Author : Sunjoy Joshi

Published on Jan 27, 2021 Updated 0 Hours ago

ORF हिंदी के इंडियाज़ वर्ल्ड में इस हफ़्ते संजय जोशी और नग़मा सहर ने अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडेन-कमला हैरिस के शपथ ग्रहण पर विस्तार से चर्चा की. ये लेख उसी बातचीत और उससे निकले निष्कर्षों पर आधारित है.

कितना कारगर होगा बाइडेन-हैरिस का मरहम?
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असाधारण परिस्थितियों के बीच अमेरिका के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति का अभिषेक आखिर हो ही गया. साथ ही अमेरिका ने न केवल अपनी पहली महिला उप-राष्ट्रपति का स्वागत किया, बल्कि कमला हैरिस इस पद पर पहुंचने वाली न सिर्फ एशियाई मूल की, बल्कि पहली अश्वेत महिला बनीं. मानो या न मानो दुनिया के पहले आधुनिक गणतंत्र अमेरिका को – जिसे समान अवसरों का प्रणेता देश माना जाता है- इस पायदान तक पहुँचने में 245 बरस लगे.

सत्ता परिवर्तन बेहद कड़वे माहौल में हुआ. नए राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण में विदा लेते राष्ट्रपति ने शामिल होने तक की ज़हमत नहीं उठाई. कड़वाहट के ऐसे माहौल को अमेरीकी प्रजातंत्र की जीत की संज्ञा कोई अगर दे भी दे तो कैसे?

स्पष्ट रूप से नए राष्ट्रपति जो बाइडेन के सामने कई चुनौतियां हैं. बाइडेन को विरासत में ऐसा देश मिला है, जहां कोरोना महामारी अब तक चार लाख से ज़्यादा लोगों की जानों की बलि ले चुकी है और इस बढ़ती हुई संख्य़ा की सुई थमने का नाम नहीं ले रही. कोरोना आपदा की चपेट में आर्थिक व्यवस्था चरमरा चुकी है और देश भर में बेरोज़गारी मुंह बाए खड़ी है. और जैसे इतना ही काफी न हो, इन सब के चलते बाइडेन के हाथ में एक ऐसे देश की कमान आई है, जो बुरी तरह विभाजित है.

बाइडेन को विरासत में ऐसा देश मिला है, जहां कोरोना महामारी अब तक चार लाख से ज़्यादा लोगों की जानों की बलि ले चुकी है और इस बढ़ती हुई संख्य़ा की सुई थमने का नाम नहीं ले रही.

विभाजन ऐसा की डेमोक्रेटिक पार्टी की जीत के बावजूद और उसके बाद भी सीनेट में ट्रंप के ख़िलाफ़ अपने दूसरे महाभियोग प्रस्ताव को पास कराने के लिए जी जान से जुटी है. विभाजन के इस दौर में ट्रंप के समर्थकों की अनदेखी करना नासमझी ही कही जा सकती है. सच तो यह है की 2020 के चुनाव में 2016 के मुक़ाबले डेमोक्रैट पार्टी को बाइडेन के नेतृत्व में स्पष्ट बहुमत ज़रूर मिला. 8.13 करोड़ लोगों (51.4 प्रतिशत) मतदाताओं ने उनका समर्थन किया, पर ट्रंप समर्थकों की संख्य़ा भले ही 7.42 करोड़ रही, लेकिन 2016 के मुकाबले ट्रंप अपने समर्थक मतदाताओं की संख्य़ा बढ़ाने में सफल रहे. उन्हें 2016 के मुक़ाबले लगभग 1 करोड़ अधिक लोगों का समर्थन मिला. डोनाल्ड ट्रंप ने व्हाइट हाउस को भले ही अलविदा कह दिया हो, मगर ट्रंपवाद अभी भी न सिर्फ़ जीवित है बल्कि पनप रहा है.

उभार पर ट्रंपवाद

ट्रंप को लेकर डेमोक्रेटिक पार्टी के नेताओं की राय चाहे जो भी हो, सब से आवश्यक हो जाता है यह आकलन करना कि आख़िर अमेरिका में ट्रंपवाद का उभार हो क्यों रहा है? राजनैतिक विभाजन का अमेरिका में ये हाल है की राजनीतिक परिचर्चा सबसे निचली पायदान पर गिर कर चर्चा नहीं गीदड़ भभकी बन जाती है. दोनों दलों के बीच चर्चा नीतियों पर न होकर एक दूसरे को दागने भर पर ही समाप्त हो जाती है, और यह क्रम 2016 के चुनाव में ट्रंप की जीत को रूसी हस्तक्षेप का नतीजा करार कर पहले महाभियोग से ही प्रारंभ हो गया था. इस विभाजन के चलते आज अमेरिका के राष्ट्रवाद और अमेरिका की पहचान को लेकर मूल विभाजन न सिर्फ दोनों प्रमुख दलों को ही नहीं बल्कि देश को भी विघटित कर रहा है.

क्या नया अमेरिकी प्रशासन, इन विवादित मसलों पर अलग-अलग राय रखने वाले तमाम साझेदारों को एक जुट करने में कामयाब हो पाएगा? क्या सभी पक्ष मिलकर आम राय बना पाएंगे? और क्या असर होगा अमेरिका की इस अंदरूनी खींच-तान का देश की विदेश नीति पर? सब से पहले भले ही नए प्रशासन के दौरान भले ही अमेरिका की मूल विदेश नीति में बड़े ठोस बदलाव न हों, पर तौर-तरीक़े और कूटनीति की शैली में बदलाव देखने को मिलेंगे. रंग और ढंग बदलने से विश्व में अमेरिका की पदछाप में परिवर्तन होगा और उसके पदचिन्ह भी प्रभावित होंगे.

ट्रंप ने नीति निर्माण की रूप-रेखा को ही उलटकर रख दिया था. उनके हाथ में कूटनीति ‘लेन-देन की कला में’ में तब्दील होकर रह गई. जिसमें कला कम द्विपक्षीय सौदेबाज़ी ज्य़ादा दिखी. 

ट्रंप ने नीति निर्माण की रूप-रेखा को ही उलटकर रख दिया था. उनके हाथ में कूटनीति ‘लेन-देन की कला में’ में तब्दील होकर रह गई. जिसमें कला कम द्विपक्षीय सौदेबाज़ी ज्य़ादा दिखी. दोस्त प्रतिद्वंदी सभी को एक ही तराज़ू में तोलते हुए – ट्रंप कब किस करवट पलट जाएं इसका आंकलन करना किसी के लिए भी असंभव था. और वास्तव में पैंतरे की इसी कला को उन्होंने अपनी ताक़त बना ली थी. अब बाइडेन के सत्ता में आने पर अपेक्षा की जा सकती है कि अमरीकी स्थापना के हाथ एक बार फिर सशक्त होंगे और कूटनीति अपने पुराने सोचे-समझे ढर्रे पर वापस आएगी. अमेरिका अपने संधि समझौतों के दायरे में लौटेगा और उनको सशक्त करने के प्रयास करेगा.

बाइडेन के आते ही अमेरिका दोबारा पेरिस जलवायु समझौते में शामिल हो गया है. उसने विश्व स्वास्थ्य संगठन छोड़ने की ट्रंप की धमकी तुरंत नकार दी है. संगी-साथियों के साथ चलकर अब विदेश नीति का संचालन होगा. जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए अमेरिका न सिर्फ़ यूरोप बल्कि चीन का भी सहयोग लेगा. इस प्रकार अमेरिका की विदेश नीति में बहुपक्षीयवाद को फिर से बल मिलेगा क्योंकि दुनिया से ‘अलग-थलग’ हो अपनी बाट-जोहकर अमेरिका महान नहीं बन सकता.

भारत, चीन और यूरोप के साथ सहयोग

ट्रंप के शासनकाल में अमेरिका के बर्ताव में सिद्धांतों की अपेक्षा व्यक्तिवाद अधिक कायम रहा. मसलन ट्रंप की मध्य-पूर्व की नीति की नींव बन गए उनके दामाद जैरैड कुशनर और सऊदी अरब के युवराज मोहम्मद बिन सलमान की आपसी यारी, जिसके चलते मध्य-पूर्व में कई अभूतपूर्व सफलताएँ भी देखने को मिलीं जिनके दूरगामी परिणाम होंगे. पर इनके मूल में एक व्यक्तिवाद था. लेकिन अब ऐसी उम्मीद बनी है कि सांझा सिद्धांतों को फिर से बल मिलेगा.

बदली हुई शैली के कारण, भारत चाहे या न चाहे, बाइडेन-कमला हैरिस की जोड़ी से वार्तालाप चीन के लिए पहले से ज्य़ादा आसान होगा. निश्चित ही ट्रंप के जाने पर चीन में राहत की सांसे ली जा रही होंगी. चीन और अमेरिका के बीच सामरिक प्रतिद्वंद भले ही जस के तस रहेंगे किन्तु इनके चलते सहयोग भी बराबर कायम रहेगा और चीन प्रयास करेगा की द्वंद और सहयोग के बीच वह अपने सामरिक हितों को कायम रखे, जिसमें चीन काफी माहिर है.

बदली हुई शैली के कारण, भारत चाहे या न चाहे, बाइडेन-कमला हैरिस की जोड़ी से वार्तालाप चीन के लिए पहले से ज्य़ादा आसान होगा. निश्चित ही ट्रंप के जाने पर चीन में राहत की सांसे ली जा रही होंगी. 

यूरोप और चीन के बीच प्रतिद्वंदिता के साथ सहयोग की नीति पहले से ही चल रही है. अब देखना होगा की चीन के विषय में अमेरिका और यूरोप, अपने-अपने हितों की कैसे रक्षा करते हैं. जो बाइडेन अपने उरोपीय गठबंधन को दोबारा मज़बूत बनाने की बात कर चुके हैं. चीन पर अपने अलग-अलग दृष्टिकोण लेकर अमेरिका और उसके गधबंधनों के बीच कैसा सामंजस्य बैठता है. ये तो तय है कि कई मसलों पर हम अमेरिका, यूरोप और चीन के मध्य सहयोग देखेंगे- इनमें जलवायु परिवर्तन से निपटना सर्वोपरी होगा. अंततः नए प्रशासन को उन क्षेत्रों का सटीक आकलन करना होगा, जिनमें अपने लंबी अवधि के सामरिक हितों के कारण, अमेरिका और चीन एक-दूसरे के प्रतिद्वंदी हैं.

अफ़ग़ानिस्तान को लेकर अमेरिका की नीति में कोई बदलाव आने की उम्मीद बहुत कम है. ईरान को लेकर अमेरिका की नीति में अवश्य बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है. अपने सहयोगियों के साथ अमेरिका दोबारा ईरान के परमाणु समझौते (JCPOA) का हिस्सा बनेगा. और JCPOA को लेकर न सिर्फ़ यूरोप बल्कि चीन और रूस भी अमेरिका के बदले रुख़ का स्वागत करेंगे.

ट्रंप ने सीरिया में अपने कुर्द सहयोगियों को अनाथ छोड़ दिया था. इसके चलते तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन को इस क्षेत्र में तीसरी बड़ी ताक़त के तौर पर उभरने का मौक़ा मिल गया. ट्रंप के शासनकाल की मध्य-पूर्व की नीति में हम कई तरह के बदलाव होते देखेंगे. हालांकि, अमेरिका, इज़राइल के हितों का संरक्षण भी करता रहेगा पर मध्य पूर्व में एक ज्यादा संतुलित अमेरिकी नीति देखने को मिलेगी.

भारत को भी ख़ुद को, मध्य पूर्व और अन्य क्षेत्रों को लेकर अमेरिका के रवैये में बदलाव के मद्देनज़र अपने हित में फैसले लेने होंगे. चीन को लेकर भी उसे अपने हितों की रक्षा स्वयं करनी होगी. लेकिन, सच तो ये है कि अमेरिका के लिए भारत की सामरिक अहमियत बरकरार है, इसलिए हम ये उम्मीद कर सकते हैं कि अमेरिका की नई सरकार के साथ साझेदारी और सहयोग करने के साथ-साथ, भारत अपने सामरिक हितों की रक्षा करने में सक्षम दिखेगा.

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