Author : Sunaina Kumar

Expert Speak Raisina Debates
Published on Mar 10, 2025 Updated 0 Hours ago

ताज़ा टाइम यूज़ सर्वे के शुरुआती संकेत दिखाते हैं कि भारत में महिलाओं के ऊपर बिना मेहनताने वाले काम का बोझ बहुत अधिक है, और इसके नीति निर्माण के लिए गहरे निहितार्थ हैं.

टाइम यूज़ सर्वे 2024: महिलाओं की मेहनत का रेखांकन

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टाइम यूज़ सर्वे यानी इस बात का हिसाब किताब कि लोग अपना वक़्त कैसे बिताते हैं. इसकी शुरुआत 19वीं सदी में इंग्लैंड और फ्रांस के कामकाजी तबक़े के बीच हुई थी. शुरुआत में ये सर्वेक्षण परिवार के बजट की पड़ताल करने और उनके द्वारा अपने वक़्त का इस्तेमाल करने को लेकर किए जाने वाले बर्ताव की समीक्षा करते थे. लेकिन, बीसवीं सदी में टाइम यूज़ सर्वेक्षण के दायरे में प्रगति हुई और इस में श्रमिक बाज़ार के दायरे से बाहर किए जाने वाले काम का भी हिसाब किताब जुटाया जाने लगा और इसके साथ साथ परिवारों के भीतर किए जाने वाले उस काम की आर्थिक क़ीमत का भी अंदाज़ा लगाया जाने लगा, जिसका मेहनताना नहीं मिलता है.

 

चूंकि, परिवार के बिना मेहनताने वाले अधिकतर काम का बोझ महिलाएं उठाती हैं. ऐसे में लैंगिक समानता का आकलन करने और राष्ट्र की बेहतर और सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में महिलाओं के बिना मेहनताने वाले काम को भी टाइम यूज़ सर्वे में शामिल किया जाने लगा. दुनिया भर में बिना मेहनताने के होने वाले काम का दो तिहाई हिस्सा महिलाएं ही करती हैं. परिवारों के भीतर महिलाओं और पुरुषों के बीच काम का ये बंटवारा, महिलाओं के पढ़ाई करने और रोज़गार हासिल करने में बाधा बन जाता है.

 ऑस्ट्रेलिया, जापान, अमेरिका और चीन के साथ भारत उन गिने चुने देशों में शामिल है, जहां राष्ट्रीय स्तर पर टाइम यूज़ सर्वे किए जाते हैं. भारत में ऐसा पहला सर्वे 1998 में प्रयोग के तौर पर किया गया था, जिसमें छह राज्यों को शामिल किया गया था.

ऑस्ट्रेलिया, जापान, अमेरिका और चीन के साथ भारत उन गिने चुने देशों में शामिल है, जहां राष्ट्रीय स्तर पर टाइम यूज़ सर्वे किए जाते हैं. भारत में ऐसा पहला सर्वे 1998 में प्रयोग के तौर पर किया गया था, जिसमें छह राज्यों को शामिल किया गया था. प्रयोग के तौर पर किए गए इस सर्वेक्षण ने 2019 में एक व्यापक टाइम यूज़ सर्वे की नींव तैयार की थी. 2019 के सर्वे ने भारत में महिलाओं और पुरुषों के बीच वक़्त के इस्तेमाल में अंतर के भयावाह सच से पर्दा उठाया था. बिना मेहनताने वाले घरेलू काम-काज और परिवार के दूसरे सदस्यों की देख रेख में भारत की महिलाएं, मर्दों की तुलना में अपने जीवन का जितना वक़्त लगाती हैं, वो ज़्यादातर देशों के मुक़ाबले आठ गुने से भी अधिक होता है. भारत में कामकाजी तबक़े में महिलाओं की भागीदारी क्यों गिर रही है, इस पहेली का जवाब इस टाइम यूज़ सर्वे के निष्कर्षों में पाया जा सकता है.

 

वक़्त की ग़ुरबत लैंगिकता का एक मसला है, जिसका मर्दों की तुलना में औरतों पर ज़्यादा बुरा असर होता है. तमाम रिसर्चों से पता चलता है कि महिलाओं पर बिना मेहनताने वाले काम और पैसे के एवज़ में किए जाने वाले काम का बोझ इतना ज़्यादा है कि उनके पास अपनी बेहतरी पर ध्यान देने के लिए वक़्त ही नहीं मिलता. उनके पास पढ़ाई लिखाई करने, अपना मनोरंजन करने या फिर रोज़गार के मौक़े तलाशने के लिए बहुत कम समय बच पाता है, जिससे या तो उनके ग़रीबी रेखा के नीचे गिरने या फिर इसके दुष्चक्र में फंसे रहने का ख़तरा बढ़ जाता है.

 

2024 सर्वेक्षण के आंकड़े और महिलाओं के पास समय की कमी

टाइम यूज़ को लेकर किए गए ताज़ा सर्वे (जनवरी से दिसंबर 2024 के दौरान) के शुरुआती निष्कर्ष अभी हाल ही में सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय द्वारा जारी किए गए हैं. ये सर्वेक्षण दिखाता है कि(6 साल या उससे ज़्यादा उम्र की) लड़कियां और महिलाएं हर दिन 289 मिनट ऐसे घरेलू कामों में ख़र्च करती हैं, जिसके बदले में उन्हें कोई पैसा नहीं मिलता. इसकी तुलना में पुरुष बिना मेहनताने वाले काम में अपने दिन का केवल 88 मिनट ख़र्च करते हैं. यानी जहां पुरुष अपने दिन का केवल 1.7 प्रतिशत वक़्त बिना मेहनताने वाले काम में व्यतीत करते हैं. वहीं महिलाएं अपने दिन के समय का 16.4 फ़ीसद हिस्सा बिना मेहनताने वाले घरेलू कामों में बिताती हैं. बात इतने तक ही सीमित नहीं है. घरेलू काम-काज के अलावा भारत में महिलाएं अपने दिन का 137 मिनट, परिवार के दूसरे सदस्यों जैसे कि बच्चों और बुज़ुर्गों की देख-रेख में लगाती हैं. औरतों की तुलना में मर्द, परिवार के दूसरे सदस्यों की देख-भाल में दिन के केवल 75 मिनट बिताते हैं.

 

उम्र बढ़ने के साथ साथ महिलाओं के ऊपर बिना मेहनताने वाले घरेलू काम-काज का बोझ बढ़ता जाता है. 15 से 59 साल उम्र की महिलाएं अपने दिन का 305 मिनट ऐसे काम में व्यतीत करती हैं. ये आंकड़ा 2019 के 315 मिनट की तुलना में थोड़ा कम हुआ है. इसी उम्र की 41 प्रतिशत महिलाएं अपने परिवार के दूसरे सदस्यों की देख-रेख में भी काफ़ी समय बिताती हैं. जबकि ऐसा करने वाले पुरुषों की तादाद केवल 21.4 फ़ीसद है.

 सर्वेक्षण से एक बात और पता चलती है कि महिलाओं के घरेलू ज़िम्मेदारियों में इस तरह उलझे रहने की वजह से उनके पास रोज़गार यानी मेहनत के बदले में पैसे कमाने के लिए बहुत कम समय बच पाता है.

सर्वेक्षण से एक बात और पता चलती है कि महिलाओं के घरेलू ज़िम्मेदारियों में इस तरह उलझे रहने की वजह से उनके पास रोज़गार यानी मेहनत के बदले में पैसे कमाने के लिए बहुत कम समय बच पाता है. टाइम यूज़ सर्वे के मुताबिक़ दिन के 24 घंटों के दौरान जहां 15 से 59 साल उम्र वर्ग के 75 प्रतिशत पुरुष रोज़गार और पैसे कमाने वाले कामकाज में समय बिताते हैं. वहीं, ऐसा करने वाली महिलाओं की संख्या महज़ 25 फ़ीसद है.

 

बिना मेहनताने वाले काम का आर्थिक मूल्य

पिछले एक दशक के दौरान बैंक खातों तक महिलाओं की पहुंच, और उनके डिजिटल वित्तीय समावेशन में वैसे तो काफ़ी सुधार हुआ है. इससे परिवारों के भीतर महिलाओं की हैसियत बेहतर हुई है और फ़ैसले लेने में उनकी भागीदारी बढ़ी है. इसके अलावा, खाना पकाने के साफ़ ईंधन, पीने के पानी की पाइप से सप्लाई, बिजली कनेक्शन, सड़क निर्माण और शौचालय की सुविधाओं जैसे भौतिक मूलभूत ढांचों में भी सुधार आया है. विकासशील देशों में महिलाओं के पास समय के अभाव को दूर करने में इन सभी सुविधाओं का बड़ा योगदान होता है. पर, भारत में इन सुविधाओं में बढ़ोत्तरी के बावजूद, महिलाओं पर काम का बोझ कम नहीं हुआ है. 2019 के टाइम यूज़ सर्वे से ये तल्ख़ सच्चाई उजागर हुई थी कि दिन भर में महिलाओं के बिना मेहनताने के काम का 85 फ़ीसद हिस्सा, खाना पकाने, साफ़-सफ़ाई करने और बच्चों की देख-रेख में चला जाता है. महिलाओं के लिए मददगार नीतियों के बावजूद, समाज में महिलाओं के बिना मेहनताने वाले काम को लेकर जो जड़ता है, उसमें कोई ख़ास तब्दीली आती नहीं दिख रही है.

 

वैसे तो बिना मेहनताने वाले ये काम परिवारों और समुदायों के साथ साथ देश की अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिहाज़ से बहुत महत्वपूर्ण हैं. लेकिन, दिक़्क़त ये है कि न महिलाओं के इस योगदान को जाना-माना जाता है और न ही इसकी क़ीमत समझी जाती है. हालांकि, अब ज़्यादातर रिसर्चर टाइम यूज़ के आंकड़ों का इस्तेमाल करके महिलाओं के बिना मेहनताने वाले काम की क़ीमत निर्धारित करने लगे हैं. पिछले साल आई सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, महिलाएं घरों के जो काम बिना मेहनताने के करती हैं, उसका देश की GDP में 15 से 17 फ़ीसद का योगदान होता है. इस रिपोर्ट में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि घरों के भीतर महिलाएं जो काम करती हैं, उसका कोई मूल्य अक्सर नहीं समझा जाता. क्योंकि, ये श्रमक के बाज़ार से बाहर का काम होता है.

 पिछले साल आई सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, महिलाएं घरों के जो काम बिना मेहनताने के करती हैं, उसका देश की GDP में 15 से 17 फ़ीसद का योगदान होता है.

टाइम यूज़ का हालिया सर्वेक्षण घर के भीतर के काम-काज के असमान वितरण यानी मर्दों के मुक़ाबले औरतों पर पड़ने वाले ज़्यादा बोझ को दुरुस्त करने की ज़रूरत को रेखांकित करता है. इसके लिए निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के बीच सहयोग की ज़रूरत है. इसके तहत देख-भाल के मूलभूत ढांचे में निवेश, कामकाजी महिलाओं के लिए आसानी से छुट्टी और दूसरे लाभ लेने की नीतियां बनानें, नए हुनर सीखने का प्रशिक्षण देने और देख-रेख की सेवा वाले सेक्टर में रोज़गार के नए मौक़े पैदा करने आवश्यक हैं. तभी, वक़्त की कमी के मामले में पुरुषों और महिलाओं के बीच की इस खाई को पाटा जा सकेगा और उन बाधाओं को दूर किया जा सकेगा, जो महिलाओं को कामकाजी तबक़े में भागीदारी करने से रोकती हैं.

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