Published on Jul 14, 2021 Updated 0 Hours ago

बेशक़ मोदी सरकार अपनी योजनाओं को लागू करने की दिशा में ज़्यादा प्रतिबद्ध और दृढ़ है. इस लक्ष्य की प्राप्ति में इससे ज़रूर मदद मिलेगी.  

बिल्ली के गले में घंटी बांधना- अफ़सरशाही का प्रशिक्षण

सार्वजनिक क्षेत्र की क्षमताओं को बढ़ावा देने से जुड़े मोदी सरकार के प्रयास मिशन “कर्मयोगी” का आग़ाज़ महामारी के दौरान पिछले साल सितंबर में हुआ था. ये इस बात का प्रतीक है कि जिन दिनों हम सुस्ती भरे माहौल में अपने घर से काम कर रहे थे, अफ़सरशाही का पहिया अपनी रफ़्तार से घूम रहा था. महामारी के चलते शारीरिक तौर पर मेल-जेल नहीं होने के बावजूद काम अपनी गति से बदस्तूर जारी था.

इस मिशन का नाम भगवद्गीता से लिया गया है. इस शब्द का अर्थ है “निहित स्वार्थ के बिना दूसरों की सेवा करने वाला”. ये एक आदर्श नौकरशाह की सबसे सटीक परिभाषा है. गीता एक प्राचीन, जीवंत और कमाल की रचना है. इसमें नैतिकता और कर्तव्यों के बारे में अनमोल सीख भरी पड़ी है.

नौकरशाह के बारे में आम जनमानस की राय

अफ़सोस की बात है कि नौकरशाही के बारे में आम जनमानस में नकारात्मक सोच घर कर गई है. ये हमारे उपनिवेशवादी अतीत का नतीजा है. अफ़सरशाही के बारे में इस तरह की सोच मौजूदा वक़्त की ज़रूरतों के ठीक विपरीत है. महामारी के इस कठिनाई भरे समय में “सबको सुखद अहसास देने वाली” सोच की ज़रूरत है. आधुनिक अर्थव्यवस्था की तात्कालिक ज़रूरतों के लिए भी एक आदर्श नौकरशाही की आवश्यकता है. इसमें कोई शक़ नहीं कि सार्वजनिक सेवाओं में सुधार के महत्वाकांक्षी लक्ष्य की प्राप्ति के रास्ते में ढांचागत कमज़ोरियां बहुत बड़ी रुकावट हैं. मिशन डॉक्यूमेंट में भी “एकाकी या टुकड़ों में बंटी कार्यप्रणाली” की एक समस्या के तौर पर पहचान की गई है. हालांकि, इससे भी बड़ी दिक्कत लोगों के उस अस्थिर समूह के चलते है जो हम पर राज करता है. उनके विभाग और मंत्रालय बदलते रहते हैं. नौकरी में तरक्की के हिसाब से अक्सर उनका कार्यक्षेत्र बदल जाता है. केंद्र और राज्य सरकारों में नौकरशाही की सबसे ऊपरी परत में सबसे कार्यकुशल अफ़सरों का कैडर मौजूद है. आमतौर पर इन्हें हर मामले में महारत हासिल होती है. वो अपने लिए आरक्षित पद हासिल करते हैं. उनका चयन किसी प्रतिस्पर्धी व्यवस्था से नहीं बल्कि छिपी हुई सरकारी प्रक्रिया के ज़रिए होता है.  

इसमें कोई शक़ नहीं कि सार्वजनिक सेवाओं में सुधार के महत्वाकांक्षी लक्ष्य की प्राप्ति के रास्ते में ढांचागत कमज़ोरियां बहुत बड़ी रुकावट हैं. मिशन डॉक्यूमेंट में भी “एकाकी या टुकड़ों में बंटी कार्यप्रणाली” की एक समस्या के तौर पर पहचान की गई है.

मौजूदा कैडर वाली व्यवस्था पदों पर एकाधिकार का निर्माण करती है. इस व्यवस्था को बदले बिना और सभी अफ़सरों पर अपनी नौकरी में आगे बढ़ने के लिए प्रतिस्पर्धी दबाव बनाए बिना किसी भी किस्म के बदलावों का प्रभाव सीमित ही रहेगा. अर्थशास्त्र का नियम है कि एकाधिकारवादी व्यवस्थाएं ख़र्चीली और कम असरदार होती हैं. ये सिद्धांत सार्वजनिक क्षेत्र में मानव संसाधन के आवंटन से जुड़े तंत्र पर भी समान रूप से लागू होता है. 

1980 के दशक के आख़िर में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और कार्मिक और प्रशिक्षण मंत्री पी.सी. चिदंबरम ने सार्वजनिक क्षेत्र में क्षमता निर्माण को बढ़ावा देने के प्रयास किए थे. बहरहाल, ये प्रयास उतने प्रभावी नहीं हो पाए थे. मौजूदा समय में उस अनुभव से काफ़ी कुछ सीखा जा सकता है. हालांकि, जिस प्रशिक्षण की बात की जा रही है, उसका अफ़सरशाही के सामान्य कामकाज से कोई लेना-देना नहीं है. इसका इस्तेमाल भविष्य के महत्वाकांक्षी रोज़गारों के लिए “दिखावे” भरा कौशल हासिल करने में होता है. संबंधित अफ़सर व्यक्तिगत तौर पर अपना दर्जा ऊंचा करते हैं. हालांकि विभाग के लिए इस तरह के प्रशिक्षणों का तात्कालिक रूप से क्या लाभ होता है, इसपर सवालिया निशान बरकरार हैं.   

क्षमता निर्माण

क्षमता निर्माण एक महंगी कवायद है. हरेक पांच साल में दो हफ़्तों के प्रशिक्षण के लिए भी (वो चाहे एक ही बार में आयोजित हो या समय के साथ चरणबद्ध डिजिटल तरीके से) अफ़सर को अपने सामान्य कामकाज से हटना होता है. उसका अपने कामकाज से ध्यान बंटता है. इस तरह के प्रशिक्षणों में व्यतीत किए गए समय की लागत 31 लाख केंद्रीय कर्मचारियों के लिए 85 अरब रु (वेतन बजट का 4 प्रतिशत) बैठती है. (एमओएफ़ 2018-19.) अगर हम इन कार्यक्रमों पर आपूर्ति पक्ष से ख़र्च होने वाले 5 अरब रुपयों को भी जोड़ दें तो पांच वर्षों के दौरान कुल खर्च 30 अरब रु हो जाता है. बहरहाल, अगर वास्तविक फ़ायदे होते हैं तो ये कोई बहुत बड़ी रक़म नहीं है. हालांकि, सिविल सेवा से जुड़ी नौकरियों को पांच वर्षों की समाप्ति पर 10 प्रतिशत तक कम कर दिया जाने पर अगर पहले से ज़्यादा कार्यकुशलता दिखाई दे तभी इसकी असल परीक्षा हो सकेगी. 

मिशन में एक अच्छी बात ये है कि हरेक पद के लिए एक विशिष्ट “भूमिका” बताने का प्रस्ताव किया गया है. इनके साथ पहचान की गई क्रियासूची भी जुड़ी होती है. इससे पता चलता है कि किसी ख़ास कार्य के लिए किस तरह के कौशल की आवश्यकता है और उस दिशा में मौजूद क्षमता के साथ कितना अंतर है. भविष्य में इन्हीं आधारों पर भर्तियां और नियुक्तियां तय होती हैं. यूपीए-2 के आख़िरी वर्षों में इस दिशा में कुछ प्रयास किए गए थे. हालांकि तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी और वो प्रयास ऊंट के मुंह में जीरे के समान थे. इसके तहत वार्षिक मूल्यांकन प्रक्रिया को खुद के विवेक से तय करने के बजाए वास्तविक अंकों के ज़रिए तय किए जाने की बात की गई है. हालांकि इसमें प्रक्रिया को फिर से परिभाषित करने का अभाव दिखता है. साथ ही मानव संसाधनों से जुड़े कठोर बजटीय सीमाओं को मद्देनज़र नहीं रखा गया है. ये बातें सटीक सालाना मूल्यांकन की पूर्व शर्त हैं. मानव संसाधनों की अधिकता (जैसा कि अक्सर देखा जाता है) के साथ-साथ अगर विलंब करने की मौजूदा प्रक्रियाएं जारी रहीं तो चारों ओर फैले “जियो और जीने दो” के माहौल को ख़त्म करना कठिन होगा. 

इस तरह के प्रशिक्षणों में व्यतीत किए गए समय की लागत 31 लाख केंद्रीय कर्मचारियों के लिए 85 अरब रु (वेतन बजट का 4 प्रतिशत) बैठती है. (एमओएफ़ 2018-19.) अगर हम इन कार्यक्रमों पर आपूर्ति पक्ष से ख़र्च होने वाले 5 अरब रुपयों को भी जोड़ दें तो पांच वर्षों के दौरान कुल खर्च 30 अरब रु हो जाता है. बहरहाल, अगर वास्तविक फ़ायदे होते हैं तो ये कोई बहुत बड़ी रक़म नहीं है.

भूमिका का स्पष्ट रूप से निर्धारण प्राप्ति बजट के साथ कुछ प्रत्यक्ष संबंध भी दर्शा सकता है. इसे 2007-08 से ही तैयार किया जा रहा है. (आईडीएसए 2011.) अपनी तमाम बाधाओं के बावजूद ये प्राप्तियों और नतीजों को विशिष्ट रूप से सामने लाते हैं और प्रयासों से उनका संबंध स्पष्ट होता है. अगर हर नतीजे को विशिष्ट पदों के लिए तय किए गए क्रियाकलापों के साथ जोड़ दिया जाए तो अफ़सरशाही के प्रदर्शन से जुड़ा बजट इस मिशन के प्रभाव का सर्वेक्षण करने के लिए उपलब्ध एक बेहतरीन मानक साबित हो सकता है. 

मिशन की ख़ासियत

इस मिशन का सबसे रोमांचक पहलु है iGOT के नाम से प्रस्तावित डिजिटल नॉलेज प्लैटफ़ॉर्म. देश में सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की विशाल कंपनी इंफ़ोसिस के साथ सरकार का जारी करार इससे जुड़ा एक और सुखद पक्ष है. ये सहयोग करीब एक दशक पहले सरकार के भीतर ही नंदन नीलेकनी की अगुवाई में “आधार’’ यूनिक आईडी अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया के ज़रिए शुरू हुआ था. सरकार के स्वामित्व में एक विशेष कार्ययोजना बल- “कर्मयोगी भारत” की स्थापना होनी है. विशेष ज़रूरतों के हिसाब से तैयार डिजिटल ट्रेनिंग प्लैटफ़ॉर्म इसी के जिम्मे होगा. ये सार्वजनिक मानव संसाधन के एकीकृत स्वरूप को चालू करने और उसके प्रबंधन का काम देखेगा. “कर्मयोगी भारत” पर निगरानी रखने के लिए इंफ़ोसिस के पूर्व सीईओ श्री एसडी शिबु लाल के मातहत एक टास्क फ़ोर्स का गठन किया गया है. 

श्री शिबु लाल इंफ़ोसिस के आख़िरी संस्थापक सीईओ (2011-14) में से थे. उनका कार्यकाल उतार-चढ़ावों से भरा था. एक उद्यमी के तौर पर उनमें इंफ़ोसिस को कामकाज के लिहाज से सहज या आरामतलबी वाले हालात से निकालकर कुछ नया करने की दिशा में आगे बढ़ाने का बेजोड़ साहस था. उस समय तक इंफ़ोसिस सस्ते दरों पर बैक-ऑफ़िस सपोर्ट मुहैया कराने का काम करती थी. हालांकि कारोबार के भविष्य के लिहाज से ये एक डूबती हुई रणनीति थी. बैक-आफ़िस से कहीं ज़्यादा रचनात्मकता वाले क्षेत्रों जैसे आर्टिफ़िशयल इंटेलिजेंस और क्लाउड कंप्यूटिंग का ही भविष्य उज्ज्वल नज़र आ रहा था. श्री शिबु लाल कंपनी को इसी रास्ते पर ले गए. उनके द्वारा शुरू की गई ये मुहिम आगे चलकर कंपनी के पहले “बाहरी” सीईओ विशाल सिक्का के नेतृत्व में भी जारी रही.   

इस मिशन पर अमल की संस्थागत तैयारियां बेहद महत्वाकांक्षी हैं. प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक सार्वजनिक मानव संसाधन परिषद की स्थापना की जाएगी. ये फ़ैसले लेने वाली सर्वोच्च संस्था होगी. इसमें राज्यों के मुख्यमंत्री, दूसरे मंत्री और तमाम विशेषज्ञ मौजूद रहेंगे. जीएसटी परिषद द्वारा शुरू किए गए “सहकारी संघवाद” के सिद्धांत को इसके ज़रिए और विस्तार दिया जाएगा. 

इस मिशन पर अमल की संस्थागत तैयारियां बेहद महत्वाकांक्षी हैं. प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक सार्वजनिक मानव संसाधन परिषद की स्थापना की जाएगी. ये फ़ैसले लेने वाली सर्वोच्च संस्था होगी. इसमें राज्यों के मुख्यमंत्री, दूसरे मंत्री और तमाम विशेषज्ञ मौजूद रहेंगे. 

एक क्षमता निर्माण आयोग इस परिषद की मदद करेगा. इसके गठन से जुड़ी प्रक्रियाएं फ़िलहाल स्पष्ट नहीं हैं. हालांकि उम्मीद यही है कि इसमें बाहरी प्रतिभाओं को भी मौका दिया जाएगा. ये पूरी कवायद विभागों के दबदबे के पारंपरिक तौरतरीकों से हटकर एक नई शुरुआत जैसी होगी. ये प्रशिक्षण और कार्य प्रक्रियाओं के मानक स्थापित करेगी. केंद्रीय प्रशिक्षण संस्थानों की निगरानी करेगी. इसके साथ ही क्षमता निर्माण से जुड़ी सालाना योजनाओं और नीतिगत हस्तक्षेपों की सिफ़ारिश भी करेगी. परिषद में मुख्यमंत्रियों को शामिल किए जाने और मिशन से जुड़े दस्तावेज़ों में इसके पूरे देश में प्रभावी होने से जुड़ी चर्चाओं से ऐसा लगता है कि इस परिषद के कार्यकारी दायित्व का दायरा केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारों की सिविल सेवाओं तक भी होगा.  

सवाल है कि क्या इन संस्थागत बदलावों से नौकरशाहों को “नियमों” के साथ खेल करने की बजाए अपनी निर्धारित “भूमिका” के हिसाब से काम करने की प्रेरणा मिलेगी? हालांकि, ये कोई पहला मौक़ा नहीं है जब क्षमता निर्माण के “नरम” रास्ते से सकारात्मक बदलाव लाने की कोशिशें की जा रही हैं. बेशक़ मोदी सरकार अपनी योजनाओं को लागू करने की दिशा में ज़्यादा प्रतिबद्ध और दृढ़ है. इस लक्ष्य की प्राप्ति में इससे ज़रूर मदद मिलेगी. 

पेशेवर भूमिकाओं को बेहतर तरीके से परिभाषित करने के लिए “नियम क़ायदों से बंधे” बर्ताव को “भूमिका आधारित” क्रियाकलापों में बदलना होगा. इसके लिए प्रशिक्षण को ढांचागत बदलावों के साथ जोड़ना होगा. सिविल सेवा के कुल 31 लाख पद भरे हुए हैं. इनमें से 28 प्रतिशत उत्पादन, वाणिज्य या इंजीनियरिंग के क्षेत्र से जुड़े हैं. ये तमाम पद “एजेंसिफ़िकेशन” या निगमीकरण के प्रमुख उम्मीदवार हैं. अन्य 31 प्रतिशत पद अर्ध-सैनिक बलों, सुरक्षा और इंटेलिजेंस सेवाओं में हैं. इनमें से ज़्यादातर फ़ील्ड ऑपरेशन में लगे हैं. 

सवाल है कि क्या इन संस्थागत बदलावों से नौकरशाहों को “नियमों” के साथ खेल करने की बजाए अपनी निर्धारित “भूमिका” के हिसाब से काम करने की प्रेरणा मिलेगी?

वैसे तो कुल आंकड़ों का आकार काफ़ी बड़ा लगता है पर हक़ीक़त में ये कार्य उससे कहीं छोटा है. मुख्य असैनिक क्रियाकलापों से संबंधित सिर्फ़ 3 लाख पद हैं. इनमें से 88 प्रतिशत निम्न कुशलता वाली नौकरियां हैं. अगर इनका नया स्वरूप बनाया जाए या डिजिटल प्रक्रियाएं अपनाई जाने लगे तो इनमें से ज़्यादातर की ज़रूरत ख़त्म हो जाएगी. ऐसे में उच्च कौशल वाले महज 90 हज़ार और मध्यम कौशल वाले 40 हज़ार पद ही बचते हैं. इन्हीं दोनों प्रधान श्रेणियों में सिविल सेवा की मुख्य भूमिकाओं की पहचान किए जाने की ज़रूरत है. इसके लिए विशिष्ट सेवाओं और क्षेत्रों से जुड़े विशेषज्ञों को भी जोड़ा जाना चाहिए. इतना ही नहीं, नए ढांचों में और हरेक किरदार के लिए खुले अवसरों वाले माहौल में कार्य करने की ज़रूरत है. 

समाधान 

अतीत में लोकतांत्रिक विकासशील देशों में सिविल सेवा में सुधार के प्रयास सिंगापुर से प्रेरित होते रहे हैं. 2000 से शुरू हुए दशक के दौरान टोनी ब्लेयर की चुनावी जीत दोबारा सुनिश्चित करने के मकसद से शुरू की गई “सर्विस डिलिवरी यूनिट” ने मलेशिया और अफ़्रीका के लोकतांत्रिक देशों के लिए आदर्श मिसाल पेश की थी. कार्यकुशलता में बढ़ोतरी लाने के लिए “तीव्र गति से जीत” दिलाने वाले उपाय के तौर पर इसकी पहचान बनी. मिशन कर्मयोगी की जड़ें भारतीय हैं. ये इसके नाम से ही स्पष्ट है. समझदारी की बात भी यही है. सर्वोत्तम समाधान हमेशा “आत्मचिंतन” से ही हासिल होते हैं. इंफ़ोसिस में बिताए अपने वक़्त की बदौलत श्री एसडी शिबु लाल ये भलीभांति जानते हैं. 

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