Author : Gurjit Singh

Published on Apr 17, 2023 Updated 0 Hours ago

क्या हाल के वर्षों में दक्षिणी पूर्वी एशिया में आसियान (ASEAN) की केंद्रीय भूमिका कमज़ोर पड़ती जा रही है?

क्या आसियान की केंद्रीय भूमिका कमज़ोर पड़ती जा रही है?

आसियान अपने 56 वें वर्ष में है. आसियान के सामने चुनौती ये है कि वो अपनी केंद्रीय भूमिका को कैसे बनाए रखे और उसे ठोस तरीक़े से वाजिब भी ठहराए. 1976 में आसियान के पहले शिखर सम्मेलन के दौरान दक्षिणी पूर्वी एशिया में दोस्ती और सहयोग की संधि (TAC) पर सहमति बनी थी. इसके चार्टर को 2008 में पारित किया गया था. इसकी धारा 1.15 में आसियान ने अपने कार्यकारी एजेंडे पर काम करते हुए अपनी केंद्रीय भूमिका की घोषणा की थी. इसे आसियान के कुछ सदस्यों द्वारा ख़ुद को दक्षिणी पूर्वी एशिया संधि संगठन (SEATO) के ज़रिए अमेरिका के साथ जोड़ने और वियतनाम युद्ध नतीजे के तौर पर एक नए विकल्प के रूप में पेश किया गया था.

आसियान, एशिया का पहला ऐसा संगठन था जिसने सुरक्षा के मामलों पर चर्चा के लिए एक क्षेत्रीय मंच का गठन किया. आसियान रीजनल फोरम (ARF) 1994 से ही काम कर रहा है.

आसियान की केंद्रीयता एक ऐसा विचार था, जिसके माध्यम से आसियान देशों ने अपने रिश्ते चलाए. और, जब 1995 से 1999 के दौरान CLMV (यानी कंबोडिया, लाओस, म्यांमार और वियतनाम) इसके सदस्य बने, तो ये संगठन और मज़बूत बनकर उभरा. आसियान की केंद्रीयता का मतलब क्या था? पहला, आसियान के सदस्य देशों के बीच शांति और स्थिरता बनाए रखना और उसके बाद इस क्षेत्र में अपने साझेदारों के साथ भी यही करना. 2003 में जब TAC में साझेदारों को सदस्य बनाने का रास्ता खोला गया, तो आसियान के चार्टर को और भी मज़बूती मिली. भारत और चीन, TAC के पहले ऐसे सदस्य थे, जो आसियान में शामिल नहीं थे.

इस मक़सद से आसियान ने साझा नज़रिए के आधार पर एक उदारवादी व्यवस्था के क्षेत्रीय ढांचे की संरचना बनानी शुरू की, जिसके केंद्र में ख़ुद आसियान था. 1997 में आसियान के प्रमुख आर्थिक साझीदारों के साथ आसियान प्लस थ्री (APT) की संरचना उभरी. इसके साथ साथ इन देशों के साथ अलग अलग शिखर सम्मेलन का भी आग़ाज़ हुआ. अन्य संवाद साझीदारों (DPs) ने भी आसियान+1 शिखर सम्मेलन आरंभ किए. इस तरह 10 संवाद साझीदारों ने दोस्ती और सहयोग की संधि (TAC) का हिस्सा बनकर आसियान से संवाद शुरू किया और अपनी दोस्ती के मंत्र के तौर पर हमेशा आसियान की केंद्रीयता पर ज़ोर देने का शिष्टाचार निभाया.

आसियान, एशिया का पहला ऐसा संगठन था जिसने सुरक्षा के मामलों पर चर्चा के लिए एक क्षेत्रीय मंच का गठन किया. आसियान रीजनल फोरम (ARF) 1994 से ही काम कर रहा है. आसियान केंद्रित तमाम संगठनों में 27 सदस्यों के साथ ये सबसे बड़ा मंच है. आसियान केंद्रित दूसरी संस्था 2005 में पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन (EAS) के रूप में उभरी.

2010 में आसियान केंद्रित दो संस्थाएं गठित हुई. आसियान डिफेंस मिनिस्टर्स मीटिंग प्लस (ADMM+) में ईस्ट एशिया समिट के संवाद साझेदारों को अपने आसियान समकक्षों के साथ बैठक का मौक़ा दिया गया. इसी साल आसियान मेरीटाइम फोरम की शुरुआत की गई, जिसका मक़सद समुद्री मामलों को देखना था. 2012 में जब वृहत्तर आसियान समुद्री मंच (EAMF) की संरचना की गई तो ये आसियान केंद्रित सबसे युवा संगठन बन गया. आसियान केंद्रित तमाम संगठनों में ये सबसे कमज़ोर कड़ी है.

इन तमाम मंचों ने एक ऐसा क्षेत्रीय ढांचा उपलब्ध कराया, जहां इस क्षेत्र और आस-पास के देश और बड़ी ताक़तें, एक दूसरे से मिल सकती थीं और परिचर्चाएं कर सकती थीं. सभी ने आसियान को इस गतिविधि का केंद्र बनने की इजाज़त दे दी, क्योंकि इससे उन्हें अपनी प्रतिद्वंदिता से छुटकारा पाने का मौक़ा मिलता था. शायद, आसियान ने ये मान लिया कि अब वो इस क्षेत्र का नेता बन गया है. जबकि, ये उस पहिए की धुरी बन गया था जिसके हर अंग शायद अधिक मज़बूत होते जा रहे थे.

जब तक इस क्षेत्र में शांति बनी रही, तब तक तो ये क्षेत्रीय ढांचा अच्छी तरह काम करता रहा. जैसे जैसे शक्तिशाली देशों के बीच प्रतिद्वंद्विता बढ़ी, सुरक्षा के मामलों में आसियान, अमेरिका के क़रीब होता गया. हालांकि, आर्थिक मामलों की बात करें, तो उसके संबंध चीन के साथ गहरे होते गए. इसके लिए क्षेत्रीय ढांचे के प्रबंधन की आवश्यकता थी, जिससे अंतत: आसियान की केंद्रीयता पर प्रश्न उठने लगे.

ये सोच सही नहीं है कि आसियान केंद्रित क्षेत्रीय ढांचा ही इस क्षेत्र में इकलौता था. 1989 में एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग (APEC) का गठन किया गया था, जिसका सचिवालय, जकार्ता में आसियान के सचिवालय के साथ नहीं, बल्कि सिंगापुर में स्थापित किया गया. इसके बाद 1999 में चीन ने कॉन्फ्रेंस ऑन इंटरएक्शन ऐंड कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेज़र्स इन एशिया (CICA) और 2001 में शंघाई सहयोग संगठन का गठन किया गया था. ये सब आसियान को केंद्र में रखे बग़ैर एशियाई देशों के बीच सहयोग के प्रयास थे.

जब 2013 में चीन ने अपने बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) की शुरुआत की, तो ये काम जकार्ता से शुरू किया. BRI में आसियान देश भी शामिल थे, लेकिन उनकी केंद्रीय भूमिका नहीं थी. इसी तरह चीन की अगुवाई वाले एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (AIIB) ने भी आसियान और अन्य देशों को इसमें शामिल होने का न्यौता दिया जिससे वो आसियान की केंद्रीयता को चोट पहुंचाए बग़ैर एक प्रमुख आर्थिक खिलाड़ी बन सके

जब 2012 में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (RCEP) को लेकर वार्ताएं आरंभ हुईं, तो इसके केंद्र में आसियान ही था, क्योंकि आसियान के सारे 10 सदस्य इसमें शामिल हो गए थे. लेकिन, इस संगठन में भी आसियान को केंद्र में नहीं रखा गया, क्योंकि इस समझौते में वज़नदार भूमिकाएं ग़ैर-आसियान देशों के पास थी, जो पलड़ा किसी भी तरफ़ झुकाने की क्षमता रखते है. हो सकता है कि अगर RCEP में आसियान को केंद्र में रखा जाता, तो भारत भी इसका सदस्य बना रहता. लेकिन सोच ये थी कि RCEP, आसियान पर केंद्रित होकर चीन की ओर झुक रहा था.

जैसे जैसे चीन अधिक आक्रामक होता गया, पहले आर्थिक रूप से और फिर दक्षिणी चीन सागर में सामरिक रूप से, वैसे वैसे आसियान देशों के बीच उभरे आपसी मतभेदों ने उनकी एकता को छिन्न भिन्न कर दिया. जबकि, ये एकता ही उनकी केंद्रीय भूमिका की बुनियाद थी.

आसियान का मानना है कि उसने ऐसे क्षेत्रीय ढांचों की शुरुआत की, जिससे उसकी केंद्रीय भूमिका और मज़बूत होती थी. मगर, हुआ ये कि अन्य क्षेत्रीय साझेदारों के साथ उसके जुड़ाव ने आसियान की केंद्रीयता को और स्पष्ट कर दिया. अगर TAC में अन्य देश शामिल नहीं हुए होते, आसियान के संवाद साझेदार नहीं बने होते और आसियान केंद्रित संगठनों में शामिल नहीं हुए होते, तो फिर आसियान की केंद्रीय भूमिका कहां से होती?

आसियान केंद्रित संस्थाएं, परिचर्चा के मंच है, लागू करने वाली एजेंसियां नहीं. अगर कोई साझेदार देश किसी मंच की सह-अध्यक्षता करता है, तो वो अलग अलग कार्यक्रमों के लिए सचिवालय उपलब्ध करा सकते हैं. मगर, आसियान इसे पसंद नहीं करता, क्योंकि वो अपनी केंद्रीय भूमिका को मज़बूती देना चाहता है, उसे साझा करना नहीं. इसके अलावा आसियान केंद्रित मंचों पर होने वाली परिचर्चाओं पर बाद में कोई ध्यान नहीं दिया जाता.

जैसे जैसे चीन अधिक आक्रामक होता गया, पहले आर्थिक रूप से और फिर दक्षिणी चीन सागर में सामरिक रूप से, वैसे वैसे आसियान देशों के बीच उभरे आपसी मतभेदों ने उनकी एकता को छिन्न भिन्न कर दिया. जबकि, ये एकता ही उनकी केंद्रीय भूमिका की बुनियाद थी. 2012 के बाद से दक्षिणी चीन सागर में चीन की गतिविधियों ने आसियान की तरफ़ से एकजुट प्रतिक्रिया को रोककर रखा है. 2002 के बाद से चीन ने एक घोषणा से आगे बढ़कर एक आचार संहिता तैयार करने से परहेज़ किया है. चीन द्वारा अपने हितों के मामले में आसियान की केंद्रीय भूमिका स्वीकार नहीं करने का मतलब ये हुआ कि अन्य ताक़तों ने भी यही रास्ता अपनाया. इससे समस्या खड़ी होती है: आसियान के साझीदार देश उसकी केंद्रीय भूमिका को तब तक स्वीकार करते हैं, जब तक ये उनके लिए उपयुक्त होती है, और जब तक आसियान अपनी केंद्रीय भूमिका को मज़बूती से अभिव्यक्त करने के लिए मौजूदा चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार नहीं होता, तब तक उस दिशा में कोई प्रगति नहीं करते है.

आसियान की केंद्रीय भूमिका

चीन और अमेरिका- चीन की प्रतिद्वंद्विता के अतिरिक्त इस वक़्त चार बड़ी चुनौतियां है, जिनका सामना आसियान कर रहा है. म्यांमार, आसियान को स्थिर करने वाला अंग है. आसियान की मिन्नतों की अनदेखी करने में म्यांमार को अपना कोई नुक़सान नज़र नहीं आता है. ख़ास तौर से तब और जब आसियान के सभी देश एक ही राह पर आगे बढ़ना चाहते हो. हालांकि 2021 में वो सब पांच बिंदुओं की आम सहमति पर रज़ामंद हो गए थे. वहीं, म्यांमार के संकट को लेकर आसियान के संवाद साझेदारों (DPs) की सोच अलग है. चीन और भारत, दोनों ही देश म्यांमार को आसियान देश के बजाय अपने पड़ोसी के तौर पर ज़्यादा देखते हैं. वहीं, पश्चिमी देश चाहते हैं कि म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली के लिए आसियान अधिक सक्रिय भूमिका अदा करे

दूसरा, आसियान की एकता और उसकी केंद्रीय भूमिका कमज़ोर होती जा रही है. हालांकि, सभी डायलॉग पार्टनर देश उसकी केंद्रीय भूमिका पर सहमति दोहराते हैं. मिसाल के तौर पर आसियान से दूरी बनाने के लिए चीन ने जिस तरह शंघाई सहयोग संगठन का इस्तेमाल किया. आसियान के संवाद साझीदार वही काम क्वाड और ऑकस (AUKUS) जैसे प्रयासों के ज़रिए कर रहे हैं सामरिक रूप से ये सब आसियान को चुनौती देने वाले क़दम है, क्योंकि चीन को नियंत्रित कर पाने की आसियान की क्षमता के बराबर है. इससे पता चलता है कि आसियान अब एक अगुवा नहीं, बल्कि संयोजक मात्र है, जिसकी सामरिक अहमियत लगातार कम होती जा रही है. अब चीन इससे डरता है या नहीं, मगर आसियान की केंद्रीय भूमिका को चोट ज़रूर पहुंचती है. क्वाड के शिखर सम्मेलनों में आसियान की केंद्रीय भूमिका का सम्मान किया जाता है; हालांकि, AUKUS इस क्षेत्रीय ढांचे से अलग अधिक स्वतंत्र गतिविधि है. हालांकि अमेरिका, चीन, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया, अभी भी अपने मौजूदा दस्तावेज़ों के माध्यम से आसियान की केंद्रीय भूमिका को लेकर प्रतिबद्धता जताते हैं.

पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन (EAS) के भागीदारों को आसियान की केंद्रीय भूमिका से कोई समस्या नहीं है. वो इस बात को लेकर अधिक चिंतित हैं कि क्या आसिया अपनी केंद्रीय भूमिका के उत्तरदायित्व को निभाने के साथ साथ अपनी एकता को बनाए रख पाएगा. क्वाड और ऑकस खुलकर चीन के ख़िलाफ़ बोलते है, जिससे आसियान देश चीन की प्रतिक्रिया को लेकर आशंकित हो जाते हैं. आसियान ने कभी ये कल्पना नहीं कि क्वाड के सभी सदस्य EAS के सदस्य है और क्वाड के गठन का मतलब ही यही था कि पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन कारगर नहीं साबित हो रहा था.

इस बात को लेकर अधिक चिंतित हैं कि क्या आसियान अपनी केंद्रीय भूमिका के उत्तरदायित्व को निभाने के साथ साथ अपनी एकता को बनाए रख पाएगा. क्वाड और ऑकस खुलकर चीन के ख़िलाफ़ बोलते है, जिससे आसियान देश चीन की प्रतिक्रिया को लेकर आशंकित हो जाते हैं.

तीसरा, क्या आसियान निरपेक्ष है या फिर वो सामरिक रूप से स्वायत्त है? जैसे जैसे बड़ी ताक़तों के बीच मुक़ाबला तीव्र होता जा रहा है, वैसे वैसे आसियान अपने आपको बंटा हुआ पा रहा है. यूक्रेन को लेकर इसके सदस्य देशों की राय एक नहीं है. जिससे, संयुक्त राष्ट्र महासभा में रूस को लेकर लाए गए प्रस्ताव पर आसियान के सदस्य देश अलग अलग तरह से वोट कर रहे है. आसियान की केंद्रीय भूमिका को उसकी निरपेक्षता या स्वायत्तता के तौर पर पेश करने में बाधा इसलिए रही है, क्योंकि इस मामले में आसियान एकजुट होकर नहीं, बल्कि सदस्य देश अपने अपने हिसाब से रुख़ तय कर रहे हैं. आज तो म्यांमार को लेकर आसियान की राय एक है, ही चीन और यूक्रेन को लेकर.

इसके अलावा आसियान के धीमे और निष्प्रभावी रवैये को लेकर लोगों की राय चिंताजनक है. एक सर्वे में 82.6 प्रतिशत लोगों ने ये आशंकाएं जताई है. 73 प्रतिशत लोग ये महसूस करते हैं कि अब आसियान आपसी जंग का अखाड़ा है, और अपने लिए ख़ुद ही ख़तरा बन गया है; 60.7 प्रतिशत लोग आसियान की एकजुटता में खलल से चिंतित है. वैसे, महामारी से उबर पाने में आसियान की क्षमता को लेकर आशंकाएं घटकर 37.2 प्रतिशत रह गई है. ज़ाहिर है कि आसियान की केंद्रीय भूमिका की राह में जो चुनौतियां हैं, वो इसके सदस्य देशों की जनता के दिमाग़ में भी है.

आसियान को क्या करना चाहिए?

पहला, जिसकी तरफ़ पूर्व विदेश मंत्री मार्टी नटालेगावा ने इशारा किया है कि आसियान को अपने किए हुए वादे लागू करने चाहिए. अगर वो किसी बात पर सहमत होते है, तो उन्हें ये सुनिश्चित करना चाहिए कि वो लक्ष्य हासिल हो. इसके लिए सचिवालय से सहयोग बढ़ाने और ये वादे पूरे करने के लिए अध्यक्ष को अधिक संसाधन इस्तेमाल करने का अधिकार होना चाहिए. दूसरा आसियान देशों में एकजुटता की कमी, उनकी आम सहमति से फ़ैसले लेने की क्षमता को कमज़ोर करती है. ये महत्वपूर्ण है कि अब फ़ैसले लेने के लिए पूर्ण आम सहमति की जगह बहुमत की राय को आधार बनाने वाले नए नियम बनाए जाने चाहिए.

आसियान की केंद्रीय भूमिका को इसलिए भी चोट पहुंचती है कि हर साल इसकी अगुवाई एक अलग सदस्य देश करता है, इसका सचिवालय नहीं. आसियान के महासचिव के पास भी करने के लिए कुछ ख़ास नहीं होता. आसियान को चाहिए कि वो अपने महासचिव को अधिक अधिकार और कार्यक्षेत्र उपलब्ध कराएं, जिससे वो विचारों पर सतत रूप से कार्य करते हुए इसके चार्टर का पालन कर सकें. आसियान के महासचिव को चाहिए कि वो इसके अध्यक्ष के साथ तालमेल से काम करे,, जिससे वो निरंतरता उपलब्ध करा सके, जिसे दे पाने में अभी बंटा हुआ आसियान असमर्थ है.

आख़िर में आसियान को अपने सभी साझेदारों से सहयोग की आवश्यकता है. उन्हें वादा करना चाहिए कि वो आसियान की केंद्रीय भूमिका के लिए सिर्फ़ बातों से काम नहीं चलाएंगे. बल्कि, उसके आदर्शों का भी पालन करेंगे और आसियान को काम करने के लिए ताक़त उपलब्ध कराएं. इसके लिए आसियान को ये दिखाना पड़ेगा कि वो असरदार है, उस सूरत में आसियान के साझेदारों का सहयोग स्पष्ट रूप से दिखेगा.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.