Author : Ramanath Jha

Published on May 05, 2023 Updated 0 Hours ago
स्थानीय निकायों की बढ़ती दिक़्क़तें: बिजली और पानी की महंगाई

पिछले दिनों महाराष्ट्र राज्य विद्युत वितरण लिमिटेड कंपनी (MSEDCL) के द्वारा बिजली की क़ीमत में इज़ाफ़ा और इसी तरह महाराष्ट्र सरकार के सिंचाई विभाग के द्वारा पानी की दर में बढ़ोतरी फंड की कमी से जूझ रहे राज्य के शहरी स्थानीय निकायों (ULB) की कठिनाइयों में और बढ़ोतरी करेगी. शहरी स्थानीय निकायों के पास नागरिकों से कर और चार्ज वसूलने की गुंजाइश काफ़ी कम है. उनकी ये समस्या वित्तीय कोष में आनुपातिक बढ़ोतरी न होने से और बढ़ जाती है. स्थानीय पार्षद नगरपालिका करों में किसी भी तरह की बढ़ोतरी का विरोध करते हैं क्योंकि उन्हें चुनाव के दौरान लोगों की नाराज़गी का डर सताता है. इस तरह की परिस्थिति में नगर निकायों को महसूस होगा कि उनकी दिक़्क़तें सरकार और उसके संगठनों ने बढ़ा दी है. इससे स्थानीय निकायों के लिए अपना खर्च पूरा करना और भी मुश्किल हो जाएगा. इसका नतीजा निस्संदेह राज्य में शहरी जीवन की गुणवत्ता में कटौती के रूप में सामने आएगा. इस लेख में पुणे महानगरपालिका (PMC) के उदाहरण के ज़रिए शहरी स्थानीय निकायों की दुर्दशा के बारे में बताने की कोशिश की गई है. हालांकि ये स्थिति समय-समय पर हर राज्य में सामने आती है जिसका भारत के शहरों में रहन-सहन के स्तर पर असर पड़ता है. 

इस लेख में पुणे महानगरपालिका (PMC) के उदाहरण के ज़रिए शहरी स्थानीय निकायों की दुर्दशा के बारे में बताने की कोशिश की गई है.

पानी का शुल्क एवं सिंचाई

पिछले दिनों महाराष्ट्र सरकार के सिंचाई विभाग ने पुणे महानगरपालिका को महाराष्ट्र सरकार के स्वामित्व वाले बांधों से लिए जाने वाली पानी के एक हिस्से पर औद्योगिक इस्तेमाल की दर से भुगतान करने को कहा. सिंचाई विभाग की ‘उचित प्रक्रिया’ के बाद नई दरों को 29 मार्च 2022 को महाराष्ट्र जल संसाधन नियामक प्राधिकरण (MWRRA) के एक आदेश के माध्यम से लागू किया गया. संशोधित दरों के अनुसार घरेलू पानी के इस्तेमाल की थोक दर 1,000 लीटर के लिए 55 पैसे है जबकि व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए 2.75 रुपये. हालांकि औद्योगिक दरें प्रसंस्करण उद्योग के लिए 11 रुपये प्रति 1,000 लीटर है जबकि कच्चे माल के रूप में पानी का उपयोग करने वाले मैन्युफैक्चरिंग उद्योगों के लिए 165 रुपये और औद्योगिक इकाइयों में घरेलू उपयोग के लिए 55 पैसे है. सिंचाई विभाग ने अभी तक बांधों से कुल निकाले जाने वाले पानी को महानगरपालिका के लिए 80 प्रतिशत घरेलू और 20 प्रतिशत व्यावसायिक में बांट रखा था. लेकिन अब सिंचाई विभाग ने 20 प्रतिशत व्यावसायिक पानी में से 15 प्रतिशत को व्यावसायिक और 5 प्रतिशत को औद्योगिक इस्तेमाल में बदल दिया है और दोनों के लिए अलग-अलग दरें (क्रमश: 2.75 रुपये और 11 रुपये प्रति 1,000 लीटर) लागू कर दी है. इसलिए अब पुणे महानगरपालिका को 15 प्रतिशत व्यावसायिक पानी के लिए घरेलू दर के मुक़ाबले पांच गुना ज़्यादा भुगतान करना होगा जबकि 5 प्रतिशत औद्योगिक पानी के लिए घरेलू दर के मुक़ाबले 20 गुना अधिक देना होगा. इन बदलावों का असर ये होगा कि महानगरपालिका का पानी ख़रीदने का बिल तेज़ी से बढ़ने वाला है. 

सिंचाई विभाग के अधिकारियों ने दृढ़तापूर्वक कहा है कि पुणे महानगरपालिका को उसके बांधों से पानी निकालने के बदले 43 करोड़ रुपये की रक़म का भुगतान करना चाहिए. महानगरपालिका को आवंटित वार्षिक कोटा 11.5 TMC (थाउजेंड मिलियन या 1 अरब क्यूबिक फीट) है. हालांकि ये कोटा दो दशक से ज़्यादा पहले निर्धारित किया गया था और तब से इसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है. लेकिन इस दौरान पुणे की आबादी में कई लाख की बढ़ोतरी हुई है और अब इसी पानी से यहां की 43 लाख के क़रीब अनुमानित जनसंख्या को पानी की आपूर्ति की जा रही है. इसलिए कम आवंटन के बावजूद सिंचाई विभाग को वास्तव में लगभग 20.5 TMC पानी मुहैया कराना पड़ा है. पुणे महानगरपालिका के जल आपूर्ति विभाग ने पानी की नई दरों और मनमाने ढंग से उनकी श्रेणी बदलने का विरोध किया है. महानगरपालिका ने दलील दी है कि औद्योगिक इलाक़ों में आपूर्ति किया जाने वाला पानी अधिकतर पीने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. इसलिए उस पानी को औद्योगिक दर में शामिल करना ग़लत है.   

पुणे के पड़ोस में स्थित पिंपरी-चिंचवड महानगरपालिका (PCMC) भी पुणे ज़िले में स्थित बांधों से पानी लेता है. पिंपरी-चिंचवड की पानी की ज़रूरत भी आबादी के विस्फोट की वजह से पुणे की तरह ही बढ़ी है. पिंपरा-चिंचवड महानगरपालिका अपने नागरिकों के लिए 7.8 TMC पानी लेती है. लेकिन जिन बांधों से पानी निकाला जाता है वो शहरी स्थानीय निकायों के लिए विशेष रूप से नहीं हैं बल्कि वो खेती के काम-काज में लगे लोगों की आवश्यकता को भी पूरा करते हैं, अपनी फसल के लिए उन्हें पानी की ज़रूरत होती है. इसलिए शहरी स्थानीय निकायों को कहा गया है कि वो अपने पानी को कृषि के लिए अनुशंसित BOD (बायोलॉजिकल ऑक्सीज़न डिमांड) स्तर पर ट्रीट करें और ट्रीट किए गए पानी को ज़िले की कृषि प्रणाली में छोड़ें.  

इस लेख में पुणे महानगरपालिका (PMC) के उदाहरण के ज़रिए शहरी स्थानीय निकायों की दुर्दशा के बारे में बताने की कोशिश की गई है.

राज्य की अर्थव्यवस्था के लिए शहर सबसे महत्वपूर्ण हैं और ये बड़े शहर अपने आकार की वजह से अपनी मांगों को पूरा करने के लिए मजबूर करते हैं. पुणे जैसे बेहद शहरीकृत ज़िले में दो बड़े शहरी स्थानीय निकायों में ज़िले की कुल आबादी के लगभग 60 प्रतिशत लोग रहते हैं और यहां बांध के पानी का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है. बढ़ते शहरीकरण के साथ कृषि क्षेत्र में कमी आ रही है जिससे ज़िले के संसाधनों पर ज़्यादा दावा किया जा रहा है. 

बिजली में रियायतें

MSEDCL के द्वारा दरों में संशोधन चिंताजनक है क्योंकि वर्तमान में महानगरपालिका सालाना 250 करोड़ रुपये के बिजली बिल का बोझ उठाती है. बिजली की नई दरें बिल में 60 करोड़ रुपये की और बढ़ोतरी करेगी. स्ट्रीट लाइट और सार्वजनिक सुविधाओं एवं प्रशासनिक कार्यालयों में उपयोग के अलावा बिजली की महत्वपूर्ण खपत पंपिंग और पानी के वितरण की वजह से है. MSEDCL ने ये कहते हुए पुणे महानगरपालिका की तरफ़ से रियायती दर पर बिजली की आपूर्ति के अनुरोध को ठुकरा दिया है कि बिजली नियामक, महाराष्ट्र बिजली नियामक आयोग (MERC) ने नई दरें तय की हैं. पुणे के मामले में एक सुकून देने वाली बात ये है कि बांधों का पानी गुरुत्वाकर्षण की वजह से सीधे शहर की पाइपलाइन में बहता है लेकिन कई शहरी स्थानीय निकाय इस मामले में उतने भाग्यशाली नहीं हैं. उन्हें बांध से पानी पाइपलाइन तक लाने के लिए पंपिंग हेड (पानी निकलने की ऊंचाई से) का इंतज़ाम करना पड़ता है जिसमें बिजली की काफ़ी खपत होती है और इसके कारण बिजली का बिल बहुत ज़्यादा भागता है. 

वैसे तो MSEDCL ने रियायत के अनुरोध को स्वीकार नहीं किया है लेकिन वो अपने काम-काज के लिए महानगरपालिका से ज़मीन की मांग करती है. साथ ही तार बिछाने के लिए सड़कों की खुदाई का अधिकार भी मांगती है. इन सबके लिए वो रियायती दर का अनुरोध करती है जो किसी आम नागरिक से वसूले जाने वाले शुल्क का एक छोटा सा हिस्सा है. लेकिन इन सुविधाओं के बदले वो महानगरपालिका को किसी भी तरह की रियायत देने के लिए तैयार नहीं है. इस तरह शहरी स्थानीय निकायों को कहा जाता है कि वो राज्य सरकार को सब्सिडी प्रदान करें. ये ऐसा बिंदु है जिस पर इस लेखक ने पहले के एक लेख में विस्तार से प्रकाश डाला है. 

महाराष्ट्र के ज़्यादातर शहरों के पास पानी का अपना संसाधन नहीं है और वो जल संसाधन के लिए राज्य सरकार पर निर्भर हैं. हालांकि महाराष्ट्र में शहरी आबादी भारत में सबसे ज़्यादा है जो कि और बढ़ने वाली है. चूंकि सरकार की नीति के तहत पीने के पानी को दूसरे उपयोग के मुक़ाबले ज़्यादा प्राथमिकता दी जाती है, ऐसे में शहरों को पानी की आपूर्ति उनकी जनसंख्या और प्रति व्यक्ति पीने के पानी के लिए राष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार निर्धारित है. महाराष्ट्र के मुख्य रूप से शहरी स्वरूप को देखते हुए, जो कि आने वाले समय में और भी ज़्यादा शहरीकृत होने वाला है, ये एक उचित विचार हो सकता है कि शहर की सालाना पानी की ज़रूरत को पूरा करने वाले कुछ बांधों को महानगरपालिका के हवाले कर दिया जाए. इस तरह के क़दम राज्य सरकार के विभागों और नगर निकायों के बीच नौकरशाही की परेशानियों को रोकेंगे. साथ ही बांधों की देख-रेख और संचालन की ज़िम्मेदारी महानगरपालिका को हस्तांतरित कर देना चहिए. नगर निकाय का नियामक जल प्रबंधन और दरें तय करने का काम करता रहेगा जिससे कि राजस्व की एक उचित राशि पानी की प्रणाली के विस्तार, देख-रेख, बदलाव और सुधार के काम पर खर्च किया जा सके.

हालांकि पानी के क्षेत्र में शहरी स्थानीय निकायों की अयोग्यता को छिपाया नहीं जा सकता है. पानी के वितरण की प्रणाली में घुस चुकी स्थानीय राजनीति, पिछले कई वर्षों के दौरान पानी का मीटर लगाने को लेकर अनिश्चय की स्थिति और खर्च के मुताबिक़ दरें तय करने की अनिच्छा के बारे में सबको मालूम है. इनको दुरुस्त करने की ज़रूरत है. अफ़सोस की बात ये है कि बड़े शहरों में राजनीति अब स्थानीय राजनीति तक ही सीमित नहीं है. राज्य सरकार की राजनीतिक भागीदारी बढ़ गई है क्योंकि शहर आर्थिक और जनसंख्या के हिसाब से बड़े हो गए हैं और कुछ कमज़ोरियां उसी तरह की दिखा रहे हैं जो स्थानीय राजनीति दिखाती है. ये स्थानीय शहरी शासन व्यवस्था के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं.


रामनाथ झा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन, मुंबई में विशिष्ट फेलो हैं. वो शहरीकरण, जिसमें शहरी निरंतरता, शहरी शासन व्यवस्था और शहरी नियोजन शामिल हैं, पर काम करते हैं.

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