ट्रंप के पिछले कार्यकाल में पश्चिम एशिया में उनकी विदेश नीति चरमपंथी समूहों की मज़बूती समेत क्षेत्रीय अस्थिरता के मूल कारणों का पूरी तरह से समाधान करने में नाकाम रही. इस विफलता ने अनसुलझे इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष के लिए मिसाल कायम की. इसकी पुष्टि अमेरिका के द्वारा ज्वाइंट कंप्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन (JCPOA) को रद्द करने से होती है. इस कदम से पहले दूसरे कूटनीतिक प्रयासों को ख़त्म किया गया था.
पश्चिम एशियाई क्षेत्र में अमेरिका के द्वारा कूटनीतिक प्रयासों को वापस लेने और अतीत के गठबंधनों को रद्द करने की वजह से चीन या रूस जैसी अन्य वैश्विक ताकतों के लिए एक खालीपन छूट गया. ट्रंप प्रशासन ने “आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध” के अभियान को आक्रामक ढंग से तो चलाया लेकिन उसने अनजाने में आतंकी संगठनों को मज़बूत बना दिया और उन परिस्थितियों को बढ़ाया जो पश्चिम एशिया में कट्टरता को प्रेरित करते हैं. 2019 में सीरिया से जल्दबाज़ी में अमेरिका की वापसी के बाद अमेरिका समर्थित और कुर्दों के नेतृत्व वाली सीरियन डेमोक्रेटिक फोर्स तुर्किए के समर्थन वाले बलों के द्वारा हमलों का आसान निशाना बन गया. इसके बाद की अशांति सीरिया में इस्लामिक स्टेट (IS) के और मज़बूत होने का आधार बन गई. इसी तरह 2021 में अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की वापसी की वजह से काबुल तालिबान के कब्ज़े में चला गया. वैसे तो कई रूढ़िवादी दुनिया भर में “अमेरिका फर्स्ट” एजेंडे का समर्थन करते हैं और कई उदारवादी अधिक तनाव वाले क्षेत्रों में कम भागीदारी के पक्ष में हैं लेकिन बेहतर ढंग से योजना बनाने की साफ ज़रूरत है और आम तौर पर “अमेरिका फर्स्ट” एजेंडे की वजह से क्षेत्रीय अस्थिरता की स्थिति बनी है जिसका फायदा आतंकी समूह उठाते हैं.
ट्रंप प्रशासन ने “आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध” के अभियान को आक्रामक ढंग से तो चलाया लेकिन उसने अनजाने में आतंकी संगठनों को मज़बूत बना दिया और उन परिस्थितियों को बढ़ाया जो पश्चिम एशिया में कट्टरता को प्रेरित करते हैं.
ट्रंप की नीतियों का महत्वपूर्ण असर इज़रायल-फिलिस्तीन युद्ध पर भी पड़ा है. 2017 में ट्रंप के द्वारा इज़रायल में अमेरिकी दूतावास यरुशलम ले जाने और उसे इज़रायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने के फैसले ने अमेरिकी विदेश नीति में महत्वपूर्ण बदलाव को दिखाया. इन फैसलों के कारण पूर्वी यरुशलम के विवादित दर्जे को लेकर अमेरिका का पुराना रवैया बदल गया और इससे आसपास के क्षेत्रों में रहने वाले फिलिस्तीनी नाराज़ हो गए जबकि इज़रायल में कट्टरपंथी गुटों को प्रोत्साहन मिला. ये संघर्ष ट्रंप की “शांति से समृद्धि” योजना से और गहरा हुआ जिसकी शुरुआत 2020 में की गई थी. इस योजना ने फिलिस्तीनियों की प्रमुख मांगों, जैसे कि भविष्य के फिलिस्तीनी देश की राजधानी के रूप में पूर्वी यरुशलम की मान्यता, को नज़रअंदाज़ करके और एकतरफा समाधान का प्रस्ताव देकर तनाव को और बढ़ाया.
परमाणु तनाव
2018 के मई महीने में अमेरिका JCOPA से पीछे हटा. उल्लेखनीय बात है कि JCPOA ने परमाणु हथियारों तक ईरान की पहुंच को सीमित किया था. ट्रंप प्रशासन ने ये कहकर समझौते की आलोचना की कि ईरान के मिसाइल कार्यक्रमों, क्षेत्रीय असर और साथ ही “सनसेट क्लॉज” की आवश्यकताओं को पूरा करने में ये समझौता नाकाम रहा जो समय के साथ कई परमाणु पाबंदियों को कम कर देगा. अमेरिका ने ये दावा भी किया कि समझौता ईरान को परमाणु हथियारों को हासिल करने से रोकने के लिए पर्याप्त रूप से प्रभावी नहीं था. इस समझौते से हटने और ईरान को लेकर ट्रंप के दुश्मनी भरे रवैये ने क्षेत्रीय ध्रुवीकरण को और तेज़ किया. अमेरिका के पीछे हटने के बाद पहले तो ईरान समझौते का पालन करता रहा लेकिन समय बीतने के साथ वो धीरे-धीरे नियमों को मानने में कमी लाता रहा. इसके लिए उसने समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले यूरोपीय देशों के द्वारा अपनी प्रतिबद्धता पूरी करने में नाकामी का ज़िक्र किया, विशेष रूप से समझौते के तहत किए गए आर्थिक राहत के वादों को लेकर. अपने आवधिक मूल्यांकन में अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी ने भी कहा कि ईरान के परमाणु संवर्धन का स्तर धीरे-धीरे बढ़ रहा था जो JCPOA के तहत पहले के प्रतिबंधों से महत्वपूर्ण बदलाव को दिखाता था.
वैसे तो ट्रंप ने कहा कि JCPOA बेअसर था और इसने पश्चिम एशियाई क्षेत्र में तनाव में बढ़ोतरी की लेकिन मौजूदा दाव-पेंच से पता चलता है कि लेबनान में हिज़्बुल्लाह और गज़ा में हमास जैसे ईरान समर्थित मिलिशिया को इससे फायदा हुआ और अब ईरान एवं इज़रायल के बीच परमाणु युद्ध की आशंका बहुत ज़्यादा है.
हालात और गंभीर हो गए क्योंकि ईरान ने अपना परमाणु कार्यक्रम तेज़ किया, विशेष रूप से अपने भूमिगत केंद्रों में जैसे कि फोर्डो और नतांज़ के केंद्रों में. ईरान की सरकार ने यूरेनियम संवर्धन का स्तर बढ़ाकर 60 प्रतिशत कर दिया जबकि JCPOA के तहत 3.67 प्रतिशत के स्तर की अनुमति थी. अब ईरान का संवर्धन स्तर हर रोज़ हथियार बनाने के आसपास पहुंच रहा है. ईरान के द्वारा कम अनुपालन के जवाब में ट्रंप प्रशासन ने “अधिकतम दबाव” का अभियान चलाया और समझौते को लेकर फिर से बातचीत का दबाव बनाने के लिए ईरान की अर्थव्यवस्था के ख़िलाफ़ गंभीर प्रतिबंध लागू किए.
अब ईरान का संवर्धन स्तर हर रोज़ हथियार बनाने के आसपास पहुंच रहा है. ईरान के द्वारा कम अनुपालन के जवाब में ट्रंप प्रशासन ने “अधिकतम दबाव” का अभियान चलाया और समझौते को लेकर फिर से बातचीत का दबाव बनाने के लिए ईरान की अर्थव्यवस्था के ख़िलाफ़ गंभीर प्रतिबंध लागू किए.
इसकी प्रतिक्रिया में इज़रायल की सरकार ने ईरान की बढ़ती परमाणु क्षमताओं पर जल्द कार्रवाई के लिए खुले तौर पर विचार किया और अभी भी इज़रायल ईरान के परमाणु विकास को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है. प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने सार्वजनिक रूप से JCPOA सौदे की निंदा की और ईरान के ख़िलाफ़ गुपचुप ढंग से इज़रायल के हमलों को तेज़ कर रहे हैं. इनमें लक्ष्य बनाकर ईरान के परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या शामिल है. ये घटनाक्रम ईरान की परमाणु प्रगति में रुकावट डालने और इस क्षेत्र में उसकी उन्नति को रोकने की इज़रायल की व्यापक रणनीति का हिस्सा है. इसने ईरान के परमाणु कार्यक्रम के इर्द-गिर्द भू-राजनीतिक परिदृश्य को और जटिल बना दिया है.
इज़रायल ने ख़ुद आधिकारिक रूप से कभी इस बात की पुष्टि नहीं की है कि उसके पास परमाणु हथियार हैं (वैसे व्यापक रूप से माना जाता है कि उसके पास परमाणु हथियार है). इज़रायल ने ऐतिहासिक रूप से ये रवैया बनाए रखा है कि परमाणु शक्ति से संपन्न ईरान उसके अस्तित्व के लिए ख़तरा होगा. ईरान के द्वारा यूरेनियम संवर्धन का स्तर बढ़ाने को देखते हुए इज़रायल ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम के ख़िलाफ़ अपनी गुप्त कार्रवाई में बढ़ोतरी की. कथित तौर पर इज़रायल ने साइबर और भौतिक- दोनों तरह के हमले किए. इनमें 2020 में परमाणु वैज्ञानिक मोहसीन फखरीज़ादेह की हत्या शामिल है. हाल के समय में नेतन्याहू ने अक्टूबर और नवंबर 2024 में ईरान के परमाणु केंद्रों पर इज़रायल के मिसाइल हमलों पर बयान देते हुए कहा कि विशिष्ट परमाणु घटकों पर हमले किए गए. इन कदमों, जिनका लक्ष्य ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षा पर रोक लगाना है, ने दुश्मनी बढ़ाई है.
नए सिरे से परमाणु ख़तरे के व्यापक क्षेत्रीय परिणाम भी थे. हिज़्बुल्लाह और हमास जैसे मिलिशिया के साथ ईरान के करीबी रिश्तों, जिन्हें ईरान का समर्थन मिलता था, ने इस क्षेत्र में छद्म (प्रॉक्सी) संघर्षों की आशंका और बढ़ा दी है. आधुनिक हथियारों से लैस और आर्थिक ताकतों के द्वारा समर्थित ये संगठन इज़रायल की सुरक्षा के लिए सीधे तौर पर ख़तरा हैं. इस तरह दोनों देश ख़तरनाक रूप से युद्ध के करीब पहुंच जाते हैं. अधिकतम दबाव की रणनीति और अब्राहम अकॉर्ड पर हस्ताक्षर के माध्यम से इस ख़तरे का समाधान करने की ट्रंप प्रशासन की कोशिशों के बावजूद इन कार्रवाइयों के कारण इस क्षेत्र को स्थिर बनाने में सीमित सफलता मिली है जो यहां की ज़मीन पर इज़रायल के दावे की तरफ एक पूर्वाग्रह दिखाता है. इसकी वजह से ऐलान के मुताबिक “मिडिल ईस्ट में शांति” नहीं आई है.
इस क्षेत्र को उसके हाल पर छोड़ने या मौजूदा संघर्ष को तेज़ करने के बदले अमेरिका को कूटनीतिक रूप से नेतृत्व करने वाले और शांति लाने वाले एक देश के रूप में अपनी भूमिका फिर से सुनिश्चित करनी चाहिए.
जहां दोनों देशों लगातार तनावपूर्ण गतिरोध में उलझे हुए हैं, वहीं बाकी क्षेत्र भी असुरक्षित बन गया है. सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) जैसे पड़ोसी देशों ने इस बात पर विचार करना शुरू कर दिया है कि ईरान के बढ़ते परमाणु ख़तरे से उत्पन्न चिंताओं के जवाब में अपनी परमाणु क्षमताओं को विकसित करें या नहीं. इस तरह की हथियारों की होड़ ने मौजूदा संघर्ष के व्यापक क्षेत्रीय पैमाने पर फैलने की चिंताओं को ही बढ़ाया है. इसकी वजह से न केवल पश्चिम एशियाई क्षेत्र में बल्कि पूरी दुनिया में अस्थिरता पैदा हो गई है. ये अमेरिका के कूटनीतिक हस्तक्षेप और जल्दबाज़ी में सेना बुलाने के नतीजों की अहमियत को उजागर करता है.
आगे का रास्ता
पश्चिम एशिया में स्थिरता के लिए आगे का रास्ता अमेरिका की तरफ से कम सही या गलत (ब्लैक एंड व्हाइट) फैसला लेने, अधिक बारीकी और निश्चित रूप से इस क्षेत्र से ज़्यादा जुड़ाव की मांग करता है. इस क्षेत्र को उसके हाल पर छोड़ने या मौजूदा संघर्ष को तेज़ करने के बदले अमेरिका को कूटनीतिक रूप से नेतृत्व करने वाले और शांति लाने वाले एक देश के रूप में अपनी भूमिका फिर से सुनिश्चित करनी चाहिए. फिलिस्तीनी क्षेत्र में युद्ध और वहां के लोगों के अधिकारों को ध्यान में रखते हुए इस मुद्दे पर विचार किया जाना चाहिए और समग्र दृष्टिकोण अपनाना चाहिए.
आगे देखें तो अमेरिका को फिलिस्तीन में युद्ध को समाप्त करने और परमाणु तनाव को कम करने एवं आतंकवाद विरोध को प्रोत्साहन देने के लिए इस क्षेत्र की ताकतों के साथ रचनात्मक संबंध बनाने में मदद करने के उद्देश्य से कूटनीतिक पहल के लिए फिर से फंड देने की ज़रूरत है. ट्रंप 2.0 अब अतीत को और अधिक अस्थिरता के साथ मज़बूत करने के बदले पिछले दो कार्यकालों के नतीजों को फिर से लिख सकता है.
श्राविष्ठा अजय कुमार ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर सिक्योरिटी, स्ट्रेटजी एंड टेक्नोलॉजी में एसोसिएट फेलो हैं.
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