टिक नहीं पाएंगे.

इस फैसले में इस बात को नजरअंदाज किया गया कि तालिबान लगातार हिंसक हो रहा है और अमेरिका राजनीतिक स्थिरता को लेकर जारी किसी तरह की वार्ता में हिस्सा नहीं ले रहा है. यही वजह है कि तालिबान मजबूत होता गया और अब उसका कब्ज़ा काबुल तक हो गया है.

उन्हें यह भरोसा था कि अफ़ग़ान की सेना पश्चिमी मुल्कों की मदद के बिना भी तालिबान लड़ाकों को परास्त कर देगी. ऐतिहासिक उदाहरणों और जमीनी मौजूदा सच्चाई पूरी तरह से इस बात की ओर इशारा करती हैं कि अफ़ग़ान सेना कमजोर होने के साथ-साथ तालिबान आतंकवादियों के विस्तार को रोकने में अक्षम है, जो  युद्धग्रस्त मुल्क को और संकट में धकेल रहा है. इसमें दो राय नहीं कि अफ़ग़ानिस्तान की अंतहीन लड़ाई अमेरिका और नाटो देशों के लिए बेहद निराशाजनक रही है. लेकिन अफ़ग़ानिस्तान की सेना – जिसने बिना जंग लड़े ही तालिबान के आगे हथियार डाल दिए – उसपर भारी जिम्मेदारी छोड़कर वहां से विदेशी सैनिकों की वापसी सिर्फ़ इस बात को साबित करती है कि पश्चिमी मुल्कों के लिए अपनी सेना की वापसी कराना ही प्राथमिकता रह गई थी.

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