Author : Don McLain Gill

Published on Aug 28, 2023 Updated 0 Hours ago
कंबोडिया की विदेश नीति किस ओर जा रही है?

सत्तारूढ़ कंबोडियन पीपुल्स पार्टी (CPP) ने 23 जुलाई को भारी चुनावी जीत की घोषणा कर दी. इसके तीन दिन बाद कंबोडियाई नेता हुन सेन ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने और अपने बेटे हुन मानेट  को नेतृत्व सौंपने का ऐलान  कर दिया. हुन सेन लंबे अर्से से कंबोडिया की कमान संभालते आ रहे हैं, जबकि उनके बेटे हाल तक रॉयल कम्बोडियन सेना के कमांडर रहे थे. बहरहाल, पश्चिमी देशों से शिक्षा हासिल कर लौटे हुन मानेट की संभावित विदेश नीति को लेकर अटकलों का दौर जारी है, ऐसे में कंबोडिया की विदेश नीति के संभावित मार्गों का निरपेक्ष रूप से आकलन करना अहम हो जाता है. दरअसल, भारी उथल-पुथल और उतार-चढ़ावों के चलते दक्षिण पूर्व एशिया के सुरक्षा ढांचे पर लगातार चोट पड़ रही है.

कंबोडिया, भू-राजनीतिक और आर्थिक तौर पर एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है जिसके एक ओर अमेरिका और बाक़ी पश्चिमी जगत तो दूसरी ओर चीन है.

कंबोडिया, भू-राजनीतिक  और आर्थिक तौर पर एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है जिसके एक ओर अमेरिका और बाक़ी पश्चिमी जगत तो दूसरी ओर चीन है. अमेरिका और यूरोपीय संघ (EU) कंबोडिया के लिए सबसे बड़े निर्यात बाज़ार हैं, तो वहीं चीन ने कंबोडिया के शीर्ष निवेशक और दान-दाता के रूप में अपनी स्थिति मज़बूत कर ली है. दरअसल चीन, कंबोडिया की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदानों की सुविधा जारी रखे हुए है. हालांकि, कंबोडिया की घरेलू राजनीतिक व्यवस्था की ख़ासियतों के चलते कंबोडिया और पश्चिम के बीच आर्थिक संबंधों के रास्ते में गंभीर उतार-चढ़ाव जारी है. मिसाल के तौर पर मानवाधिकारों और राजनीतिक पारदर्शिता से संबंधित चिंताओं के चलते यूरोपीय संघ ने 2020 में कंबोडिया के निर्यात पर व्यापार शुल्क को दोबारा लागू करने का निर्णय ले लिया. शुल्क का ये दायरा 20 प्रतिशत के स्तर तक पहुंचता है. आख़िरकार पश्चिम के साथ संबंधों में ऐसी चुनौतियों ने कंबोडिया को चीन के क़रीब धकेल दिया.

कंबोडिया की नीति

दक्षिण पूर्व एशिया के कई अन्य देशों की तरह कंबोडिया भी अपने राष्ट्रीय मामलों के प्रति निरंतर बचावकारी और संवेदनशील रुख़ रखता रहा है. दक्षिण पूर्व एशिया, गतिशील देशों से बना है, जहां सरकार की प्रणालियों, घरेलू राजनीतिक संरचनाओं, राजनीतिक विचारधाराओं और हितों में अपार भिन्नताएं मौजूद हैं. राजनीतिक स्वायत्तता के प्रति ऐसी संवेदनशीलता, ग़ैर-हस्तक्षेपकारी मानकों की स्थापना का कारण बनी है. यही भावना, दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संगठन यानी आसियान की प्रमुख बुनियाद के रूप में काम करती रही है. दक्षिण-पूर्व एशिया के तमाम देश उपनिवेशवाद को लेकर एक समान इतिहास साझा करते हैं. साथ ही यहां क्षेत्र से बाहर की शक्तियों के प्रति एक स्वाभाविक चौकन्नापन है. बाहर की ताक़तें, दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों की राष्ट्रीय प्रक्रियाओं के प्रति समान भावनाएं या समावेश का स्तर साझा नहीं करती हैं. ये बात इस लिहाज़ से भी अहम है कि ऐसी प्रक्रियाएं मौजूदा सत्ता के राष्ट्रीय रुतबे को मज़बूत करने का काम करती हैं. इसी वजह से पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका और कंबोडिया के रिश्तों में खटास आती चली गई, नतीजतन चीन के साथ कंबोडिया के रिश्तों में क़रीबी आ गई है.

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) के संदर्भ में 1994 और 2021 के बीच कंबोडिया को प्राप्त कुल FDI में चीन का हिस्सा 44 प्रतिशत रहा है. हक़ीक़त ये है कि कोविड-19 महामारी के चलते पैदा व्यावसायिक बाधाओं के बावजूद कंबोडिया में चीन से होने वाले निवेश में ज़बरदस्त वृद्धि जारी रही. कंबोडिया और चीन के द्विपक्षीय सहयोग के रक्षा दायरे में हाल ही में अभूतपूर्व विकास की एक श्रृंखला नज़र आई. 2022 में चीन और कंबोडिया की सेनाओं ने एक समझौता ज्ञापन (MoU) पर दस्तख़त किए. इस MoU से क्षेत्रीय रक्षा भागीदारी में मज़बूती लाने की दोनों देशों की पारस्परिक इच्छा सामने आई.

इतना ही नहीं, द्विपक्षीय सैन्य संबंधों के विस्तार के संकेत के रूप में चीन और कंबोडिया ने बीते 20 मार्च को कंबोडियाई जल-क्षेत्र में पहली बार साझा नौसैनिक अभ्यास किया. इसके अलावा, फाइनेंशियल टाइम्स ने कंबोडिया के रीम नौसैनिक अड्डे पर चीन के नेतृत्व में निर्माण कार्य जल्द पूरा होने की संभावनाओं से जुड़ी ख़बर भी प्रकाशित की है. ग़ौरतलब है कि ये अड्डा उस तटबंध के समान दिखता है, जिसका चीनी सेना जिबूती में मौजूद अपने इकलौते अपतटीय (offshore) सैन्य अड्डे पर उपयोग करती है. कंबोडिया में मौजूद ऐसे अड्डे का चीन इस क्षेत्र में और ज़्यादा ताक़त का प्रदर्शन करने के लिए इस्तेमाल कर सकता है. चीन की ऐसी क़वायदों के नतीजतन इस क्षेत्र में अमेरिकी प्रभाव को धक्का लग सकता है, साथ ही नियम-आधारित व्यवस्था को भी चोट पहुंच सकती है. लिहाज़ा अमेरिका ने कंबोडिया को ऐसी हरकतों के गंभीर परिणामों की चेतावनी दी है. इतना ही नहीं, इससे इस दक्षिण-पूर्वी एशियाई देश को और अधिक आर्थिक प्रतिबंधों का भी सामना करना पड़ सकता है. इससे कंबोडिया को मिलने वाले व्यापार विशेषाधिकारों में रुकावट आ सकती है. ग़ौरतलब है कि जनरलाइज्ड़ सिस्टम ऑफ प्रीफरेंसेस (GSP) और एवरीथिंग बट आर्म्स (EBA) के ज़रिए कंबोडिया को ऐसी वरीयताएं हासिल हुई हैं.

कंबोडिया और चीन के द्विपक्षीय सहयोग के रक्षा दायरे में हाल ही में अभूतपूर्व विकास की एक श्रृंखला नज़र आई. 2022 में चीन और कंबोडिया की सेनाओं ने एक समझौता ज्ञापन (MoU) पर दस्तख़त किए. इस MoU से क्षेत्रीय रक्षा भागीदारी में मज़बूती लाने की दोनों देशों की पारस्परिक इच्छा सामने आई.

बहरहाल, हुन मानेट सरकार के कार्यभार संभालने के साथ यह देखना बाक़ी है कि बाहरी दुनिया के साथ कंबोडिया के संबंध कैसे विकसित होते हैं! हालांकि ऐसी अटकलें हैं कि अपनी शैक्षणिक पृष्ठभूमि के कारण हुन का ज़्यादा झुकाव अमेरिका और यूरोप की ओर होगा, साथ ही वो इनके प्रति लचीला रुख़ भी रखेंगे! हालांकि ऐसी धारणाएं एकतरफ़ा और अक्सर सच्चाई से परे दिखाई देती हैं. दरअसल एशिया में ऐसे अनेक नेता हैं जिन्होंने अपनी शिक्षा उत्तरी अमेरिका या यूरोप में पूरी की है, लेकिन उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति और विदेशी संबंधों में अक्सर पश्चिम की ओर रुख़ करने वाली धारणाओं का प्रदर्शन नहीं किया है. अंतिम तौर पर, राष्ट्रवाद की ताकतों, घरेलू संसाधनों के स्तर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक और आर्थिक पारस्परिक निर्भरताओं की मात्रा के ज़रिए इन कारकों का निर्धारण होगा. लिहाज़ा इस बात की संभावना ना के बराबर है कि कंबोडिया, चीन के साथ अपनी नज़दीकियों में तत्काल किसी प्रकार की कमी लाएगा.

फिर भी, ये मान लेना कतई उचित नहीं होगा कि कंबोडिया, चीन पर अपनी बढ़ती निर्भरता से परेशान नहीं है. दरअसल, कंबोडिया को चीन के साथ नज़दीकियों के चलते पैदा हो सकने वाली संभावित चुनौतियों का एहसास है; यही वजह है कि दक्षिण-पूर्वी एशिया के देश अपनी विदेश नीति में चीन और अमेरिका के साथ रिश्तों में संतुलन साधते रहे हैं. हालांकि, अगर कंबोडिया की घरेलू राजनीतिक स्थितियां बदस्तूर जारी रहती हैं, और इस क्षेत्र में अमेरिका-चीन के बीच धौंस जमाने को लेकर रस्साकशी बढ़ती जाती है तो कंबोडिया के लिए दीर्घकालिक रूप से दोनों संरचनात्मक ताकतों के बीच एक स्थायी संतुलन बनाना ज़्यादा मुश्किल हो जाएगा. इसलिए हुन मानेट सरकार के लिए असली चुनौती चीन और अमेरिका के बीच उस प्रतिरक्षा रणनीति का प्रबंधन करना होगा, जो पहले से ही समस्याओं से घिरी हुई है. चूंकि ऐसा लगता है कि कंबोडिया अपने दम पर ऐसा करने में सक्षम नहीं होगा, ऐसे में उसे भारत और जापान जैसी अन्य उभरती एशियाई शक्तियों के साथ अपने संबंधों का लाभ उठाना पड़ सकता है. ऐसी ताक़तें अमेरिका-कंबोडिया-चीन के समस्याग्रस्त त्रिकोण के बीच रणनीतिक बफर के रूप में काम कर सकती हैं.

कंबोडिया अपने दम पर ऐसा करने में सक्षम नहीं होगा, ऐसे में उसे भारत और जापान जैसी अन्य उभरती एशियाई शक्तियों के साथ अपने संबंधों का लाभ उठाना पड़ सकता है. ऐसी ताक़तें अमेरिका-कंबोडिया-चीन के समस्याग्रस्त त्रिकोण के बीच रणनीतिक बफर के रूप में काम कर सकती हैं.

ऐसे एहसासों को हाल ही में अमल में लाया गया. जनवरी में कंबोडिया के उप प्रधानमंत्री प्राक सोखोन ने टोक्यो में जापानी विदेश मंत्री  योशिमासा हयाशी से मुलाक़ात की. इस मुलाक़ात का मक़सद उन दायरों की पड़ताल करना था जहां दोनों देश हाल ही में उन्नत की गई अपनी व्यापक रणनीतिक साझेदारी को मज़बूत कर सकते हैं. क्षेत्र के सुरक्षा ढांचे के सामने खड़ी अनिश्चितताओं के बीच ऐसी क़वायद को आगे बढ़ाने की कोशिश की गई. इसी तरह, कंबोडिया ने हाल में भारत के साथ भी घनिष्ठ सामरिक संबंधों को बढ़ावा देने की कोशिश की है. रक्षा उपकरणों की ख़रीद के लिए भारत द्वारा 5 करोड़ अमेरिकी डॉलर की ऋण सहायता (line of credit) की पेशकश के साथ-साथ भारतीय नौसेना और तटरक्षक बल द्वारा कंबोडिया की सद्भावना यात्राओं (goodwill visits) की संख्या में भी ज़बरदस्त वृद्धि हुई है. इतना ही नहीं, दोनों देशों की अपनी द्विपक्षीय रक्षा साझेदारी के दायरे को गहरा करने की इच्छा के प्रतीक के रूप में भारतीय और कंबोडियाई सेनाओं ने अप्रैल में अपनी पहली द्विपक्षीय वार्ता भी आयोजित की थी. अमेरिका-चीन के बीच रुतबे को लेकर रस्साकशी लगातार तेज़ हो रही है. ऐसे में ISEAS संस्थान के प्रतिष्ठित स्टेट ऑफ साउथ-ईस्ट एशिया सर्वे 2023 के आधार पर, कंबोडिया के प्रतिभागियों ने जापान और भारत को कंबोडिया के शीर्ष दो वैकल्पिक रणनीतिक साझेदारों के रूप में स्थान दिया है. इस सूची के अन्य देशों में ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और यूनाइटेड किंगडम शामिल हैं.

निष्कर्ष

बहरहाल, एक ओर कंबोडिया आर्थिक और रक्षा, दोनों दायरों में अपने रणनीतिक साझेदारों में विविधता लाने का प्रयास कर रहा है, लेकिन ऐसे विविधीकरण का स्तर सीमित है और इसका आवश्यकता से कम उपयोग हुआ है. जब तक कंबोडिया अन्य साझेदारों के साथ अपने संबंधों को अधिकतम करने में सक्षम नहीं हो जाता, तब तक उसे दक्षिण पूर्व एशिया में अमेरिका-चीन की बढ़ती प्रतिस्पर्धा के चलते उत्पन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा. ज़ाहिर है कि अगर कंबोडिया अपनी विदेश नीति में प्रतिक्रियावादी बना रहता है, तो उसे अपने आर्थिक और सुरक्षा हितों से आगे भी समझौता करने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है. बढ़ती संरचनात्मक शक्तियों द्वारा डाले जाने वाले दबावों के चलते कंबोडिया के लिए ऐसे हालात बनते रहेंगे.


डॉन मैकलेन गिल  फिलीपींस-स्थित भूराजनीतिक विश्लेषक, लेखक और डी ला सैले यूनिवर्सिटी (DLSU) के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन विभाग में लेक्चरर हैं.

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