Author : Rahul Batra

Expert Speak Digital Frontiers
Published on May 07, 2024 Updated 0 Hours ago

अमेरिका और चीन के बीच टिकटॉक को लेकर जो जंग चल रही है, ये मूल्यों का युद्ध नहीं है. टिकटॉक के बहाने भू-राजनीतिक, भू-आर्थिक और भू-तकनीकी के क्षेत्र में वर्चस्व की एक बड़ी जंग लड़ी जा रही है

टिकटॉक को लेकर असमंजस में अमेरिका: भू-राजनीतिक दुविधा में किसके मूल्य, किसका हित?

चाइनीज़ ऐप टिकटॉक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक बार फिर सुर्खियों में हैं. टिकटॉक छोटे-छोटे वीडियो अपलोड करने वाला प्लेटफॉर्म है. मार्च 2024 में अमेरिकी प्रतिनिध सभा ने एक बिल को मंजूरी दी. "अमेरिकी नागरिकों को विदेशी दुश्मन के नियंत्रण से बचानेवाले इस विधेयक को ज़बरदस्त बहुमत से पास किया गया. संक्षेप में कहें तो ये विधेयक अमेरिका में टिकटॉक पर प्रतिबंध लगाने को लेकर था. हालांकि इस विधेयक में ये भी प्रावधान है कि अगर छह महीने के भीतर अमेरिका में टिकटॉक के संचालन का स्वामित्व किसी ऐसी कंपनी को दे दिया जाए, जिसे अमेरिका शत्रु देश नहीं मानता तो फिर उसे प्रतिबंध से छूट दी जा सकती है.

अमेरिकी इतिहास में ये पहली बार हुआ है जब किसी एक कंपनी पर कार्रवाई करने के लिए इस तरह का विधेयक लाया गया. राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी इस कानून पर तुरंत दस्तख़त कर दिए.

अमेरिकी कांग्रेस में चर्चा के बाद अप्रैल में इस विधेयक को एक बार फिर पास किया गया. इस बार स्वामित्व के हस्तांतरण के लिए दी गई छह महीने की छूट को बढ़ाकर नौ महीने कर दिया गया. ये भी प्रावधान किया गया है कि अगर इसे लेकर कुछ प्रगति होती है तो फिर इस छूट को बारह महीने तक बढ़ाया जा सकता है. अमेरिकी सीनेट ने भी इस बिल को मंजूरी दे दी. अमेरिकी इतिहास में ये पहली बार हुआ है जब किसी एक कंपनी पर कार्रवाई करने के लिए इस तरह का विधेयक लाया गया. राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी इस कानून पर तुरंत दस्तख़त कर दिए.



टिकटॉक पर बैन को लेकर दुर्लभ आम सहमति

अमेरिका में ये एक अहम चुनावी साल है. ऐसे में टिकटॉक पर पाबंदी को लेकर डेमोक्रेट और रिपब्लिकन सांसदों के बीच जिस तरह की एकता दिखी, वो अमेरिकी राजनीतिक इतिहास के लिए एक असामान्य घटना है. वो भी तब जब अमेरिका में राजनीति का बेहद ध्रुवीकरण हो चुका है. इस एकता की सबसे बड़ी वजह ये माना जा रहा है कि अमेरिका में सूचना के स्रोत के रूप में टिकटॉक की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती जा रही है, जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा पर ख़तरे की आशंका पैदा हो गई है.

हाल ही में अमेरिकी ख़ुफिया एजेंसी एफबीआई के निदेशक क्रिस्टोफर रे ने इस बात को लेकर चेतावनी दी थी कि टिकटॉक (बाइट डांस) को चीन की सरकार नियंत्रित कर रही है. इससे चीन को अमेरिकी नागरिकों को प्रभावित करने की शक्ति मिल जाएगी. इस प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल "जासूसी के काम" के लिए भी किया जा सकता है. इतना ही नहीं अमेरिकी की राष्ट्रीय ख़ुफिया निदेशक की ख़तरों के आंकलन की सालाना रिपोर्ट में भी ये बात कही गई है कि चीन की सरकार के लगातार दख़ल और मौजूदा रूप में टिकटॉक जैसे प्लेटफ़ॉर्म से लगातार जुड़े रहने से कई ज़ोखिम पैदा हो सकते हैं.

अमेरिकी की राष्ट्रीय ख़ुफिया निदेशक की ख़तरों के आंकलन की सालाना रिपोर्ट में भी ये बात कही गई है कि चीन की सरकार के लगातार दख़ल और मौजूदा रूप में टिकटॉक जैसे प्लेटफ़ॉर्म से लगातार जुड़े रहने से कई ज़ोखिम पैदा हो सकते हैं.


जिस चीज ने टिकटॉक को लेकर अमेरिकी सांसदों के मन में नाराज़गी पैदा की, वो है कुख्यात यूनाइडेट फ्रंट वर्क डिपार्टमेंट (UFWD)के ज़रिए टिकटॉक का चाइनीज़ कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) से करीबी रिश्ता. "यूनाइटेड फ्रंट" चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का ही एक सहयोगी संगठन है, जो विदेश में चीन के नैरेटिव को फैलाने और चीन का प्रभाव बढ़ाने का काम करता है. 1949 में अपने गठन के बाद से ही "यूनाइटेड फ्रंट" ने मीडिया, अकादमिक संस्थाओं, सांस्कृतिक संगठनों, विचारकों के ज़रिए चीन के नैरेटिव को विदेश में फैलाने का काम किया है. 2023 में ऑस्ट्रेलिया की संसद में पेश की गई एक रिपोर्ट में कहा गया कि टिकटॉक की मूल कंपनी बाइट डांस के कई सीनियर एग्जीक्यूटिव यूनाइटेड फ्रंट के सदस्य हैं.

इसके अलावा 2017 में चीन में बने एक कानून ने भी विदेशी सरकारों और कंपनियों की चिंता बढ़ाने का काम किया है. चीन के इसराष्ट्रीय ख़ुफिया कानूनके आर्टिकल 7 में कहा गया है कि हर चीनी नागरिक और कंपनी को ख़ुफिया काम में सरकार की मदद करनी चाहिए. उसका सहयोग करना चाहिए और जो ऐसा करेगा, चीन उसकी 'सुरक्षा' की जिम्मेदारी लेगा.

इस संदर्भ में देखें तो अमेरिका ने टिकटॉक पर प्रतिबंध लगाने का फैसला सिर्फ इसलिए नहीं किया है कि अमेरिकी नागरिकों का डेटा चीन की सरकार की पहुंच में है. इंटरनेट के इस साइड इफेक्ट के बारे में तो लोग पहले से जानते हैं. टिकटॉक पर पाबंदी लगाने के पीछे एक वजह ये भी है कि चीन टिकटॉक पर उन सारी सूचनाओं और नैरेटिव को सेंसर कर देता है, जो उसके पक्ष में नहीं होती. जैसे कि हांगकांग, ज़ियानजिंग, तिब्बत के अलावा चीन की अर्थव्यवस्था और वहां की सरकार से जुड़ी जानकारी को टिकटॉक पर चीन सेंसर कर देता है. इसके विपरीत जो रिपोर्ट्स या सूचनाएं चीन के पक्ष में होती हैं, ऐसी सूचनाओं का प्रोपेगैंडा करने में, उसके ज़रिए जनमत का प्रभावित करने के नैरेटिव का चीन प्रचार और प्रसार करता है.



लोकतांत्रिक मूल्य बनाम निरंकुश हित?

अगर अमेरिकी सीनेट की इस कार्रवाई को छोड़ भी दें, तब भी ये कहा जा सकता है कि टिकटॉक का इतिहास विवादास्पद रहा है. भारत में टिकटॉक के करीब 20 करोड़ उपयोगकर्ता थे, फिर भी इससे पैदा होने वाले ख़तरों की वजह से भारत ने जून 2020 में टिकटॉक पर बैन लगा दिया. अगले पांच साल में फ्रांस, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और यूरोपीयन यूनियन (EU) के कई सदस्य देशों के अलावा करीब 50 देशों ने टिकटॉक पर प्रतिबंध लगा दिया.

भारत तो जून 2020 में गलवान घाटी में झड़प के बाद से ही एक तरह से सीमा विवाद को लेकर चीन के साथ संघर्ष की स्थिति में है. लेकिन अमेरिका का अभी तक चीन के साथ किसी तरह का 'सक्रिय संघर्ष' नहीं है. ऐसे में सवाल है कि अमेरिका में टिकटॉक पर बैन क्यों लगाया जा रहा है. अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने जब विश्व व्यापार संगठन (WTO) में चीन का स्वागत किया था, तब क्लिंटन ने अमेरिका और चीन के बीच बेहतर रिश्ते बनाने की बात कही थी. क्लिंटन ने कहा था कि "पहली बार अमेरिकी कंपनियां अपने उन उत्पादों को चीन में बेच पाएंगी, जिनका निर्माण अमेरिकी कर्मचारियों ने किया है. अमेरिकी कंपनियों पर ये दबाव नहीं डाला जाएगा वो अपना उत्पादन चीन में करें. पहली बार हम अपनी तकनीकी का चीन की सरकार की मदद से वहां हस्तांतरण कर पाएंगे. पहली बार हम चीन को नौकरियों का निर्यात करने की बजाए अपने उत्पादों का निर्यात कर पाएंगे". लेकिन हक़ीकत में उसका उल्टा हुआ. अमेरिका और चीन में अब वर्चस्व और खुद को सर्वश्रेष्ठ दिखाने की जंग शुरू हो गई है. दुनिया का भू-राजनीतिक, भू-आर्थिक और भू-तकनीकी परिदृश्य काफी हद तक बदल गया है. इसके पीछे चीन की बड़ी भूमिका है. चीन का जिस तेज़ी से और जितने बड़े पैमाने पर आर्थिक और भू-राजनीतिक विकास हुआ है, उसने अमेरिका के प्रभुत्व को चुनौती दी है.

अमेरिका और चीन में अब वर्चस्व और खुद को सर्वश्रेष्ठ दिखाने की जंग शुरू हो गई है. दुनिया का भू-राजनीतिक, भू-आर्थिक और भू-तकनीकी परिदृश्य काफी हद तक बदल गया है. 


भू-तकनीकी के मुद्दे पर चीन और अमेरिका के बीच पहला विवाद तब शुरू हुआ जब 2010 की शुरुआत में चीन ने अमेरिकी सर्च इंजन गूगल को अपने क्षेत्र में काम करने की मंजूरी नहीं दी. इसके बाद चीन ने दुनिया भर में मशहूर फेसबुक, अमेज़ॉन, ट्विटर, विकिपीडिया और न्यूयॉर्क टाइम्स अख़बार को भी अपने यहां प्रतिबंधित कर दिया. इसके बाद आखिरकार ट्रंप प्रशासन के वक्त अमेरिका ने भी प्रतिक्रिया दी और 2019 में चीन की बड़ी दूरसंचार कंपनीहुआवेईके अमेरिका में काम करने पर पाबंदी लगा दी. फिलहाल जो "टिकटॉक वॉर" चल रही है, वो इन दो महाशक्तियों के बीच जंग को एक अलग स्तर पर लेकर जा रही है.


सुरक्षा ज़ोखिमों से आगे : लेन-देन और दूसरे विकल्प

कई विश्लेषकों का मानना है कि टिकटॉक को लेकर जो विवाद चल रहा है, वो अमेरिका के लोकतांत्रिक मूल्यों और चीन की निरंकुश सत्ता के बीच की जंग है. हालांकि कई विशेषज्ञों का ये भी मानना है कि ये प्रतिबंध अभिव्यक्ति की आज़ादी के ख़िलाफ होगा. इससे विदेशों में अधिकारवादी सेंसरशिप और मज़बूत होगी. लेकिन असलियत ये है कि चीन और अमेरिका के बीच टिकटॉक को लेकर चल रही जंग का लोकतांत्रिक मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं है. जैसे कि पहले बताया जा चुका है कि टिकटॉक के बहाने भू-राजनीतिक, भू-आर्थिक और भू-तकनीकी स्तर पर प्रभुत्व की एक बड़ी जंग लड़ी जा रही है.

अगर विशुद्ध तकनीकी और आर्थिक नज़रिए से देखें तो टिकटॉक की सबसे बड़ी ताकत इसका 'कोर रिकमंडेशन इंजन' है. मॉर्डन एल्गोरिदम, कई साल के प्रशिक्षण और विशाल डेटा के दम पर इसने ये मुकाम हासिल किया है. ऐसे में सवाल है कि क्या चीन दुनियाभर में अपनी सबसे लोकप्रिय डिजिटल संपत्ति को भू-तकनीकी के क्षेत्र में अपने सबसे बड़े विरोधी यानी अमेरिका के हाथों बिक जाने देगा. आर्थिक तौर पर टिकटॉक का मूल्यांकन 100 अरब डॉलर किया गया है. इतनी बड़ी रकम किसी को भी ललचा सकती है, लेकिन ऐसा लगता है कि चीन की इस बेहद कामयाब तकनीकी की असली कीमत इससे कहीं ज़्यादा है.

अगर भविष्य की ओर देखें तो टिकटॉक पर बैन लगाने का तकनीकी, यहां तक की कानूनी मामला भी एक ऐसा मुद्दा बन गया है, जिसे लेकर उदार लोकतंत्र माने जाने वाले देश भी लगातर अपना लक्ष्य बदल रहे हैं.


अब सवाल है कि क्या टिकटॉक (और चीन भी) इस प्रतिबंध को स्वीकार कर लेगा. चीन की बहुचर्चित 'थ्री वॉरफेयर स्ट्रैटजी' (TWS) को देखें तो ये लगता है कि टिकटॉक तीसरा विकल्प चुनेगा. एक तरफ वो "या तो बेचो या प्रतिबंध का सामना करो" के अमेरिकी सीनेट के फैसले को कोर्ट में चुनौती देगा. दूसरी तरफ वो इस प्लेटफ़ॉर्म के पक्ष में नैरेटिव बनाने की कोशिश करता रहेगा.

अगर ये केस कोर्ट में जाता है तो फिर अमेरिकी अदालत इस बात पर भी विचार करेंगी कि टिकटॉक के 170 मिलियन सक्रिय उपयोगकर्ता हैं. ऑक्सफोर्ड इकोनॉमिक्स स्टडी के मुताबिक टिकटॉक से 224,000 लोगों की नौकरी, 7 मिलियन व्यवसाय जुड़े हैं. जीडीपी में इसका योगदान 24.2 अरब डॉलर का है.

इसके अलावा टिकटॉक की किस्मत इस बात पर ही निर्भर करेगी कि अमेरिका के राजनीतिक परिदृश्य में क्या बदलाव आते हैं. हो सकता है 2025 की शुरुआत में जब नए अमेरिकी राष्ट्रपति सत्ता संभालें तो वो इस फैसले को पलट दें. डोनाल्ड ट्रंप 2020 से ही टिकटॉक पर प्रतिबंध लगाने की मांग करते रहे हैं लेकिन जिस तरह फेसबुक ने ट्रंप को अपने प्लेटफ़ॉर्म से बैन किया, उसके बाद टिकटॉक को लेकर ट्रंप का रुख बदल गया. राष्ट्रपति बाइडेन ने भले ही अमेरिकी कांग्रेस में टिकटॉक पर बैन लगाने के विधेयक को पास करवा दिया हो, लेकिन ये भी हक़ीकत है कि टिकटॉक के ज़रिए वो अपने दोबारा चुनावी प्रचार के दौरान युवा दर्शकों तक पहुंचे हैं.

अगर भविष्य की ओर देखें तो टिकटॉक पर बैन लगाने का तकनीकी, यहां तक की कानूनी मामला भी एक ऐसा मुद्दा बन गया है, जिसे लेकर उदार लोकतंत्र माने जाने वाले देश भी लगातर अपना लक्ष्य बदल रहे हैं. 'दुनिया की फैक्ट्री' का जो आर्थिक विचार था, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि टिकटॉक पर बैन का फैसला उस विचार के विपरीत दिशा में जा रहा है. लेकिन ये भी एक हक़ीकत है कि चीन जिस तरह इन लोकतांत्रिक देशों के ख़िलाफ अपना साइबर युद्ध बढ़ाता जा रहा है, जैसा कि हमने 2021 में ब्रिटिश चुनाव आयोग की हैकिंग में देखा और जिस तरह 2024 में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में दख़ल को लेकर चेतावनी दी जा रही है, उसे देखते हुए ये लगता है कि टिकटॉक पर बैन लगाने के फैसले में राजनीतिक पहलू भी शामिल होगा.


राहुल बत्रा एक भू-राजनीतिक विश्लेषक हैं. उनके पास डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म और उसका अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर पड़ने वाले असर पर अध्ययन का व्यापक अनुभव है.

 

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