Author : Amrita Narlikar

Expert Speak Raisina Debates
Published on May 06, 2024 Updated 1 Hours ago

म्यूनिख सिक्योरिटी कांफ्रेंस और वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के उलट, रायसीना डायलॉग ग्लोबल साउथ के एक लोकतांत्रिक देश में अपनी मौजूदगी की वजह से अलग ही नज़र आता है. ये अधिक समावेशी और ज़्यादा विविधता भरा है

भारत के दिखाए रास्ते से एक सुरक्षित, समावेशी और सतत वैश्वीकरण

दुनिया को बहुत से फ़ायदे मुहैया कराने (जिसमें ग़रीबी उन्मूलन भी शामिल है) के बावजूद, वैश्वीकरण पर राजनीतिक वामपंथी, दक्षिणपंथी और तमाम तरह की जनवादी सियासत की तरफ़ से चौतरफ़ा हमले हो रहे हैं. बदक़िस्मती से वैश्वीकरण के सबसे मज़बूत समर्थक- अक्सर नेक नीयत रखने वाले उदारवादी भी वैश्वीकरण की मदद के लिए आगे नहीं आए हैं. ग़ैर वैश्वीकरण के भयानक नतीजे निकलने की भविष्यवाणी करने वालों और इससे नाख़ुशी की ख़बरों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए जाने की बातें करने वालों के बीच फंसे होने की वजह से, वैश्वीकरण को लेकर गंभीर और आर्थिक रूप से एक दूसरे पर निर्भरता के लिए सख़्त ज़रूरत वाले सुधारों को लेकर राजनीतिक और बौद्धिक गुंजाइश बहुत कम रह गई है.

 अहम बात ये है कि ये मसला केवल ‘संवाद करने’ या इसकी सही तस्वीर पेश करने नहीं है. जिस तरह पिछले कुछ साल बीते हैं, उस दौरान वैश्वीकरण के स्वरूप ने भी बहुत सी अपेक्षाएं पूरी नहीं की हैं.

इसमें कोई शक नहीं कि वैश्वीकरण ने इस दुनिया में तमाम तबक़े के लोगों को जितने फ़ायदे दिए हैं, उन्हें देखते हुए इसकी हिफ़ाज़त और संरक्षण करना बनता है. लेकिन, इसके लिए वैश्वीकरण की दिशा और इसके पैमाने पर नए सिरे से विचार करने की ज़रूरत है. इस लेख में मैं वैश्वीकरण के मौजूदा मॉडल में निहित समस्याओं की एक संक्षिप्त रूप-रेखा पेश कर रही हूं. इस लेख के दूसरे हिस्से में मैंने ये बताया है कि आख़िर क्यों ऐसा है कि भारत, वैश्वीकरण को एक अधिक सुरक्षित, समावेशी और टिकाऊ दिशा में ले जाने के लिए अग्रणी भूमिका निभाने की अनूठी और सबसे अच्छी स्थिति में है. रायसीना डायलॉग, उन वजहों से इसके लिए एक मिसाल क़ायम कर सकता है, जिनको मैंने इस लेख के तीसरे हिस्से में रेखांकित किया है. उसी भाग में मैंने भविष्य के रिसर्च और संवाद के लिए एक एजेंडे को भी पेश किया है.

 

ये पूरी सीरीज़ आप यहां पढ़ सकते हैं.


  • वैश्वीकरण की सीमाएं

 

वैश्वीकरण की आलोचना और उस पर सवाल उठाना कोई नई बात तो है नहीं. लेकिन, पिछले एक दशक के दौरान इसको लेकर नाख़ुशी बढ़ती गई है, और अब ये नाराज़गी मुख्यधारा में शामिल हो चुकी है. इसकी एक वजह तो वैश्वीकरण के समर्थकों की तरफ़ से अपर्याप्त नैरेटिव का गढ़ा जाना है. जहां वैश्वीकरण पर शंका जताने वाले और इसके आलोचक बुलंद आवाज़ से वैश्वीकरण के ख़िलाफ़ अपनी कहानी सुनाते दिख जाते हैं. वहीं, वैश्वीकरण के समर्थक ये सोचकर ख़ामोशी से अपना काम करते रहते हैं कि वैश्वीकरण कोबेचनेकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इसके लाभ तो सबको साफ़ नज़र आने चाहिए. ‘अमेरिका फर्स्टके नारे के साथ डोनाल्ड ट्रंप का 2016 में अमेरिका का राष्ट्रपति चुने जाने और 2016 में ब्रेग़्ज़िट के जनमत संग्रह ने वैश्वीकरण के विरोधियों की अपील को असरदार बनाने के लिए एक ताक़तवर तस्वीर मुहैया कराई थी. अहम बात ये है कि ये मसला केवलसंवाद करनेया इसकी सही तस्वीर पेश करने नहीं है. जिस तरह पिछले कुछ साल बीते हैं, उस दौरान वैश्वीकरण के स्वरूप ने भी बहुत सी अपेक्षाएं पूरी नहीं की हैं.

 आत्मनिर्भर भारत के ज़रिए भारत ने मैन्युफैक्चरिंग पर जो ज़ोर दिया है, उसकी मिसालें विकसित देशों की औद्योगिक नीतियों से मिलती हैं.

सुरक्षा, स्थायित्व और मालिकाना हक़ की तीन कमियां वैश्वीकरण के मौजूदा मॉडल को बेहद नाज़ुक बना देते हैं. पहला, दुनिया की एकीकृत होती जा रही मूल्य संवर्धित श्रृंखलाओं ने सुरक्षा की कुछ ऐसी कमज़ोरियों को जन्म दिया है, जिससे निपटने में कुछ देश अधिक सक्षम हैं और वो इन कमज़ोरियों का लाभ उठाकर अन्य देशों को अपने इशारों पर नचा रहे हैं. दूसरा, वैसे तो वैश्वीकरण ने पूरी दुनिया में इंसानों की समृद्धि और उनकी आयु बढ़ाने में काफ़ी योगदान दिया है. लेकिन, इसकी उन जीवों को भयावह क़ीमत चुकानी पड़ी है, जो इस पर आबाद हैं. मिसाल के तौर पर वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड की रिपोर्ट के मुताबिक़, ‘1970 से 2018 के दौरान पूरी दुनिया में निगरानी में रहने वाले जंगली जीवों की आबादी में औसतन 69 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है.’ फैक्ट्री फार्मिंग, ज़िंदा जानवरों का निर्यात, जानवरों के अंगों का कारोबार, जंगली जानवरों की ज़मीनों और जंगलों में अतिक्रमण, ये सब उस वैश्वीकरण के अभिन्न अंग रहे हैं, जिसे हम जानते हैं और बहुत पसंद भी करते हैं. लेकिन, इनकी वजह से जानवरों को बेवजह का कष्ट झेलना पड़ा है. उनकी मौत हुई है. जैव विविधता को क्षति पहुंची है और इसका इंसान की सेहत पर भी बुरा असर (इसमें महामारियां भी शामिल हैं) पड़ा है. तीसरा, पश्चिमी देशों में बार बार ये ऐलान होने के बावजूद कि उत्तर और दक्षिण की खाई अब गए ज़माने की बात हो चुकी है, मगरग्लोबल साउथके विशाल इलाक़े, वैश्वीकरण के तमाम अलग अलग पहलुओं की ज़िम्मेदारी संभालने वाले अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के रवैये से नाख़ुश और खीझे हुए हैं. उनकी ये नाख़ुशी इन अंतरराष्ट्रीय संगठनों (जिनमें संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से लेकर विश्व व्यापार संगठन) और उन समानांतर संगठनों में साफ़ दिखता है, जो हाल के दिनों उभरे हैं (जैसे कि विस्तारित ब्रिक्स और भारत की अगुवाई में होने वाला ग्लोबल साउथ समिट). 

 

इस समस्या को दूर करना बहुत बड़ी चुनौती होगी. लेकिन, ये भी साफ़ है कि जैसा चल रहा है, वैसे ही चलने दो का ढर्रा अब चलने वाला नहीं है. आदर्शवाद और व्यवहारवाद के बीच एक संतुलन की ज़रूरत है, जिसमें कुछ नए नुस्खे भी तलाशने होंगे. इस मामले में इंडिया जो भारत है, वो बहुत कुछ दे सकता है

 

  1. भारत का तरीक़ा?

 

भारत में ऐसी कई ताक़तें हैं, जिनका इस्तेमाल करके वो वैश्वीकरण को नए सिरे से ढालने में वैश्विक नेतृत्व दे सकता है: उसका अनुभव- एक स्वतंत्र देश के तौर पर उभरने से पहले ही- वैश्विक व्यवस्था की संस्थाओं के लिए वार्ता में शामिल होकर, लोकतंत्र की लंबी परंपरा और अपनी सभ्यता की पहचान जैसी ख़ूबियां भारत को अपने प्राचीन विचारों से प्रेरणा लेने का मौक़ा देती हैं. ये प्राचीन विचार की बार आधुनिक समस्याओं से निपटने में उपयोगी मार्गदर्शक की भूमिका अदा करते हैं. मैं ऐसे तीन रास्ते सुझाती हूं, जो वैश्वीकरण के भारतीय नज़रिये का हिस्सा हो सकते हैं, और जो नज़रियां इससे पहले के हिस्से में सामने रखी गई समस्याओं से निपटने की शुरुआत कर सकते हैं

 

एक सुरक्षित वैश्वीकरण

 

पहला, आज के दौर में जब बाक़ी दुनिया वैश्वीकरण को ज़ोर-शोर से बढ़ावा दे रही थी, तब भी भारत ने पर्याप्त सावधानी वाला रवैया अपनाया था. ये बात भारत की व्यापार वार्ताओं से उजागर होती थी. फिर चाहे वो जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ एंड ट्रेड (GATT) के दायरे में हुई हों, या फिर विश्व व्यापार संगठन (WTO) के झंडे तले. इन वार्ताओं ने भारत ने जो रुख़ अपनाया, जिनकी वजह से उसे कड़ी आलोचना का सामना भी करना पड़ा था. आज- वैसे तो वो आलोचनाएं भी मौजूद हैं. लेकिन, भारत ने जिन वैश्विक बाज़ारों में ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता को लेकर आशंकाएं ज़ाहिर की थीं, उनको व्यक्त करने में आज वो अकेला नहीं रहा. भारत द्वारा खाद्य सुरक्षा और सार्वजनिक क्षेत्र की हिस्सेदारी के मसलों पर ज़ोर देने का आज भी विश्व व्यापार संगठन में विरोध हो रहा है. लेकिन, आत्मनिर्भर भारत के ज़रिए भारत ने मैन्युफैक्चरिंग पर जो ज़ोर दिया है, उसकी मिसालें विकसित देशों की औद्योगिक नीतियों से मिलती हैं. 2000 के दशक में जिसे व्यापार के उदारीकरण के ख़िलाफ़ अराजक विरोध कहा जा रहा था, निर्भरता को हथियार बनाने वाली आज की दुनिया के दौर में वही रुख़ दुनिया में दूरगामी सोच साबित हुआ है. भारत की गहरी जड़ें जमाने वाला नीतिगत रवैया, जो व्यापार और सुरक्षा के बीच किसी एक के चुनाव की महत्ता को समझता है, अगर वैश्वीकरण का आधार बने नियमों को एक बार फिर उपयोगी बनाना है, तो आज वही वैश्विक आर्थिक प्रशासन के संस्थानों की ज़रूरत बन गई है.

 

एक समावेशी वैश्वीकरण

 

दूसरा, वैश्वीकरण के सुधार की प्रक्रिया को अधिक से अधिक अपनाने के लिहाज़ से भारत एक ख़ास स्थिति में है. एक लोकतंत्र के तौर पर पश्चिमी देशों के साथ भारत के बड़े अहम संबंध हैं; हिंद प्रशांत में सत्ता के असंतुलन से चिंतित एक प्रमुख देश के तौर पर, भारत क्वाड के सदस्य के रूप में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है; सुधार की ख़्वाहिश रखने वाली उभरती ताक़त के तौर पर भारत, मूल BRICS और इसके विस्तारित स्वरूप के साथ सहयोग करता है. उतना ही अहम ये भी है कि मौजूदा और उभरती हुई ताक़तों के साथ सहयोग करते हुए अन्य विकासशील देशों को लेकर भारत की प्रतिबद्धता और बढ़ी ही है. ये भारत के पड़ोसी देश चीन द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका से काफ़ी अग है. और, ये ऐसी भूमिका है, जिसे भारत ने अपने हित में मगर पूरी दुनिया की भलाई के लिए ही अपनाया है.

 

G20 की अध्यक्षता के दौरान भारत की प्रभावशाली भूमिका (इस दौरान G20 में अफ्रीकी संघ के पूर्ण सदस्य के तौर पर शामिल होने की वजह से ये G21 में भी तब्दील हुआ) ने उसके आम सहमति बनाने की क्षमताओं और समावेशी नज़रिए की सफलता का उदाहरण है. ये समावेशीकरण, G20 की अध्यक्षता के दौरान पूरे देश के लोगों को शामिल करने में भी दिखा था, जब मंत्रिस्तरीय और अन्य बैठकों को भारत के विशाल भूभाग के अलग अलग हिस्सों में आयोजित किया गया था. भारत की G20 अध्यक्षता की उतनी ही अहम और ऊर्जावान प्रक्रिया भी उतनी ही अहम रही थी, जिसमें विविध तबक़ों को एक साथ जोड़ा गया.

 

आज हम आत्मविश्वास से भरपूर जिस भारत की गतिविधियां देख रहे हैं, उसे पता है कि आपस में झगड़ रही बड़ी बड़ी ताक़तों के बीच तालमेल कैसे बिठाना है और साथ ही साथ ये भी सुनिश्चित करना भारत को आता है कि छोटे किरदारों के हितों को भी बराबर की नुमाइंदगी और आवाज़ किस तरह दी जाए.

 भारत की G20 की थीम वसुधैव कुटुम्बकम यानी ‘एक धरती, एक परिवार, एक भविष्य’ की काफ़ी चर्चा होती है, जिसका अर्थ बहुत से लोग देशों और उनकी आबादी के वैश्विक परिवार के तौर पर निकालते हैं. हालांकि, सच तो ये है कि ये परिकल्पना इससे कहीं अधिक समावेशी है

एक टिकाऊ और दयालु वैश्वीकरण

 

भारत का तीसरा और शायद सबसे अहम योगदान संभवत: धरती पर केंद्रित वैश्वीकरण को बढ़ावा देने में है. इस मामले में भारत की G20 की थीम वसुधैव कुटुम्बकम यानीएक धरती, एक परिवार, एक भविष्यकी काफ़ी चर्चा होती है, जिसका अर्थ बहुत से लोग देशों और उनकी आबादी के वैश्विक परिवार के तौर पर निकालते हैं. हालांकि, सच तो ये है कि ये परिकल्पना इससे कहीं अधिक समावेशी है: इसका संकेत केवल इंसानी बिरादरी की ओर है, बल्कि मानव के अलावा अन्य जीवों को भी वैश्विक नीति में स्थान देने की ओर है, जिनके साथ हम इस धरती को साझा करते हैं. महाभारत और रामायण जैसे ग्रंथों और भारत के अन्य प्राचीन धार्मिक ग्रंथों के श्लोक, जो भारत की ज़िंदा परंपराओं का हिस्सा हैं, वो इस विचार की अभिव्यक्ति करते हैं: वो जो सभी जीवों को अपने बराबर समझता है, वो ही सच्चा बुद्धिमान शख़्स है. व्यक्तिगत तौर पर और उन तमाम प्रजातियों की आवाज़ बनना, जिनका कोई वोट है कोई आवाज़, यही भारत के वैश्विक परिवार का विचार है. यानी इंसानों के अलावा वो प्रजातियां भी हमारा परिवार हैं, जो मानवता से अलग हैं. इस विचार को अगर हम वैश्वीकरण के नए मॉडल में शामिल करें, तो हमारे पास आख़िर में एक मौक़ा होगा, जिसमें हम वैश्वीकरण को वास्तव में टिकाऊ और समतामूलक बना सकेंगे.

 

  1. रायसीना डायलॉग

 

आज जब रायसीना डायलॉग अपने दसवें वर्ष और एक नए दशक में प्रवेश कर रहा है, तो ये डायलॉग स्वतंत्र सोच और खुलकर विचारों के आदान प्रदान की जो जगह बनाता है, वो पहले से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण होगी. इसके मेज़बान देश भारत को वैश्वीकरण को नया आकार देने में एक अहम भूमिका निभानी होगी. आत्मविश्लेषण करने वाले नेता के तौर पर भारत, मिसाल देकर नेतृत्व प्रदान करने की बेहद अच्छी स्थिति में होगा. भारत, उन सिद्धांतों को विकसित करने और लागू करने के मामले में आत्मविश्वास और विश्वसनीयता के साथ नेतृत्व कर सकेगा, जिनका ज़िक्र ऊपर किया गया है. इसके अलावा वो घरेलू स्तर पर और समान विचारधारा वाले साझीदारों के साथ भी मिलकर काम कर सकेगा. इससे भू-अर्थशास्त्र पर (खाद्य सुरक्षा, औद्योगिक नीति और डिजिटल तकनीकों और रक्षा जैसे क्षेत्रों में) और वैश्विक प्रशासन एवं राज्यनीति में नैतिकता जैसे पर रिसर्च और परिचर्चाओं के नए अवसर पैदा होंगे.

 

रायसीना डायलॉग अपने आप में (और इसके संबंधित प्रकाशन जैसे कि रायसीना फाइल्स और रायसीना डिबेट्स) उन जोखिमों को बड़े पैमाने पर व्यक्त करते रहे हैं, जो वैश्वीकरण के मौजूदा स्वरूप से पैदा हुए हैं. लेखक और वक्ता, आर्थिक अंतर्निर्भरता पर अत्यधिक निर्भरता के बचकानेपन के ख़तरों से दुनिया को सावधान करते रहे हैं, और वो समान विचारधारा वाले साझीदारों को भी व्यापारिक संपर्क और गहरा करने के लिए कहते रहे हैं. इन लगों ने हितों की अहमियत को समझा है और वो मूल्यों से जुड़े मुश्किल सवालों से निपटने से भी पीछे नहीं हटे हैं. तो ख़तरे का शोर मचाकर और ही कोई लापरवाही दिखाते हुए, रायसीना डायलॉग के मल्टीमीडिया, बहुल भागीदारी वाले संपर्क, भयहीन विचार को बढ़ावा देने और सकारात्मक समाधान तलाशने को लेकर गंभीर प्रतिबद्धता जताते हैं.

 रायसीना डायलॉग अपने आप में उन जोखिमों को बड़े पैमाने पर व्यक्त करते रहे हैं, जो वैश्वीकरण के मौजूदा स्वरूप से पैदा हुए हैं. 

म्यूनिख सिक्योरिटी कांफ्रेंस और वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के उलट, रायसीना डायलॉग ग्लोबल साउथ के एक लोकतांत्रिक देश में अपनी मौजूदगी की वजह से अलग ही नज़र आता है. ये अधिक समावेशी और ज़्यादा विविधता भरा है: इसकी संपर्क की प्रक्रियाएं दिलचस्पी रखने वाली जनता की भागीदारी की गुंजाइश पैदा करती हैं. इसके उलट म्यूनिख और दावोस में होने वाली बैठकें सुरक्षा के घेरों के अंदर और बंद दरवाज़ों के भीतर होती हैं. जहां रायसीना डायलॉग के मंचों पर आवाज़ों की विविधता- कई बार तो ऐसे लोग भी, जिन्हें पश्चिम के मंचों सेखारिजकिया जा चुका होता है, उन्हें शामिल करके- की नुमाइंदगी की जाती है. यहां भाग लेने वाले न्यूनतम संभव समाधान पर राज़ी नहीं होते. लेखक और वक्ता यहां पर उस वक़्त स्पष्ट रूप से लक्ष्मण रेखा खींचने के लिए भी तैयार होते हैं, जब उनकी ज़रूरत होती है.

 

यहां पर एक जल्दबाज़ी दिखती है, जो अच्छी और स्वस्थ प्रकार की है.

 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.