हाल में भीड़ द्वारा किसी की हत्या कर दिए जाने तथा उन्माद में हिंसक घटनाओं को अंजाम दिए जाने की कई चर्चित घटनाएं हुई है और इनमें से ज्यादातर वारदातें पशुओं के व्यापार या गोमांस खाने से जुड़ी रही हैं। इन घटनाओं के बाद एक नई व्याख्या अस्तित्व में आई है कि इस तरह की घटनाओं की संख्या में हाल में बेतहाशा बढोतरी हुई है। इसका एक अर्थ यह भी निकाला जा रहा है कि मई 2014 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद इस तरह की हिंसा में बढोतरी हुई है।
मुख्यधारा के मीडिया प्रतिष्ठानों से निकलने वाली ऐसी खबरों के जवाब में ऑनलाइन दक्षिणपंथी शाखा के तत्व, जिनमें से कई भाजपा के पक्षधर भी हैं, जोर देकर कहते हैं कि इस प्रकार की हत्याओं तथा भीड़ द्वारा हिंसक घटनाओं को अंजाम दिए जाने की घटनाओं में कोई इजाफा नहीं हुआ है और यह सब केवल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, भाजपा और देश एवं विदेश दोनों ही जगहों पर भारत की छवि खराब करने की मुख्यधारा के मीडिया प्रतिष्ठानों की एक साजिश है।
बदकिस्मती से, इसके पक्ष एवं विपक्ष दोनों की ही व्याख्याएं काफी हद तक आंकड़ों एवं विश्लेषण से मुक्त हैं और दावों तथा रायों पर आधारित होते हैं और कभी कभार डाटा विश्लेषण के मुखौटे का काम करते हैं।
इस प्रकार की बेहद गलत और पक्षपातपूर्ण बहस में इस विशाल अंतर को दुरूस्त करने के लिए मैं एक ऐसा डाटासेट प्रस्तुत कर रही हूं जो जनवरी 2011 से जून 2017 तक भारत में इस प्रकार की हत्याओं तथा भीड़ द्वारा हिंसक घटनाओं की संख्याओं पर मैं एकत्र करती रही हूं।
चूंकि ऐसा कोई आधिकारिक डाटा नहीं है जो घटना के प्रकार के लिहाज से डाटा को वर्गीकृत करता है, मैंने समाचार रिपोर्टों की एक व्यापक खोज के जरिये एक नया डाटासेट असेंबल किया है। जहां तक संभव है, मैं सभी वैकल्पिक रिपोर्टों की तुलना के जरिये विशिष्ट घटनाओं की जांच करती हूं।
ये सभी डाटा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध समाचार स्रोतों से संबंधित हैं और इसलिए कभी कोई चाहे तो उनका पुनर्निर्माण किया जा सकता है। लिंचिंग वैसी घटनाओं की तरफ उल्लेख करती है जिसमें भीड़ की हिंसा के नतीजतन किसी की हत्या कर दी जाती है। सार्वजनिक अव्यवस्था वैसी घटनाओं की तरफ उल्लेख करती है जिसे समूहों या व्यक्ति विशेषों द्वारा अंजाम दिया जाता है। दोनों में ऐसी घटनाएं शामिल होती हैं जिनकी कोई सांप्रदायिक वजह हो भी सकती है और न भी। ये घटनाएं दोनों में से किसी एक वर्ग से संबंधित हो सकती हैं — दोनों वर्गां से नहीं।
इस चार्ट को देखने से यह स्पष्ट है और ट्रेंडलाइन से भी इसकी पुष्टि होती है कि समय अवधि में प्रति महीने इस तरह की घटनाओं में बढोतरी हो रही है। इससे वह धारणा भी समाप्त हो जाती है कि इस प्रकार की घटनाओं की संख्या में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए से भाजपा के शासनकाल में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।
लिंचिंग वैसी घटनाओं की तरफ उल्लेख करती है जिसमें भीड़ की हिंसा के नतीजतन किसी की हत्या कर दी जाती है। सार्वजनिक अव्यवस्था वैसी घटनाओं की तरफ उल्लेख करती है जिसे समूहों या व्यक्ति विशेषों द्वारा अंजाम दिया जाता है।
सतही तौर पर, इस चार्ट से ऐसा प्रतीत होता है कि भीड़ द्वारा हिंसा में यूपीए एवं भाजपा दोनों के ही शासन कालों में लगातार बढोतरी होती रही है। इस चार्ट से ऐसा प्रतीत होता है कि इसके लिए दोनों में से कोई भी सरकार जिम्मेदार नहीं हैं क्योंकि इसके पक्ष में यह तर्क दिया जा सकता है कि कुछ अंतर्निहित सामाजिक बदलावों के कारण हिंसा की घटनाओं में लगातार बढोतरी हो रही है, चाहे कोई भी पार्टी सत्ता में क्यों न रही हो।
लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि लगातार बढ़ता रुझान जनवरी 2011 से जून 2017 तक डाटा में आ रहे महत्वपूर्ण बदलावों पर आवरण डाल सकता है। दूसरे शब्दों में, ऐसा कहा जा सकता है कि यूपीए के तहत भीड़ द्वारा हिंसा में बढोतरी हो रही थी लेकिन भाजपा के सत्तारुढ़ होने के बाद इस रूझान में और तेजी आ गई। इस पूरी समयावधि पर एक ट्रेंडलाइन हमें यह नहीं बता सकती कि यह सच है या नहीं।
आंकड़ों की जुबानी कहें तो हम समय श्रृंखला में ‘संरचनात्मक विराम’ की खोज कर रहे हैं और अगर इस संरचनात्मक विराम का कोई अस्तित्व है तो यह भाजपा की चुनावी जीत के अनुरूप है।
मान लीजिए कि हम अनुमान लगाते हैं कि मई 2014 में भाजपा की आम चुनावों में जीत के बाद एक संरचनात्मक विराम हुआ है। इस संभावना की जांच करने का एक सरल तरीका इस डाटा को दो उप समूहों — एक जनवरी 2011 से मई 2014 तक (चार्ट 2) एवं दूसरा -जून 2014 से जून 2017 (चार्ट 3) में विभक्त कर देना है।
इनसे जो कहानी उभर कर सामने आती है, वह आश्चर्यजनक है। चार्ट 2 में नीचे की ओर झुकी प्रवृति प्रदर्शित हो रही है, जिसका अर्थ यह हुआ कि भीड़ हिंसा का रुख वास्तव में यूपीए के अंतिम दिनों में नीचे की ओर था। चार्ट 3 में बाद के दिनों में ऊपर की ओर प्रवृति प्रदर्शित हो रही है, जिसका अर्थ यह हुआ कि भीड़ हिंसा का रुख 2014 के मध्य में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से ऊपर की ओर बना हुआ है।
इसके अतिरिक्त, हम जानते हैं कि पूर्ण डाटासेट में ऊपर की ओर की समग्र प्रवृति निश्चित रूप से जून 2014 और उसके बाद की घटनाओं से प्रेरित हुई होगी। इस गणित का अनुमान तो सरलता से लगाया जा सकता है।
इस अंतर्ज्ञान को एक कठिन सांख्यिकीय परीक्षण जिसे चाऊ टेस्ट के नाम से जाना जाता है और जो निर्धारित करता है कि क्या किसी संरचनात्मक विराम का अस्तित्व है, के जरिये औपचारिक रूप दिया जा सकता है। इस परीक्षण को करने से इसकी पुष्टि होती है कि वास्तव में मई एवं जून 2014 के बीच सांख्यिकी के रूप से उल्लेखनीय संरचनात्मक विराम है और यह ठीक वैसे ही है जैसाकि चार्ट2 एवं चार्ट 3 हमें स्पष्टतया बताते हैं।
इसके अतिरिक्त, एक संबंधित परीक्षण क्वॉयंट टेस्ट भी करना संभव है जो वास्तव में सभी संभव विकल्पों के बीच संख्या के हिसाब से सर्वाधिक उल्लेखनीय ब्रेकप्वांइट पाने के लिए एक मेटा-टेस्ट है। क्वॉयंट-एंड्रिूज टेस्ट सुस्पष्ट रूप से जून 2014 को ब्रेकप्वांइट ठहराता है। हम एक बार फिर से दुहरा दें कि, संरचनात्मक विराम के लिए इस तारीख को किसी शोधकर्ता द्वारा नहीं थोपा गया है बल्कि परीक्षण द्वारा इसकी पहचान की गई है। सांख्यिकी इसे स्पष्ट करती है कि वास्तव में मई एवं जून 2014 के बीच भीड़ हिंसा मेंअंतर्निहित बलों के प्रेरक रूझानों में बदलाव हुआ है।
इस सांख्यिकी विश्लेषण का परिणाम निश्चित रूप से ऑनलाइन दक्षिण पंथियों द्वारा इसके विरोध में दिए जा रहे तर्कों का खंडन करता है। हालांकि भारत को एक लिंचिस्तान कहना एक आरोपित और आवेशित परिभाषा है, लेकिन अगर इसका आशय यह है कि 2014 में भाजपा के शासन में आने के बाद से भीड़ हिंसा में वृद्धि यानी ऊपर की तरफ जाने की प्रवृति बढ़ रही है तो यह डाटा निश्चित रूप से इसका प्रमाण है।
एक महत्वपूर्ण एवं आवश्यक चेतावनी यह है कि डाटासेट और इसलिए इस पर आधारित सांख्यिकीय विश्लेषण का निर्माण मीडिया रिपोर्टों से किया गया है न कि आधिकारिक आंकड़ों से। इसलिए इसकी एक तार्किक व्याख्या यह है कि भीड़ हिंसा में बढोतरी पूरी तरह भाजपा की जीत के बाद बढ़ी हुई रिपोर्टों से प्रेरित है, हालांकि इस दावे की सच्चाई कितनी है, इस पर सवाल उठाए जा सकते हैं।
सच्चाई का पता लगाने के लिए बड़े मीडिया घरानों के बीच बेहद बड़े पैमाने पर आपस में समन्वय और सहयोग की आवश्यकता होगी जो भाजपा की जीत के कुछ ही दिनों के भीतर काफी अधिक सक्रिय हो गए थे: संक्षेप में कहें तो यह साजिशपूर्ण परिकल्पना है।
प्रधानमंत्री एवं भाजपा के प्रति मुख्यधारा की मीडिया के सुस्पष्ट वैर भाव को देखते हुए, यह निश्चित रूप से मुमकिन है कि मई 2014 के बाद रिपोर्टिंग में कुछ तरफदारी हुई हो। लेकिन इसमें इस बात की भी खासी गुंजाइश है कि भीड़ हिंसा में बढोतरी की एक बड़ी प्रवृति को एक वास्तविक घटना के रूप में देखा जाए, हालांकि उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर इसका और अधिक विश्लेषण संभव नहीं है।
ये आंकड़े खुद इन सवालों का जवाब नहीं दे सकते लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं गाय संबंधित हिंसक घटनाओं व हिंसा के खिलाफ जोरदार बयान देकर इसका उत्तर दे दिया है।
ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री कई अन्य लोगों की तुलना में ज्यादा बेहतर तरीके से समझते हैं कि गाय संबंधित हिंसक घटनाएं और संभवतः सांप्रदायिक हिंसा भारत में लगातार बढ़ने वाली एक समस्या है। चार्ट 4 में जनवरी 2012 से जून 2017 तक कुल भीड़ हिंसाओं में गाय संबंधित और अलग से सांप्रदायिक हिंसा के हिस्से को प्रदर्शित किया गया है। सांप्रदायिक हिंसा पहले कुछ वर्षों में कुल घटनाओं के लगभग 20 प्रतिशत पर स्थिर है और वास्तव में 2015 में इसमें गिरावट आती है, फिर 2016 में इसमें फिर बढोतरी होती है और 2017 में अभी इसमें गिरावट बनी हुई है। इसमें कोई भी स्पष्ट पैटर्न नजर नहीं आता।
इसके विपरीत, और आश्चर्यजनक रूप से, गाय संबंधित हिंसक घटनाओं (लिंचिंग या सार्वजनिक अव्यवस्था) का प्रतिशत कुल घटनाओं के 5 प्रतिशत से भी कम के बेहद निम्न प्रतिशत से बेहद तेजी से बढ़कर जून के आखिर तक 20 प्रतिशत से अधिक तक पहुंच चुका है। इसे अस्वीकार करना मुश्किल है कि इसमें कोई रूझान है।
यह आवश्यक है कि प्रधानमंत्री और भाजपा अपने कार्यकाल की शेष अवधि में प्रशासनिक, विशेष रूप से टूटी हुई आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार लाने को सर्वोच्च प्राथमिकता दें। मोदी सरकार को कम से कम, तत्काल अपारदर्शी और बेरहम मवेशी व्यापार नियमों की समीक्षा करने की जरुरत है जिनकी वजह से गाय से संबंधित हिंसक घटनाओं के भविष्य में तेजी से बढ़ने की पूरी आशंका है। निम्न प्रशासनिक ढांचे और सरकार की सीमित क्षमता की वजह से ही गाय से संबंधित हिंसक घटनाओं जैसे अपराध तेजी से फलते फूलते हैं।
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.