Author : Vivek Mishra

Expert Speak Raisina Debates
Published on Nov 25, 2024 Updated 2 Days ago

ट्रंप की जीत से अमेरिका की घरेलू और अंतरराष्ट्रीय नीति में बड़े बदलाव आएंगे और हो सकता है कि इनसे भारत को सामरिक लाभ मिलें, ख़ास तौर से हिंद प्रशांत क्षेत्र में.

#Trump 2.0: उम्मीदों का सवेरा या क़यामत के आसार?

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ये लेख "#Trump 2.0, "एजेंडे की बहाली: ट्रंप की वापसी और दुनिया पर इसका असर" सीरीज़ का हिस्सा है. 


2024 का चुनाव जीतने के बाद व्हाइट हाउस में डॉनल्ड ट्रंप की वापसी में हमें अंग्रेज़ कवि विलियम बटलर यीट्स की कविता ‘दि सेकेंड कमिंग’ का एक अक़्स नज़र आता है. यीट्स की इस कविता में विश्व युद्ध के बाद यूरोप में तबाही और निराशा से भरी क़यामत का संकेत मिलता है, और यही बात रिपब्लिकन पार्टी की उन परिचर्चाओं में भी दिखाई देती है, जिसकी वजह से ट्रंप को लोकप्रिय जनादेश और इलेक्टोरल कॉलेज, दोनों ही में ऐतिहासिक जीत हासिल हुई है. रिपब्लिकन पार्टी ने जनता के बीच ये नैरेटिव बनाया था कि ये अमेरिका और इसकी सेना को ‘वोक’ विचारधाराओं और महंगाई के वास्तविक संकट से बचाने का आख़िरी मौक़ा है. वहीं, डेमोक्रेटिक पार्टी लोगों से ये अपील कर रही थी कि ट्रंप, अमेरिकी लोकतंत्र के सामने खड़ा सबसे बड़ा ख़तरा हैं. जनादेश से स्पष्ट है कि अमेरिकी नागरिकों ने रिपब्लिकन पार्टी के नैरेटिव पर ज्‍यादा यक़ीन किया. 

प्राथमिक तौर पर ट्रंप की जीत कई मोर्चों पर बदलाव का संकेत देती है. पहला, अमेरिकी सरकार का ध्यान घरेलू प्राथमिकताओं पर देना, जिससे दुनिया को लेकर अमेरिका के नज़रिए में काफ़ी बदलाव आएंगे. अमेरिका का अंतरराष्ट्रीय एजेंडा, देश के संस्थानों के भीतर उसकी घरेलू राजनीति, नौकरशाही और वित्तीय व्यवस्था के पुनर्गठन के हिसाब से तय होगा.

प्राथमिक तौर पर ट्रंप की जीत कई मोर्चों पर बदलाव का संकेत देती है. पहला, अमेरिकी सरकार का ध्यान घरेलू प्राथमिकताओं पर देना, जिससे दुनिया को लेकर अमेरिका के नज़रिए में काफ़ी बदलाव आएंगे. अमेरिका का अंतरराष्ट्रीय एजेंडा, देश के संस्थानों के भीतर उसकी घरेलू राजनीति, नौकरशाही और वित्तीय व्यवस्था के पुनर्गठन के हिसाब से तय होगा. ट्रंप 2.0 प्रशासन अमेरिका का घरेलू और बाहरी, दोनों ही मोर्चों पर ध्यान केंद्रित करने के तौर तरीक़ों में बदलाव का मज़बूत इरादा रखता है.

 

अंदरूनी परिवर्तन

 

अपने पहले कार्यकाल की चुनौतियों से सबक़ लेते हुए, डॉनल्ड ट्रंप ने बड़ी तेज़ी से अपने दूसरे कार्यकाल की कैबिनेट को इकट्ठा कर लिया है. इस बार कैबिनेट के सदस्यों को लेकर उनके चुनाव सावधानी भरे मगर आक्रामक तरीक़े को दिखाते हैं, जो उनके पूर्व के कार्यकाल के दौरान संस्थागत दबावों में बिखरने के संकेतों के उलट हैं. सीनेट से मुहर लगने से पहले ये नियुक्तियां उकसावे वाली और विवादास्पद हैं. आलोचक ट्रंप के कैबिनेट के नामों को ‘शक्ति प्रदर्शन’ कह रहे हैं, जिसके ज़रिए वो अपने अडिग नीतिगत एजेंडे का एलान कर रहे हैं. ट्रंप ने अपनी कैबिनेट के लिए अब तक जिन नामों का एलान किया है उनमें प्रमुख हैं, विदेश मंत्री के तौर पर सीनेटर मार्को रूबियो, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के तौर पर माइकल वॉल्ट्ज़, रक्षा मंत्री के तौर पर पीट हेगसेठ, एटॉर्नी जनरल के लिए मैट्ट गाएट्‍ज़, डायरेक्टर नेशनल इंटेलिजेंस के लिए तुलसी गबार्ड और होमलैंड सिक्योरिटी के लिए क्रिस्टी नोएम प्रमुख हैं. ये चुनाव नीतिगत मामलों पर कड़े रुख़ का संकेत देते हैं और उन समझौतों से दूरी बनाने का इशारा करते हैं, जो ट्रंप को पिछले कार्यकाल के दौरान करने पड़े थे. ये नियुक्तियां रक्षा, विदेश, घरेलू सुरक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में आने वाले व्यापक बदलावों की तरफ़ भी इशारा कर रहे हैं. एलन मस्क और विवेक रामास्वामी की अगुवाई में सरकारी कुशलता के विभाग का एलान (DOGE) ट्रंप का एक ऐसा तुरुप का पत्ता है, जिसके बारे में ज़्यादा तस्वीर साफ़ है नहीं.

 

घरेलू मामलों पर ट्रंप प्रशासन के ज़ोर देने का मतलब होगा कि उन बाहरी मसलों पर कम ध्यान देना, जो अमेरिकी संसाधनों पर बहुत बोझ डालते हैं. इस तरह से ट्रंप घरेलू अर्थव्यवस्था को प्राथमिकता देने और रोज़गार वृद्धि को प्रोत्साहित करने का इरादा रखते हैं. ट्रंप का ऊर्जा के मामले में स्वतंत्रता पर ज़ोर देने का मतलब ये है कि तेल के कुओं की खुदाई और शेल गैस की तलाश में बढ़ोत्तरी होगी, जिससे अमेरिका दुनिया में ऊर्जा का सबसे बड़ा निर्यातक बन सके. इस रणनीति से वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं और विशेष रूप से हिंद प्रशांत व यूरोप को ऊर्जा आपूर्ति में खलल पड़ने की आशंका है, जिसके बाद देशों को अपने ऊर्जा आयात अमेरिका पर केंद्रित करने पड़ सकते हैं. इसके साथ साथ ईरान और (संभवत:) रूस जैसे देशों पर प्रतिबंधों का इस्तेमाल, वैश्विक ऊर्जा बाज़ारों में अमेरिका का दबदबा बनाए रखने के लिए किया जाएगा. ट्रंप के आर्थिक दृष्टिकोण में अंतरराष्ट्रीय आयातों पर फिर से व्यापार कर लगाना भी शामिल है. इससे भी आपूर्ति श्रृंखलाएं बाधित होंगी और चीन एवं यूरोपीय संघ (EU) जैसे अमेरिका के प्रमुख व्यापारिक साझीदारों के साथ तनाव में बढ़ोत्तरी होगी. वैसे तो इन नीतिगत उपायों से ट्रंप के समर्थक ख़ुश होंगे. लेकिन, इनके व्यापक आर्थिक परिणामों की बारीक़ी से पड़ताल भी होगी.

 

अवैध अप्रवास, ट्रंप के घरेलू एजेंडे का एक केंद्रीय मुद्दा है. इससे निपटने के लिए जिन उपायों पर विचार किया जा रहा है, उनमें कुछ मुस्लिम बहुल देशों से लोगों की आवाजाही पर पाबंदी लगाना, बड़े पैमाने पर लोगों को देश से बाहर निकालना सीमा सुरक्षा के लिए फंड बढ़ाना और शरण देने वाली व्यवस्था में व्यापक रूप से वैधानिक बदलाव लाना शामिल है. ट्रंप ने संकेत दिया है कि वो जन्म के आधार पर नागरिकता मिलने के सिद्धांत को चुनौती देंगे. ये ऐसा क़दम होगा, जिसका अप्रवासी समुदायों पर दूरगामी असर पड़ने वाला है. इनमें भारतीय मूल के वो अप्रवासी भी शामिल हैं, जिन्हें अमेरिका की इस नीति का फ़ायदा मिलता रहा है.

 

बाहरी एजेंडा

 

ट्रंप की विदेश नीति का ज़ोर यूक्रेन और मध्य पूर्व में चल रहे मौजूदा संघर्षों का ख़ात्मा करने पर होगा. ये चुनाव अभियान के दौरान किए गए उनके ‘अंतहीन युद्धों’ का ख़ात्मा करने के उनके वादे से मेल खाता है. यूरोप में ट्रंप का प्रशासन शायद व्लादिमीर पुतिन और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (NATO) के सहयोगी देशों पर इस बात का दबाव बनाएगा कि वो रूस और यूक्रेन के युद्ध का बातचीत से समाधान निकालें. इस क्षेत्र में स्थिरता क़ायम होने से यूरोप को ऊर्जा के निर्यात में बढ़ोत्तरी होगी, जिससे रूस से आपूर्ति पर यूरोप की निर्भरता में कमी आएगी.

 

मध्य पूर्व में संभावना इस बात की है कि ट्रंप, इज़राइल और अरब देशों के रिश्ते सामान्य करने पर बहुत ज़ोर देंगे और इसके लिए वो अब्राहम समझौतों और संभवत: I2U2 (यानी भारत, इज़राइल, संयुक्त अरब अमीरात और अमेरिका) जैसे समूहों का लाभ उठाने की कोशिश करेंगे. इसके अलावा ट्रंप, भारत से मध्य पूर्व होते हुए यूरोप के प्रस्तावित आर्थिक गलियारे (IMEC) को भी माध्यम बना सकते हैं. हालांकि, ईरान को लेकर उनके प्रशासन के सख़्त रवैये की वजह से इस क्षेत्र में तनाव बढ़ सकता है. ख़ास तौर से तब और जब इसमें प्रतिबंध बढ़ाने या फिर सैन्य तैनाती में बढ़ोत्तरी जैसे क़दम शामिल हों.

चीन, ट्रंप की विदेश नीति का एक प्रमुख बिंदु बना रहेगा. मार्को रूबियो और माइकल वॉल्ट्ज़ जैसे उग्र सलाहकारों के होते हुए, ट्रंप प्रशासन से यही अपेक्षा होगी कि वो चीन को लेकर और कड़ा रुख़ अपनाएंगे, जिसमें व्यापार कर में बढ़ोत्तरी के साथ साथ अहम और उभरती हुई तकनीकों के क्षेत्र में ज़बरदस्त प्रतिद्वंदिता शामिल होगी. 

चीन, ट्रंप की विदेश नीति का एक प्रमुख बिंदु बना रहेगा. मार्को रूबियो और माइकल वॉल्ट्ज़ जैसे उग्र सलाहकारों के होते हुए, ट्रंप प्रशासन से यही अपेक्षा होगी कि वो चीन को लेकर और कड़ा रुख़ अपनाएंगे, जिसमें व्यापार कर में बढ़ोत्तरी के साथ साथ अहम और उभरती हुई तकनीकों के क्षेत्र में ज़बरदस्त प्रतिद्वंदिता शामिल होगी. हिंद प्रशांत को लेकर ट्रंप की रणनीति में शायद चीन के बढ़ते दबदबे का मुक़ाबला करने के लिए क्वॉड जैसे (भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के बीच) गठबंधनों को मज़बूत बनाना और जापान व ऑस्ट्रेलिया के साथ त्रिपक्षीय साझेदारियों को ताक़त देना शामिल होगा. ट्रंप प्रशासन के इस नज़रिए का अन्य क्षेत्रों पर भी असर होता दिखेगा. इससे आपूर्ति श्रृंखलाओं में बदलाव आएगा और अमेरिका के साझीदारों को अपनी आर्थिक और सामरिक नीतियों को नई परिस्थितियों के मुताबिक़ ढालना होगा.

 

भारत

 

ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में भारत के अमेरिका का एक प्रमुख साझीदार बने रहने की पूरी संभावना है. दोनों देशों के आपसी संबंधों की संरचनात्मक गहराई- जिसके दायरे में रक्षा, सुरक्षा, व्यापार और तकनीक आते हैं- से आपसी सहयोग आगे भी होता रहेगा. हालांकि, इंटरनेशनल ट्रैफिक इन आर्म्स रेग्यूलेशनम (ITAR) के अंतर्गत तकनीक देने के मामले में पाबंदियों जैसी चुनौतियां फिर उठ खड़ी हो सकती हैं. इससे निपटने के लिए दोनों पक्षों को बहुत चतुराई से बातचीत करनी होगी. हो सकता है कि ट्रंप प्रशासन भारत पर इस बात का दबाव बनाए कि वो क्षेत्रीय सुरक्षा और विशेष रूप से हिंद प्रशांत के मामले में अधिक सक्रिय भूमिका अपनाए. इसके एवज़ में भारत को अमेरिका की रक्षा तकनीक और गोपनीय सूचनाएं साझा करने के माध्यमों तक अधिक पहुंच हासिल हो सकती है, जिससे दोनों देशों के बीच तालमेल में बढ़ोत्तरी होगी. भारत लंबे समय से ये मांग करता रहा है कि उसे अमेरिका की उन्नत तकनीक, ख़ास तौर से अहम उभरते हुए सेक्टरों जैसे कि सेमीकंडक्टर, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम कंप्यूटिंग और उन्नत रक्षा उपकरण दिए जाएं. हालांकि, ट्रंप प्रशासन की अमेरिका पहले और उनके मेक अमेरिका ग्रेट अगेन के नारे, शायद भारत के मेक इन इंडिया की पहल के साथ टकराव पैदा करें.

 

इन तनावों को दूर करने के लिए ऐसे नए नए नुस्खों की ज़रूरत होगी, जो तकनीक की सुरक्षा और बौद्धिक संपदा के मामले में अमेरिका की चिंताओं का संतुलन, रक्षा और तकनीक के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल करने की भारत की महत्वाकांक्षा से बना सकें. जिन क्षेत्रों पर विशेष रूप से ध्यान देने की ज़रूरत होगी, उनमें मिलकर विकास और उत्पादन करने के समझौते, इंटरनेशनल ट्रैफिक इन आर्म्स रेग्यूलेशनम (ITAR) के अंतर्गत तकनीक साझा करने की व्यवस्था में रियायतें और इनिशिएटिव ऑन क्रिटिकल ऐंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजी (ICET) का पूरी शिद्दत के साथ क्रियान्वयन शामिल हो सकता है.

 

दोनों देशों के व्यापारिक संबंधों का शायद फिर से बारीक़ी से विश्लेषण किया जाएगा. ट्रंप से ये उम्मीद की जा रही है कि वो अमेरिकी कारोबारियों को संरक्षित करने की नीति पर चलेंगे, जिससे भारत से अमेरिका निर्यात होने वाले कुछ ख़ास उत्पादों पर व्यापार कर बढ़ाया जाए. इनमें दवाएं, कपड़े और सूचना प्रौद्योगिकी के सेक्टर शामिल हो सकते हैं. यही नहीं, ट्रंप प्रशासन शायद भारत पर कृषि सब्सिडी ख़त्म करने और भारत के बाज़ार के दरवाज़े अमेरिकी उत्पादों के लिए खोलने और लंबे समय से अटके पड़े मुक्त व्यापार समझौते (FTA) को लेकर बातचीत तेज़ करने जैसे मसलों पर दबाव बनाएगा. वहीं भारत अपनी घरेलू आर्थिक प्राथमिकताओं और कृषि जैसे कमज़ोर क्षेत्रों को संरक्षित करने की ज़रूरत का ज़िक्र करके अपनी ओर से ऐसी मांगों का विरोध करेगा.

ट्रंप प्रशासन शायद भारत पर कृषि सब्सिडी ख़त्म करने और भारत के बाज़ार के दरवाज़े अमेरिकी उत्पादों के लिए खोलने और लंबे समय से अटके पड़े मुक्त व्यापार समझौते (FTA) को लेकर बातचीत तेज़ करने जैसे मसलों पर दबाव बनाएगा. 

बुनियादी समझौतों जैसे कि बेसिक एक्सचेंज ऐंड को-ऑपरेशन एग्रीमेंट (BECA), लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरैंडम ऑफ एग्रीमेंट (LEMOA), कम्युनिकेशन कॉम्पैटिबिलिटी ऐंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट (COMCASA) और जनरल सिक्योरिटी ऑफ मिलिट्री इन्फॉर्मेशन एग्रीमेंट (GSOMIA) के मज़बूत आधार की वजह से दोनों देशों की सामरिक साझेदारी में स्थिरता बनी रहने और रक्षा सहयोग में निरतंरता क़ायम रहने की उम्मीद है. अमेरिका ने भारत को मुख्य रक्षा साझीदार का दर्जा दिया है. वहीं दोनों देशों के रक्षा और विदेश मंत्रियों के बीच 2+2 के संवाद का प्रारूप, भारत और अमेरिका के बीच रक्षा और सुरक्षा के आपसी संबंध को मज़बूती प्रदान करता रहेगा. MQ-9B ड्रोन और उन्नत पनडुब्बी निरोधक हथियारों वाली तकनीक जैसे कि सोनोब्युऑय का सही समय पर अमेरिका को भारत से मिल जाना, भारत की रक्षा क्षमताओं को बढ़ाने में एक अहम भूमिका अदा करेगा. ये हथियार और सिस्टम न केवल समुद्री क्षेत्र में भारत की जानकारी की परिधि बढ़ाएंगे, बल्कि, हिंद प्रशांत क्षेत्र में उसके सुरक्षा प्रदान करने वाले भरोसेमंद साझीदार की भूमिका को भी मज़बूत करेंगे.

 

ट्रंप प्रशासन से उम्मीद की जा रही है कि वो चीन को लेकर अपनी रणनीति पर बहुत ज़ोर देंगे, जिससे हिंद प्रशांत क्षेत्र में एक साझीदार के तौर पर भारत की भूमिका और भी प्रमुखता से रेखांकित होगी. क्वॉड और व्यापक क्षेत्रीय व्यवस्थाएं जैसे कि जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ त्रिपक्षीय साझेदारी जैसी पहलों में और तेज़ी आने की उम्मीद है. भारत, अमेरिका की मदद का लाभ उठाते हुए ख़ुद अपनी क्षेत्रीय रणनीति को बढ़ा सकता है. विशेष रूप से वो अमेरिकी सहायता का इस्तेमाल अपनी सीमाओं और हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) चीन की बढ़ती आक्रामकता का मुक़ाबला करने में कर सकता है. भारत और अमेरिका शायद वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं को नए सिरे से गढ़ने और चीन पर निर्भरता कम करने के लिए भी मिलकर काम कर सकते हैं. इसके लिए वो लचीले मूलभूत ढांचे और अहम तकनीकों में निवेश कर सकते हैं. 

ट्रंप का दूसरा कार्यकाल, घरेलू और विदेशी दोनों ही मोर्चों पर अमेरिकी नीतियों को नई दिशा में ले जाने की उम्मीदें जगाने वाला है. और हो सकता है कि उनकी सरकार के आक्रामक रवैये से फ़ौरी तौर पर सियासी लाभ हों.

दूसरे कार्यकाल के पहले दो वर्षों के दौरान, यानी 2026 के मध्यावधि चुनावों से पहले ट्रंप का ज़ोर ठोस और दिखने लायक़ नतीजे देने पर रहेगा. हो सकता है कि इस फ़ौरी ज़रूरत से निपटने के लिए साहसिक क़दम उठाए जाएं. लेकिन, इसमें नीतियों का दायरा कुछ ज़्यादा ही बढ़ाने का जोखिम भी रहेगा. कामयाबी के प्रमुख पैमाने, ट्रंप प्रशासन की महंगाई को स्थिर करने, अप्रवासियों की समस्या से प्रभावी ढंग से निपटने और विदेश नीति की जटिल चुनौतियों का निपटारा करने के होंगे. ट्रंप का दूसरा कार्यकाल, घरेलू और विदेशी दोनों ही मोर्चों पर अमेरिकी नीतियों को नई दिशा में ले जाने की उम्मीदें जगाने वाला है. और हो सकता है कि उनकी सरकार के आक्रामक रवैये से फ़ौरी तौर पर सियासी लाभ हों. लेकिन, अमेरिका के गठबंधनों और दुनिया में उसकी हैसियत पर इसके दूरगामी प्रभाव क्या होंगे, वो तो भविष्य के गर्भ में है.

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