जलवायु परिवर्तन, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य दोनों को ही अलग-अलग तरीके से प्रभावित करता है. गर्मी और एक्सट्रीम वेदर अर्थात चरम मौसम की घटनाओं से न केवल मानव मृत्यु दर और रोगियों की संख्या में वृद्धि होती है, बल्कि इस वजह से लंबे समय तक खाद्यान्न और पानी की कमी, वायु प्रदूषण और बीमारियां भी होती है. जंगल की आग के धुएं, वायुमंडलीय धूल और वायुजनित एलर्जन अर्थात एलर्जी पैदा करने वाले तत्वों के संपर्क में वृद्धि, हृदय और श्वसन संकट से भी जुड़ी होती है. बेवक्त की बारिश और बाढ़ से बार-बार होने वाली खाद्यान्न और जल जनित बीमारियों की वजह से स्वास्थ्य सेवाएं प्रभावित होती है. ऐसे में इन सब बातों का न केवल आर्थिक प्रभाव बल्कि सामाजिक प्रभाव भी पड़ता है.
2050 तक दुनिया की 50 प्रतिशत आबादी ऐसी जगह पर रहने लग जाएगी, जहां एडीज़ मच्छरों का अधिवास होता है, जबकि 2080 तक एक बिलियन लोग, पहली बार मच्छर-जनित बीमारियों का सामना कर चुके होंगे.
वेक्टर जनित बीमारियों में वृद्धि
मच्छरों के काटने की दर, मच्छरों द्वारा पैथोजन्स अर्थात रोगाणुओं के एक्वीजिशन अर्थात अधिग्रहण और ट्रान्समिशन अर्थात संचरण के कारण जीवन चक्र पर व्यापक प्रभाव डालने वाले मच्छर जनित रोगों का प्रसार, तापमान के प्रति संवेदनशील होता है. मनुष्यों में मच्छर जनित रोगों के संचरण का सबसे प्रमुख वाहक एनोफ़ेलीज़ और एडीज़ मच्छर हैं. इसमें पहला मलेरिया के लिए और दूसरा चिकनगुनिया, डेंग्यू, फाइलेरिया, रिफ्ट वैली फीवर, येलो फीवर और ज़िका जैसी कई बीमारियों के लिए कारक का काम करते हैं. 2050 तक दुनिया की 50 प्रतिशत आबादी ऐसी जगह पर रहने लग जाएगी, जहां एडीज़ मच्छरों का अधिवास होता है, जबकि 2080 तक एक बिलियन लोग, पहली बार मच्छर-जनित बीमारियों का सामना कर चुके होंगे. कुछ मॉडल सुझाव देते हैं कि इनका प्रसारण पूरे साल होता रहेगा या ट्रॉपिकल अर्थात उष्णकटिबंधीय और सबट्रॉपिकल अर्थात उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों तक भी विस्तारित हो जाएगा. इसके अलावा यह दुनिया के टेम्परेट अर्थात समशीतोष्ण अर्थात संतुलित क्षेत्रों में गर्मियों के महीनों से आगे बढ़ जाएगा. (फिगर 1). बढ़ते हुए उत्सर्जन के साथ ही एनोफ़ेलीज़ मच्छर के दायरे में भी विस्तार, जनसंख्या और वितरण घनत्व देखा जाएगा. डेंग्यू और मलेरिया के लिए महामारी का क्षेत्र भी 2070 तक टेम्परेट अर्थात समशीतोष्णीय क्षेत्रों की ओर बढ़ने की संभावना है. इस वजह से 4.7 बिलियन अतिरिक्त लोगों पर इसका खतरा मंडराने लगेगा. यूरोप में डेंग्यू संचरण के मॉडल ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन के साथ एक व्यापक संबंध को दर्शाते हैं. इस प्रकार, जीएचजी उत्सर्जन को कम करने और बेहतर वेक्टर नियंत्रण से यूरोप और अन्य समशीतोष्णीय क्षेत्रों में डेंग्यू और अन्य मच्छर जनित रोगों की महामारी की क्षमता कम हो जाएगी.
फिगर 1. (ए) एडीज एजिप्टाई और (बी) एडीज अल्बोपिक्टस, और (सी) एडीज एजिप्टाई या एडीज अल्बोपिक्टस के महीनों तक संपर्क के आधार पर जोखिम वाले लोगों की संख्या के लिए औसत तापमान के आधार पर ट्रान्समिशन अर्थात संचरण के लिए मासिक उपयुक्तता दर्शाने वाला मानचित्र.
वायरल ज़ूनोसिस का फैलाव
1940 और 2004 के बीच, उभरती संक्रामक बीमारी (ईआईडी) से जुड़ी घटनाओं का वैश्विक वितरण नॉन-रैंडम अर्थात गैर-आकस्मिक और मुख्य रूप से ज़ूनोटिक अर्थात पशुजन्य था. यानी पहले जंगली जानवरों से ट्रान्सफर अर्थात स्थानांतरण और बाद में मनुष्यों में स्थानांतरण. इसका स्पिलओवर अर्थात फैलाव सीधे जानवरों के काटने, कच्चे या अधपके मांस या दूषित पानी के सेवन और अप्रत्यक्ष रूप से मच्छरों, टिक्स अर्थात सूक्ष्मपराजीवी आदि जैसे वैक्टर के माध्यम से हो सकता है. मनुष्यों के साथ रहने वाले घरेलू जानवर और अन्य प्रजातियां और जंगली जानवर जिनके आवासों का शोषण या विनाश किया गया है, उनमें सबसे ज्यादा स्पिलओवर क्षमता होती है. मानवजनित गतिविधियां और पर्यावरण परिवर्तन इसके सबसे बड़े चालक बने हुए हैं.
जलवायु परिवर्तन से अगले 50 वर्षों में विशेष रूप से घनी आबादी वाले क्षेत्रों में मनुष्यों सहित स्तनधारी प्रजातियों के बीच वायरस के आदान-प्रदान के 15,000 से अधिक नए मामले सामने आ सकते हैं.
जलवायु परिवर्तन से प्रजातियों का भौगोलिक वितरण प्रभावित होता है, जैसे कि स्थान और पशु-मानव के आकस्मिक मिलन की फ्रीक्वेंसी अर्थात बारंबारता. विभिन्न मैमल समूहों अर्थात स्तनधारी प्रजातियां और वायरस की समृद्धि और इनकी बहुतायत स्पिलओवर जोखिम के लिए उनके प्रमुख निर्धारक होते हैं. रोडेन्ट्स अर्थात चूहा, गिलहरी जैसे अन्य कतरने वाले जानवर, चमगादड़ों में 45 प्रतिशत और 20 प्रतिशत मैमल्स अर्थात स्तनधारी, ज़ूनोटिक वायरस के क्रमश: 60 प्रतिशत और 30 प्रतिशत होस्ट अर्थात पोषक होते हैं. वे प्रमुख ट्रांसमीटर होते हैं. चूंकि मनुष्य सबसे अबन्डन्ट अर्थात पर्याप्त प्रजाति है, अत: यह उनका सबसे बड़ा लक्ष्य बन जाता हैं. संभावित रूप से कम से कम 10,000 अलग-अलग वायरस मनुष्यों को संक्रमित कर सकते हैं. जबकि अधिकांश वायरस जंगली जानवरों में चुपचाप घूमते रहते हैं. जानवर जब चलते हैं, तो वे इन विषाणुओं को अपने साथ लाकर, फैलने और विकसित होने का नया अवसर प्रदान करते हैं. जलवायु परिवर्तन से अगले 50 वर्षों में विशेष रूप से घनी आबादी वाले क्षेत्रों में मनुष्यों सहित स्तनधारी प्रजातियों के बीच वायरस के आदान-प्रदान के 15,000 से अधिक नए मामले सामने आ सकते हैं. नई बीमारी के उद्भव के लिए भारत, इंडोनेशिया और अफ्रीकी सहेल अनुमानित हॉटस्पॉट हैं. (फिगर 2).
फिगर 2. मॉडल दिखाते हैं कि 2070 तक और पूर्व-औद्योगिक समय के रिलेटिव अर्थात सापेक्ष औसत तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस वृद्धि के साथ, स्तनधारियों के बीच वायरस साझा करने की उच्चतम संभावना वाले क्षेत्र घने मानव आबादी केंद्रों के साथ ओवरलैप होंगे. स्त्रोत:https://doi.org/10.1038/s41586-022-04788-w
ग्लोबल वार्मिंग, पर्माफ्रॉस्ट अर्थात स्थायी तुषार भूमि और ग्लेशियरों अर्थात हिमखंडों के नीचे निष्क्रिय पड़े प्राचीन रोगाणुओं को भी उजागर कर सकती है. जैसा कि साइबेरिया में 2016 के एंथ्रेक्स प्रकोप ने स्पष्ट रूप से दुनिया को दिखा दिया है. 15,000 साल पहले के ग्लेशियल आइस कोर और 30,000 साल पुराने साइबेरियन पर्माफ्रॉस्ट में भी नोवल अर्थात नए वायरस पाए गए थे. वातावरण में दुबके अज्ञात रोगजनक हो सकते हैं, जो अब ग्लोबल वार्मिंग के कारण अधिक सुलभ हो गए है.
ज्ञात मानव संक्रामक रोगों पर एक हालिया अध्ययन ने जीएचजी उत्सर्जन के प्रति संवेदनशील 10 जलवायु खतरों के प्रभावों को देखा था. इसमें पाया गया कि जलवायु संबंधी खतरों से आधी बीमारियां 1,000 से अधिक अनूठे पाथवे अर्थात रास्तों के माध्यम से बढ़ जाती हैं. यह जटिल स्थिति इस बात पर जोर देती है कि जब तक जीएचजी उत्सर्जन को तत्काल कम नहीं किया जाता है, तब तक अकेले सामाजिक अनुकूलन इस समस्या का समाधान करने के लिए अपर्याप्त ही साबित होंगे.
जलवायु संकट से मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ता है
जलवायु संकट ने करोड़ों लोगों के मानिसक स्वास्थ्य को भी प्रभावित किया है. बाढ़, जंगल की आग और अन्य प्राकृतिक आपदाओं से पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर अर्थात अभिघातजन्य तनाव विकार (पीटीएसडी), अवसाद और व्यसन का अनुभव करने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि होती देखी गई हैं. प्रत्यक्ष जलवायु-संचालित ये मानसिक स्वास्थ्य प्रभाव समान रूप से वितरित नहीं होते हैं. इनका प्रभाव महिलाओं, बच्चों, गरीब और विशेष रूप से निम्न और मध्यम आय वाले देशों में सबसे अधिक देखा जाता हैं और यह वर्ग ही सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं. ये सभी अनुपातहीन रूप से उच्च मानसिक स्वास्थ्य बोझ साझा करते हैं. दूसरों पर इसका अवलोकन करके लोग खुद पर जलवायु संबंधी प्रभावों का पूर्वाभास के माध्यम से ‘पर्यावरण-चिंता’ का अनुभव करते हैं. एक वैश्विक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई, जिसमें लगभग 40 प्रतिशत युवाओं ने जलवायु संकट के कारण बच्चा पैदा न करने की आशंका जताई थी. जलवायु परिवर्तन के दीर्घकालिक आर्थिक और सामाजिक प्रभाव विश्व स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण को भी प्रभावित करने वाले हैं. बार-बार सूखा, बेमौसम बारिश और बाढ़ फसलों को नष्ट करते हुए आय और भोजन तक पहुंच को मुश्किल और कुछ हद तक नुकसान पहुंचाने वाले साबित होते हैं. समुद्र के बढ़ते स्तर, मरुस्थलीकरण और वनों की कटाई के कारण लोगों को बढ़ने, भोजन करने, रहने और काम करने के लिए भूमि और स्थान की हानि होती है. जलवायु-संचालित आजीविका और सुरक्षित स्थानों के नुकसान से संघर्ष, विस्थापन और जबरन पलायन बढ़ेगा. यह गरीबों को और भी असमान रूप से प्रभावित करता है.
जलवायु परिवर्तन के दीर्घकालिक आर्थिक और सामाजिक प्रभाव विश्व स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण को भी प्रभावित करने वाले हैं. बार-बार सूखा, बेमौसम बारिश और बाढ़ फसलों को नष्ट करते हुए आय और भोजन तक पहुंच को मुश्किल और कुछ हद तक नुकसान पहुंचाने वाले साबित होते हैं.
खराब मानसिक स्वास्थ्य के समग्र स्वास्थ्य और उत्पादकता पर होने वाले प्रभाव को देखकर यह 2010 में विश्व अर्थव्यवस्था को इससे निपटने के लिए लगभग 2.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का खर्च करने का अनुमान लगाया गया था. यह 2030 तक सालाना 6 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक बढ़ सकता है. जलवायु परिवर्तन के कारण मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ने की वजह से हमें भारी अतिरिक्त कीमत चूकानी होगी. ऐसे में जलवायु परिवर्तन को कम करने की दिशा में की गई कार्रवाई और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार के प्रयास किए जाए तो इससे सभी के लिए बेहतर स्थिति तैयार हो सकती है. चूंकि, क्लाइमेट एक्शन अर्थात जलवायु क्रियाएं और नीतियां अक्सर इसके मानिसक स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभाव के प्रति संवेदनशील नहीं होती हैं, अत: हमारे लिए इन बाधाओं को समझना और उसके हिसाब से एक सक्षम ढांचा तैयार करना महत्वपूर्ण साबित होगा.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का अनुमान है कि 2030 और 2050 के बीच जलवायु परिवर्तन से दस्त, गर्मी से होने वाले तनाव, मलेरिया और कुपोषण से सालाना 250,000 अतिरिक्त लोगों की जान जा सकती हैं. यह भी अनुमान लगाया गया है कि 2030 तक जलवायु परिवर्तन से स्वास्थ्य पर होने वाला निकट अवधि का प्रत्यक्ष खर्च सालाना 2-4 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच जाएगा. इस तेजी से अगले 10 वर्षों में जलवायु परिवर्तन के कारण 100 मिलियन से अधिक लोगों के गरीबी में चले जाने की भविष्यवाणी की गई है.
स्वास्थ्य पर इसके नकारात्मक प्रभावों को देखते हुए दुनिया को उत्सर्जन को कम करने के लिए लघु और दीर्घावधि दोनों में तत्काल और स्थायी कदम उठाने चाहिए. इसके लिए हमें स्वास्थ्य प्रणालियों को मजबूत कर रोगों का पता लगाने, निदान और अध्ययन करने की क्षमता और स्त्रोत स्थल पर ही ज़ूनोटिक स्पिलओवर को बेहतर ढंग से प्रबंधित करने के लिए पशु रोगजनकों की निगरानी में वृद्धि की तैयारी करनी होगी. हमें दवाओं (विशेष रूप से नई एंटीबायोटिक्स) और नए टीकों के अनुसंधान, विकास, निर्माण और बाज़ार तक पहुंच के लिए आवश्यक व्यवस्था करते हुए इस पर चलने के नए रास्ते खोजने होंगे. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सस्ती स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच को लेकर अमीर और गरीब देशों के बीच जो खाई है उसे पाटना सभी के लिए हितकारी साबित होगी. कोविड ने हमें दिखाया है कि दुनिया के किसी भी हिस्से में उभरने वाली कोई नई बीमारी तेजी से प्रमुख आर्थिक और जनसंख्या वाले केंद्रों में फैलकर वहां गंभीर व्यवधान पैदा कर सकती है.
श्रृंखला का भाग तीन पढ़ें, जो जलवायु परिवर्तन और खाद्य सुरक्षा पर प्रकाश डालता है.
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