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ये लेख "#Trump 2.0, "एजेंडे की बहाली: ट्रंप की वापसी और दुनिया पर इसका असर" सीरीज़ का हिस्सा है.
अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप चुनाव प्रचार के दौरान सत्ता में आने के बाद रूस-यूक्रेन युद्ध को समाप्त कराने का मुद्दा ज़ोर-शोर से उठाते रहे हैं. अब वे अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव जीत चुके हैं, ऐसे में उम्मीद जताई जा रही है कि रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध समाप्त करने को लेकर बातचीत शुरू हो सकती है. निस्संदेह तौर पर ट्रंप प्रशासन के पास यूरोपीय देशों की सुरक्षा से जुड़े तमाम सवालों का समाधान तलाशने की क्षमता होगी. यानी ट्रंप प्रशासन न केवल उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO) के विस्तार की रुकावटों को दूर करने में सक्षम होगा, बल्कि इससे जुड़ी मास्को की आशंकाओं को भी दूर कर सकेगा. यूक्रेन ताज़ा और बदले हालातों को अच्छे से महसूस कर चुका है, साथ ही उसे इसका भी एहसास हो चुका है कि अपने इलाक़ों को सुरक्षित रखने के लिए पश्चिमी देश किस हद तक उसके साथ खड़े रह सकते हैं. अगस्त 2024 में यूक्रेनी सेना ने रूस के कुर्स्क इलाक़े में कब्ज़ा कर लिया था और उसके बाद जिस प्रकार से मास्को ने परमाणु हमलों की चेतावनी दी है, साथ ही पश्चिम की ओर से यूक्रेन को हथियार एवं सैन्य साज़ो-सामान की आपूर्ति में जिस तरह से लगतार देरी हो रही है, इस सभी घटनाक्रमों को देखते हुए ट्रंप 2.0 का प्रशासन रूस व यूक्रेन के बीच शांति स्थापित करने लिए अपने नज़रिए में बदलाव ला सकता है. अमेरिका को पता है कि अगर इस युद्ध को लेकर वो अपने रुख़ को बदलता है तो यूक्रेन को अपने कुछ क्षेत्रों से हाथ धोना पड़ सकता है, बावज़ूद इसके युद्ध रोकने के लिए ट्रंप प्रशासन अपने दृष्टिकोण को बदल सकता है.
निस्संदेह तौर पर ट्रंप प्रशासन के पास यूरोपीय देशों की सुरक्षा से जुड़े तमाम सवालों का समाधान तलाशने की क्षमता होगी. यानी ट्रंप प्रशासन न केवल उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO) के विस्तार की रुकावटों को दूर करने में सक्षम होगा, बल्कि इससे जुड़ी मास्को की आशंकाओं को भी दूर कर सकेगा.
भविष्य में यूक्रेन युद्ध किस ओर मुड़ेगा?
अमेरिकी की सत्ता में डॉनल्ड ट्रंप के दोबार काबिज होने के बाद रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर तीन संभावित परिस्थितियां सामने आ सकती हैं. पहली परिस्थिति यह हो सकती है कि यूक्रेन की NATO सदस्यता पर वॉशिंगटन 20 साल के लिए प्रतिबंध लगा सकता है. ऐसा करने पर जहां रूसी हमले के विरुद्ध कीव की रक्षा के लिए सैन्य मदद का रास्ता खुलेगा, वहीं इससे 800 किलोमीटर लंबा एक गैर-सैनिक क्षेत्र स्थापित हो सकेगा, जो कि अमेरिका या संयुक्त राष्ट्र (UN) के अतिरिक्त अन्य देशों के शांति सैनिकों के अधिकार क्षेत्र में होगा. यह परिस्थिति ट्रंप द्वारा निर्वाचित किए गए अमेरिका के नए उपराष्ट्रपति जे.डी.वेंस द्वारा प्रस्तावित योजना के मुताबिक़ है. दूसरी परिस्थिति यह हो सकती है कि वॉशिंगटन द्वारा यूक्रेन को दिया जाना वाला सैन्य सहयोग रोक दिया जाए, इससे कहीं न कहीं कीव युद्धविराम के लिए वार्ता का रास्ता अपनाने पर विवश होगा. लेकिन अमेरिकी योजना के मुताबिक़ अगर मास्को यूक्रेन के साथ युद्धविराम की बातचीत में शामिल होने से मना कर देता है और यूक्रेन पर हमलों को जारी रखता है, तो ऐसे हालात में वॉशिंगटन कीव के साथ फिर से खड़ा हो जाएगा. ज़ाहिर है कि यह अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के पूर्व सदस्यों कीथ केलॉग और फ्रेड फ्लेट्ज़ की ओर से शांति बहाली के लिए रखे गए प्रस्तावों के मुताबिक़ है. तीसरी परिस्थिति यह हो सकती है, जिसमें रूस द्वारा यूक्रेन के विरुद्ध घातक हमलों को जारी रखा जाए और ऐसे हालातों में ट्रंप प्रशासन मज़बूरन यूक्रेन को दी जाने वाली सैन्य सहायता में इज़ाफा करेगा और रूस के ख़िलाफ़ कड़े क़दम उठाते हुए नई पाबंदियों को लगाएगा.
ज़ाहिर है कि एलन मस्क पहले ही यह सलाह दे चुके हैं कि यूक्रेन को क्रीमिया इलाक़ा रूस को दे देना चाहिए. गौरतलब है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के नतीज़ों से मास्को काफ़ी हद तक संतुष्ट है, बावज़ूद इसके उसे लगता है कि यूक्रेन के साथ युद्ध विराम में नई अमेरिकी सरकार क़ामयाब नहीं हो पाएगी.
ट्रंप प्रशासन में यूक्रेन युद्ध को लेकर अमेरिकी विदेश नीति कैसी होगी, इसकी झलक राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा अपनी सरकार में शामिल किए गए नेताओं के नामों से भी मिल जाती है. ज़ाहिर है कि ट्रंप ने अपनी नई सरकार में पूर्व विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ एवं निक्की हेली जैसे यूक्रेन समर्थक रिपब्लिकन को शामिल करने से परहेज किया है. ट्रंप द्वारा नामित किए गए नए विदेश मंत्री के बारे में माना जाता है कि वे चीन को लेकर अधिक आक्रामक हैं, जबकि रूस के बारे में उनका रवैया नरम है. इसके अलावा, ट्रंप द्वारा जिस महत्वपूर्ण सरकारी दक्षता विभाग (DOGE) की ज़िम्मेदारी जिन विवेक रामास्वामी और एलन मस्क को दी जा रही है, उनका भी यूक्रेन युद्ध के बारे में रवैया नकारात्मक ही रहा है. ज़ाहिर है कि एलन मस्क पहले ही यह सलाह दे चुके हैं कि यूक्रेन को क्रीमिया इलाक़ा रूस को दे देना चाहिए. गौरतलब है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के नतीज़ों से मास्को काफ़ी हद तक संतुष्ट है, बावज़ूद इसके उसे लगता है कि यूक्रेन के साथ युद्ध विराम में नई अमेरिकी सरकार क़ामयाब नहीं हो पाएगी. इसकी वजह लगता यह है कि रूस को है कि क्रेमलिन को लेकर अमेरिका के राजनीतिक दलों की विदेश नीति में ज़्यादा कोई अंतर नहीं है और वे रूस के लिहाज़ से अमेरिकी विदेश नीति में बुनियादी बदलाव लाने में सक्षम नहीं हैं. राष्ट्रपति ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान ऐसा देखा भी गया था. उस दौरान वॉशिंगटन द्वारा रूस पर कड़े प्रतिबंध लगाए गए थे, जिसमें यूरो-रूसी नॉर्ड स्ट्रीम 2 अंडरसी गैस पाइपलाइन पर प्रतिबंध भी शामिल था. उस समय ट्रंप प्रशासन द्वारा यूक्रेन और रूस के बीच डोनबास युद्ध को समाप्त करने के उद्देश्य से किए गए मिन्स्क-1 और मिन्स्क-2 समझौतों को लागू करने के लिए भी कोई ख़ास प्रयास नहीं किए गए थे. इस सभी बातों से साफ हो जाता है कि वर्तमान हालातों में रूस और यूक्रेन के बीच युद्धविराम की भले ही संभावना नज़र आती हो, लेकिन अमेरिका द्वारा हाल-फिलहाल में रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों को लेकर नरमी दिखाना असंभव सा लगता है.
यूरोपीय सुरक्षा के लिए एक उम्मीद की किरण?
यूरोपीय लोगों के बीच यूक्रेन का मुद्दा तो प्रमुख बना ही हुआ है, लेकिन इसके साथ ही उनकी दूसरी प्राथमिकताओं में NATO और यूरोपीय देशों की सुरक्षा का मुद्दा भी शामिल है.
आज भले ही यूरोपीय रणनीतिय गलियारों में इस बात को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं कि ट्रंप प्रशासन आने वाले दिनों में क्या रुख़ अपना सकता है, क्या क़दम उठा सकता है, लेकिन इस सबके बीच यह भी एक सच्चाई है कि अमेरिका में सरकार किसी की भी रही हो, समय के साथ-साथ यूरोपीय और अमेरिकी सुरक्षा हितों के बीच जो गठजोड़ था, वो लगातार कमज़ोर हो रहा है. ज़ाहिर है कि अमेरिका का ध्यान यूरो-अटलांटिक क्षेत्र के बजाए इंडो-पैसिफिक क्षेत्र पर अधिक होता जा रहा है, साथ ही वर्तमान में अमेरिका के लिए चीन सबसे बड़ा ख़तरा बनकर उभर रहा है. ऐसे में अटलांटिक क्षेत्र पर अमेरिका ज़्यादा तवज्जो नहीं दे रहा है और इन हालातों में NATO भी अमेरिका के लिए पहले जितना महत्वपूर्ण नहीं रहेगा. इन वास्तविकताओं के बीच यूरोपी देशों के पास अपनी सुरक्षा खुद करने के अलावा ओर कोई रास्ता भी नहीं बचा है. निस्संदेह तौर पर ट्रंप 2.0 शासन में इन घटनाक्रमों में और तेज़ी आएगी और कहीं न कहीं इससे यूरोपीय सुरक्षा को लेकर अमेरिका का जो दृष्टिकोण था, उसमें भी बदलाव आएगा, या कहें कि उससे ध्यान हटेगा. इसके अलावा, नव निर्वाचित राष्ट्रपति ट्रंप ने जिस तरह से अपने मंत्रिमंडल में रूस के प्रति नरम रुख़ करने वाले नेताओं के शामिल किया है, जिनमें अमेरिका की राष्ट्रीय ख़ुफ़िया एजेंसी की प्रमुख बनाई गईं तुलसी गबार्ड का नाम भी शामिल है, जिन्हें कथित तौर पर क्रेमलिन का समर्थक माना जाता है, ने यूरोपीय देशों की चिंताओं को और बढ़ाने का काम किया है.
युद्ध से जूझ रहे यूक्रेन को यूरोपियन यूनियन के सदस्य देशों की ओर से 45 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक की सैन्य मदद दी जा रही है. इसके साथ ही रूस-यूक्रेन युद्ध अब एक ऐसे मोड़ पर आ चुका है, जिसमें यूरोपीय देशों को इस बात का फैसला लेना है कि उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए क्या करना है. क्योंकि अगर यूरोपीय देश इस वक़्त ऐसा नहीं करते हैं, तो भविष्य में इसके काफ़ी घातक नतीज़े हो सकते हैं. देखा जाए तो तमाम यूरोपीय देशों ने अपने रक्षा ख़र्च में बढ़ोतरी की है, साथ ही अपने रक्षा ख़र्च को NATO की 2 से 3 प्रतिशत की सीमा से भी अधिक बढ़ाने का प्रस्ताव किया है. यूरोपीय देशों की ओर से रक्षा के मामले में आत्मनिर्भर बनने की कोशिशों से न केवल राष्ट्रपति ट्रंप की NATO में दिलचस्पी बनी रह सकती है, बल्कि इससे यूरोपीय देशों को उन आरोपों से भी छुटकारा मिल सकता है, जिनमें कहा जाता है वे बगैर कुछ किए दूसरे देश के ख़र्चों पर अपने हित साध रहे हैं. कहने का मतलब है कि अगर यूरोपीय देशों द्वारा सुरक्षा के मामलों में ट्रंप प्रशासन पर निर्भरता को कम किया जाता है, तो इसका अर्थ यह होगा कि यूरोपीय देशों को NATO की सैन्य कमांड में कहीं न कहीं बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी निभानी होगी और संगठन में अपनी ज़िम्मेदार भूमिका सुनिश्चित करनी होगी.
यूरोपीय कमीशन की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन की अगुवाई में यूरोपीय आयोग ने रक्षा आयुक्त का एक नया पद सृजित किया है. इसके अलावा लेयेन द्वारा यूरोपीय संघ से धनराशि जुटाकर यूरोप की रक्षा क्षमताओं को बढ़ाने के लिए एक यूरोपियन डिफेंस यूनियन यानी यूरोपीय रक्षा संघ की भी वक़ालत की जा रही है. हालांकि, इस दिशा में आगे बढ़ने की राह मुश्किलों से भरी हुई है और इसलिए फिलहाल इसमें ज़्यादा कुछ नहीं हो पाया है. इसके पीछे बड़ी वजह यह भी है कि ईयू के सदस्य देशों, जैसे कि फ्रांस और जर्मनी, जिनका संघ में दबदबा है, वहां राजनीतिक उथल-पुथल का माहौल बना हुआ है, जिसके चलते तमाम यूरोपीय देश अपने सुरक्षा मामलों को लेकर यूरोपीयन यूनियन पर निर्भरता से परहेज कर रहे हैं. कुल मिलाकर आने वाले दिनों में बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि यूरोपीय देश ट्रंप प्रशासन के साथ संबंध आगे बढ़ाने में एकसाथ मिलकर चलते हैं, या फिर अमेरिका के साथ अपने रिश्तों को आगे बढ़ाने में द्विपक्षी साझेदारी का विकल्प चुनते हैं. एक सच्चाई यह भी है कि अमेरिकी सत्ता पर ट्रंप की वापसी से उत्साहित दक्षिणपंथी यूरोपीय राजनेता यूरोपियन यूनियन की एकजुटता को कमज़ोर करने या फिर उसकी नीतियों को लागू करने में अवरोध पैदा करने का प्रयास कर सकते हैं.
अगर यूरोपीय देशों द्वारा सुरक्षा के मामलों में ट्रंप प्रशासन पर निर्भरता को कम किया जाता है, तो इसका अर्थ यह होगा कि यूरोपीय देशों को NATO की सैन्य कमांड में कहीं न कहीं बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी निभानी होगी और संगठन में अपनी ज़िम्मेदार भूमिका सुनिश्चित करनी होगी.
देखा जाए तो यूरोप ने ऊर्जा आपूर्ति के मामले में रूस पर अपनी निर्भरता समाप्त कर दी है और साथ ही ऊर्जा के लिए चीन पर निर्भरता को भी कम करने की कोशिश में जुटा हुआ है. अब सिर्फ़ सुरक्षा ही एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें यूरोपीय देश आत्मनिर्भर होना चाहते हैं, यानी सुरक्षा के मामले में दूसरे देशों पर अपनी निर्भरता को ख़त्म करना चाहते हैं. यूरोपीय संघ में 27 यूरोपीय राष्ट्र शामिल हैं और इस महत्वपूर्ण संगठन की सुरक्षा को कुछ गिने-चुके देशों की इच्छा के मुताबिक़ दूसरे महाद्वीप के राष्ट्र यानी अमेरिका के हवाले किया गया था. एक सच्चाई थी, जिसे बदलने की ज़रूरत थी. ऐसे में डॉनल्ड ट्रंप का फिर से अमेरिका की सत्ता पर काबिज होना यूरोप के एकजुट होने की वजह बन सकता है. कह सकते हैं एक लचीले और आत्मनिर्भर यूरोप महाद्वीप की एकजुटता के लिए ट्रंप का दोबारा राष्ट्रपति बनना कहीं न कहीं एक उत्प्रेरक का काम कर सकता है.
शैरी मल्होत्रा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम की उप निदेशक हैं.
राजोली सिद्धार्थ जयप्रकाश ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम में रिसर्च असिस्टेंट हैं.
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