21वीं शताब्दी के दो दशक से ज़्यादा का वक़्त अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते प्रतिस्पर्द्धा के दौर का गवाह रहा है. और एशिया में ख़ासकर इस प्रतिस्पर्धा ने दोनों प्रमुख शक्तियों के बीच एक अनचाही दुश्मनी की लकीर खींच दी है. इस सियासी वर्चस्व की जंग और प्रतिस्पर्द्धा का नतीज़ा यह है कि इसके एक नहीं बल्कि कई प्रभाव हैं जिसका सबसे ज़्यादा असर इस क्षेत्र की छोटी और मध्यम शक्तियों पर देखा गया. अमेरिका और चीन के बीच बढ़ती प्रतिद्वंद्विता के चलते विदेश, सुरक्षा और आर्थिक मामलों को लेकर मध्यम और छोटी शक्तियों के बीच घोर दुविधा है क्योंकि ज़्यादातर देश इनमें से एक या दोनों महान शक्तियों पर निर्भर हैं. इसलिए कई बार मध्यम शक्तियों के नेताओं ने इस बात की वकालत की है कि उनके लिए अमेरिका या फिर चीन के बीच चुनाव करने की ज़रूरत नहीं है. इस दुविधा को समाप्त करने कि लिए कई मध्यम शक्तियां दोनों ही महाशक्तियों से दूर होने की कोशिशों में जुटी है और अपनी विदेश और आर्थिक नीतियों में ज़्यादा से ज़्यादा स्वायत्तता बरत रहे हैं. इनका यह फैसला इस बात को लेकर भी है कि कोई भी महान शक्ति इन मध्यम शक्तियों की विदेश नीति प्राथमिकताओं और विकल्पों को अपने तरीक़े से संचालित कर सके. हालांकि, यह जितना कहना आसान है उतना ही अमल में लाना मुश्किल. क्योंकि एक तरफ चीन पर आर्थिक और कारोबारी निर्भरता और दूसरी तरफ अमेरिका पर सामरिक निर्भरता ज़्यादातर मध्यम शक्तियों को गहरी दुविधा की ओर धकेलती हैं. दक्षिण कोरिया से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक मध्यम शक्तियों के बीच नीतियां बनाने को लेकर इन मुद्दों की ख़ास अहमियत है जबकि निकट भविष्य में इसे लेकर कोई समाधान निकलता नज़र नहीं आता है.
हालांकि यह तर्क देना ग़लत होगा कि क्षेत्रीय व्यवस्था को प्रभावित करने और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को कायम करने में मध्यम शक्तियों का कोई बोलबाला नहीं है. सच्चाई यही है कि अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में अचानक होने वाले बदलावों के प्रति मध्यम शक्तियां ज़्यादा तैयार हैं. लेकिन यह भी समान रूप से कहना सही है कि मध्यम शक्तियां क्षेत्रीय समेत अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में ज़्यादा असरदार हैं. छोटी शक्तियों के मुक़ाबले जिनकी ना तो अहमियत ज़्यादा होती है और ना ही इसमें उनकी रूचि होती है तो ऐसे में मध्यम शक्तियां, यथास्थिति और बदलावों से फायदा उठाना चाहती है. इन देशों के लिए प्रतिरक्षा रणनीति का चुनाव करना सबसे अहम तरीक़ा है. हालांकि दोनो में से एक या फिर दोनों महाशक्तियों के साथ खड़े होने के अपने फायदे और नुक़सान हैं. तेजी से बदलती सामरिक स्थितियों के बीच मध्यम शक्तियों का उभार तेजी से हो सकता है अगर उन्हें अपनी रणनीति को अमल में लाने का मौका दिया जाए.
सच्चाई यही है कि अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में अचानक होने वाले बदलावों के प्रति मध्यम शक्तियां ज़्यादा तैयार हैं. लेकिन यह भी समान रूप से कहना सही है कि मध्यम शक्तियां क्षेत्रीय समेत अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में ज़्यादा असरदार हैं.
कोरोना महामारी ने बदले अंतरराष्ट्रीय समीकरण
हालांकि, बदलते सामरिक समीकरण और कोरोना महामारी ने मझोले शक्तियों को ज़्यादा परिभाषित भूमिका अदा करने की संभावना को बल दिया है. इस लिहाज़ से इंडो पैसिफ़िक व्यवस्था को आकार देने में मध्यम शक्तियों का योगदान बेहद अहम है. जबकि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर एक उभरती शक्ति के तौर पर भारत को शामिल करना और भारत और पैसिफ़िक सागर के बीच तालमेल बढ़ाना इंडो पैसिफ़िक ढांचा को विस्तार देने का एक लक्ष्य है, जिसके ज़रिए चीन की लगातार आक्रामक होती नीतियों पर अंकुश लगाना दूसरा महत्वपूर्ण मक़सद है.
ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया जैसी मध्यम शक्तियां इंडो पैसिफ़िक व्यवस्था को सहयोग देने के लिए आतुर हैं. इसी प्रकार दक्षिण कोरिया और न्यूजीलैंड भी अपनी बाध्यताओं और आग्रहों को छोड़कर अमेरिका, भारत, जापान और दूसरे देशों के साथ नियम सम्मत और समावेशी इंडो पैसिफ़िक व्यवस्था को योगदान देने के लिए तैयार हैं. इसके अलावा कुछ यूरोपीय देश भी इंडो पैसिफ़िक में शामिल हुए हैं और अपने हित, उद्देश्य और चिंताओं को वर्णित करते हुए अपनी धारणाओं और रणनीतिक दस्तावेज़ के साथ आगे आए हैं. इस संबंध में एक बेहतर उदाहरण ASEAN ( एसोसिएशन ऑफ साउथइस्ट एशियन नेशन्स) संगठन है जो मध्यम शक्ति के तौर पर अपनी भूमिका अदा तो कर ही रहा है बल्कि इंडो पैसिफ़िक को लेकर भी अपनी राय सामने रख रहा है. इंडो पैसिफ़िक को लेकर ASEAN ऑउटलुक इस बात का एक बेहतर उदाहरण है कि कैसे ASEAN के छोटे सदस्य देश निरंतर बदलती वैश्विक व्यवस्था में अपनी जगह और भूमिका को तय करने में जुटे हैं.
दक्षिण कोरिया और न्यूजीलैंड भी अपनी बाध्यताओं और आग्रहों को छोड़कर अमेरिका, भारत, जापान और दूसरे देशों के साथ नियम सम्मत और समावेशी इंडो पैसिफ़िक व्यवस्था को योगदान देने के लिए तैयार हैं.
डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका ने एशिया के दायरे से बाहर भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया और कोरियाई पेनिनसुला में ज़्यादा निवेश नहीं किया है जिसकी वज़ह से इस क्षेत्र में ऐसे देश दूसरी महाशक्तियों के साथ जुड़ गए. हालांकि, अमेरिका की सत्ता में जो बाइडेन की वापसी के बाद से इन देशों ने अपनी रणनीति में बदलाव किया है. हालांकि, आने वाले समय में जो बात देखना दिलचस्प होगा वो यह कि मझोली शक्तियां अपने बीच कैसे आगे सहयोग बढा पाएंगे और बदलते अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में अपनी बड़ी भूमिका को सुनिश्चित कर पाएंगे.
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