Author : Harsh V. Pant

Published on Jul 23, 2022 Updated 0 Hours ago

ब्रिटेन में नए प्रधानमंत्री की तस्वीर अब स्पष्ट होने लगी है. इस पद के लिए आखिरी मुकाबला ऋषि सुनक और लिज ट्रस के बीच होगा. कंजरवेटिव सांसदों ने इन नामों पर अपनी सहमति दे दी है.

ऋषि सुनक और लिज ट्रस में किसके हाथ लगेगी बाजी

ब्रिटेन में नए प्रधानमंत्री की तस्वीर अब स्पष्ट होने लगी है. इस पद के लिए आखिरी मुकाबला ऋषि सुनक और लिज ट्रस के बीच होगा. कंजरवेटिव सांसदों ने इन नामों पर अपनी सहमति दे दी है. अब पार्टी के तमाम सदस्य इन दोनों में से एक को चुनेंगे, जिसके विजेता का एलान 5 सितंबर को किया जाएगा. ब्रिटेन में यह उथल-पुथल अप्रत्याशित है. मौजूदा प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन एक बड़े जनादेश के साथ 2019 में सत्ता में आए थे. माग्र्रेट थैचर के बाद कंजरवेटिव पार्टी को इतना विशाल बहुमत हालिया इतिहास में पहली बार मिला था. इससे यह माना गया था कि पार्टी न सिर्फ ‘ब्रेग्जिट’ की प्रक्रिया को सफलतापूर्वक पूरा करेगी, बल्कि आगे आने वाली मुश्किलों से भी पार पाएगी. मगर प्रशासन में अनुशासन न ला पाने का खामियाजा जॉनसन को भुगतना पड़ा.

पिछले दिनों हुए एक सर्वे में यह बात स्पष्ट भी हुई थी कि ट्रस को 62 प्रतिशत, तो सुनक को 38 फीसदी समर्थन हासिल है. मगर लेबर पार्टी को हराने की क्षमता सुनक में ज्यादा दिख रही है. स्पष्ट है, टैक्स कटौती यहां एक बड़ा मुद्दा बन गया है.

जब स्थानीय चुनावों में यह स्पष्ट दिखने लगा कि जॉनसन पर वोटरों का विश्वास तेजी से छीज रहा है, जिसका फायदा लेबर पार्टी को हो रहा है, तो कंजरवेटिव पार्टी ने नेतृत्व बदलने का फैसला किया. वैसे भी, यह पार्टी अपने मुखिया को लेकर काफी सख्त मानी जाती है. अगर इसे लगता है कि नेता में जीत दिलाने की क्षमता नहीं बची, तो वह बड़ी बेरहमी से उसे बाहर का रास्ता दिखा देती है. ब्रिटेन में मौजूदा सत्ता-परिवर्तन कंजरवेटिव पार्टी की इसी परंपरा की कड़ी है.

पार्टी की इनसे उम्मीदें 

ऋषि सुनक और लिज ट्रस, दोनों में पार्टी काफी उम्मीदें देख रही हैं, हालांकि इन दोनों के सामने कुछ चुनौतियां भी हैं. मसलन, बोरिस जॉनसन की सरकार में लिज ट्रसविदेश और ऋषि सुनक वित्त मंत्रालय संभाल रहे थे. जाहिर है, बोरिस जॉनसन के प्रति आम लोगों का जो गुस्सा है, वह इनके खाते में भी आएगा, जिसका फायदा लेबर पार्टी उठा सकती है. यही वजह है कि इन दोनों नेताओं की सोच में कुछ बुनियादी अंतर भी दिख रहा है. जैसे, सुनक टैक्स में किसी तात्कालिक कटौती के खिलाफ हैं और पब्लिक फाइनेंस को मजबूत करना चाहते हैं, जबकि ट्रस करों में कतरब्योंत करना चाहती हैं और इसे ब्रिटेन के आर्थिक विकास के लिए काफी अहम मानती हैं. हालांकि, कई अर्थशास्त्री ट्रस की सोच से सहमत नहीं हैं और वे यह मानते हैं कि ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था इसे झेल नहीं पाएगी. 

ब्रिटेन में सत्ता-परिवर्तन से भारत के साथ उसके द्विपक्षीय रिश्तों पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा. बेशक, सुनक की जीत से भारतीय कहीं अधिक खुशी मनाएंगे, लेकिन ट्रस की ताजपोशी भी कम महत्वपूर्ण नहीं होगी, क्योंकि जॉनसन सरकार की वह विदेश मंत्री रही हैं और दोनों देशों के रिश्तों को नई ऊंचाई देने में मददगार साबित हुई हैं.

रही बात इस मसले पर पार्टी के रुख की, तो तत्काल कर कटौती का ट्रस का प्रस्ताव पार्टी को लुभा रहा है. इसी कारण ट्रस की स्वीकार्यता भी बढ़ी है. पिछले दिनों हुए एक सर्वे में यह बात स्पष्ट भी हुई थी कि ट्रस को 62 प्रतिशत, तो सुनक को 38 फीसदी समर्थन हासिल है. मगर लेबर पार्टी को हराने की क्षमता सुनक में ज्यादा दिख रही है. स्पष्ट है, टैक्स कटौती यहां एक बड़ा मुद्दा बन गया है. चूंकि अगस्त के आखिरी हफ्ते तक चुनावी प्रक्रिया चलेगी, इसलिए दोनों नेताओं के पास पार्टी सदस्यों को अपनी तरफ लुभाने का पर्याप्त वक्त है.

सत्ता परिवर्तन के बाद दोनों देशों के रिश्ते 

बहरहाल, ब्रिटेन में सत्ता-परिवर्तन से भारत के साथ उसके द्विपक्षीय रिश्तों पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा. बेशक, सुनक की जीत से भारतीय कहीं अधिक खुशी मनाएंगे, लेकिन ट्रस की ताजपोशी भी कम महत्वपूर्ण नहीं होगी, क्योंकि जॉनसन सरकार की वह विदेश मंत्री रही हैं और दोनों देशों के रिश्तों को नई ऊंचाई देने में मददगार साबित हुई हैं. पिछले कुछ वर्षों से यही देखा जा रहा है कि ब्रिटेन में प्रधानमंत्री कोई भी बना हो, उसने भारत पर काफी ध्यान दिया है. जॉनसन तो भारत के अच्छे दोस्तों में गिने जाते रहे हैं. दो दिन पहले ही उन्होंने उस समझौते को हरी झंडी दी है, जिसके तहत दोनों देश अब एक-दूसरे की शैक्षणिक डिग्री को मान्यता देंगे. इंडो-पैसिफिक नीति, साइबर सुरक्षा, आतंकवाद जैसे मुद्दे पर भी दोनों देश काफी संजीदगी से आगे बढ़ रहे हैं. हां, सत्ता-परिवर्तन के बाद समुद्री व्यापार से जुड़े समझौते के साकार होने में वक्त लग सकता है, पर इससे दोनों देशों की प्रतिबद्धता प्रभावित नहीं होगी.

सुखद है कि भारत और ब्रिटेन का रिश्ता किसी व्यक्ति पर निर्भर नहीं है, बल्कि यह संस्थागत रूप ले चुका है. ऐसा करना ब्रिटेन के लिए भी जरूरी था, क्योंकि यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के बाद वह विश्व व्यवस्था में जगह बनाने की जद्दोजहद कर रहा है, जिसमें भारत उसकी काफी मदद कर सकता है. देखना होगा कि आने वाले दिनों में इस रिश्ते में कितनी गर्मजोशी आती है.

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