ये लेख अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सीरीज़ का हिस्सा है.
1910 में जब अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़ी 17 देशों की 100 महिलाएं नारी शक्ति का जश्न मनाने के लिए कोपेनहेगन में जमा हुईं तो वहीं पर अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस (IWD) की नींव पड़ी. 65 साल बाद यानी 1975 को संयुक्त राष्ट्र ने 8 मार्च को अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाने की मंजूरी दी. इसका मकसद हर साल दुनियाभर में महिला अधिकारों पर चर्चा और महिलाओं को उनका हक दिलाने के लिए चल रहे आंदोलनों को मान्यता देना था. 2024 के अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की थीम है " लैंगिक समानता को बढ़ावा देना". समाज को इस बात के लिए प्रेरित करना कि हर क्षेत्र में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाया जाए. महिला अधिकारों के लिए आंदोलन करने वालों की हमेशा से ये मांग रही है कि दुनिया के हर देश में व्यक्ति, समाज और संस्थाएं ऐसा माहौल बनाएं, जहां बिना किसी डर और बाधा के कोई भी लड़की या महिला फलफूल सके. कामयाबी हासिल कर सके. हर क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़े. उन्हें भी प्रतिनिधित्व मिले. इन्हीं लक्ष्यों को हासिल करने के लिए 2015 में दुनियाभर के नेताओं ने 'एजेंडा-2030' को स्वीकार किया था. इस एजेंडे में भविष्य में समावेशी विकास के लिए 17 सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स (SDGs) तय किए गए थे. इन्हीं 17 लक्ष्यों में से पांचवां लक्ष्य (SDG 5) लैंगिक समानता को लेकर है. लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण का लक्ष्य एजेंडा-2030 का अहम हिस्सा है.
2024 के अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की थीम है " लैंगिक समानता को बढ़ावा देना". समाज को इस बात के लिए प्रेरित करना कि हर क्षेत्र में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाया जाए.
समावेशी भविष्य के लिए लैंगिक समानता
ये 17 लक्ष्य अपने पूर्ववर्ती मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स से इस लिहाज से अलग हैं कि इसमें लैंगिक समानता को मानवाधिकारों से जोड़ा गया है. ये स्वीकार किया गया है कि अगर महिलाओं के साथ हो रही असमानता, उनकी अनदेखी और गरीबी को खत्म करना है तो उनका प्रतिनिधित्व बढ़ाना होगा. ये लक्ष्य इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इन्हें हासिल करने के लिए सिविल सोसायटी, महिला अधिकार आंदोलनकारियों और महिलाओं के हक़ के लिए संघर्ष करने वाले वकीलों को भी इसमें शामिल करना ज़रूरी है. SDGs से जुड़े हर लक्ष्य का एक ही उद्देशय है कि "कोई भी पीछे ना छूट जाए".
इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए सबसे पहले तो ये स्वीकार करना होगा कि हर व्यक्ति की एक गरिमा होती है. इसलिए किसी भी तरह के भेदभाव का सबको मिलकर मुकाबला करना होगा. SDGs में लैंगिक समानता को मानवाधिकार के तौर पर मान्यता दी गई है. इस मुहिम का एक मकसद उन धाराणओं को दूर करना भी है जिनमें ये माना जाता है कि महिलाओं को एक खास तरह की भूमिका ही निभानी चाहिए. महिलाओं को लेकर जो घिसी-पिटी छवि बनाई जाती है, समाज में महिलाओं को लेकर जो गलत सांस्कृतिक परम्पराएं हैं, उन्हें खत्म करने की बात भी इसमें कही गई है. लैंगिक समानता के लक्ष्य में इस बात पर भी ज़ोर दिया गया है कि महिलाओं से बिना वेतन के जो सेवा कार्य करवाए जाते हैं, उन्हें कम किया जाना चाहिए. घर की जिम्मेदारी महिला और पुरूष दोनों को उठानी चाहिए. जब महिला सशक्तिकरण की बात की जाती है तो ये सिर्फ किसी एक क्षेत्र के लिए नहीं होती. सभी क्षेत्रों में बराबरी के मौके देने की मांग की जाती है. इसके तहत आर्थिक संसाधनों पर ही नहीं बल्कि नई तकनीकी तक पहुंच, सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में भागीदारी को लेकर महिला अधिकारों के सम्मान की बात की जाती है.
इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए सबसे पहले तो ये स्वीकार करना होगा कि हर व्यक्ति की एक गरिमा होती है. इसलिए किसी भी तरह के भेदभाव का सबको मिलकर मुकाबला करना होगा.
लैंगिक समानता का मुद्दा महिलाओं के स्वास्थय, शिक्षा, आर्थिक विकास और गरीबी दूर करने से भी जुड़ा है. जब लड़कियों और महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी, राजनीतिक, आर्थिक क्षेत्र और फैसला लेने की प्रक्रिया में बराबरी के मौके दिए जाते हैं तो इससे समाज पर भी बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं. अगर कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी तो खाद्य सुरक्षा (SDG 2) की स्थिति मजबूत होगी. तकनीकी और नई खोज करने के क्षेत्र में मौके मिलेंगे तो महिलाओं का आर्थिक सशक्तिकरण होगा (SDG 9). आर्थिक क्षेत्र में अगर प्रमुख पदों पर महिलाएं होंगी तो वेतन में असमानता कम होगी और कार्यक्षेत्र में सुरक्षा बढ़ेगी. (SDG 8). शांतिपूर्ण और समावेशी समाज का निर्माण होगा. (SDG 16). लेकिन लैंगिक समानता के लक्ष्य को पाना बहुत बड़ी चुनौती है. स्त्री-पुरुष को लेकर भेदभाव सामाजिक चेतना में बहुत गहरे तक बसा है. इसे आप नीचे दिए गए आंकड़ों से समझ सकते हैं.
Source: Author’s own, compiled from UNDESA and UN Women
लैंगिक समानता की दिशा में कितना काम हुआ?
लैंगिक समानता की दिशा में अब तक दुनियाभर में जो काम हुआ है, उसे देखते हुए ये कहा जा सकता है कि 2030 तक इस लक्ष्य को हासिल कर पाना मुश्किल है. हालांकि करीब 41 देश अब तक लैंगिक समानता के कम से कम एक लक्ष्य को हासिल कर चुके हैं लेकिन अगर पूरी स्थिति देखें तो हालात चिंताजनक हैं. लैंगिक समानता हासिल करने की जो कोशिशें होनी चाहिए थी, उनमें गंभीरता की कमी है. पक्षपाती कानून, भेदभावपूर्ण सामजिक मानदंड, यौन जरूरतों और बच्चों को जन्म देने सम्बंधी फैसलों में महिलाओं की राय को अहमियत ना मिलने जैसी चुनौतियां अभी बनी हुई हैं. राजनीतिक क्षेत्र में भी महिलाओं की भागीदारी कम है. सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स को लेकर अब तक कितना काम हुआ है, इसे लेकर 2023 में मिडटर्म रिव्यू किया गया. इसमें ये पाया गया कि बाल विवाह खत्म करने में अभी और 300 साल लगेंगे. मौजूदा कानूनी ढांचे में मौजूद लैंगिक भेदभाव को खत्म करने में 286 साल, मैनेजमेंट के क्षेत्र में टॉप पोजिशन में बराबरी पाने के लिए 140 साल और विधायिका के क्षेत्र में समान अवसर मिलने में 47 साल लगेंगे.
सामाजिक और आर्थिक विकास में तेज़ी लाने में लैंगिक समानता अहम भूमिका निभा सकता है. इसके बावजूद ज्यादातर देश इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए ज़रूरी निवेश नहीं कर रहे हैं. इस लक्ष्य को पाने के लिए जितना निवेश चाहिए और फिलहाल जितना निवेश हो रहा है, उसमें हर साल 6.4 ट्रिलियन डॉलर का अंतर है. ये रकम से विकासशील देशों की 70 फीसदी आबादी की ज़रूरतों के लिए पर्याप्त हैं. चूंकि अब 2030 में ज्यादा वक्त नहीं बचा है. ऐसे में इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए और ज्यादा पैसे चाहिए होंगे. अब एजेंडा-2030 को वक्त पर पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने के साथ-साथ एक व्यापक और बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाए जाने की ज़रूरत है. इसके लिए फैसला लेने की प्रक्रिया में महिलाओं को शामिल करना, शिक्षा और स्वास्थ्य में निवेश बढ़ाना और महिला अधिकारों को लेकर कानूनी ढांचे को मजबूत करना होगा.
अब एजेंडा-2030 को वक्त पर पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने के साथ-साथ एक व्यापक और बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाए जाने की ज़रूरत है. इसके लिए फैसला लेने की प्रक्रिया में महिलाओं को शामिल करना, शिक्षा और स्वास्थ्य में निवेश बढ़ाना और महिला अधिकारों को लेकर कानूनी ढांचे को मजबूत करना होगा.
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2024 में लैंगिक समानता को प्रोत्साहित करने की बात कही गई है. इसके लिए व्यक्तियों, समुदायों और संस्थाओं सभी को अपनी-अपनी भूमिका निभानी होगी. सरकार भी महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए कानून बना सकती है, उन्हें लागू करवा सकती है. ये सुनिश्चित कर सकती है कि अहम फैसलों में महिलाओं की भी भागीदारी हो. उद्योगपतियों को भी अपने ऑफिस और कारखानों में महिलाओं की संख्या बढ़ानी चाहिए. पुरुष और महिला कर्मचारियों के वेतन में अंतर को कम करना चाहिए. महिला उद्यमियों की मदद करनी चाहिए. सिविल सोसायटी भी महिला अधिकारों को मजबूत करने में, लैंगिक हिंसा के पीड़ितों को मदद पहुंचाने में अहम भूमिका निभा सकती हैं. सरकार पर इसे लेकर कानून बनाने का दबाव बना सकती हैं.
महिलाओं को अब तक समान अधिकार नहीं मिल पाना समाज के तौर पर हमारी सामूहिक असफलता है. ऐसे में लैंगिक समानता लाने के लिए हर स्तर पर कोशिश करना हम सबका नैतिक कर्तव्य है और सबको इस दिशा में काम करना चाहिए, तभी एजेंडा-2030 में तय किए लक्ष्यों का हासिल करने में सफलता मिल सकेगी.
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