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ये लेख "एजेंडे की बहाली: ट्रंप की वापसी और दुनिया पर इसका असर" सीरीज़ का हिस्सा है.
संयुक्त राज्य अमेरिका (US) में राष्ट्रपति चुनाव के नतीज़े आ चुके हैं और डोनाल्ड ट्रंप ने रिकॉर्ड मतों के साथ जीत हासिल की है, ज़ल्द ही वे अमेरिका के अगले राष्ट्रपति की ज़िम्मेदारी संभालेंगे. नए ट्रंप प्रशासन के सत्ता संभालने के बाद दुनिया में काफ़ी उथल-पुथल देखने को मिल सकती है. ट्रंप के जीतने के बाद से ही दुनिया के हर हिस्से में आने वाले दिनों में वैश्विक भू-राजनीति में आने वाले भूचाल को लेकर चर्चाओं का दौर चल रहा है. विश्लेषकों को अगर ट्रंप के राष्ट्रपति के तौर पर नए कार्यकाल की प्राथमिकताओं और नीतियों के बारे में आकलन करना है, तो इसके लिए उन्हें ट्रंप के अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति के रूप में पिछले कार्यकाल (2017-2021 के बीच) पर नज़र डालनी होगी. हालांकि, एक सच्चाई यह भी है कि राष्ट्रपति ट्रंप के पिछले कार्यकाल के बाद से दुनिया में काफ़ी कुछ बदल चुका है और ट्रंप 2.0 के दौरान अमेरिकी सरकार की नीतियों और पहलों में इसका प्रभाव दिखना लाज़िमी है. निसंदेह तौर पर ट्रंप का नया प्रशासन एक नया दृष्टिकोण अपनाते हुए दुनिया के साथ अमेरिका के रिश्तों की एक नई इबारत लिखेगा. जहां तक हिंद-प्रशांत क्षेत्र की बात है, तो इस महत्वपूर्ण इलाक़े में अमेरिका की ओर से ज़्यादा कुछ बदलाव होने की गुंजाइश तो दिखाई नहीं देती है, लेकिन आर्थिक और सुरक्षा से जुड़े मामलों में व्यापक स्तर पर बदलाव देखने को मिल सकता है. जहां तक आर्थिक मोर्चे पर नए ट्रंप प्रशासन के रुख की बात है, तो इंडो-पैसिफिक में चीन के साथ होड़ में तेज़ी आ सकती है. इसी प्रकार से ट्रंप 2.0 के दौरान हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा को लेकर वाशिंगटन के नज़रिए में बदलाव दिखाई दे सकता है.
राष्ट्रपति ट्रंप के पिछले कार्यकाल के बाद से दुनिया में काफ़ी कुछ बदल चुका है और ट्रंप 2.0 के दौरान अमेरिकी सरकार की नीतियों और पहलों में इसका प्रभाव दिखना लाज़िमी है. निसंदेह तौर पर ट्रंप का नया प्रशासन एक नया दृष्टिकोण अपनाते हुए दुनिया के साथ अमेरिका के रिश्तों की एक नई इबारत लिखेगा.
ट्रंप 1.0 के दौरान हिंद-प्रशांत को लेकर अमेरिकी नीतियों पर एक नज़र
देखा जाए तो राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान हिंद-प्रशांत को लेकर अमेरिका की नीतियों और दृष्टिकोण को नया आकार देने का काम किया था. पहले अमेरिका का ध्यान मुख्य रूप से एशिया-प्रशांत पर केंद्रित था, लेकिन ट्रंप ने अपने पिछले कार्यकाल के दौरान इसे ‘इंडो-पैसिफिक’ पर केंद्रित करने पर ज़ोर दिया और इसमें कामयाबी भी हासिल की. ट्रंप से पूर्व में अमेरिका के राष्ट्रपति रहे बराक ओबामा ने ‘पिवट’ रणनीति के ज़रिए समुद्री सीमा साझा करने वाले एशियाई देशों के साथ वाशिंगटन के रक्षा, आर्थिक और कूटनीतिक रिश्तों को प्रगाढ़ करने की कोशिश की थी. उनकी इस रणनीति को बाद में ‘रीबैलेंस टू एशिया’ स्ट्रैटेजी कहा गया था. इसके काफ़ी बाद वैश्विक नेताओं ने दो महत्वपूर्ण महासागरों यानी हिंद महासागर और प्रशांत महासागर को एक साथ लाने यानी इन महासागरों के तटों पर स्थित देशों के बीच तालमेल स्थापित करने के महत्व को समझा और इसके लिए पुरज़ोर कोशिश शुरू की. ट्रंप प्रशासन ने वर्ष 2018 में हवाई में स्थित यूएस पैसिफिक कमांड (USPACOM) का नाम बदलकर यूएस इंडो-पैसिफिक कमांड (USINDOPACOM) कर दिया था.
ट्रंप ने अपने अभियान के दौरान पिछले कार्यकाल के दौरान उठाए गए क़दमों को आगे बढ़ाने पर ज़ोर दिया है, ज़ाहिर है कि पिछले शासनकाल में ट्रंप सरकार ने जहां अपने सहयोगी और साझीदार देशों पर होने वाले अमेरिकी ख़र्च पर लगाम लगाने पर बल दिया था, वहीं इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में मज़बूत साझेदारियों बनाने की दिशा में भी काफ़ी मेहनत की थी और कहीं न कहीं उसमें सफल भी रही थी. इसके पीछे काफ़ी हद तक चीन के बढ़ते वर्चस्व की वजह से पैदा होने वाले ख़तरों और बीजिंग द्वारा मनमाने तरीक़े से अपने हित में क़दम उठाने के असर को नाक़ाम करना था. ज़ाहिर है कि चीन के प्रभुत्व स्थापित करने वाले रवैये ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के रणनीतिक हितों के सामने ख़तरा पैदा कर दिया था. गौर करने वाली बात यह भी है कि ट्रंप प्रशासन की अगुवाई में ही वर्ष 2017 में क्वाड्रीलेटरल सिक्योरिटी डायलॉग यानी क्वाड समूह के चार देशों ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और अमेरिका के विदेश मंत्रियों की बैठक हुई थी, जिसमें इस क्षेत्र से जुड़े तमाम मसलों पर विस्तृत चर्चा हुई थी. इस बैठक ने ही क्वाड समूह को हिंद-प्रशांत रीजन के रणनीतिक क्षेत्रों में अपना दबदबा स्थापित करने के लिए एक ताक़तवर संगठन के रूप में उभरने का मौक़ा प्रदान किया था.
पिछले कुछ वर्षों के दौरान हिंद-प्रशांत क्षेत्र में काफ़ी परिवर्तन देखने को मिला है और रणनीतिक मोर्चे पर ज़बरदस्त उतार-चढ़ाव वाले हालात रहे हैं. इन बदलते हालातों ने हिंद-प्रशांत में अमेरिका को नई-नई साझेदारियां बनाने के लिए प्रेरित किया है.
पिछले कुछ वर्षों के दौरान हिंद-प्रशांत क्षेत्र में काफ़ी परिवर्तन देखने को मिला है और रणनीतिक मोर्चे पर ज़बरदस्त उतार-चढ़ाव वाले हालात रहे हैं. इन बदलते हालातों ने हिंद-प्रशांत में अमेरिका को नई-नई साझेदारियां बनाने के लिए प्रेरित किया है. अमेरिका ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में क्वाड समूह के ज़रिए अपनी स्थिति मज़बूत करने के अलावा तीन और प्रमुख साझेदारियों को आगे बढ़ाया है, जो कि इस क्षेत्र में अमेरिकी नज़रिए को अमली जामा पहनाने में अहम योगदान दे रही हैं. अमेरिका की ये साझेदारियां हैं: दक्षिण कोरिया और जापान के साथ त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग; अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और फिलीपींस को मिलाकर बना नया स्क्वाड समूह; और AUKUS त्रिपक्षीय पार्टनरशिप, जिसमें ऑस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंगडम (UK) और अमेरिका शामिल हैं. इनमें से अमेरिका-जापान-दक्षिण कोरिया का ट्राइलेटरल का मुख्य मकसद उत्तर कोरिया की तरफ से पैदा होने वाली सुरक्षा चुनौतियों से निपटना है. वहीं हाल ही में अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और फिलीपींस को मिलाकर गठित किए गए स्क्वाड समूह का लक्ष्य दक्षिण चीन सागर में चीन के बढ़ते प्रभुत्व और दख़ल पर लगाम लगाना है. ज़ाहिर है कि दक्षिण चीन सागर में चीन की आक्रामक हरकतों की वजह से समुद्र में अक्सर फिलीपींस और चीन आमने-सामने आ जाते हैं और फिलीपींस को काफी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है. इसी प्रकार से AUKUS त्रिपक्षीय साझेदारी को मुख्य रूप से ऑस्ट्रेलिया को परमाणु ऊर्जा से संचालित पनडुब्बियों की आपूर्ति के लिए बनाया गया है. इसका प्रमुख उद्देश्य उथल-पुथल और अस्थिरता की ओर बढ़ रहे इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में भविष्य में किसी भी टकराव की परिस्थिति को रोकना है. वर्तमान में इस क्षेत्र की भू-राजनीति बहुत तेज़ी के साथ बदल रही है और अब देखने वाली बात यह होगी कि नया ट्रंप प्रशासन इन बदले हुए हालातों के मद्देनज़र अपनी रक्षा और विदेश नीति को किस प्रकार से बदलता है और ताज़ा घटनाक्रमों के साथ कैसे तालमेल बैठाता है. हालांकि, यह सब इस बात पर ज़्यादा निर्भर करेगा कि वाशिंगटन में काबिज होने वाली नई सरकार अपने राष्ट्रीय हितों को पूरा करने के लिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बनाई गई इन महत्वपूर्ण साझेदारियों को कितना कारगर और उपयोगी समझती है.
रणनीतिक होड़ से लेकर रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता तक
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की सरकार ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा का एक मज़बूत तानाबाना बुना है और इसमें कोई शक नहीं है कि नए ट्रंप प्रशासन को सशक्त सुरक्षा इंतज़ाम विरासत में मिलेंगे. हालांकि, इसको लेकर पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है कि बाइडेन प्रशासन में इंडो-पैसिफिक में 'डिप्लोमेसी फर्स्ट' के जिस नज़रिए को आगे बढ़ाया गया और कूटनीति के ज़रिए मुद्दों को समाधान तलाशने पर ज़ोर दिया गया, आने वाले दिनों में ट्रंप प्रशासन भी अमेरिका की इस नीति पर चलेगा या नहीं. शायद इस सवाल का जवाब ही हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका का दृष्टिकोण क्या होगा, कैसे आगे बढ़ेगा इस सबको निर्धारित करेगा. इसके अलावा, इस बात की प्रबल संभावना है कि इंडो-पैसिफिक में अमेरिका की जो भी मिनीलेटरल साझेदारियां हैं, यानी मुद्दों पर आधारित जो भी छोटी साझेदारियां हैं, वो इस पर निर्भर करेंगी कि ट्रंप अपनी लेन-देन संबंधी कूटनीति यानी एक हाथ दो और दूसरे हाथ लो वाली कूटनीति को किस तरह से आगे बढ़ाते हैं. इसके साथ ही, इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि आने वाले दिनों में अमेरिकी विदेश नीति पर ट्रंप की प्राथमिकताओं और हितों की छाप दिखाई देगी. हालांकि, ट्रंप ने जिस प्रकार से अपने दूसरे कार्यकाल के लिए कैबिनेट सहयोगियों की नियुक्ति की है, उसके आधार कहा जा सकता है कि अमेरिका का चीन के साथ ट्रेड वार यानी व्यापार युद्ध तय है. भविष्य में चीन के साथ तय दिखाई दे रहे इस कारोबारी युद्ध का असर अमेरिका की इंडो-पैसिफिक में जुड़ी रणनीतियों पर पड़ना लाज़िमी है. इससे न केवल इस क्षेत्र को लेकर अमेरिकी नज़रिया बदलेगा, बल्कि यहां अमेरिका अलग-अलग देशों के साथ जिन गठबंधनों और साझेदारियों में शामिल है, उनका भविष्य भी इससे प्रभावित होगा. ज़ाहिर तौर पर अगर ऐसा होता है, तो इस इलाक़े में अमेरिका द्वारा सुरक्षा का जो नेटवर्क तैयार किया गया है, उस पर भी इसका असर ज़रूर पड़ेगा. कहने का मतलब है कि ट्रंप प्रशासन द्वारा चीन से जुड़े आर्थिक मसलों का तोड़ निकालने में ध्यान केंद्रित करने की वजह से कहीं न कहीं सुरक्षा से संबंधित अहम मुद्दे दरकिनार हो जाएंगे.
अमेरिका की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है और यह एक ऐसा मसला है, जो ट्रंप 2.0 की कूटनीति पर ज़बरदस्त असर डालेगा. ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान चीन के ख़िलाफ़ जो ट्रेड वार शुरू हुई थी, उम्मीद जताई जा रही है कि वो फिर से शुरू होगी और इसमें तेज़ी भी आएगी. इन हालातों में हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के पारंपरिक सहयोगी देशों को भी अपनी रणनीतियों पर नए सिरे से विचार करना होगा, ताकि उन पर इसकी कोई आंच नहीं आए और वे अपने सुरक्षा हितों को सुनिश्चित कर सकें. ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान पैदा हुए हालातों के मद्देनज़र अमेरिका के ताज़ा चुनावी नतीज़ों ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका की अगुवाई वाले सुरक्षा परिदृश्य का भविष्य कैसा होगा, उसको लेकर तमाम आशंकाओं को जन्म देने का काम किया है. ख़ास तौर पर ट्रंप 2.0 के दौरान इस क्षेत्र के बारे में अमेरिका के नए दृष्टिकोण को लेकर वाशिंगटन के सहयोगी राष्ट्रों की चिंताओं को गहरा कर दिया है. यही वजह है कि आने वाले दिनों में अमेरिका की हिंद-प्रशांत रणनीति के केंद्र में दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का संगठन यानी आसियान होगा कि नहीं, इसके बारे में भी फिलहाल कुछ भी साफ तौर पर कहना मुश्किल है.
ट्रंप 2.0 के दौरान हो सकता है कि हिंद-प्रशांत में नए-नए मिनीलेटरल यानी छोटे-छोटे सहयोग संगठनों में इज़ाफा होने लगे.
इतना ही नहीं, ट्रंप 2.0 के दौरान हो सकता है कि हिंद-प्रशांत में नए-नए मिनीलेटरल यानी छोटे-छोटे सहयोग संगठनों में इज़ाफा होने लगे. अगर भविष्य में वाशिंगटन ख़ास तौर पर इस क्षेत्र में पहले से स्थापित सुरक्षा गठजोड़ों को नज़रंदाज करता है या फिर उन्हें ख़त्म करता है, तो फिर इसकी संभावना और बढ़ जाएगी, साथ ही इस इलाक़े में तेज़ी से उभरते और मध्यम दर्ज़े के देशों को अपने पैर जमाने का मौक़ा मिलेगा. ज़ाहिर है कि ऐसा पहले हो भी चुका है. ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री शिंजो आबे की अगुवाई में जापान ने दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों जैसे क्षेत्रीय हितधारकों को शामिल करने और उनमें भरोसे की भावना बढ़ाने के लिए कंप्रिहेंसिव एंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट फॉर ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (CPTPP) जैसी व्यापार समझौते की पहल को आगे बढ़ाने का काम किया था. इसके साथ ही जापान ने हिंद-प्रशांत में चीन के बढ़ते आर्थिक दख़ल और दबदबे से निपटने के लिए भी क़दम उठाए थे.
निष्कर्ष
उम्मीद जताई जा रही है कि ट्रंप 2.0 का प्रशासन ट्रंप 1.0 की तुलना में चीन के प्रति अधिक आक्रामक रवैया अख़्तियार करेगा. यानी बाइडेन प्रशासन के दौरान चीन के बढ़ते वर्चस्व को थामने के लिए जो एहतियात बरतते हुए क़दम उठाए जा रहे थे, अब नए ट्रंप प्रशासन के दौरान उसमें आक्रामकता आएगी, साथ ही दोनों देशों के बीच टकराव जैसे स्थिति भी पैदा हो सकती है. अमेरिका और चीन के बीच इस तकरार का दायरा हिंद-प्रशांत क्षेत्र में फैलेगा और दोनों के बीच होड़ बढ़ेगी. ज़ाहिर है कि इसका कहीं न कहीं आने वाले दिनों में अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति पर भी असर पड़ेगा और उसके क्षेत्रीय साझीदारों के साथ भविष्य के रिश्ते भी इसी से निर्धारित होंगे. बहरहाल, यह देखना काफी दिलचस्प होगा कि हिंद-प्रशांत में क्षेत्रीय साझेदार देशों के साथ अमेरिका के रिश्तों को आगे बढ़ाने में चीन को लेकर उसकी नीतियां क्या भूमिका निभाएंगी. साथ ही यह देखना बेहद अहम होगा कि जिस तरह से ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान चीन के मुद्दों ने अमेरिकी विदेश नीति को प्रभावित किया था, क्या इस बार भी ऐसा ही कुछ देखने को मिलेगा. इन दोनों में से कोई भी परिस्थिति अगर पैदा होती है, तो यह तय है कि इसका असर इंडो-पैसिफिक पर अवश्य पड़ेगा, साथ ही इन हालातों में क्षेत्रीय सुरक्षा परिदृश्य और आर्थिक तानाबाना पूरी तरह से बदल जाएगा. उदाहरण के तौर पर, उम्मीद है कि अमेरिका आर्थिक मज़बूती के लिए अपनी पहले वाली ट्रेड पॉलिसी यानी निर्यात को बढ़ाने एवं आयात को घटाने पर ध्यान केंद्रित करेगा. अगर ऐसा होता है, तो फिर इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क फॉर प्रॉस्पेरिटी (IPEF) जैसी पहल का वजूद ही समाप्त हो जाएगा. ऐसा होने पर स्वाभाविक रूप से हिंद-प्रशांत रीजन में बीजिंग को अपने पैर फैलाने का अवसर मिलेगा. जहां तक इंडो-पैसिफिक में सुरक्षा का सवाल है, तो ऐसी उम्मीद है कि ट्रंप AUKUS और क्वाड जैसे क्षेत्रीय मिनीलेटरल सुरक्षा समूहों से हाथ नहीं खीचेंगे और इनमें अपनी सक्रिय सहभागिता बनाए रखेंगे. ट्रंप 2.0 के दौरान दुनिया की निगाहें ख़ास तौर से इस पर होंगी कि क्या अमेरिका हिंद-प्रशांत क्षेत्र में नेतृत्वकारी भूमिका के लिए अपनी ओर से कोशिशें करता रहेगा, जिस प्रकार से बाइडेन प्रशासन ने अपने ‘रिलेंटलेस डिप्लोमेसी’ नज़रिए, यानी कूटनीति का उपयोग कर समस्याओं का समाधान तलाशने के लिए निरंतर प्रयास करने की रणनीति के ज़रिए किया था, या फिर नए ट्रंप प्रशासन में अमेरिका हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपने ‘अमेरिका फर्स्ट’ के एजेंडे को आगे बढ़ाएगा.
अभिषेक शर्मा और सायंतन हलदर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम में रिसर्च असिस्टेंट हैं.
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