Author : Anika Chhillar

Expert Speak Raisina Debates
Published on Sep 06, 2025 Updated 0 Hours ago

प्रशिक्षण कार्यक्रमों को अच्छे वेतन, आकांक्षापूर्ण नौकरियों और मज़बूत उद्योग संबंधों के साथ जोड़ना होगा. जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक भारतीय युवा बेहतर वेतन वाले विकल्पों के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों को नज़रअंदाज करते रहेंगे.

भारत में कौशल की कमी: सिर्फ प्रशिक्षण देने से नहीं होगा समस्या का समाधान

हाल के वर्षों में, भारत और वैश्विक स्तर पर कौशल यानी योग्यता के अंतर को लेकर चर्चाएं तेज़ हुई हैं. सरकार और नीति-निर्माता इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि इस योग्यता के इस अंतर को पाटना रोज़गार सृजन और विनिर्माण क्षेत्र की सफलता के लिए बेहद ज़रूरी है. ज़्यादातर बहस आंकड़ों पर केंद्रित है. नौकरी चाहने वालों कितने युवाओं को प्रशिक्षित किया गया और कितने लोगों को नौकरी मिली? इस बात पर कम चर्चा हुई कि क्या प्रशिक्षण हासिल करने वालों को रोज़गार के सार्थक अवसर मिलते हैं? कामगारों के लिए, मुख्य सवाल ये है कि क्या कौशल विकास बेहतर वेतन और रोज़गार के परिणाम लाते हैं? व्यावसायिक प्रशिक्षण में छात्रों की कम रुचि इस बात का संकेत है कि कुछ लोगों के लिए इसका उत्तर 'नहीं' है. अगर कौशल कार्यक्रम अच्छा वेतन और मनपसंद रोज़गार नहीं दिलाते, तो भारतीय युवा उन्हें चुनने की संभावना कम ही रखते हैं, फिर चाहे सरकार कितने भी कार्यक्रम क्यों ना शुरू कर दे.

बिना बेहतर परिणाम के कौशल

कंपनियां, उत्पादन में योगदान देने के लिए श्रमिकों को वेतन देती हैं, लेकिन अगर वो तनख़्वाह उस कौशल को हासिल करने की लागत की भरपाई नहीं कर पाता, तो कर्मचारी नौकरी छोड़ने का विकल्प चुन लेते हैं. ये बेमेल भारतीय अर्थव्यवस्था में हर जगह दिखाई देता है. नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च के 2025 के एक सर्वेक्षण से पता चला है कि ऑटोमोटिव और हरित ऊर्जा जैसे उच्च-विकास वाले क्षेत्रों के लिए लोगों को कंपनियों से जुड़ने को प्रेरित करना मुश्किल हो रहा है. ये कठिनाई उद्योग जगत में उत्पन्न होने वाली समस्याओं से पैदा होती है, क्यों यहां कंपनियां प्रतिस्पर्धी वेतन देने में असमर्थ होती हैं. गुरुग्राम में एक मोटर मैकेनिक ऑटोमोटिव उद्योग में लगभग 25 हज़ार रूपये महीने कमा सकता है, लेकिन डिलीवरी ब्वॉय के रूप में, वो 40 हज़ार रुपये महीने तक कमा सकता है. सौर ऊर्जा फार्म में काम करने वाले एक कर्मचारी के लिए ये स्थिति और भी बदतर है. शहर के डिलीवरी ब्वॉय की तुलना में वो लगभग 15 हज़ार रुपये महीने कमाता है, और उसे लाभ भी बहुत कम मिलते हैं.

जब लोगों को उन कौशल कार्यक्रमों में प्रशिक्षण लेने में आर्थिक लाभ नज़र नहीं आता, तो सरकार की भूमिका भी सीमित हो जाती है. उदाहरण के लिए, वायुमित्र कौशल विकास कार्यक्रम को ही लीजिए. इस योजना को पवन ऊर्जा क्षेत्र के लिए कुशल कार्यबल तैयार करने के लिए डिज़ाइन किया गया था. आंध्र प्रदेश में 4,398 मेगावाट की स्थापित पवन ऊर्जा क्षमता है, लेकिन वहां इस योजना के लिए किसी ने आवेदन नहीं किया.

भारत में मजदूरी पर व्यावसायिक प्रशिक्षण के प्रभाव पर 2019 के एक स्टडी की गई. अनुभव पर आधारित इस अध्ययन से मिले सबूत भी इस समस्या को उजागर करते हैं. व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राथमिक क्षेत्र में मजदूरी में करीब 37 प्रतिशत की उल्लेखनीय वृद्धि करता है, और द्वितीयक क्षेत्र में मामूली रूप से लगभग 18 प्रतिशत की वृद्धि करता है. हालांकि, तृतीयक क्षेत्र पर इसका प्रभाव नगण्य है. इस भिन्नता का अर्थ है कि प्रशिक्षण से मिलने वाले फायदे हर क्षेत्र में एक समान नहीं है. सबसे खास बात, विनिर्माण और सेवा जैसे क्षेत्रों में, जहां सबसे ज़्यादा नौकरियां पैदा हो रही हैं, वहां इनका प्रभाव कमज़ोर है. यही कारण है कि बहुत सारे युवा भारतीय गिग इकॉनमी (अस्थायी, संविदा और फ्रीलांस नौकरी )की ओर आकर्षित होते हैं. हालांकि, इन नौकरियों में दीर्घकालिक सुरक्षा का अभाव होता है, लेकिन ये उच्च वेतन प्रदान करती हैं.

जब लोगों को उन कौशल कार्यक्रमों में प्रशिक्षण लेने में आर्थिक लाभ नज़र नहीं आता, तो सरकार की भूमिका भी सीमित हो जाती है. उदाहरण के लिए, वायुमित्र कौशल विकास कार्यक्रम को ही लीजिए. इस योजना को पवन ऊर्जा क्षेत्र के लिए कुशल कार्यबल तैयार करने के लिए डिज़ाइन किया गया था. आंध्र प्रदेश में 4,398 मेगावाट की स्थापित पवन ऊर्जा क्षमता है, लेकिन वहां इस योजना के लिए किसी ने आवेदन नहीं किया. इसी तरह कर्नाटक में 7,715 मेगावाट की स्थापित पवन ऊर्जा क्षमता है, लेकिन 2015 से 2024 के बीच यहां इस योजना के लिए सिर्फ 30 युवाओं ने आवेदन किया. हालांकि, कम प्रवेश के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन ये इस बात का भी संकेत है कि कौशल की कमी वाली कई नौकरियां युवा भारतीयों की पसंद नहीं हैं.

ट्रेनिंग इकोसिस्टम की कमज़ोर कड़ियां
व्यावसायिक प्रशिक्षण देने वाले संस्थानों और उद्योगों के बीच कमज़ोर संबंध इस चुनौती को और बढ़ा देते हैं. प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों में आधुनिक प्रयोगशालाओं, उन्नत तकनीक और फील्डवर्क जैसे वास्तविक दुनिया के अनुभवों का अभाव होता है. ये कमियां कंपनियों को या तो नौकरी के दौरान प्रशिक्षण पर संसाधन खर्च करने के लिए मज़बूर करती हैं, जिससे लागत बढ़ जाती है, या फिर उन्हें कौशल की कमी वाले कर्मचारियों के साथ काम करना पड़ता है.

वर्तमान में, भारत में एक ऐसे गतिशील ढांचे का अभाव है जो विभिन्न क्षेत्रों और राज्यों में कौशल आवश्यकताओं की निरंतर निगरानी करे और उद्योगों की ज़रूरत का पूर्वानुमान लगाने में सक्षम हो. भारत में कौशल विकास के पाठ्यक्रम खंडित, आपूर्ति-आधारित और विभिन्न पद्धतियों पर आधारित रहे हैं. इससे एकरूपता वाला राष्ट्रीय परिदृश्य बनाना या प्रशिक्षण को वास्तविक श्रम मांग के अनुरूप बनाना मुश्किल हो जाता है.

नौकरी चाहने वालों कितने युवाओं को प्रशिक्षित किया गया और कितने लोगों को नौकरी मिली? इस बात पर कम चर्चा हुई कि क्या प्रशिक्षण हासिल करने वालों को रोज़गार के सार्थक अवसर मिलते हैं? कामगारों के लिए, मुख्य सवाल ये है कि क्या कौशल विकास बेहतर वेतन और रोज़गार के परिणाम लाते हैं?

इसके अलावा कई व्यावसायिक कार्यक्रम, छात्रों को उन नौकरियों के बारे में वास्तविक जानकारी दिए बिना प्रशिक्षित करते हैं जिनके लिए वो योग्य होंगे. इससे छात्रों और उद्योग के बीच अपेक्षाओं में बेमेल पैदा होता है. नौकरी के दौरान क्या करना होगा, कहां करना होगा, और और वेतन लाभों के बारे में सही सूचना प्रदान करने से प्रशिक्षुओं को खुद के लिए सही विषय का चयन करने में मदद मिल सकती है. इतना ही नहीं, इससे ये भी सुनिश्चित होता है कि प्रशिक्षण पूरा करने वाले छात्र उद्योग की ज़रूरतों के अनुरूप बेहतर ढंग से फिट बैठते हैं और उनके नौकरी में बने रहने की संभावना ज़्यादा होती है.

भारत के कौशल विकास दृष्टिकोण पर पुनर्विचार की ज़रूरत

व्यावसायिक प्रशिक्षण तब तक सार्थक रोज़गार परिणाम नहीं दे सकता जब तक कि वेतन और लाभ हासिल किए गए कौशल के अनुरूप ना हो. भारत में कौशल विकास नीति को इस तरह विकसित करने की आवश्यकता है कि प्रशिक्षण प्रयासों को क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धात्मकता और श्रमिकों की आकांक्षाओं के अनुरूप बनाया जा सके. तीन बदलाव महत्वपूर्ण हैं:

1. कौशल प्रशिक्षण को मांग-आधारित बनाएं: जैसा कि पहले चर्चा की गई है, भारत को एक ऐसी प्रणाली की ज़रूरत है, जो श्रम बाजार की ज़रूरतों का निरंतर आंकलन करें और प्रशिक्षण पाठ्यक्रम को उसके अनुसार समायोजित करे. इसके लिए श्रम बाज़ार की वास्तविक समय सूचना प्रणाली, उद्योग और प्रशिक्षण संस्थानों के बीच बेहतर समन्वय और नौकरी की संभावनाओं की पारदर्शी जानकारी आवश्यक है. ये बाज़ार द्वारा मांगी जा रही योग्यता और प्रशिक्षण के ज़रिए दिए जा रहे कौशल के बीच के अंतर को कम करेगा. इसके अलावा, श्रमिकों को उनके विकल्पों का यथार्थवादी दृष्टिकोण प्रदान करने के लिए भी ये महत्वपूर्ण है.

2. वेतन को कम रखने वाली बाधाओं का समाधान करें: भारतीय कंपनियां वित्त और भूमि तक पहुंच, व्यावसायिक लाइसेंस और परमिट हासिल करने को गंभीर बाधाएं मानती हैं. इसके अलावा, भ्रष्टाचार और बहुत सारे गैर-ज़रूरी नियम भी को व्यावसायिक वातावरण की राह में बाधाएं खड़ी करते हैं. निजी कंपनियां इन चुनौतियों को अपर्याप्त शिक्षित कार्यबल से भी ज़्यादा गंभीर मानती हैं. जब तक इन बोझों को कम नहीं किया जाता, तब तक कई कंपनियां प्रतिस्पर्धी वेतन देने या प्रशिक्षण में निवेश करने में असमर्थ रहेंगी. कौशल विकास नीति को नियामक और औद्योगिक सुधारों से जोड़ा जाना चाहिए. इससे कंपनियों की प्रतिस्पर्धात्मकता में सुधार होगा.

3. प्लेसमेंट को एकीकृत करने वाले प्रशिक्षण मॉडलों का विस्तार: व्यावसायिक प्रशिक्षण तभी बेहतर रोज़गार और वेतन परिणाम प्रदान कर सकता है, जब इसमें प्रशिक्षुओं का कठोर चयन, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और नौकरी हासिल करने में सहायता शामिल हो. ऐसे में उन प्रशिक्षण मॉडलों की पहचान और विस्तार आवश्यक है जिन्होंने सार्वजनिक-निजी भागीदारी के माध्यम से सार्थक और निरंतर रोज़गार प्रदान करने की क्षमता प्रदर्शित की हो.

युवा भारतीयों के लिए, नए ज़माने की नौकरियां उनकी पसंद के मुताबिक होनी चाहिए. ऐसी नौकरियां, जो उनकी महत्वाकांक्षाओं के लिए स्पष्ट मार्ग प्रदान करती हों. ऐसा होने पर ही भारत का स्किल इकोसिस्टम संख्याओं पर ध्यान केंद्रित करने की बजाए वास्तविक प्रभाव डाल पाएगा.


अनिका छिल्लर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर इकोनॉमी और ग्रोथ में रिसर्च असिस्टेंट हैं.

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