इस वर्ष के कॉप 27 जलवायु सम्मेलन ने दुनिया भर में बढ़ती असमानताओं पर विस्तार से प्रकाश डाला, जो कोरोना महामारी के कारण और भी बदतर हो गए थे. जबकि उच्च और उच्च-मध्यम-आय वाले देशों में रहने वाली दुनिया की 51 प्रतिशत आबादी वैश्विक उत्सर्जन के 86 प्रतिशत के लिए ज़िम्मेदार है और निम्न और निम्न-मध्यम-आय वाले देशों में रहने वाले 49 प्रतिशत लोगों का योगदान केवल 14 प्रतिशत है. इसी प्रकार, जहां उच्च और उच्च-मध्यम-आय वाले देशों में प्रति 100 लोगों पर कोविड वैक्सीन की लगभग 214 डोज़ दी गई, वहीं निम्न-आय वाले देशों में केवल 31 डोज़ का प्रबंध किया गया था. कम आय वाले देशों में दैनिक प्रति व्यक्ति प्रोटीन की खपत उच्च आय वाले देशों के मुक़ाबले लगभग 60 प्रतिशत है, और विश्व स्तर पर लगभग 800 मिलियन लोग कुपोषित हैं, जिनमें से लगभग 90 प्रतिशत सिर्फ एशिया और अफ्रीका में रहते हैं. अध्ययन बताते हैं कि तीन बड़े कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जक देशों में चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) और भारत शामिल हैं.
अध्ययन बताते हैं कि तीन बड़े कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जक देशों में चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) और भारत शामिल हैं.
आंकड़े बताते हैं कि 2021 में उत्सर्जित 37.1 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड में, चीन ने 11.5 बिलियन टन (वैश्विक उत्सर्जन का 31 प्रतिशत), अमेरिका ने 5 बिलियन टन (13.5 प्रतिशत) और भारत ने 2.71 बिलियन टन (7.3 प्रतिशत) (चित्र 1) का योगदान दिया. हालांकि, जब प्रति व्यक्ति उत्सर्जन की गणना की जाती है तो एक अलग तस्वीर सामने आती है - अमेरिका लगभग 14.86 टन उत्सर्जन करता है; चीन 8.05 टन; और भारत 1.93 टन. 2021 में प्रति व्यक्ति 4.69 टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के विश्व औसत के मुक़ाबले, उच्च आय वाले देशों ने 10.727 टन, उच्च-मध्यम-आय वाले देशों ने 6.69 टन का उत्पादन किया, जबकि निम्न-मध्यम-आय वाले देशों ने 1.83 टन और निम्न-आय वाले देशों ने 0.28 टन का उत्पादन किया. हालांकि, जलवायु संबंधी प्रभाव दूसरे तरीक़े से चलते हैं; और स्थायी शमन के लिए, इस वैश्विक असमानता को ठीक किया जाना चाहिए.
Figure 1. (Left) Growth in CO2 emissions coming from China, USA and India against global emissions and other world groupings by 2021. (Right) Plot of share of global Co2 emissions in 2021 versus share of world population.
आर्थिक विकास और उत्सर्जन को अलग करना
समृद्धि ऐतिहासिक रूप से जीएचजी उत्सर्जन से जुड़ी हुई होती है. उत्पादन बढ़ने से सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि होती है लेकिन ऊर्जा की ज़रूरतों और फॉशिल फ्यूल के इस्तेमाल के कारण उत्सर्जन में भी वृद्धि होती है. बढ़ी हुई समृद्धि भी खपत को बढ़ाती है, जो कार्बन उत्सर्जन की क़ीमत पर आती है लेकिन, यह प्रत्यक्ष संबंध अब सही नहीं ठहरता है, क्योंकि कई उच्च आय वाले देश उत्सर्जन से आर्थिक विकास को कम करने में क़ामयाब रहे हैं. पिछले 30 वर्षों में, कई पश्चिमी यूरोपीय और स्कैंडिनेवियाई देशों ने उत्सर्जन को कम किया है और अपने सकल घरेलू उत्पाद में काफी वृद्धि की है. अमेरिका जैसे अन्य देशों ने इसे हाल ही में साबित किया है, यहां तक कि खपत-आधारित उत्सर्जन के लिए भी और गैर उत्पादन-आधारित उत्सर्जन के लिए भी, जो उत्पादन (और इसके परिणामी उत्सर्जन) को विदेशों में ले जाने के लिए ज़िम्मेदार होता है. हालांकि, अन्य बड़े उत्सर्जक देश - चीन और भारत - जीडीपी वृद्धि और बढ़ते उत्सर्जन के बीच तालमेल बनाए रखने को जारी रखते हैं (चित्र 2).
Figure 2. Changes in per capita CO2 emissions and GDP show decoupling for some countries (e.g., Germany, USA) but not for others (e.g., China and India).
इसकी प्रमुख वजह यह है कि अमीर देश अपनी आर्थिक प्रगति को उत्सर्जन से अलग करने में सक्षम हैं और कम कार्बन ऊर्जा के साथ फॉसिल फ्यूल को अपना रहे हैं. अगर हम जल्दी से और अधिक देशों में डीकार्बोनाइज की प्रक्रिया को बढ़ाते हैं, तो पारंपरिक उत्सर्जन के बिना अधिक ऊर्जा का उत्पादन अपना प्रभाव डाल सकता है. यह कम कार्बन प्रौद्योगिकियों की लागत को कम करके भी किया जा सकता है और यहीं पर भारत रिन्युएबल ऊर्जा और हाइड्रोजन में क्षमता और निवेश में अनुमानित वृद्धि के साथ वास्तविक असर डालने में सहायक बन सकता है. विकासशील देशों को फॉसिल फ्यूल से स्वच्छ ऊर्जा में संक्रमण और उत्सर्जन से सकल घरेलू उत्पाद को कम करने के लिए निवेश की आवश्यकता होगी. उत्सर्जन में उनके ऐतिहासिक योगदान के कारण, यह धन के साथ आने के लिए समृद्ध अर्थव्यवस्थाओं के लिए आर्थिक, पारिस्थितिक और सबसे महत्वपूर्ण रूप से नैतिक आधार तैयार करता है.
भारतीय वित्त मंत्रालय ने 2013-14 में जलवायु वित्त के लिए अनुमानित 57 बिलियन अमेरिकी डॉलर पर सवाल उठाया और कहा कि वास्तविक आंकड़ा केवल 2.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर था.
लेकिन टीकों की तरह, जलवायु प्रतिबद्धताओं को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है. साल 2009 में कॉप 15 में, विकसित देश 2020 तक सालाना 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर जुटाने पर सहमत हुए थे, ताकि विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनाने में मदद मिल सके. 2013 और 2020 के बीच, 50 से 80 बिलियन अमेरिकी डॉलर के संसाधन सालाना जुटाने पर भी सहमति बनी थी लेकिन इसका वास्तविक मूल्य बहुत कम था क्योंकि इसका ज़्यादातर हिस्सा कर्ज़ के तौर पर आया था. भारतीय वित्त मंत्रालय ने 2013-14 में जलवायु वित्त के लिए अनुमानित 57 बिलियन अमेरिकी डॉलर पर सवाल उठाया और कहा कि वास्तविक आंकड़ा केवल 2.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर था. क्लाइमेट ब्रीफ द्वारा हाल ही में किए गए आकलन से पता चलता है कि कैसे अधिकांश अमीर देशों में जलवायु के लिए फंडिंग को लेकर उचित हिस्से की कमी है. इसे लेकर अमेरिका 32.3 अमेरिकी बिलियन डॉलर के घाटे के साथ सबसे आगे है. इसके बाद कनाडा (3.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर), ऑस्ट्रेलिया (1.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर) और यूके (1.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर) है. जापान, फ्रांस और जर्मनी जैसे कुछ देशों ने अपने निर्धारित हिस्से से अधिक दिया लेकिन मोटे तौर पर यह राशि कर्ज़ के रूप में थी ना कि अनुदान के रूप में (चित्र 3). जिस तरह कोवैक्स के जरिए कम आय वाले देशों में मुश्किल से 20 फीसदी आबादी का वैक्सिनेशन किया जा सकता है, उसी तरह 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर का वार्षिक फंड जलवायु परिवर्तन को एक समान और टिकाऊ तरीक़े से ठीक करने के लिए कम पड़ जाता है. नए आंकड़ों से पता चलता है कि 2030 तक विकासशील देशों को अपने जीएचजी उत्सर्जन को कम करने और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने में मदद करने के लिए सालाना लगभग 2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर रकम की ज़रूरत होगी.
Figure 3. (Left) Climate finance shortfall or surplus in 2020 for countries based on their assessed contributions to the $100 billion target. (Right) Percentage of climate finance from 2012 to 2020 given as loans (in red) and grants (in blue).
कॉप 27 एक चूका हुआ अवसर था
कॉप 27 के मिश्रित परिणाम ने यह स्पष्ट कर दिया कि उपकरण उपलब्ध होने के बावज़ूद सक्रिय रूप से काम करने की इच्छा नहीं रहने का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. विकासशील देशों को जलवायु प्रभावों से उबरने में मदद करने के लिए "लॉस एंड डैमेज" समझौता कॉप 27 सम्मेलन की एक बड़ी कामयाबी थी. लॉस एंड डैमेज की मात्रा कैसे निर्धारित की जाएगी, कैसे धनराशि वितरित की जाएगी, और मुआवज़े का भुगतान कौन करेगा यह इससे स्पष्ट नहीं है. जंगल की सुरक्षा के लिए मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ प्रकृति और जैव विविधता को प्रमुख संसाधनों के रूप में मान्यता दी गई थी, और खाद्य ने अंततः इसे फूड एंड एग्रीकल्चर फॉर ससटेनेबल डेवलपमेंट ( एफएएसटी) पहल के ज़रिए कॉप 27 एज़ेंडे में शामिल कर लिया. हालांकि, जीवाश्म ईंधन में कटौती पर आगे कोई बात नहीं बन सकी और 100 अरब अमेरिकी डॉलर का जलवायु कोष अमीर देशों की उदारता के रूप में बना रहा.
हालांकि, जलवायु परिवर्तन, स्वास्थ्य और खाद्य प्रणालियों की तिकड़ी को ठीक करने के लिए कई विकल्प मौज़ूद हैं लेकिन कार्यान्वयन, योग्य और टिकाऊ नीतियों को विकसित करने में कई कठिनाइयां आती हैं. क्योंकि नीति-निर्माताओं को आपस में जुड़े ऐसे निर्णयों का सामना करना पड़ता है जो अक्सर अलोकप्रिय होते हैं. उदाहरण के लिए, आहार में मांस को कम करने से उत्सर्जन कम होता है लेकिन इससे पशुपालकों की आजीविका पर भी प्रभाव पड़ता है. जलवायु, स्वास्थ्य और फूड कम्युनिटी (खाद्य समुदाय) खंडित निर्णय लेने, निहित स्वार्थों और शक्ति असंतुलन और संयुक्त दृष्टि और नेतृत्व की कमी से पीड़ित रहते हैं. निर्णय लेने वाले कौन और कैसे हैं, ग्लोबल वार्मिंग का विज्ञान और कार्यान्वयन के तरीक़ों को समझना बेहद महत्वपूर्ण है. हमें जलवायु, स्वास्थ्य और भोजन के बीच संबंधों के आसपास संचार में भी सुधार करना चाहिए और इसे एक प्रणाली के रूप में देखना चाहिए.
हमें जलवायु, स्वास्थ्य और भोजन के बीच संबंधों के आसपास संचार में भी सुधार करना चाहिए और इसे एक प्रणाली के रूप में देखना चाहिए.
संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने कॉप 27 के उद्घाटन पर इसे काफी हद तक सही तरीक़े से अभिव्यक्त किया था जब उन्होंने कहा कि, "हमारे पांव एक्सीलरेटर पर हैं और हमलोग जलावुय नरक के हाइवे पर बढ़े जा रहे हैं ". उन्होंने यह भी कहा कि "इस महत्वपूर्ण दशक में वैश्विक जलवायु संघर्ष के नतीजे का फैसला तय है - हमारी निगरानी में इसकी जीत होगी या हार".
निश्चित तौर पर समय कम होता जा रहा है. हमें सक्रिय रूप से काम करना होगा और सिर्फ 'लॉस एंड डैमेज' पर प्रतिक्रिया नहीं देनी होगी.
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