Published on May 04, 2019 Updated 0 Hours ago

आर्थिक विकास को बुनियादी ढांचे, विशेषकर सड़कों, अस्पतालों और शैक्षणिक संस्थानों के प्रावधान का विकल्प माना जाता है. रोज़गार पैदा करना बहुत ज़रूरी है.

क्या शासन के मुद्दों से प्रभावित होगा जम्मू-कश्मीर का चुनाव परिणाम?

भारत में जब चुनाव होते हैं तब जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में सरकार के प्रदर्शन और सत्ता में वापसी की उम्मीद के बीच क्या कोई संबंध बनता है, यानि दूसरे शब्दों में चुनावों के नतीजों पर जम्मू-कश्मीर राज्य का कितना असर पड़ता है? एक राज्य के तौर पर जम्मू-कश्मीर अस्थिर प्रकृति और तेज़ी से बदलते राजनीतिक हालात (ख़ास कर घाटी में) की वजह से पर्यवेक्षक इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि सरकार के प्रदर्शन और चुनाव से पहले की राजनीतिक गतिविधियों के बीच बेहद ही कमज़ोर/सूक्ष्म कड़ी है. सच्चाई ये है कि ये तर्क असल में काफी हद तक प्रेरित या प्रायोजित होते हैं, इन्हें एक तरह से डिज़ाईन किया जाता है ताकि एक निश्चित निष्कर्ष निकाल कर लोगों को सामने रख दिया जाए, जैसे कि — जब तक “कश्मीर मुद्दा” सुलझा नहीं लिया जाता है, तब तक कुछ भी नहीं हो सकता है. इसे दो तरह से देखा जा सकता है: पहला ये कि कश्मीर मसले का से आंशिक सच है और दूसरा यह कि यह सिर्फ़ कि ये कश्मीर के समूचे सच का मात्र एक हिस्सा है.

भारत में विलय के बाद शुरुआती दशकों में जम्मू-कश्मीर की राजनीति पर पूरी तरह से शेख़ अब्दुल्ला का दबदबा रहा — फ़िर चाहे वो सत्ता में हों या सत्ता के बाहर. इसकी एक बड़ी वजह ये थी कि शेख़ अब्दुल्ला कश्मीर के लोगों (कम से कम जो लोग घाटी में रहते थे) की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. लेकिन दूसरी बेहद महत्वपूर्ण वजह 40 और 50 के दशक में उनकी सरकार द्वारा किया गया व्यापक भूमि सुधार का काम था, जिसकी वजह से उनकी लोकप्रियता निरंतर बनी रही और बाद के सालों में उनकी पार्टी को भी इसका फ़ायदा हुआ. वास्तव में, शेख़ अब्दुल्ला की सबसे बड़ी चुनावी जीत 1977 में हुई, जब उन्होंने 1975 में इंदिरा-शेख़ समझौते के साथ राज्य के लोगों की आकांक्षाओं की कथित तौर पर बलि दे दी थी. विधानसभा चुनावों में अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कॉन्फ़्रेंस ने शानदार जीत हासिल की और घाटी में पड़े वोटों का क़रीब 60 फ़ीसदी हिस्सा हासिल किया. 1983 के चुनाव में भी क़रीब-क़रीब यही कहानी दोहराई गई. 1986 में कांग्रेस के साथ गठबंधन से नेशनल कॉन्फ़्रेंस की साख पर बट्टा लगा और 1987 के विधानसभा चुनावों में कथित तौर पर जमकर धांधली हुई और आतंकवाद के दौरान इसका प्रतिकूल असर पड़ा.

लेकिन भूमि सुधारों के अलावा, जम्मू और कश्मीर में शासन धीरे-धीरे बहुत ख़राब स्थिति में पहुंच गया. सुशासन का एक दौर था मतलब बतौर राज्यपाल जगमोहन का कार्यकाल, लेकिन मुफ़्ती मोहम्मद सईद के आने तक जम्मू-कश्मीर की राजनीति में गंभीर शासन का अभाव रहा. मुफ़्ती मोहम्मद सईद 2002 के चुनावों के बाद सत्ता में आए उस वक्त़ नेशनल कॉन्फ़्रेंस ने विधानसभा में अपना बहुमत खो दिया था. एक यह राय भी है कि नेशनल कॉन्फ़्रेंस की सरकार ने सूबे के विकास के लिए कुछ ख़ास नहीं किया और साथ ही बीजेपी के साथ गठबंधन करना अब्दुल्ला की पार्टी के लिए घाटी में महंगा पड़ गया. पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) — कांग्रेस गठबंधन सत्ता में आई और यक़ीनन जम्मू-कश्मीर में यह पहली सरकार थी जिसने शासन के मुद्दों पर व्यापक सार्वजनिक चर्चा की थी.

भूमि सुधारों को छोड़ दें तो जम्मू और कश्मीर में शासन धीरे-धीरे बहुत ख़राब स्थिति में पहुंच गया.

पिछली सरकार द्वारा साल 2000 के बाद से राज्य सरकार में रोज़गार के संबंध में प्रतिबंध लगा था, इसलिए लोकप्रियता बढ़ाने के लिए सरकारी रोज़गार में बढ़ोतरी करना नई सरकार के दायरे में नहीं था, रोज़गार के मुद्दे को छोड़ नए गठबंधन ने अराजक वित्तीय व्यवस्था को पटरी पर लाने के साथ शासन के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना शुरू किया. इस दौरान निवेश बढ़ाने के मक़सद के साथ ऊर्जा सुधार और औद्योगिक नीति शुरू की गई. साथ ही इस समय में नई सड़कों के निर्माण के साथ आधारभूत ढांचे के विकास को भी बढ़ावा मिलना शुरु हुआ. जम्मू की कॉलोनियों में बिजली को मीटर से जोड़ा गया और बिजली कटौती काफ़ी कम होने लगी.

इस बात में कोई आश्चर्य नहीं है कि आर्थिक विकास और शासन पर ज़ोर पीडीपी-कांग्रेस गठबंधन से आया इनके पास नेशनल कॉन्फ़्रेंस की तरह राजनीतिक संघर्ष और भूमि सुधार की विरासत नहीं थी. इस तरह पीडीपी-कांग्रेस गठबंधन एक विश्वसनीय विकल्प होगा अगर वो शासन और विकास को बढ़ावा दे सकें, जो कि नेशनल कॉन्फ़्रेंस से नहीं किया था. साल 2005 में जब कांग्रेस के ग़ुलाम नबी आज़ाद जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने उन्हीं नीतियों को जारी रखा और एक और नीति को अमल में लाया. अधिक से अधिक सरकारी कर्मचारियों की भर्ती को लेकर राज्य सरकार पर लगे प्रतिबंध के ख़त्म होते ही उन्होंने लंबे समय में होने वाले वित्तीय परिणामों की अनदेखी करते हुए सरकारी पदों को भरना शुरू किया. हालांकि, सड़कों और दूसरी सुविधाओं के रूप में शासन और विकास पर ज़ोर की नीति जारी रही. इसका असर 2008 में पुंछ विधानसभा के उपचुनाव में दिखा, जब कांग्रेस ने 35 साल के लंबे अंतराल के बाद यह सीट नेशनल कॉन्फ़्रेंस की झोली से छीन लिया.

साल 2008 में अमरनाथ श्राईन बोर्ड की ज़मीन को लेकर उठे विवाद से ठीक पहले तक कांग्रेस पूरी तरह सत्ता में वापसी के सुनहरे सपने देख रही थी, क्योंकि इस दौरान पर्यटन उद्योग की वापसी, उद्योगों में तेज़ी और जम्मू, लद्दाख़ में बुनियादी ढांचे में सुधार और घाटी में पैठ बढ़ाने के साथ यह सूबा सबसे लंबे समय तक शांति महसूस कर रहा था. लेकिन, अमरनाथ श्राईन बोर्ड से जुड़े ज़मीन विवाद ने कांग्रेस की इस उम्मीद पर पानी फेर दिया.

साल 2009 के विधानसभा चुनावों में शासन को वरीयता देनेवाली दो पार्टियों (पीडीपी और कांग्रेस) की राह अलग हो गई और उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कॉन्फ़्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन की सरकार बनी. उमर अब्दुल्ला के शासन के शुरुआती सालों में घाटी में लगातार अशांति बनी रही. हालांकि, बाद में शांति बहाल हुई लेकिन गठबंधन की नई सरकार ने शासन में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और बिजली सुधार जैसे महत्वपूर्ण प्रयासों को ठंडे बस्ते में डाल दिया.

2009 के विधानसभा चुनावों में शासन को वरीयता देनेवाली दो पार्टियों (पीडीपी और कांग्रेस) की राह अलग हो गई और उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कॉन्फ़्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन की सरकार बनी. उमर अब्दुल्ला के शासन के शुरुआती सालों में घाटी में लगातार अशांति बनी रही. हालांकि, बाद में शांति बहाल हुई लेकिन गठबंधन की नई सरकार ने शासन में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और बिजली सुधार जैसे महत्वपूर्ण प्रयासों को ठंडे बस्ते में डाल दिया. जब पंचायत के लिए चुनाव हुए, तब भी वो असशक्त और आर्थिक रूप से भी कमज़ोर बने रहे.

हालांकि, पंचायत चुनाव पार्टी लाइन पर नहीं लड़े गए, फिर भी नेशनल कॉन्फ़्रेंस पंचायत चुनावों में बुरी तरह से हार गई और उसके बाद साल 2014 में कश्मीर में कुदरत का क़हर बरपा और घाटी में सदी की सबसे भयावह बाढ़ आई. प्रकृति के प्रकोप के सामने सूबा पूरी तरह तबाह हो गया और राज्य को बचाने की ज़िम्मेदारी पूरी तरह से मिलिट्री और सिविल सोसायटी के उपर आ गई.

साल 2014 के विधानसभा चुनावों में नेशनल कॉन्फ़्रेंस और कांग्रेस गठबंधन की हार की वजह जहां एक तरफ़ शासन के मुद्दे रहे वहीं दूसरी तरफ़ जो कमी थी उसे बीजेपी के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के धुआंधार चुनाव प्रचार और ज़ोरदार अभियान ने पूरा कर दिया. इसकी वजह से स्थानीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को काफ़ी ताक़त मिली और जो गठबंधन के हार का कारण बना. राज्य के भविष्य को लेकर विचारों के व्यापक अंतर को देखते हुए सत्ता में आई पीडीपी-बीजेपी गठबंधन को एक बेमेल गठबंधन के रूप में देखा गया, लेकिन जब शासन और निजी उद्यम की बात आई तो उनकी समानताओं ने उम्मीदों की एक नई ऊंचाई दी, जहां हालत काफ़ी चिंताजनक थी. एक बड़ी कहानी को कम शब्दों में कहा जाए तो इन आशाओं को बड़ी ही रुख़ाई से पूरी तरह से झूठा साबित कर दिया गया. इस तरह, जब जून 2018 में पीडीपी-बीजेपी का गठबंधन टूटा तो ख़राब सुरक्षा वातावरण के अलावा शासन के सभी मापदंडों में 2008 के मुक़ाबले काफी गिरावट आई थी. लेकिन जब केंद्र प्रायोजित योजनाओं की बात आई, ख़ास कर सड़कों और पुलों जैसी बुनियादी ढांचों की तो राज्य का ख़ास ख़याल रखा गया यह दिखाने के लिए कि केंद्र सरकार ने जिन चीज़ों का वादा किया था, उन्हें तय समय में पूरा किया गया.

फिर, सवाल ये उठता है कि आख़िर आर्थिक मुद्दे राज्यों में चुनावों को कैसे प्रभावित करते हैं? राज्य ख़ुद को जब ऐसी किसी स्थिति में पाता है कि उसका आर्थिक विकास वहां उपलब्ध बुनियादी ढांचे, विशेषकर सड़कों, अस्पतालों और शैक्षणिक संस्थानों के प्रावधान का पर्याय माना जाता है. यह जानते हुए कि निजी क्षेत्र में रोज़गार अनिश्चित वातावरण में पैदा नहीं किये जा सकते हैं, नौकरियों के स्रोत के रूप में राज्य अभी भी बहुत महत्वपूर्ण है.

पंचायतों के चुनाव तकनीकी रूप से ग़ैर पक्षपाती थे, इस तथ्य के बावजूद स्थानीय निकाय चुनाव और पंचायत चुनावों का बहिष्कार किया गया.

ये सब कुछ 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए क्या संकेत देता है? पंचायतों के चुनाव तकनीकी रूप से ग़ैर पक्षपाती थे, इस तथ्य के बावजूद स्थानीय निकाय चुनाव और पंचायत चुनावों का बहिष्कार किया गया. इसके साथ ही, यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव कई मुद्दों पर लड़े जाते हैं. जम्मू की लोकसभा सीटों पर राष्ट्रीय मुद्दों को ध्यान में रखकर चुनाव लड़े जाने की संभावना है. आर्थिक विकास और शासन भी मुद्दे रहेंगे लेकिन उनका प्रभाव अभी अनिश्चित है क्योंकि अभी यह नहीं पता है कि बीजेपी का तंत्र आयुष जैसी योजनाओं को लागू करने में कितना सक्षम रहा है. घाटी में 2014 में सत्ता में दोबारा वापसी तक पीडीपी ही एकमात्र पार्टी थी जिसके पास गवर्नेंस कार्ड का था, जो अब नहीं रहा. पीडीपी का ऑटोनोमी (स्वायत्तता) कार्ड भी अब ख़तरे में है. इसलिए स्वायत्तता और गवर्नेंस जैसे मुद्दे जिन पर घाटी में सत्ता की लड़ाई लड़ी जा रही है, वो अब काफी हद तक धुंधले पड़ गए हैं.

हालांकि, ऐसी उम्मीद की जा रही है कि जब विधानसभा चुनाव होंगे तब शासन के मुद्दे वापस लौटेंगे, क्योंकि घाटी की राजनीति 1980 के दशक की तुलना में ज़्यादा प्रतिस्पर्धात्मक हो गई है. नेशनल कॉन्फ़्रेंस इस बात को पूरी तरह ध्यान में रखकर विधानसभा चुनाव लड़ेगी कि इसकी विरासत की एक्सपायरी डेट आ चुकी है, पीडीपी ने अपना गवर्नेंस कार्ड खो दिया है और पीडीपी-बीजेपी गठबंधन का हिस्सा रही JKPC (जम्मू एंड कश्मीर पीपल्स कॉन्फ़्रेंस) अभी भी अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने में कामयाब दिखती है और शासन के नए तरीक़े सुझाती है.

कुल मिलाकर, शासन के मुद्दे जम्मू-कश्मीर के वोटरों को भी प्रभावित करती है. मौजूदा समय में भले ही अच्छे प्रदर्शन को ज़रूरी तौर पर कोई ईनाम न दिया जाए, लेकिन ख़राब प्रदर्शन को सज़ा ज़रूर दी जाती है. ख़ासकर तब जबविकल्प मौजूद हों.

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