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विश्वसनीय प्रतिबद्धता वाले संस्थानों की स्थापना केवल सरकार ही करे, ये ज़रूरी नहीं है. ऐसे संस्थानों को सरकार, आदर्शवादी ताक़तों और निजी संस्थाओं की मदद से भी स्थापित कर सकती है
विकास संबंधी परिचर्चा में, शांति का ज़िक्र या तो होता नहीं, या बहुत कम होता है. जबकि, किसी भी देश में विकास के लिए वहां अमन का माहौल होना एक महत्वपूर्ण शर्त है. आप इसे थॉमस हॉब्स की परिकल्पना वाली शांति कह सकते हैं. किसी भी देश के भीतर शांति होनी तो सबसे ज़रूरी है. लेकिन, किन्हीं दो देशों के बीच भी अमन क़ायम होना बहुत अहम होता है. हालांकि, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के स्थायी विकास के लक्ष्य (SDG) 16 में इसका ज़िक्र उन बारह विषयों में पहले नंबर पर किया गया है, ‘जो हर तरह की हिंसा और उनसे संबंधित मौतों को कम करे’. आइए इस विषय की संभावनाओं की पड़ताल करते हैं.
विकास के सिक्के के दो पहलू होते हैं. इस संतुलन के एक तरफ़ अगर पर्याप्त रूप से मज़बूत केंद्रीय सरकार है, जो देश के तमाम क्षेत्रों में स्थित संस्थाओं की मदद से अपनी ज़िम्मेदारियों का अच्छे से निर्वाह करे. तो, वहीं इसके दूसरे छोर पर हमें गृह-युद्ध खड़ा नज़र आता है. हालांकि, दूसरे विश्व युद्ध के बाद से युद्ध या जंग में लोगों की जान जाने की तादाद में काफ़ी कमी आई है. लेकिन, बहुत से देशों में अंदरूनी हिंसक संघर्षों के चलते लोगों की मौत होने का सिलसिला तेज़ हो गया है. सीरिया और कॉन्गो में छिड़े गृह युद्ध इसकी मिसाल हैं. हम दुनिया में ऐसे कई संघर्षों की मिसाल दे सकते हैं, जिनसे हिंसक मौतों की तादाद काफ़ी बढ़ गई है.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद से युद्ध या जंग में लोगों की जान जाने की तादाद में काफ़ी कमी आई है. लेकिन, बहुत से देशों में अंदरूनी हिंसक संघर्षों के चलते लोगों की मौत होने का सिलसिला तेज़ हो गया है.
ब्रिटेन के दार्शनिक थॉमस हॉब्स (1588-1679) का तर्क था कि सरकार और उसकी संस्थाओं के बग़ैर इंसान अक्सर अपने अंदरूनी शैतान का शिकार हो जाते हैं. इसके बाद लोगों के बीच गृह-युद्ध की स्थिति बन जाती है. थॉमस हॉब्स का कहना था कि ‘ऐसे हालात में उद्योग धंधों के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती. क्योंकि लोगों को ये पता नहीं होता कि कारोबार करेंगे, तो उसका लाभ होगा भी या नहीं’: और इसका नतीजा ये होता है कि उस देश की ज़मीन पर संस्कृति का फलना-फूलना भी बंद हो जाता है; आवाजाही बाधित होती है; ऐसी वस्तुओं की आमद कम हो जाती है, जिन्हें समंदर के रास्ते दूसरे देशों से मंगाया जा सकता है; सामुदायिक निर्माण का काम रुक जाता है; चलने-फिरने या राह की बाधाएं दूर करने की प्रक्रिया रुक जाती है क्योंकि इसके लिए ताक़त लगाने की ज़रूरत पड़ने लगती है; गृह-युद्ध के शिकार देश में पढ़ने लिखने और आस-पास की चीज़ें जानने की उत्सुकता कम हो जाती है; वक़्त का ख़याल नहीं रहता; कला नहीं फलती-फूलती; ख़त-ओ-क़िताबत नहीं होती; समाज छिन्न-भिन्न हो जाता है; और सबसे ख़राब बात तो ये होती है कि लगातर भय और हिंसक मौत का ख़तरा मंडराता रहता है; ऐसे में इंसान की ज़िंदगी एकाकी, ग़ुरबत और दर्द भरी, बेहद ख़राब और कम हो जाती है.’
ऐसे में थॉमस हॉब्स ने किसी भी देश में अमन के जिस माहौल की कल्पना की थी और जिसके ज़रिए विकास की राह पर और आगे बढ़ा जा सके, उसके लिए प्रमुख राजनीतिक संस्थानों को ऐसे संस्थागत तरीक़ों की तलाश करनी होगी, जिससे केंद्रीय और स्थानीय सरकारें निजी क्षेत्र और देश के नागरिकों की नज़र में विश्वसनीय बन सकें. ऐसी विश्वसनीय प्रतिबद्धताओं के अभाव में सरकार पर भरोसा बड़ी तेज़ी से कम हो जाता है. फिर लोगों के दिल में ऐसी सरकार से सहयोग करने की इच्छा भी लगातार घटती जाती है. अगर थॉमस हॉब्स के शब्दों में कहें तो, ‘उद्योग धंधों के लिए कोई जगह नहीं बचती, क्योंकि ऐसे कारोबार से होने वाले लाभ को लेकर अनिश्चितता का माहौल बन जाता है.’
गृह-युद्ध के शिकार देश में पढ़ने लिखने और आस-पास की चीज़ें जानने की उत्सुकता कम हो जाती है; वक़्त का ख़याल नहीं रहता; कला नहीं फलती-फूलती; ख़त-ओ-क़िताबत नहीं होती; समाज छिन्न-भिन्न हो जाता है; और सबसे ख़राब बात तो ये होती है कि लगातर भय और हिंसक मौत का ख़तरा मंडराता रहता है
हालांकि, ऐसा नहीं है कि केवल गृह-युद्ध की भयावाहता ही विकास की राह में बाधा बनती है- क्योंकि इसके चलते एक किस्म का डर का माहौल बनता है और हिंसक मौत का ख़तरा होता है- बल्कि इसके कारण बहुत से देशों में केंद्रीय सरकारों के संस्थान भी पूरे देश में बराबरी की ज़िम्मेदारी से काम नहीं करते. यहां फिर दो बातों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है: लैंगिक समानता और इको-टूरिज़्म के माध्यम से जैव विविधता की रक्षा: लैंगिक समानता और इको–टूरिज़्म के माध्यम से जैव विविधता की रक्षा
पहली मिसाल, महिलाओं के ज़मीन की विरासत हासिल करने के अधिकार की है. कई साल पहले एक प्रोजेक्ट के दौरान, मैंने कीनिया में एक वकील से वहां महिलाओं के ज़मीन पर मालिकाना हक़ को लेकर पड़ताल करने को कहा. अक्सर ये शिकायतें सुनी जाती हैं कि इस मामले में परिवार और रिश्तेदारी के मर्द महिलाओं के दावों को ख़ारिज कर देते हैं. कई ऐसे संगठन हैं जो महिलाओं के संपत्ति के अधिकार के लिए संघर्ष कर रहे हैं. कीनिया की उस वकील ने महिलाओं के विरासत के अधिकार को लेकर एक दिलचस्प रिपोर्ट तैयार की थी. इस रिपोर्ट से पता चला कि कीनिया में महिलाओं को 1981 से ही विरासत में संपत्ति हासिल करने का अधिकार मर्दों के बराबर ही मिला हुआ है. उस वकील ने मुझे पांच ऐसे मामलों के बारे में भी बताया जहां महिलाओं ने संपत्ति की विरासत को लेकर अपने रिश्तेदार पुरुषों के ख़िलाफ़ मुक़दमे दायर किए और वो जीत भी गईं. हालांकि, ग्रामीण क्षेत्रों में अक्सर क़बीले के बुज़ुर्ग सदस्य पारंपरिक नियमों का हवाला देकर ये कहते हैं कि ज़मीन पर विरासत का हक़ केवल पुरुषों को हासिल है. कीनिया के ग्रामीण क्षेत्र में महिलाएं बहुत कम ही शिक्षित हैं. उन्हें अदालत की प्रक्रियाओं के बारे में जानकारी ही नहीं है. ऐसे में वो अपने अधिकार के लिए क़ानूनी लड़ाई लड़ने के लिए केस तक दाख़िल नहीं कर पाती हैं. कीनिया में ऐसी महिलाओं की तादाद तो और भी कम है, जिनके पास क़ानूनी लड़ाई लड़ने के लिए पैसे हों. ऐसे में सरकारी संस्थाओं, जो अक्सर राजधानी और अन्य बड़े शहरों में सीमित होते हैं, के असमान वितरण का सीधा असर लैंगिक असमानता पर पड़ता है.
विकासशील देशों में केंद्रीय सरकारें कई बार कमज़ोर होती हैं. ऐसे में नामांकित राष्ट्रीय उद्यानों के संरक्षण के बारे में अजीब-ओ-ग़रीब फ़ैसले करने लगती हैं. ये हमारा दूसरा उदाहरण है. हमारे सामने ऐसी कई मिसालें हैं जब किसी भी देश में अमन बहाल न होने से वहां की जैव-विविधता को भारी नुक़सान पहुंचा. जैसे कि उगांडा में 1978-1986 के गृह युद्ध के दौरान हुआ था, जब राष्ट्रीय उद्यानों से जंगली जीवन कम-ओ-बेश उजाड़ ही दिया गया था. इसी तरह डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो (DRC) में, कैमरून और बेनिन के उत्तरी इलाक़ों में बाग़ियों या आतंकवादी समूह अक्सर नेशनल पार्क में शरण लेते हैं.
अफ्रीका में ऐसा ही संघर्ष का शिकार एक और इलाक़ा है, ‘माउंटेन्स ऑफ़ मून’. ये वो इलाक़ा है, जहां युगांडा, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो और रवांडा की सीमाएं मिलती हैं. ये ख़ात्मे के कगार पर पहुंच चुके पहाड़ी गोरिल्ला के शरण लेने का आख़िरी ठिकाना है. यहां पर गोरिल्ला की इस नस्ल को ख़ात्मे से बचाने के लिए एक संस्थागत व्यवस्था विकसित होती दिख रही है. इसमें सरकार, संरक्षण में दिलचस्पी रखने वाले लोग और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक दूसरे से जुड़े हुए टूरिस्ट ऑपरेटर मिलकर काम कर रहे हैं. इस क्षेत्र में अलग अलग उग्रवादी संगठनों ने अपने अपने देश की सरकारों के विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा है. ये जंग पिछले चालीस बरस से चली आ रही है. हालांकि, इसी दौरान और इसी जगह पर, विलुप्त होने के कगार पर खड़े गोरिल्ला को बचाने की मुहिम भी रंग लाती दिख रही है. जिसके चलते पहाड़ी गोरिल्ला की आबादी 300 से बढ़कर एक हज़ार तक पहुंच गई है. आख़िर ऐसा कैसे संभव हो सका है? रिसर्च से पता चलता है कि ये संरक्षण के प्रयासों में बढ़ोत्तरी, अंतरराष्ट्रीय इको-टूरिज़्म और कुछ सरकारी सहयोग से संभव हो सका है. इससे गोरिल्ला के रिहाइशी क्षेत्रों की नियमित रूप से निगरानी की जा रही है. जिससे हिंसक उग्रवादी गतिविधियों पर लगाम लगी है और शिकार को भी कम किया जा सका है.
अफ्रीका में ऐसा ही संघर्ष का शिकार एक और इलाक़ा है, ‘माउंटेन्स ऑफ़ मून’. ये वो इलाक़ा है, जहां युगांडा, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो और रवांडा की सीमाएं मिलती हैं. ये ख़ात्मे के कगार पर पहुंच चुके पहाड़ी गोरिल्ला के शरण लेने का आख़िरी ठिकाना है
इस पहाड़ी क्षेत्र के हक़दार तीनों ही देशों के साथ सुरक्षा की समस्या है. डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो तो सीधे इस समस्या का शिकार है. वहीं, युगांडा और रवांडा अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा का शिकार हैं. क्योंकि उनकी सीमाएं कॉन्गो से मिलती हैं. इसके बावजूद, पहाड़ी गोरिल्ला की संख्य़ा धीरे-धीरे बढ़ी ही है.
यहां के वॉल्कैनोज़ नेशनल पार्क में रवाडां के सुरक्षा बल काफ़ी मात्रा में तैनात हैं. गोरिल्ला को देखने के लिए सैलानियों की हर टोली-प्रति दिन एक टोली में 96 सदस्यों को छोटे छोटे समूहों में जाने की इजाज़त होती है-के साथ तीन हथियारबंद सुरक्षा कर्मी भी जाते हैं. युगांडा में हर दिन 112 लोगों को गोरिल्ला की रिहाइश वाले इलाक़ों में जाने की मंज़ूरी दी जाती है. ये लोग आठ-आठ की छोटी टोलियों में ही जा सकते हैं. 700 डॉलर प्रति व्यक्ति और प्रति फेरे के हिसाब से अकेले युगांडा की सरकार को हर साल इससे क़रीब 2.5 करोड़ डॉलर की आमदनी होती है. इसके साथ-साथ, पर्यटकों की मेहमान-नवाज़ी के स्थानीय उद्योग भी फलते-फूलते हैं. लोगों के लिए रोज़गार के नए मौक़े निकलते हैं.
रवांडा और युगांडा में इन उद्यानों के इर्द-गिर्द निजी मालिकों ने लॉज बना लिए हैं, जो सैलानियों के ठहरने के काम आते हैं. इन दोनों देशों के निजी टूर ऑपरेटर अपने ग्राहकों को यात्रा करने और ठहरने की सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं. वहीं, विदेशों में उनके एजेंट सैलानियों को अपने साथ जोड़ते हैं. पिछले साल कोविड-19 की महामारी के कारण इन सभी संस्थाओं की आमदनी का एक बड़ा ज़रिया ख़त्म हो गया था. विदेशी यात्रियों की आवाजाही लगभग ख़त्म ही हो गई थी. इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों की आमद पर भी रोक लग गई थी.
विश्वसनीय प्रतिबद्धताओं वाले संस्थानों की स्थापना सरकार ही करे ये ज़रूरी नहीं है. ऐसे संस्थानों को सरकार आदर्शवादी ताक़तों और निजी संस्थाओं की मदद से भी स्थापित कर सकती है. इस उदाहरण से हम ये निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि थॉमस हॉब्स की परिकल्पना वाली शांति असल में बहुमूल्य और बेहद नाज़ुक फूल है. ये मानवता के लिए तो महत्वपूर्ण है ही, जैव विविधता के लिए भी बेहद अहम है. इस फूल का पोषण किया जाना चाहिए. हम इसे हल्के में लेने का जोखिम नहीं मोल ले सकते हैं.
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Emil Uddhammar is a professor of political science at Linnaeus University Sweden. He obtained his PhD at Uppsala University in 1993 and became assocate professor ...
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