Expert Speak Raisina Debates
Published on May 06, 2024 Updated 0 Hours ago

वर्तमान में पश्चिम एशिया में भारी उथल-पुथल मची हुई है. यह क्षेत्र चीन के लिए बहुत मायने रखता है. लेकिन चीन के रणनीतिक गलियारों में चल रहे विचार-विमर्श के मुताबिक़ चीन को फिलहालदेखो और इंतज़ार करोकी रणनीति अपनाते हुए चुप रहना चाहिए और अमेरिका को इस क्षेत्रीय संघर्ष में फंसने देना चाहिए.

पश्चिम एशिया में चल रही उथल-पुथल को लेकर चीनी नज़रिया!

ईरान और इज़राइल के बीच पिछले कुछ सप्ताहों के दौरान ज़बरदस्त जवाबी हमले का सिलसिला चल रहा था. इन दोनों देशों के बीच यह संघर्ष कहीं कहीं देखा जाए तो इज़राइल-फिलिस्तीन टकराव का ही विस्तार था. लेकिन चीन पश्चिम एशिया में हुए इन घटनाक्रमों को बिना किसी प्रतिक्रिया के चुपचाप देखता रहा. हालांकि, चीन की मीडिया में इसको लेकर लगभग रोज़ाना तमाम तरह की खबरें चलाई जाती रहीं. इन ख़बरों में या तो फिलिस्तीन के मुद्दों का बढ़चढ़ कर समर्थन किया जाता था, या फिर इज़राइल को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए ईरान और सीरिया एवं दूसरे संगठनों के साथ बने उसके गठबंधन  की दिल खोलकर तारीफ़ की जाती थी. इसके अलावा चीनी मीडिया यह भी बताती रही कि किस प्रकार से अमेरिका और इज़राइल के रिश्तों में खटास पैदा हो रही है और अमेरिका का बदला रुख इज़राइल की बर्बादी की वजह बन सकता है.

 मीडिया के इन विश्लेषणों में इसको लेकर कोई बात नहीं की जाती है कि चीन पश्चिम एशिया की बदलती परिस्थितियों में किस तरह से अपनी सक्रिय भूमिका निभा सकता है और क्षेत्र के मुद्दों को सुलझाने में मदद कर सकता है.

ख़ास बात यह है कि चीनी मीडिया में पश्चिम एशिया के हालातों को लेकर किए जा रहे अधिकतर विश्लेषणों में इस बात का विस्तार से जिक्र किया जाता है कि क्षेत्र में लगातार बदलती परिस्थितियां किस प्रकार से अमेरिका के हितों पर विपरीत असर डाल सकती हैं. साथ ही इन विश्लेषणों में इस बात का भी खूब बखान किया जाता है कि इन घटनाक्रमों से चीन को अप्रत्यक्ष तौर पर क्या-क्या लाभ हो सकते हैं. लेकिन मज़ेदार बात यह है कि मीडिया के इन विश्लेषणों में इसको लेकर कोई बात नहीं की जाती है कि चीन पश्चिम एशिया की बदलती परिस्थितियों में किस तरह से अपनी सक्रिय भूमिका निभा सकता है और क्षेत्र के मुद्दों को सुलझाने में मदद कर सकता है.

 

चीन का रुख़ 

 

चीनी मीडिया में चल रहे इस विचार-विमर्श की तह में जाएं तो पिछले साल 7 अक्टूबर को जब हमास ने इज़राइल पर ज़बरदस्त हमला किया था, तभी से चीनी मीडिया में अमेरिका और इज़राइल को लेकर इसी तरह का माहौल बनाया जा रहा है. हमास के हमले के बाद चीनी मीडिया ने अमेरिका और इज़राइल के अनवरत चलने वाले युद्ध में फंसने की संभावना जताते हुए ख़ुशी ज़ाहिर की गई थी. इसके साथ ही यह भी कहा गया था कि चीन को अपना प्रभाव बढ़ाने का एक और अवसर (रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद) मिल गया है. कहने का मतलब यह है कि चीन में रणनीतिक समुदाय का एक वर्ग फिलिस्तीन-इज़राइल टकराव के विस्तार यानी इज़राइल-ईरान संघर्ष से बेहद ख़ुश है. यह वर्ग यह देखकर ख़ुश है कि कैसे इन टकरावों ने अमेरिकी समाज के अलग-अलग वर्गों के बीच गहरे मतभेद पैदा कर दिए हैं. साथ ही यह देखकर भी ख़ुश है कि अमेरिका में सड़कों पर, विश्वविद्यालयों के कैंपसों में किस प्रकार से अफरा-तफरी का माहौल बना हुआ है और इस मुद्दे पर यहां तक कि वाशिंगटन के राजनीतिक गलियारों में भी लोग किस कदर बंट गए हैं. चीन का रणनीतिक समुदाय इस मुद्दे पर अमेरिका की ताक़तवर मीडिया की पतली हालत को देखकर भी प्रसन्न है. ज़ाहिर है कि इसी अमेरिकी मीडिया ने रूस-यूक्रेन युद्ध के मामले में पूरी दुनिया के समक्ष अपना पक्ष मज़बूत करने वाली ख़बरें प्रसारित करने में बाज़ी मार ली थी, लेकिन इज़राइल-ईरान के बीच हुए संघर्ष में यह ऐसा करने में नाक़ाम रहा है. इस पूरे प्रकरण में बीजिंग के पक्ष में जो सबसे अहम बात है, वो इस मुद्दे पर अमेरिका में सत्तारूढ़ डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर मची उठापटक है. इतना ही नहीं, एक बार फिर राष्ट्रपति बनने की मंशा रखने वाले बाइडेन भी इस दुविधा में फंस गए हैं कि अपने यहूदी डोनर्स एवं देश के युवा "प्रोग्रेशिव" मतदाताओं में से किसे चुनें. अगर चीन के आम लोगों के बीच इज़राइल-ईरान टकराव को लेकर चल रही चर्चाओं की बात की जाए, तो उनके बीच फिलिस्तीन के मसले पर अरब और इस्लामिक वर्ल्ड एवं ग्लोबल साउथ के सभी देशों को एकजुट करने की चर्चा ज़ोरों पर हैं. इसके अलावा, डॉलर पर निर्भरता को कम करने और मौज़ूदा वैश्विक व्यवस्था को ख़त्म करने जैसी चर्चाएं भी की जा रही हैं.

 चीन का रणनीतिक समुदाय इस मुद्दे पर अमेरिका की ताक़तवर मीडिया की पतली हालत को देखकर भी प्रसन्न है. ज़ाहिर है कि इसी अमेरिकी मीडिया ने रूस-यूक्रेन युद्ध के मामले में पूरी दुनिया के समक्ष अपना पक्ष मज़बूत करने वाली ख़बरें प्रसारित करने में बाज़ी मार ली थी

हमास के हमले के बाद पिछले छह महीने को दौरान हुई विभिन्न घटनाओं को देखते हुए चीन का यही आकलन है किइज़राइल अभी भी नियंत्रण में है.” हालांकि, पश्चिम एशिया के राष्ट्रों ने कूटनीतिक लिहाज़ से इज़राइल का विरोध किया है, साथ ही उसे राजनयिक तौर पर अलग-थलग करने में तेज़ी दिखाई है. लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि क्षेत्र के अरब राष्ट्र, चाहे वो तुर्किये हो या ईरान, एक एकीकृत इज़राइल विरोधी फ्रंट बनाने में नाक़ाम रहे हैं, साथ ही इज़राइल के सामने कोई वास्तविक चुनौती पेश नहीं कर पाए हैं. इतना ही नहीं, ऐसे तमाम अरब देश, जिनके इज़राइल के साथ राजनयिक संबंध हैं, उन्होंने भी अभी तक उससे संबंध समाप्त नहीं किए हैं. गौरतलब है कि गाजा में टकराव ने पूरे क्षेत्र में तमाम दूसरे विवादों को भी भड़काने का काम किया है, लेकिन इन विवादों और टकरावों का असर अभी तक सीमित ही रहा है. उदाहरण के तौर पर हिज़्बुल्लाह जैसे हथियारबंद समूह भी आमने-सामने की लड़ाई में शामिल होना नहीं चाहते हैं. यमन में हूती हथियारबंद समूह ने लाल सागर के इलाक़ों में कुछ हद तक अपनी मौज़ूदगी दर्ज़ कराई थी, लेकिन अब वे भी वहां बेअसर साबित हो रहे हैं और अपनी बढ़त खो रहे हैं. जॉर्डन और मिस्र ने गाजा शरणार्थियों को शरण देने से साफ इनकार कर दिया है. वहीं इराक़ी मिलिशिया समूहों ने इज़राइली ठिकानों पर सिर्फ़ दिखावे के लिए हमले करने से ज़्यादा कुछ नहीं किया है.

 

ऐसे में जबकि इज़राइल और ईरान ने "लुकाछिपी वाली लड़ाई से आमने-सामने के युद्ध" की ओर अपने क़दम बढ़ा दिए हैं, तो चीन के रणनीतिक हलकों में जो सबसे बड़ा सवाल घूम रहा है, वो है कि पश्चिम एशिया के वर्तमान तनाव भरा माहौल क्या अमेरिका को भी इज़राइल और ईरान के युद्ध में कूदने के लिए विवश कर देगा और अमेरिका की हिंद-प्रशांत से जुड़ी रणनीतियों को ध्वस्त कर देगा, या फिर अमेरिका, ईरान और इज़राइल के बीच चल रहे युद्ध में छिटपुट हमलों तक ही सीमित रहेगा.

 

पश्चिम एशिया की घटनाओं पर पैनी नज़र रखने वाले लियू यान्तिंग जैसे चीन के कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि वेस्ट एशिया में अमेरिका अब क्या करता है, यानी वहां चल रहे टकराव में सीधे कूदता है या वहां से अलग हटता है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है. सच्चाई यह है कि अमेरिका को पश्चिम एशिया में मची इस उथल-पुथल की भारी क़ीमत चुकानी ही होगी और यह भी तय है कि इसका चीन को फायदा होगा. उदाहरण के तौर पर अगर आख़िर में अमेरिका मिडिल ईस्ट में मचे घमासान में कूद पड़ता है, तो इससे क्षेत्र में उसे कितना भी फायदा हो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. बल्कि सच्चाई यह है कि ऐसा करने से अमेरिका की महत्वपूर्ण इंडो-पैसिफिक रणनीति धराशायी हो जाएगी. अगर ऐसा होता है, तो केवल जापान, ऑस्ट्रेलिया और फिलीपींस जैसे देश भविष्य में पैदा होने वाले ख़तरों से बचाव के लिए चीन से रिश्ते सुधारने की कोशिश कर सकते हैं, बल्कि आसियान देश भी चीन के और नज़दीक सकते हैं.

 

दूसरी तरफ, अगर अमेरिका मौज़ूदा परिस्थितियों में ईरान द्वारा इज़राइल पर किए गए सीधे आक्रमण के मुद्दे को हल्का करने या नज़रंदाज करने का विकल्प चुनता है, साथ ही इस क्षेत्र से अपने क़दम पीछे खींचना जारी रखता है, तो इससे निश्चित तौर पर ईरान का मनोबल और बढ़ेगा. ऐसे हालातों में इस क्षेत्र में अमेरिका के पारंपरिक सहयोगी देश भविष्य में पैदा होने वाले ख़तरों को कम करने की कोशिश करेंगे और ऐसा करने के दौरान वे अधिक रणनीतिक स्वतंत्रता हासिल करने की कोशिश कर सकते हैं. इसी क्रम में ये राष्ट्र चीन से निकटता का विकल्प भी चुन सकते हैं. राष्ट्रपति बाइडेन और इजराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू की सरकारों के बीच बढ़ते मतभेदों के बीच कुछ चीनी विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसा भी हो सकता है कि इज़राइल को दिए जा रहे सहयोग से अमेरिका अपने हाथ खींच ले. विशेषज्ञों के मुताबिक़ जब इज़राइल पर ही कोई बड़ा ताक़तवर देश हमला कर दे रहा हो, तो फिर चीन के ख़िलाफ़ लड़ाई में अमेरिका के अन्य एशियाई सहयोगी देशों को इससे क्या फायदा होगा?

 

चीन की मीडिया में चाहे जो ख़बरें पेश की जा रही हों, लेकिन अंदरखाने चीन के रणनीतिकारों में कुछ अलग तरह की चर्चाएं भी ज़ोर पकड़ रही हैं. जैसे कि उन्हें इस बात का एहसास हो रहा है कि पिछले कुछ वर्षों में जिस प्रकार से अमेरिका द्वारा पश्चिम एशिया पर कम ध्यान दिया जा रहा है, उससे चीन के लिए इस क्षेत्र में अवसर बने हैं और वहां उसकी उपस्थिति भी मज़बूत हुई है. इसके बावज़ूद, वास्तविकता यह है कि पश्चिम एशिया में अमेरिका का व्यापक असर क़ायम है और काफ़ी हद तक उसका यह प्रभाव अटूट है. यानी इन हालातों में अमेरिका को किसी भी लिहाज़ के कम करके नहीं आंकना चाहिए. देखा जाए तो पश्चिम एशिया में बड़ी संख्या में अमेरिकी सैनिकों की तैनाती है और इसके अलावा यहां के आर्थिक, राजनीतिक और तकनीक़ी क्षेत्रों में अभी भी अमेरिका का दबदबा बना हुआ है.

 पिछले कुछ वर्षों में जिस प्रकार से अमेरिका द्वारा पश्चिम एशिया पर कम ध्यान दिया जा रहा है, उससे चीन के लिए इस क्षेत्र में अवसर बने हैं और वहां उसकी उपस्थिति भी मज़बूत हुई है.

अगर इसे महाशक्तियों की होड़ के दृष्टिकोण से देखा जाए, तो चीनी समीक्षकों का कहना है कि पश्चिम एशिया हालांकि विदेश नीति के लिहाज़ से चीन के लिए बेहद अहम है, फिर भी चीन के लिए यही मुनासिब होगा कि फिलहाल वहां कोई भी दख़ल नहीं दे. अगर चीन ऐसा करता है तो केवल उसे इसकी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है, बल्कि वह क्षेत्र में अमेरिका की आक्रामक नीतियों का सीधा निशाना भी बन सकता है. चीनी समीक्षकों के मुताबिक़ चीन मध्य पूर्व में चल रहे टकराव या फिर रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर कुछ मौक़ों पर ज़ोरदार तरीक़े से अपनी आवाज़ उठा सकता है, लेकिन आख़िर में उसे इन इलाक़ों में चल रहे संघर्षों में अमेरिका को ही अपनी प्रमुख भूमिका निभाने के लिए छोड़ देना चाहिए और इस तरह से अमेरिका को इन क्षेत्रों की पेचीदा राजनीति में फंसने देना चाहिए. समीक्षकों का मानना है कि ऐसा करने से अमेरिका को हिंद-प्रशांत क्षेत्र से अपना ध्यान हटाने पर मज़बूर होना पड़ेगा और इससे कहीं कहीं इस इलाक़े में चीन को खुला हाथ मिल जाएगा. इतना ही नहीं, अमेरिका जिस तरह से अफ्रीका, आसियान, दक्षिण अमेरिका और दुनिया के दूसरे इलाक़ों में अपनी वैश्विक पहुंच बढ़ाने के लिए जुटा है, चीन उसका भी लाभ उठा सकता है. विश्लेषकों के अनुसार यह चीन की जांची-परखी और पहले भी अमल में लाई जा चुकी "राउंडअबाउट या घुमावदार युद्ध रणनीति" के मुताबिक़ है. ज़ाहिर है कि लड़ाई की इस रणनीति के अंतर्गत चीन दुश्मन का सामने से मुक़ाबला नहीं करता है, बल्कि उसे चकमा देकर अगल-बगल से या पीछे से हमला करता है. युद्ध की इस रणनीति के तहत चीन केवल ताक़तवर सेनाओं के बीच भीषण युद्ध करवाने पर ज़ोर देता है, बल्कि खुद स्थानीय स्तर पर अपने लिए लाभ सुनिश्चित करने और स्थानीय लड़ाई जीतने पर फोकस करता है.

 

आगे क्या ?

 

इस सब में जहां तक भारत की बात है, तो भारत को जिस अहम घटनाक्रम पर नज़र रखने की आवश्यकता है, वो है कि चीन पश्चिम एशिया को लेकर कोई पॉलिटिकल स्टेटमेंट जारी करने के लिए या राजनीतिक लिहाज़ से अपने पक्ष में लाभ के मकसद से BRICS जैसे मंच का उपयोग किस प्रकार से करता है. साथ ही यह भी देखना बहुत ज़रूरी है कि चीन ब्रिक्स में सऊदी अरब, मिस्र, संयुक्त अरब अमीरात और ईरान सहित नए जुड़े मुस्लिम देशों को किस प्रकार से अपने पक्ष में लामबंद करता है और ऐसा करके अमेरिका एवं चीन के बीच वर्चस्व की लड़ाई को किस तरह से अपने पक्ष में मोड़ता है.


 अंतरा घोषाल सिंह ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के रणनीतिक अध्ययन प्रोग्राम में फेलो हैं.

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