Author : Akanksha Sharma

Published on Aug 11, 2021 Updated 0 Hours ago

आज भारत में एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार है और भारत के निजी क्षेत्र के पास भी संपत्ति और रोज़गार के निर्माण की काफ़ी संभावनाएं हैं. ऐसे में भारतीय कंपनिया, अच्छा बदलाव लाने की मज़बूत स्थिति में हैं. 

भारत में कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी में राजनीति और बदलाव के लिए क्या गुंजाइश है?

थॉमस हॉब्स ने अपनी महान रचना लेवियाथन (1651) में सामाजिक समझौते के जिस सिद्धांत पर चर्चा की है, उसमें वो आम जनता की सहमति से किसी इंसान की निजता पर सरकार के हावी होने को जायज़ ठहराते हैं. इसके एवज़ में शासक सामाजिक संरक्षण, नागरिकों के अधिकारों और व्यवस्था की इकलौती ज़िम्मेदारी लेता है. लेकिन, आधुनिक समाज को अक्सर ऐसे अलग अलग संगठनों और संस्थानों के बीच चुनाव करना पड़ता है, जो एक जैसे मक़सद के लिए काम करते हैं. ये चुनाव सभी विकल्पों की लागत और फ़ायदे के बीच तुलना करके किया जाता है, और ऐसे फ़ैसले संबंधित देशों, उनकी संस्कृति, सामाजिक आर्थिक हालात और नैतिक मूल्यों पर टिके होते हैं.

ऐसे ही चुनावों की एक मिसाल है, कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (CSR). ये ऐसा कारोबारी विचार है, जो दुनिया भर की कंपनियों को निर्देश देता है कि वो केवल पैसे कमाने और संपत्ति बनाने की संकुचित सोच से आगे बढ़कर टिकाऊ विकास के सफ़र पर चलें. इसमें सामुदायिक कल्याण, कंपनी के नैतिक बर्ताव, जलवायु परिवर्तन से निपटने, समाज के कमज़ोर लोगों के सामाजिक आर्थिक अधिकारों की रक्षा करने जैसी ज़िम्मेदारियां शामिल होती हैं. वैसे तो कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी का ख़याल बहुत नेक है. लेकिन, इस परिकल्पना पर बहस भी बहुत होती है. एक तर्क हम नोबेल पुरस्कार विजेता मिल्टन फ्रीडमैन (1976) द्वारा विकसित की गई एजेंसी थ्योरी में पाते हैं. इसके तहत कहा ये जाता है कि किसी कंपनी की इकलौती ज़िम्मेदारी अपने शेयरधारकों के प्रति होती है, और उसका एकमात्र मक़सद ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाना होता है. इसके बरक्स स्टेकहोल्डर थ्योरी है, जो कारोबारियों की व्यापक सामाजिक ज़िम्मेदारियों की बात करती है.

आज दुनिया धीरे धीरे ये मानने लगी है कि सार्वजनिक और निजी क्षेत्र एक साथ चल सकते हैं. इसकी मिसाल हम 2019 के गिविंग इन नंबर्स सर्वे के रूप में देखते हैं.

चूंकि ये बहस ज़बरदस्त तरीक़े से जारी है, तो ये जानकर हौसला बढ़ता है कि आज दुनिया धीरे धीरे ये मानने लगी है कि सार्वजनिक और निजी क्षेत्र एक साथ चल सकते हैं. इसकी मिसाल हम 2019 के गिविंग इन नंबर्स सर्वे के रूप में देखते हैं. ये सर्वे चीफ एग्ज़ीक्यूटिव्स फ़ॉर कॉरपोरेट पर्पज़ (CECP) ने किया था. इस सर्वे में शामिल नमूनों में अरबों डॉलर की 250 कपनियों को शामिल किया गया था. सर्वे में पता चला था कि ये कंपनियां CSR परियोजनाओं यानी अपनी सामाजिक जवाबदेही के तहत क़रीब 26 अरब डॉलर ख़र्च कर रही थीं. ये रक़म 2017 के 20.3 अरब डॉलर और 2018 के 23.8 अरब डॉलर से ज़्यादा है. हालांकि, ये सवाल तो अभी भी बना हुआ है कि, टिकाऊ विकास के एजेंडे के लिए कंपनियों द्वारा किए जा रहे ख़र्च में समाज के पहले और सबसे अहम स्तंभ के तौर पर सरकार की क्या भूमिका है? भारत जैसे विकासशील देशों के लिए इसका क्या मतलब है?

भारत में CSR: इतिहास पर एक नज़र

भारत में परोपकार के रूप में CSR की बहुत प्राचीन परंपरा रही है. भारत की ये परंपरा दुनिया की सबसे पुरानी रवायतों में से एक है. हालांकि, इसके नाम और रूप बदलते रहे हैं. ऐसे में इस बात पर हैरानी नहीं होती कि अपने शुरुआती दौर से ही CSR की परिकल्पना अटूट रूप से सियासत से जुड़ी रही है. हम ‘भारतीय मैकियावेली’ के रूप में कौटिल्य को पाते हैं, जो मौर्य साम्राज्यवाद के मुख्य शिल्पकार थे. जिन्होंने कारोबार में नैतिक मूल्यों और सिद्धांतों की अहमियत पर ज़ोर दिया था. प्राचीन काल में हमें इस विचार की झलक व्यापारी समाज द्वारा भिखारियों और ग़रीबों को दान के रूप में देखते हैं. हमारे धर्मग्रंथों में भी व्यापार के मुनाफ़े को समाज के कमज़ोर तबक़े से बांटने की अहमियत बार बार बताई गई है.

आधुनिक भारत में महात्मा गांधी के ‘संरक्षण सिद्धांत’ के तहत CSR को बिल्कुल ही नया आयाम दे दिया गया. महात्मा गांधी भारत के कारोबारियों को जनता की भलाई के लिए ज़िम्मेदार अभिभावकों के तौर पर देखते थे. उनका मानना था कि भारतीय कंपनियां और उद्योग ‘आधुनिक भारत के मंदिर’ हैं. परोपकार के विचारों से प्रभावित होकर उद्योगपतियों के परिवारों ने समाज के विकास के लिए ख़ैराती संगठन, शिक्षण संस्थान और स्वास्थ्य सेवांएं देने वाली संस्थाएं और संगठन बनाए. उद्योगपतियों ने ग्रामीण विकास, महिलाओं के सशक्तिकरण और निरक्षरता के ख़िलाफ़ अभियान चलाने जैसे सुधारों की भी ज़िम्मेदारी ली.

भूमंडलीकरण की लहरों के चलते 1990 के दशक के पहले साल भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण का राजनीतिक फ़ैसला लिया गया और लाइसेंस राज को अलविदा कहने का बिल्कुल सही फ़ैसला लिया गया. इससे भारत में CSR की गतिविधियों को नई ताक़त मिली. औद्योगिक विकास की रफ़्तार तेज़ होने से भारतीय कंपनियों को मौक़ा मिला कि वो CSR को अपनी कारोबारी रणनीति का अटूट हिस्सा बनाएं, जिससे ‘तीन बुनियादी ज़रूरतों’- मुनाफ़ा जनता और धरती की मांग को पूरा किया जा सके. भारतीय कारोबारियों की सामाजिक जवाबदेही को एक क़ानूनी जामा पहनाने की ज़रूरत को देखते हुए, भारत सरकार ने 2013 में 1956 के कंपनीज़ एक्ट में संशोधन के दौरान इसमें धारा 135 को भी जोड़ा.

हमारा मानना है कि सरकार और निजी क्षेत्र मिलकर भारत में टिकाऊ परिवर्तन लाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं. इस काम में सरकार, कंपनियों की मदद इस तरह से कर सकती है

इस धारा के तहत 100 करोड़ रुपए से अधिक टर्नओवर या टैक्स देने के बाद (PAT) पांच करोड़ का मुनाफ़ा कमाने वाली या फिर 500 करोड़ रुपए क़ीमत वाली हर कंपनी को अपने पिछले तीन साल के औसत शुद्ध मुनाफ़े का दो प्रतिशत हिस्सा CSR परियोजनाओं पर ख़र्च करना अनिवार्य बना दिया गया. हालांकि, सत्ता में बैठे लोगों के ये क़दम उठाने के पीछे अपने तर्क रहे होंगे, लेकिन सरकार के इस क़दम के बारे में आम राय यही बनी कि ये फ़ैसला ग़लत था. इसके आलोचकों में उस वक़्त फिक्की के महासचिव रहे राजीव कुमार (2011), और मिशिगन यूनिवर्सिटी के रॉस स्कूल ऑफ़ बिज़नेस मे स्ट्रैटेजी के प्रोफ़ेसर अनील करनानी (2013) शामिल थे. सरकार के इस क़दम की आलोचना के पीछे इसकी सीमित संभावनाओं, मुनाफ़े पर बेज़ा दबाव, CSR की परिभाषा अस्पष्ट होना और अनुत्पादक गतिविधियों को CSR का मुखौटा पहनाने के डर जैसे तर्क शामिल थे.

भारत में CSR के इतिहास को देखें, तो आज चूंकि ये ज़िम्मेदारी एक क़ानूनी बाध्यता बन गई है, तो दिलचस्पी से ज़मीनी स्तर पर अच्छा असर डालने वाले काम करने के बजाय, कंपनियां निश्चित रूप से नियमों के पालन पर ज़्यादा ज़ोर दे रही हैं.

कितनी दख़लंदाज़ी को कुछ ज़्यादा ही दख़ल देना माना जाए?

पहले से मौजूद समस्या को और बढ़ाते हुए, फॉरेन कॉन्ट्रीब्यूशन रेग्यूलेशन संशोधन एक्ट (FCRA) 2020 ने दोबारा मदद देने की संभावनाओं को और भी सीमित कर दिया है, जो फंड के दुरुपयोग से जुड़ी हुई हैं. विदेशी पूंजी को प्रशासनिक मक़सद से इस्तेमाल करने और उन्हें फिर से मदद के तौर पर देने को सीमित करने के कॉरपोरेट और सामाजिक क्षेत्र की साझेदारी पर दूरगामी नतीजे निकलेंगे. फिर इसका असर और आगे भी देखने को मिलेगा.

आइए कॉरपोरेट ख़ज़ाने से हुए कुछ ऐसे ख़र्चों पर नज़र डालें, जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को स्थायी विकास के लक्ष्य हासिल करने में बिल्कुल भी मददगार नहीं बने.

फ़ौरी फ़ायदे के लिए बड़े मक़सद की अनदेखी

भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की कई कंपनियों ने अपने CSR फंड से राष्ट्रीय एकता को समर्पित एक स्मारक के निर्माण में योगदान दिया. तेल की खोज और पेट्रोलियम उत्पादों की मार्केटिंग करने वाली भारत सरकार की पांच बड़ी कंपनियों ने 140 करोड़ रुपए से ज़्यादा का योगदान दिया. इनके साथ राज्य सरकारों के मालिकाना हक़ वाली कई सरकारी कंपनियों को भी इस परियोजना में मदद के लिए 100 करोड़ रुपए देने को कहा गया था.

इसमें कोई दो राय नहीं कि राष्ट्रीय स्मारकों की अपनी कलात्मक और जज़्बाती अहमियत होती है. लेकिन, ये कहना भी ग़लत नहीं होगा कि ऐसे ख़र्च किए गए CSR फंड का इस्तेमाल, विश्व स्तर के शिक्षण संस्थान बनाने में भी किया जा सकता था. ऐसे संस्थानों में पूरे उप-महाद्वीप के छात्र पढ़ सकते थे. जिससे सांस्कृतिक मेल-जोल बढ़ता. या फिर ये रक़म उन आदिवासियों के पुनर्वास में भी ख़र्च की जा सकती थी, जो इस निर्माण से विस्थापित हुए हैं. इन कामों से राष्ट्रीय एकता का मक़सद हासिल करने में और अधिक मदद मिलती.

ग़लत प्राथमिकताओं का सवाल

राजनीतिक फ़ायदे के लिए CSR फंड के इस्तेमाल के ग़लत ख़याल के धार्मिक पहलू भी हैं. इसके अलावा, 2013 के कंपनीज़ एक्ट की सातवीं अनुसूची कंपनियों को निर्देशित करती है कि वो जानवरों के कल्याण में भी निवेश करें. ये संविधान के अनुच्छेद 48 के तहत नीति निर्देशक तत्व का भी हिस्सा है. लेकिन, क्या ऐसे विचारों को तोड़ मरोड़कर, धार्मिक फ़ायदे के लिए किसी ख़ास नस्ल के जानवर की भलाई के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है?

प्रजातियों के संरक्षण के मोर्चे पर CSR फंड का बेहतर इस्तेमाल तो इस तरह हो सकता है कि उसे जानवरों के रहने वाले इलाक़ों की तबाही और उन्हें टुकड़ों में बंटने से रोकने में ख़र्च किया जाए. इंसानों और जंगली जानवरों का संघर्ष रोका जाए और विलुप्त होने के कगार पर खड़े जानवरों के संरक्षण में लगाया जाए. यहां ये बात जानना दिलचस्प होगा कि विलुप्त होने के कगार पर खड़े दुनिया भर के दस जानवरों/परिंदों में से तीन भारत के रहने वाले हैं. कन्वेंशन ऑन कंज़र्वेशन ऑफ माइग्रेटरी स्पीशीज़ (CMS) के मुताबिक़ ये जीव हैं- भारतीय सारस, एसिशाई हाथी और बंगाली सारस.

तो, जब 2013 में कंपनीज़ एक्ट में बदलाव करके CSR को अनिवार्य बनाया गया और उनमें कुछ ख़ास ज़िम्मेदारियों को शामिल किया गया, तो ये भी तो हो सकता है कि ऐसा एक संकुचित सोच के तहत किया गया हो, जहां पर सरकार और कॉरपोरेट नागरिकों के  रिश्तों से जुड़े नियमों की ग़लत व्याख्या की गई हो.

सरकार और कारोबारी वर्ग के संसाधन और क्षमताएं अलग अलग होती हैं. हो सकता है कि सरकार द्वारा तय किए गए CSR के चलते कंपनियों के फंड धरे ही रह जाएं. सरकारें अक्सर अपनी सीमाओं के भीतर के मसलों को लेकर फ़िक्रमंद रहती हैं. हालांकि, जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, प्रजातियों के विलुप्त होने और अन्य समस्याओं के लिए वैश्विक प्रयासों की ज़रूरत होती है. बहुराष्ट्रीय कंपनियां वैश्विक समुदाय की सदस्य होती हैं, तो वो इन समस्याओं से निपटने के लिए ज़्यादा असरदार रणनीति बनाने की स्थिति में होती हैं.

निर्देश देने के बजाय अनिवार्य बनाने की दिशा में बढ़ने से कंपनीज़ एक्ट में किए गए CSR संबंधी हालिया बदलावों से पारदर्शिता बढ़ेगी. इससे कारोबारी क्षेत्र को अधिक लचीलेपन की इजाज़त मिलेगी, जिससे वो योजनाओं को सामाजिक भलाई करने में नयापन लाकर अपनी कोशिशों को और प्रभावी बनाने के लिए काम करेंगे. 

उम्मीद की किरण

ऐसा नहीं है कि बहुत आलोचना के बावजूद, भारत का राजनीतिक वर्ग CSR फंड ख़र्च करने से जुड़े फ़ैसले लेने के लिए कंपनियों को खुली छूट देने की मांग की अनदेखी किए हुए है. मई 2018 में एक संसदीय दल को CSR फंड के इस्तेमाल में अनियमितताओं की कई शिकायतें मिली थीं.

संसद की वित्त समिति ने सरकारी योजनाएं लागू करने में CSR फंड के इस्तेमाल पर ऐतराज़ जताया था. इस समिति में सत्ता पक्ष और विपक्ष के दिग्गज सदस्य शामिल होते हैं. इस समिति ने कॉरपोरेट को निर्देश जारी करके कहा था कि वो अपने CSR फंड का इस्तेमाल सरकारी कार्यक्रम और योजनाएं लागू करने में न करें, क्योंकि इससे उनकी कोशिशें बेकार जाएंगी. संसाधन बर्बाद होंगे, असमान विकास होगा और जवाबदेही तय करने में दिक़्क़तें आएंगी.

तो, क्या CSR फंड के इस्तेमाल से सकारात्मक बदलाव लाने में सरकार और कंपनियां किसी तरह से साझीदार नहीं बन सकते? ऐसा नहीं है. हमारा मानना है कि सरकार और निजी क्षेत्र मिलकर भारत में टिकाऊ परिवर्तन लाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं. इस काम में सरकार, कंपनियों की मदद इस तरह से कर सकती है:

  • सरकार कारोबारियों, ख़ास तौर से छोटे और मध्यम दर्जे के उद्योगों के प्रमुखों और युवाओं की अगुवाई वाली स्टार्ट-अप कंपनियों को ऐसे मौक़े मुहैया कराने को कह सकती है, जहां पर वो देश के विकास के एजेंडे को लागू करने में अहम भूमिका निभाएं.
  • सरकारी व्यवस्था की हर जगह पहुंच का इस्तेमाल करके कारोबारियों को नेटवर्किंग में मदद कर सकती है, जिससे वो CSR के क्षेत्र में नए चलन , औद्योगिक मानकों, सबसे अच्छे काम, रणनीति को अच्छे से समझ सकें और कुछ मिसालों से उनकी जानकारी और बेहतर बनाएं.
  • सरकार CSR प्रोजेक्ट में अपनी ख़ुशी से साझीदार बने, न कि रोड़े अटकाने वाली नियामक संस्था. सरकार को चाहिए कि वो हुनर, विशेषज्ञता और मदद उपलब्ध कराए और कंपनियों को वैश्विक चुनौतियों से निपटने के लिए नई रणनीतियां बनाने में मदद करे.
  • सरकार ये माने कि CSR और कारोबारी होड़ एक दूसरे से जुड़ी हैं. कोई कंपनी अपनी CSR योजना लागू करने में नया नज़रिया लाकर अपनी ब्रैंड वैल्यू बढ़ा सकती है. इससे दुनिया से मुक़ाबले की भारत की क्षमता भी बेहतर होगी.
  • CSR से जुड़ी ज़िम्मेदारियां निभाने की कंपनियों की क्षमताओं पर सरकार भरोसा करे और उन्हें समाज की ज़रूरतें पूरी करने और ज़मीनी स्तर पर बदलाव लाने में अगुवाई करने का मौक़ा दे.

निर्देश देने के बजाय अनिवार्य बनाने की दिशा में बढ़ने से कंपनीज़ एक्ट में किए गए CSR संबंधी हालिया बदलावों से पारदर्शिता बढ़ेगी. इससे कारोबारी क्षेत्र को अधिक लचीलेपन की इजाज़त मिलेगी, जिससे वो योजनाओं को सामाजिक भलाई करने में नयापन लाकर अपनी कोशिशों को और प्रभावी बनाने के लिए काम करेंगे. अगर कंपनियों को अपने बचे हुए CSR फंड को किसी और योजना में इस्तेमाल करने के लिए लंबित खाते में डालने की छूट मिले, तो इससे फंडिंग के नए मॉडल जैसे कि प्रभाव के आधार पर निवेश को बढ़ावा मिलेगा. इस बदलाव का लंबे समय से इंतज़ार है. इससे स्थायी विकास के लिए कामयाब योजनाओं को दोहराने और उनका दायरा बढ़ाने के सामूहिक क़दम उठाए जा सकेंगे. बोर्ड द्वारा प्रमाणित करने को अनिवार्य बनाकर इन संशोधनों ने कंपनी के नेतृत्व को CSR योजनाओं में सक्रिय भागीदारी के लिए मजबूर किया है. इससे CSR किसी कंपनी की रणनीति और आगे की योजना का अटूट हिस्सा बनें हैं. ऐसा न करने पर जुर्माना लगाने की व्यवस्था ये सुनिश्चित करती है कि मुनाफ़े में चल रही कंपनियां CSR के लिए ज़रूरी फंड अलग रखती हैं, और उनका कहीं और निवेश नहीं करतीं. आख़िर में, किसी योजना के प्रभाव की स्वतंत्र एजेंसी से समीक्षा कराने से जानकारी साझा करने की अच्छी व्यवस्था बनेगी, जो छोटे संगठनों को असरदार और टिकाऊ विकास से जुड़ी ऐसी योजनाएं बनाने में मदद मिलेगी, जो सामाजिक, डिजिटल और वित्तीय भागीदारी बढ़ाएंगे.

भारत कई सामाजिक आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा है, और संयुक्त राष्ट्र के स्थायी विकास के लक्ष्य  2030 हासिल करने के लिए उसके पास एक दशक का ही समय बचा है. ऐसे में भारत सरकार और यहां के उद्योगों के लिए ये आख़िरी मौक़ा है कि वो स्थायी विकास की समस्या से असरदार तरीक़े से निपटें.

बेहतर भविष्य की ओर

स्थायी विकास बहुत बड़ी चुनौती है और इसका दायरा 2013 के कंपनीज़ एक्ट की सातवीं अनुसूची से व्यापक है. भारत कई सामाजिक आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा है, और संयुक्त राष्ट्र के स्थायी विकास के लक्ष्य  2030 हासिल करने के लिए उसके पास एक दशक का ही समय बचा है. ऐसे में भारत सरकार और यहां के उद्योगों के लिए ये आख़िरी मौक़ा है कि वो स्थायी विकास की समस्या से असरदार तरीक़े से निपटें.

आज भारत में एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार है और भारत के निजी क्षेत्र के पास भी संपत्ति और रोज़गार के निर्माण की काफ़ी संभावनाएं हैं. ऐसे में भारतीय कंपनिया, अच्छा बदलाव लाने की मज़बूत स्थिति में हैं. भारत सरकार और उद्योग जगत कई मोर्चों पर साझेदारियों के ज़रिए मिलकर दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था की सबसे पेचीदा समस्याओं को हल कर सकते हैं.

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