Author : Harsh V. Pant

Published on Apr 16, 2019 Updated 0 Hours ago

चुनाव में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी विश्वसनीयता से लाभ मिलना निश्चित है।

चुनाव में मोदी के लिए क्यों फादेमंद है राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा

आम चुनाव में राष्ट्रीय सुरक्षा एक महत्वपूर्ण मुद्दे के तौर पर उभरकर सामने आने से बहुतों को हैरत में डाल दिया है। ऐसा होने की उम्मीद नहीं की जा रही थी और यह दलील दी जा रही थी कि मौजूदा चुनाव मुख्य रूप से बेरोजगारी और नौकरियों के साथ ही साथ किसानों की परेशानियों के मुद्दों पर लड़ा जाएगा। फिलहाल इस बात का तो कोई सबूत नहीं है कि भारतीय मतदाता अगली सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा की विश्वसनीयता के आधार पर चुनेंगे या नहीं, लेकिन हम एक लम्बे चुनावी दौर की शुरूआती अवस्था में हैं और पाकिस्तान के संबंध में भारत की नीति और उसके सैन्य रुख के बारे में — सरकार द्वारा, विपक्ष द्वारा और साथ ही साथ आम जनता द्वारा बड़े पैमाने पर चर्चा और बहस की जा रही है।

कुछ हद तक, फरवरी में पुलवामा में जो कुछ हुआ और पाकिस्तान के छल-कपट के जवाब में भारत की ओर से की गई मजबूत कार्रवाई ने यह तय कर दिया कि ये मुद्दे चुनावी चर्चाओं में अपनी जगह तलाश लेंगे। पाकिस्तान के बालाकोट, मुजफ्फराबाद और चकोटी में मौजूद आतंकी ​शिविरों पर भारतीय वायु सेना (आईएएफ) के मिराज 2,000 लड़ाकू विमानों के हमले का नरेन्द्र मोदी सरकार का फैसला, आतंकवाद के खिलाफ जंग में भारत के दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण संकेत भी है, जो अब तक पाकिस्तान की परमाणु संबंधी गीदड़-भभकी के कारण सीमित रहा था। भारत ने करीब-करीब इस गीदड़-भभकी को ललकारा और पाकिस्तान का इन हवाई हमलों को ज्यादा अहमियत न देना जवाबी कार्रवाई करने की उसकी इच्छा न होने को ही दर्शाता है। भारत ने अपने अतीत से सीखा है, जब पाकिस्तान की उकसावे वाली हर एक करतूत के बाद अंतर्राष्ट्रीय समुदाय उससे तनाव घटाने का तक़ाज़ा करने लगता था। अब इस बार पाकिस्तान को तय करना है कि क्या वह इस तनाव को बढ़ाना चाहता है और किस हद तक बढ़ाना चाहता है।

देश में ऐसे बहुत लोग हैं, जो भारतीय वायु सेना के कार्रवाइयों की सामरिक और ऑपरेशनल जानकारी से अभिभूत हैं; वास्तविकता यह है कि इस कार्रवाई ने भारत और पाकिस्तान के बीच रणनीतिक समीकरण को पलट कर रख दिया है, वह भी अच्छे के लिए। पाकिस्तान के रवैये से साफ जाहिर हो रहा है कि वहां भारत की ओर से इस तरह के और हमले होने का खतरा महसूस किया जा रहा है। पाकिस्तान को विश्व समुदाय में अलग-थलग करने के बाद, भारत ने बड़ी फुर्ती के साथ सैन्य बल का इस्तेमाल किया है, इस​ तरह उसने न सिर्फ पाकिस्तान को आतंकवाद का इस्तेमाल करने की कीमत चुकाने के लिए बाध्य किया है, बल्कि परमाणु हथियारों के इस्तेमाल न कर सब-कन्वेशनल युद्ध करने की क्षमता प्रदर्शित की है।

भारत के रुख में आए बदलाव के मद्देनजर, मोदी की भारतीय जनता पार्टी द्वारा चुनाव संबंधी चर्चाओं में सेना का जिक्र शामिल करना लाजिमी है। सेना का इस्तेमाल करना ​विशुद्ध रूप से एक राजनीतिक फैसला है और भारत के रणनीतिक दृष्टिकोण में आए बदलाव के पीछे का सबसे अहम कारण मोदी का राजनीतिक नेतृत्व है, तो ऐसे में यह कहना बेमानी होगा कि सरकार को इस सैन्य कार्रवाई का श्रेय नहीं लेना चाहिए। विडम्बना तो यह है कि विपक्ष जितनी मजबूती से मोदी से इस बात का श्रेय छीनने की कोशिश करेगा, उतनी ही आसानी से इसका श्रेय मोदी के खाते में जमा होता जाएगा।

यह कहना भी कुछ हद तक अनुचित होगा कि राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति को राजनीतिक मुकाबले का मुद्दा नहीं बनाना चाहिए। लोकतंत्र में, खास तौर पर चुनावों के दौरान, मतदाता का अधिकार है कि वह देश के समक्ष मौजूद विदेशी और राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी चुनौतियों से निपटने के राजनीतिक पार्टियों के तरीके के अंतर को जाने और समझे। सभी लोकतंत्रों में अमेरिका और ब्रिटेन से लेकर आस्ट्रेलिया और जापान तक, विदेश नीतियों के बारे में जोरदार चर्चा और बहस की जाती है। यह सच है कि ताकतवर देशों में सरकार बदलने पर वहां की विदेश नीतियों में कोई बड़ा बदलाव नहीं आता, लेकिन विभिन्न राजनीतिक पार्टियां और विभिन्न नेतृत्व अपने आचरण से इसकी इजाजत देते हैं। तो एक देश के रूप में, हमें राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति पर बहस का स्वागत करना चाहिए, जो कि इन दिनों छिड़ी हुई है।

यह भाजपा द्वारा उसकी चुनावी मशीनरी के कारगर प्रबंधन पर भी रोशनी डालती है। भाजपा इन चुनावों को राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रवाद के आधार पर लड़ रही है, जिन्हें लेकर वह सबसे ज्यादा आश्वस्त है। विपक्ष चुनावी चर्चाओं का रुख नौकरियों और कृषि संकट की ओर मोड़ने में विफल रहा है, जिन पर वह मोदी सरकार को घेरना चाहता था। कई महीने पहले से ही मोदी राजनीतिक कथानक तय करते  रहे हैं और विपक्ष बिना किसी तरह की एकता, तालमेल और उद्देश्य के उस कथानक का जवाब देने के लिए मजबूर है। मोदी की ओर से पेश की जा रही चुनौती का ठोस जवाब देने की कांग्रेस की अक्षमता सबसे बड़ी रुकावट है। दरअसल, पुलवामा से भी काफी अर्सा पहले से, कांग्रेस इस चुनाव में राफेल सौदे और मोदी के खिलाफ भ्रष्टाचार के तथाकथित आरोपों को मुद्दा बनाना चाह रही थी। लम्बे प्रचार के बावजूद, वह लोगों की धारणाओं में बदलाव लाने में समर्थ होती दिखाई नहीं दे रही है। उस पर पुलवामा के बाद, भारत के पुराने हो रहे विमानों के बेड़े के आधुनिकीकरण की तत्काल जरूरत ने विपक्ष की मोदी चोर है की दलील को और भी ज्यादा पुरजोर तरीके से नाकाम कर दिया है।

जिस तरह भारतीय राजनीति के महत्व की धुरी सही दिशा में बढ़ रही है, वैसे ही भारतीय विदेशी नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा प्रा​थमिकताओं पर जबरदस्त बहस होना आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य बन चुका है। चूंकि भाजपा इन मामलों पर राष्ट्रीय एजेंडे को परिभाषित करने में अग्रणी भूमिका में है, ऐसे में भारतीय वामपंथियों को इस बारे में आत्मविश्लेषण करने की जरूरत है कि आखिर उनसे कहां चूक हुई और किस तरह राष्ट्रवाद के महत्व को कम करके आंकते हुए उन्होंने खुद को राष्ट्रीय सुरक्षा क्षेत्र में गैर जरूरी बना डाला है। मोदी और भाजपा जिस राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति की रूपरेखा को व्यक्त कर रहे हैं, वह अब तक तो बहुसंख्य लोगों की महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप दिखाई देती है और इसी बात ने इन चुनावों में उसे फायदे की स्थिति में ला पहुंचाया है।


यह लेख मूल रूप से  डिप्लोमैट में प्रकाशित हो चुका है।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.