Published on Apr 03, 2021 Updated 0 Hours ago

इस नाटकीय परिवर्तन ने राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर पर राजनीतिक वर्ग- मौजूदा संसद सदस्यों और विधानसभा सदस्यों- जिनकी संख्या 10,000 से कम हैं, को चिढ़ाने का काम किया है.

क्या दिल्ली में लोकतांत्रिक व्यवस्था का पतन हुआ है?
Getty

17 मार्च 2021 को संसद के दोनों सदनों के द्वारा मंज़ूर एक विधेयक भारत के राष्ट्रपति के द्वारा नियुक्त (यानी केंद्र सरकार) उप-राज्यपाल (एलजी) के दखल के बिना दिल्ली सरकार के काम करने की क्षमता को काफ़ी कम कर देगा. कार्यपालिका के हर फ़ैसले को अब एलजी के पास भेजना होगा. 

इसी तरह जहां दिल्ली विधानसभा क़ानून तो बना सकती है लेकिन छानबीन के द्वारा कार्यपालिका की ज़िम्मेदारी को लागू करने की उसकी क्षमता सीमित हो जाएगी. ऐसा होने से दिल्ली में राजनीतिक संरचना काफ़ी हद तक 1991 से पहले की तरह हो जाएगी जब दिल्ली में विधानसभा की स्थापना हुई थी और क़ानून-व्यवस्था, पुलिस और ज़मीन प्रबंधन को छोड़कर दूसरे राज्यों की तरह सरकार को कार्यपालिका की शक्तियां मिली थीं. 

इस नाटकीय परिवर्तन ने राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर पर राजनीतिक वर्ग- मौजूदा संसद सदस्यों और विधानसभा सदस्यों- जिनकी संख्या 10,000 से कम हैं, को चिढ़ा दिया है. जो लोग बीजेपी के हैं वो अपनी नाराज़गी खुलकर जताने में सक्षम नहीं हैं लेकिन वो भी पूर्व में कश्मीर के राजनीतिक घटनाक्रम से इसको जोड़कर भविष्य में प्रांतीय विधानसभाओं की शक्ति में संभावित कटौती के बारे में समझ रहे हैं. 

जो लोग लोकतंत्र की मौजूदा संरचना को “संरक्षित” रखना चाहते हैं- भले ही उस संरचना के पीछे की सोच पुरानी पड़ गई हो- उन्हें लग सकता है कि कश्मीर और दिल्ली में लोकतंत्र की हत्या हुई है.

17 अक्टूबर 2020 को मौजूदा जम्मू-कश्मीर पंचायती राज क़ानून में संशोधन के ज़रिए ज़िला विकास परिषद (डीडीसी) की स्थापना की गई जिसके सदस्यों का प्रत्यक्ष तौर पर चुनाव होगा. पंचायती राज की संरचना- प्रत्यक्ष तौर पर निर्वाचित ग्राम परिषद और ग्राम परिषद के प्रधानों द्वारा निर्वाचित खंड विकास परिषद- में डीडीसी को सबके ऊपर रखा गया. 

जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष संवैधानिक व्यवस्था को ख़त्म करने से पहले नवंबर 2018 में जम्मू-कश्मीर की विधानसभा को भंग कर दिया गया. विधानसभा को फिर से बहाल किया जाना बाक़ी है. जब विधानसभा बहाल होगी तब भी पूर्व में राज्य सरकार के पास जो अधिकार थे, उनमें से कुछ अधिकार डीडीसी को मिलने को संभावना है. 

जो लोग लोकतंत्र की मौजूदा संरचना को “संरक्षित” रखना चाहते हैं- भले ही उस संरचना के पीछे की सोच पुरानी पड़ गई हो- उन्हें लग सकता है कि कश्मीर और दिल्ली में लोकतंत्र की हत्या हुई है. बाकी लोग, जो केंद्र सरकार पर ज़्यादा भरोसा करते हैं, उन्हें लगता है कि दोनों राज्यों के घटनाक्रम में अच्छे नतीजों की संभावना है. हालांकि, ऐसे लोग भी मानते हैं कि ये घटनाक्रम राजनीतिक तौर पर हुक्म चलाना है. 

जम्मू-कश्मीर का उदाहरण

हम जम्मू-कश्मीर के मामले की बात करेंगे क्योंकि 31 अक्टूबर 2019 को इसके विशेष दर्जे का ख़त्म होना- एक भावनात्मक घटना- विधानसभा और पंचायती राज संस्थानों के बीच शक्तियों के प्रभावशाली वितरण के तकनीकी मुद्दे को उलझाता है. पंचायती राज संस्थानों को 1993 में दिवंगत प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार के दौरान 73वें और 74वें संशोधन अधिनियम के ज़रिए संवैधानिक मान्यता मिली. लेकिन स्थानीय सरकार आमतौर पर मरणासन्न बनी रहती हैं, क्योंकि राज्य सरकारों की इच्छा नहीं होती कि उन्हें अधिकार, क्षमता और वित्त मिले. 

अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी (एएपी) सरकार ने विविधता से भरे और फटेहाल तरीक़े से काम किए गए इस महानगर में काफ़ी मेहनत की है. मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को तोड़ने के रूप में स्थापित आम आदमी पार्टी अब परिपक्व राजनीतिक प्रबंधन वाली पार्टी में तब्दील हो गई है. योग्यता का सिद्धांत बताता है कि काम करने वालों को पुरस्कार मिलना चाहिए. और आम आदमी पार्टी के साथ ऐसा हुआ भी जब 2020 में उसे दूसरी बार दिल्ली की सत्ता सौंपी गई. अब दिल्ली में अगला चुनाव 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद होगा.

योग्यता का सिद्धांत बताता है कि काम करने वालों को पुरस्कार मिलना चाहिए. और आम आदमी पार्टी के साथ ऐसा हुआ भी जब 2020 में उसे दूसरी बार दिल्ली की सत्ता सौंपी गई.

17 मार्च का संशोधन आम आदमी पार्टी की सरकार के अधिकार को कम करता है और ये परेशान करने वाली बात है. लेकिन इसके साथ एक बड़े मुद्दे को भी ज़रूर समझना चाहिए. क्या दिल्ली इतनी बड़ी है जिसके प्रबंधन के लिए त्रि-स्तरीय राजनीतिक संरचना की ज़रूरत है? तथ्य ये है कि पूरी दिल्ली सिर्फ़ 1,484 वर्ग किलोमीटर में फैली है. 

पांच स्थानीय निकाय संस्थान, विधानसभा के साथ एक राज्य सरकार और सीधे तौर पर क़ानून-व्यवस्था, पुलिस और ज़मीन का ज़िम्मा उठाने वाली केंद्र सरकार- लगता है कि ये ज़रूरत से ज़्यादा है. दिल्ली में 342 निर्वाचित प्रतिनिधि हैं जिनमें संसद में दिल्ली का प्रतिनिधित्व करने वाले सांसद, विधानसभा के सदस्य और नगर निगम के पार्षद शामिल हैं. औसतन हर निर्वाचित प्रतिनिधि के पास 5 किलोमीटर से कम इलाक़े की देखरेख का ज़िम्मा है. 

दिल्ली में 342 निर्वाचित प्रतिनिधि हैं जिनमें संसद में दिल्ली का प्रतिनिधित्व करने वाले सांसद, विधानसभा के सदस्य और नगर निगम के पार्षद शामिल हैं. औसतन हर निर्वाचित प्रतिनिधि के पास 5 किलोमीटर से कम इलाक़े की देखरेख का ज़िम्मा है. 

अगर ये निर्वाचित प्रतिनिधि वोट देकर चुनने वाले मेहनतकश लोगों की दिक़्क़तों के बारे में व्यक्तिगत तौर पर जानना चाहते हैं तो सुबह और शाम को 2-2 किलोमीटर की सैर इसके लिए काफ़ी होगी. वैसे परंपरा ये है कि जनप्रतिनिधि आमतौर पर पांच साल में सिर्फ़ एक बार लोगों का हाल-चाल पूछने आते हैं. ऐसे में सरकारी ख़ज़ाने को खाली करने वाले इतने निर्वाचित प्रतिनिधि क्यों हैं? 

2012 में उस वक़्त की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के द्वारा दिल्ली नगर निगम को तीन हिस्सों में बांटने से काम-काज में भले ही कोई सुधार न हुआ हो लेकिन इसकी वजह से राजनीतिक और आधिकारिक पदों की संख्या में काफ़ी इज़ाफ़ा हुआ. तीनों नगर निगमों में इस वक़्त बीजेपी की सत्ता है लेकिन उनके पास काम-काज के मामले में बहुत कुछ दिखाने के लिए नहीं है.

क़रीब 2 करोड़ निवासियों वाली दिल्ली मेगा-नगर निगम के तौर पर बेहद अच्छा कर सकती है. सीधे तौर पर निर्वाचित मेयर- कई राज्यों में इसका प्रावधान है- ख़राब एयर क्वॉलिटी, अनियमित पानी की सप्लाई, बेहद कम पब्लिक ट्रांसपोर्ट और सार्वजनिक स्वच्छता जैसी बेशुमार समस्याओं से निपटने के लिए जिस नेतृत्व की ज़रूरत है, वो मुहैया करा सकता है. 

सह-अस्तित्व की कमी 

दुख़ की बात ये है कि भारतीय राजनीति की उल्टी-पुल्टी दुनिया में मेयर के तौर पर एक नगरपालिका का प्रमुख बनना राज्य सरकार में एक मंत्री बनने के मुक़ाबले राजनीतिक तौर पर कम गरिमापूर्ण है. इसे बदलने की ज़रूरत है. बड़े शहरों के मेयर को एक सशक्त सीईओ (जैसे कि मुख्यमंत्री होते हैं) की तरह होना चाहिए जिसके पास सभी सार्वजनिक सेवाओं, जिनमें क़ानून-व्यवस्था, पुलिस और ज़मीन शामिल हैं, की व्यापक ज़िम्मेदारी होनी चाहिए. नगरपालिका के कर्मचारियों की भर्ती स्थानीय तौर पर होनी चाहिए और उन्हें लंबे वक़्त तक अपने पद पर बने रहना चाहिए ताकि सेवा करने वाले और जिनकी सेवा होनी चाहिए, के बीच एक रिश्ता बन जाए. 

2040 तक मौजूदा 34.5 प्रतिशत (2019) से बढ़कर भारत के शहरी इलाक़ों में आधी आबादी रहने लगेगी. जैसे-जैसे शहरी इलाक़े एक न्यूनतम आर्थिक आकार में बदलेंगे, वैसे-वैसे उनका दर्जा ज़्यादा अधिकार के साथ “स्वायत्त” शहर की तरह होना चाहिए. यानी बड़े शहरों के बारे में जो कहा जा रहा है, वो उन शहरों के साथ भी होना चाहिए. 

इससे काफ़ी बेहतर होगा कि दिल्ली फिर से एक बड़े, प्रत्यक्ष तौर पर निर्वाचित नगर निगम में बदल जाए ताकि वो केंद्र सरकार के साथ दमघोंटू नज़दीकी आलिंगन में बिना किसी दिक़्क़त के काम कर सके.

दिल्ली में आम आदमी पार्टी सरकार की कई ख़ूबियों के बावजूद तथ्य बना हुआ है कि इतने छोटे इलाक़े में केंद्र सरकार और राज्य सरकार के सह-अस्तित्व के लिए बेहद कम जगह है. इससे काफ़ी बेहतर होगा कि दिल्ली फिर से एक बड़े, प्रत्यक्ष तौर पर निर्वाचित नगर निगम में बदल जाए ताकि वो केंद्र सरकार के साथ दमघोंटू नज़दीकी आलिंगन में बिना किसी दिक़्क़त के काम कर सके. जहां तक बात आम आदमी पार्टी की है तो उम्मीद की जा सकती है कि वो दूसरे राज्यों और दिल्ली नगर निगम के भीतर गंभीरता से ली जा सकने वाली राजनीतिक ताक़त बनी रहेगी. 

हत्या को साबित करने के लिए एक शव की ज़रूरत होती है. दिल्ली में राज्य सरकार, न्यायिक हस्तक्षेप को छोड़कर, मृत स्थिति में होगी और उसका शोक मनाया जाएगा. लेकिन लोकतंत्र के स्कोर कार्ड को तब भी सकारात्मक रखा जा सकता है और संघवाद के स्कोर कार्ड को बेहतर बनाया जा सकता है अगर कार्यपालिका और विधायिका के अधिकारों को एक सशक्त, एकीकृत नगर निगम को सौंप दिया जाए. राज्य सरकार की कई सफलताओं- स्मार्ट स्कूल और मोहल्ला क्लीनिक जिसके दो उदाहरण हैं- को ऐसे नगर निगम के ज़रिए आगे बढ़ाया जा सकता है. 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.